Sunday, July 25, 2010

व्‍यवस्‍था परिवर्तन करो और भ्रष्‍टाचार से मुक्ति पाओ

लगभग 15 वर्ष पूर्व की बात होगी जब दो-तीन सांसदों के पास नोटों से भरे ब्रीफकेस प्राप्‍त हुए थे। जब उनपर कानून का शिकंजा कसने की बात आयी थी तब उन्‍होंने कहा था कि हम सांसद हैं और हमपर कार्यवाही नहीं की जा सकती। इस खबर को पढ़कर मैं चौंक गयी थी। हम कितने भी शिक्षित हो जाएं लेकिन हमारी शिक्षा केवल अपने कार्य क्षेत्र से ही जुड़ी होती है और इस कारण आम जनता को नहीं मालूम की हमारे यहाँ कानून व्‍यवस्‍था क्‍या है? तब मैंने सरसरी तौर पर इस कानून को जानने की कोशिश की। मैं सरसरी तौर पर इसलिए लिख रही हूँ कि मैंने कानून की पढ़ाई नहीं की बस बुद्धि का प्रयोग करते हुए थोड़ी बहुत जानकारी एकत्र की, इसलिए देश का प्रत्‍येक नागरिक थोडी सी जागरूकता रखते हुए बहुत सारी जानकारी प्राप्‍त कर सकता है।

इस देश में अंग्रेजों ने कई कानून बनाए। चूंकि वे राजा थे और हम प्रजा, इसलिए उन्‍होंने ऐसे कानून बनाए जिससे राजा सुरक्षित रहे और प्रजा को कभी भी सींखचों के अन्‍दर किया जा सके। दुर्भाग्‍य से आज तक हमारे देश में वही कानून लागू हैं। कानून के अन्‍तर्गत राजनेता और नौकरशाहों [bureaucracy ] पर सीधी कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इसके लिए उनके शीर्ष अधिकारी की सहमति आवश्‍यक है। जैसे एक इंजिनियर के ऊपर आरोप लगे तो उसके चीफ इंजिनीयर की सहमति के बाद ही उस पर कार्यवाही होगी। इसी प्रकार सांसद member of parliament  या मंत्री पर मुख्‍यमंत्री या प्रधान मंत्री की सहमति आवश्‍यक है। इस कारण कोई भी राजनेता और नौकरशाह सजा नहीं पाते और खुलकर भ्रष्‍टाचार करते हैं।

इस कारण देश में लोकपाल विधेयक की बात आयी। इसके अन्‍तर्गत इन लोगों पर सीधी कार्यवाही की जा सकती थी लेकिन इसके दायरे में प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति को मुक्‍त रखा गया। यह कानून पास नहीं होने दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधान मंत्री थे तब उन्‍होंने कानून के दायरे में प्रधान मंत्री को भी सम्मिलित कराया लेकिन विधेयक पास नहीं हो पाया। अब्‍दुल कलाम जब राष्‍ट्रपति बने तब उन्‍होंने कहा कि राष्‍ट्रपति भी विधेयक के दायरे में आने चाहिए लेकिन विधेयक फिर भी पास नहीं हुआ। इसलिए आज आवश्‍यकता है कि सर्वप्रथम लोकपाल विधेयक पारित हो जिससे रातनेता और नौकरशाहों पर सीधी कार्यवाही हो सके। इसलिए मैंने एक टिप्‍पणी में लिखा था कि जिस दिन हमारा कानून बदल जाएगा उस दिन भ्रष्‍टाचार कपूर की तरह उड़ जाएगा।

भ्रष्‍टाचार का दूसरा बड़ा कारण है विलम्बित न्‍याय व्‍यवस्‍था। इसके लिए भी अंग्रेजों का कानून ही आड़े आ रहा है। पूर्व में हमारे यहाँ ग्रामीण पंचायती कानून था, और व्‍यक्ति को अविलम्‍ब न्‍याय मिलता था लेकिन इस व्‍यवस्‍था को समाप्‍त कर न्‍यायालयों की स्‍थापना की गयी। जहाँ आज लाखों केस बरसों से प्रतीक्षारत हैं। इसलिए इस कानून में बदलाव कर पुन: पंचायती राज की स्‍थापना करनी चाहिए और लम्बित प्रकरणों को शिविर लगाकर समाप्‍त करना चाहिए। इसके लिए जनता को ही दवाब बनाना होगा। हम जागरूकता का प्रसार करें। जिस दिन जनता को भ्रष्‍टाचार का मूल कारण समझ आ गया उस दिन से भ्रष्‍टाचार समाप्‍त होना प्रारम्‍भ हो जाएगा। अभी हम समझते हैं कि हमारा कानून पुख्‍ता है और भ्रष्‍ट लोगों को निश्चित रूप से सजा होगी, लेकिन यह हमारी भूल है। मैं इसलिए अंग्रेजों का जिक्र करती हूँ कि उन्‍होंने हमारे यहाँ जो व्‍यवस्‍थाएं स्‍थापित की वे भारत के विपरीत थी। मैं आत्‍म-मुग्‍ध भी नहीं हूँ बस इतना जानती हूँ कि जो निरापद व्‍यवस्‍थाएं हमारी थी उन्‍हें हम पुन: लागू करवाएं। व्‍यवस्‍था में परिवर्तन ही हमारी समस्‍याओं का हल है।

Wednesday, July 21, 2010

पता नहीं हम अपने देश भारत से नफरत क्‍यों करते हैं?

 एक सुन्‍दर राजकुमार था, उससे विवाह करने के लिए देश-विदेश की राजकुमारियां लालायित रहती थीं। एक दिन एक विदेशी राजकुमारी ने उस राजकुमार से विवाह कर लिया। राजकुमारी ने उसे लूटना शुरू किया और धीरे-धीरे वह राजकुमार जीर्ण-शीर्ण हो गया। राजकुमारी छोड़ कर चले गयी और राजकुमार अनेक रोगों से ग्रसित हो गया। अब उसे कोई प्‍यार नहीं करता, बस सब नफरत ही करते हैं और उससे दूर कैसे रहा जाए, बस इसी बारे में चिन्‍तन करते हैं। इस राजकुमार को हम भारत मान लें और राजकुमारी को इंग्‍लैण्‍ड। कल तक भारत एक राजकुमार था तो उसे लूटने कई राजवंश चले आए और आज जब लुटा-पिटा शेष रह गया है तब उसके अपने भी उससे नफरत कर रहे हैं?


अभी एक किताब पढ़ी थी, पढ़ी क्‍या थी बस कुछ पन्‍ने पलटे थे। Indian Summer: The Secret History of the End of an Empire - Alex Von Tunzelmann इस पुस्‍तक का प्रारम्‍भ जिन शब्‍दों में किया गया है उसका भावार्थ कुछ ऐसा है – 1577 में जब इंग्‍लेण्‍ड की गद्दी पर महारानी ऐलिजाबेथ बैठी उस समय दुनिया में दो ही देश थे, एक देश था एकदम असभ्‍य, अविकसित और धार्मिक उन्‍माद से ग्रस्‍त और वह देश था इंग्‍लैण्‍ड। दूसरा देश था पूर्ण समृद्ध, विकसित और धार्मिक सहिष्‍णुता से परिपूर्ण। यह देश था भारत। इस कारण महारानी एलिजाबेथ ने ईस्‍ट इण्डिया कम्‍पनी बनायी और भारत के साथ व्‍यापार करने को कहा। तब तक वास्‍कोडिगामा 1498 में भारत की खोज कर चुका था और यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बता चुका था।

भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अति विकसित कु‍टी उद्योग थे, यहाँ की रेशम दुनिया में जाती थी। मेरे पास इसके भी ढेर सारे आँकड़े है कि उस समय हम कितना उत्‍पादन करते थे। लेकिन मैं केवल यह कहना चाह रही हूँ कि इस देश को 250 वर्षों तक अंग्रेजों ने बेदर्दी से लूटा और लूटा ही नहीं हमारे सारे उद्योग धंधों को चौपट किया, हमारी शिक्षा पद्धति, चिकित्‍सा पद्धति, न्‍याय व्‍यवस्‍था, पंचायती राज व्‍यस्‍था आदि को आमूल-चूल नष्‍ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना लूटने के बाद भी स्‍वतंत्रता के समय हमारे पास अपना कहने को बहुत कुछ था। लेकिन दुर्भाग्‍य से हमने उन सबको नजर अंदाज किया और शासन में अंग्रेजों के स्‍थान पर स्‍वयं को आसीन कर लिया। बस और कोई परिवर्तन नहीं। अपनी प्रत्‍येक पद्धति को गाली देना हमारा ध्‍येय बन गया और पश्चिम की प्रत्‍येक वस्‍तु को अपनाना फैशन बन गया।

आज कुछ पोस्‍ट पढ़ने को मिली, जैसे दिव्‍या की एक पोस्‍ट थी - श्रेष्ठ चिकित्सक कौन?": इस पोस्‍ट में एक भारतीय चिकित्‍सक का दर्द निकलकर आता है। एक अन्‍य पोस्‍ट थी - 'आई हेट पॉलिटिक्स' मगर क्यों...?": रवीश कुमार जी की एक पोस्‍ट थी - बारिश एक भयंकर इमेज संकट से गुज़र रही है": इन सारी ही पोस्‍टों में भारत के लिए चिन्‍ता हैं। दिव्‍या स्‍वयं एक चिकित्‍सक हैं और वे इस बात से दुखी हैं कि लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि तुम ऐलोपेथी की चिकित्‍सक होने के बाद भी आयुर्वेद और होम्‍योपेथ की वकालात क्‍यों कर रही हो? रवीशजी स्‍वयं एक मीडियाकर्मी हैं लेकिन उनका दर्द है कि आज मीडिया बरसात को भी विलेन बनाने पर तुला है। ऐसे ही राजनीति को भ्रष्‍ट बताकर श्रेष्‍ठ युवा पीढ़ी को राजनीति से दूर किया जा रहा है।

ऐसा लगता है कि हमारे स्‍वाभिमान को सोच-समझकर नष्‍ट करने का प्रयास किया जा रहा है। कोई राजनीति से घृणा करना सिखा रहा है तो कोई मीडिया से। कोई हमारी शिक्षा पद्धति को खराब बता रहा है तो कोई बारिश से ही बेहाल हो रहा है। हमारी चिकित्‍सा प्रणाली को तो कूड़े के ढेर में डालने की पूरी कोशिश है। इसलिए आप सभी के चिंतन का विषय है कि क्‍या भारत को हम उस राजकुमार की तरह त्‍याग दें या फिर उसे पुन: स्‍वस्‍थ और सुंदर बनाने में सहयोगी बने।

Friday, July 16, 2010

आखिर हम ब्‍लाग पर क्‍यों लिखते हैं?

आखिर हम ब्‍लाग पर क्‍यों लिखते हैं? कभी आपने यह प्रश्‍न अपने मन से किया? एक ऐसा ही दूसरा प्रश्‍न है कि हम ब्‍लाग पर क्‍या पढ़ते हैं? यह दूसरा प्रश्‍न बहुत ही आसान है। सभी कहेंगे कि हम अपने मन के विषय पढ़ते हैं। आज ब्‍लाग जगत में असीमित लिखा जा रहा है। हिन्‍दी ब्‍लाग भी हजारों की संख्‍या में हैं। लेखन की सारी ही विधाओं में लिखा जा रहा है। ब्‍लाग आने से पहले हम सभी लिखते थे और अपनी रचना को किसी भी मंच पर सुनाने की आकांक्षा भी रखते थे। इसलिए ही प्रत्‍येक शहर में कई साहित्यिक संस्‍थाओं का जन्‍म हुआ। यहाँ प्रति सप्‍ताह या प्रति माह रचनाकर्मी एकसाथ बैठते हैं और अपनी रचनाओं को सुनाते हैं। इसके पहले कॉफी हाउस हुआ करते थे, जहाँ साहित्‍यकार नियमित रूप से एकत्र होते थे और विभिन्‍न रचनाओं पर चर्चा करते थे। आज का जमाना ब्‍लाग का आ गया है। लेखन वहीं खड़ा है लेकिन उसके श्रोताओं या पाठकों का स्‍थान बदल गया है।

मुझे नवीन विचारों को पढ़ना रुचिकर लगता है। इसकारण ब्‍लाग पर नवीनता को खोजने का क्रम भी चलता रहता है। कई बार बड़े अच्‍छे ब्‍लाग पर खोज-यात्रा टिक जाती है लेकिन जब टिप्‍पणी करने के लिए पोस्‍ट कमेण्‍ट के कॉलम पर जाती हूँ तो वहाँ किसी अन्‍य की टिप्‍पणी ही नहीं होती है। मेरी टिप्‍पणी पहली और आखिरी ही होती है। ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। तब मन में विचार आता है कि आखिर हम लिखते क्‍यों हैं? अपने लिखे को पढ़वाने के लिए कुछ तो परिश्रम करिए, क्‍योंकि इस ब्‍लाग-जगत में आप भी नए हैं और अन्‍य भी नए हैं। ऐसा नहीं है कि सीधे ही गुलजार जैसे व्‍यक्तित्‍व ने ब्‍लाग प्रारम्‍भ किया हो और लोग दौड़कर उनका स्‍वागत करेंगे। आप परिश्रम कर रहे हैं, समाज को श्रेष्‍ठ विचार दे रहे हैं तो उसके लिए कुछ तो प्रचार करिए। नहीं तो ब्‍लाग लिखने का मकसद ही अधूरा रह जाएगा। आपने किसी समस्‍या को अच्‍छी प्रकार से उठाया लेकिन आपको उसके समर्थक ही नहीं मिले तो क्‍या फायदा? इसलिए प्रारम्‍भ में मैं परिश्रम करना ही पड़ेगा। जब लोगों को समझ आने लगेगा कि आपके विचार श्रेष्‍ठ है तो वे अपने आप ही आपके ब्‍लाग पर आएंगे।

वैसे यह पोस्‍ट मैं जिन लोगों के लिए लिख रही हूँ, वे इस पोस्‍ट को पढेंगे नहीं। क्‍योंकि वे तो बस इतना कर रहे हैं कि अपनी बात लिख रहे हैं और खुश हो जाते हैं, कभी भूले से भी उस एकमात्र टिप्‍पणीकार के ब्‍लाग पर भी नहीं जाते। तो मुझे लगता है कि हमें एक प्रयोग करना चाहिए कि ऐसे लोगों को यह टिप्‍पणी भी करें कि आपके विचार श्रेष्‍ठ हैं लेकिन इनके प्रचार के लिए प्रारम्भिक परिश्रम आवश्‍यक है और इसलिए आप अपने सम-विचारकों के ब्‍लाग पर भी जाएं जिससे आपके ब्‍लाग के पाठक बढ़ सके नहीं तो आपका परिश्रम बेकार ही जा रहा है। ऐसे ही कुछ नवीन ब्‍लागर भी हैं जो हमेशा टिप्‍पणी नहीं मिलने से दुखी रहते हैं लेकिन स्‍वयं दूसरों के ब्‍लाग पर नहीं जाते। इसलिए ब्‍लाग लिखना केवल टिप्‍पणी प्राप्‍त करने का ही खेल नहीं है अपितु अच्‍छी रचनाओं को सांझा करने का मंच है। इसलिए ही इतने लोग परिश्रम करके ब्‍लाग-चर्चा करते हैं। कई बार ब्‍लाग-चर्चा में भी अच्‍छी पोस्‍ट छूट जाती है, उसके लिए भी हम यह कर सकते हैं कि जब हम किसी भी ब्‍लाग पर टिप्‍पणी कर रहे होते हैं तब उस पोस्‍ट का भी जिक्र कर दें जिससे लोग उसे पढ़ने के लिए उत्‍सुक हो सके। क्‍योंकि कई बार अच्‍छी पोस्‍ट निगाह से निकल जाती है। इसलिए हम सब मिलकर अच्‍छे विचारों का स्‍वागत करें और उन्‍हें विस्‍तार देने का प्रयास भी।

Wednesday, July 14, 2010

स्‍पष्‍ट लिखने वालों के पाठक होते हैं और जो अस्‍पष्‍ट लिखते हैं. . .

आज सुबह समाचार पत्र के पन्‍ने पलटते हुए एक वाक्‍य पर दृष्टि अटक गयी। ब्‍लाग जगत के लिए मुझे सटीक उक्ति लगी तो तुरन्‍त नोट कर ली गयी। लीजिए मैं अपनी बात एकदम स्‍पष्‍ट रूप से ही लिखूंगी, कोई घुमाव नहीं। तो पहले उक्ति ही पढ़ लीजिए –

AMERICA  के 16वें राष्‍ट्रपति [ PRESIDENT] अब्राहम लिंकन ने कहा था कि स्‍पष्‍ट लिखने वालों के पाठक होते हैं और जो अस्‍पष्‍ट लिखते हैं उन पर टिप्‍पणी करने वाले होते हैं। - राजस्‍थान पत्रिका - दिनांक 14 जुलाई 2010

मुझे कई बार लगता है कि आज के लेखक के पास सिवाय बंदिशों के और कुछ नहीं है। राजनैतिक क्षेत्र के बारे में कुछ लिखेगा तब उस पर यह आरोप लग जाएगा कि यह फला विचारधारा का है और जिन्‍हें भी अपनी विचारधारा से विपरीत बात लगेगी तो वे उसपर आक्रमण सा कर देंगे। इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्र में तो इतने व्‍यवधान है जैसे एक बाधा दौड़ के धावक को बाधाएं पार करनी होती हैं वैसे ही बेचारे लेखक को बाधाओं से गुजरना पड़ता है। अब वह स्‍पष्‍ट कैसे लिखे? मैं भी इस विषय पर गोलमाल ही करने वाली हूँ। किसी धर्म की आलोचना आप नहीं कर सकते। किसी सम्‍प्रदाय के बारे में नहीं लिख सकते। बहुत सारे ऐसे शब्‍द हैं जिनका प्रयोग नहीं कर सकते। गांधी जी ने एक शब्‍द दिया “हरिजन” आज उसका प्रयोग नहीं कर सकते। ऐसे ही कितनी बाधाएं हैं जिसे लेखक को पार करनी होती है। कुछ बेचारे तो नए-नए भी होते हैं और उन्‍हें मालूम ही नहीं होता कि इन शब्‍दों का परहेज रखना है। एक और बड़ी समस्‍या मुझे दिखायी देती है कि केवल गरीब, महिला, दलित ही शोषित होते हैं, आप इनपर जी भरकर लिखिए। लेकिन यदि किसी अमीर, पुरुष, सवर्ण के शोषण के बारे में लिख दिया तो फिर आपकी शामत आ जाएगी। मैं देख रही हूँ कि गृहकार्य करने वाले सफाई कर्मचारियों की आज देश में बहुत बड़ी समस्‍या खड़ी है, उनकी मनमानी से पीड़ित लाखों लोग हैं लेकिन क्‍या किसी की हिम्‍मत है जो उनके बारे में लिख दे? सब यही लिखेंगे कि अमीर लोग ही उनका शोषण करते हैं।
तो आप बताइए, कैसे कोई स्‍पष्‍ट लिखे? अब्राहम लिंकन तो बोल गए लेकिन उन्‍होंने आधुनिक भारत की कल्‍पना नहीं की होगी। यहाँ सारा ही सामाजिक लेखन झूठ का पुलिन्‍दा है। जहाँ एकतरफा शोषण की बात लिखी जाती है। महिलाओं के बारे में इतना लिखा जाता है कि मेरी तो दृष्टि ही बदल गयी है। अब मैं जिस भी घर में जाती हूँ या जिस भी महिला से मिलती हूँ उसे बहुत देर परखती हूँ कि वह कितनी शोषित है। कुछ ही देर में उसकी दहाड़ने जैसी आवाज सुनायी देती है और बेचारे पुरुष की मिमियाती आवाज। लेकिन तुर्रा तो यही है कि बेचारी महिला शोषित है। पुरुषों को भी ऐसा लिखने में आनन्‍द आने लगा है क्‍योंकि एक तो ऐसा लिखने से उनका सच सामने नहीं आता फिर वे भी प्रगतिवादी कहलाने लगते हैं कि हमने महिला शोषण के खिलाफ लिखा। तो भाई अब आप देखे कि जिसके भी ब्‍लाग पर ज्‍यादा टिप्‍पणी आ रही हैं वे सब अस्‍पष्‍ट लिख रहे हैं, यह मैं नहीं कह रही, अब्राहम लिंकन कहकर गए हैं। मेरे ऊपर शस्‍त्रों का प्रयोग मत करना। मैं तो स्‍पष्‍ट लिखने का प्रयास कर रही हूँ जिससे इस पोस्‍ट के पाठक उपलब्‍ध हों। इस गम्‍भीर विषय पर चिंतन करिए कि हम समाज और देश की कैसी छवि प्रस्‍तुत कर रहे हैं?

Saturday, July 10, 2010

अमेरिका में घरेलू उपाय और आयुर्वेद का परामर्श देते हैं वहाँ के चिकित्‍सक

अमेरिका में रहते हुए थोड़ी तबियत खराब हो गयी, सोचा गया कि डॉक्‍टर को दिखा दिया जाए। भारत से चले थे तब इन्‍शोयरेन्‍स भी करा लिया था लेकिन अमेरिका आने के बाद पता लगा कि इस इन्‍श्‍योरेन्‍स का कोई मतलब नहीं, बेकार ही पैसा पानी में डालना है। मेरा भानजा भी वहीं रेजिडेन्‍सी कर रहा है तो उसी से पूछ लिया कि क्‍या करना चाहिए। उसने बताया कि भारत में जैसे एमबीबीएस होते हैं वैसे ही यहाँ एमडी होते हैं। वे सब प्राइमरी हेल्‍थ केयर के चिकित्‍सक होते हैं। अर्थात आपको कोई भी बीमारी हो पहले इन्‍हीं के पास जाना पड़ता है। वे आपका परीक्षण करेंगे और यदि बीमारी छोटी-मोटी है तो वे ही चिकित्‍सा भी करेंगे और यदि उन्‍हें लगेगा कि बीमारी किसी विशेषज्ञ को दिखाने जैसी है तो फिर रोगी को रेफर किया जाएगा।

मैंने भी ऐसे ही प्राइमरी हेल्‍थ केयर में दिखाया और पाया कि कोई रोग नहीं है, बस सफर के कारण ही हो रहा है। कुछ ही दिनों में मेरी बहु के कान में दर्द हो गया, वह भी प्राइमरी हेल्‍थ केयर पर ही गयी और वहीं के डॉक्‍टर ने कान की सफाई कर दी। किसी भी कान के विशेषज्ञ ने उसे नहीं देखा। पोते को बुखार आया तो डॉक्‍टर ने कह दिया कि तीन दिन भी बुखार नहीं उतरे तो आना, नहीं तो बस पेरासिटेमोल सीरप ही देते रहो।

भारत में बेचारा MBBS गरीबों का डॉक्‍टर बनकर रह गया है। जिसके पास भी नाम मात्र को भी पैसा है वह किसी न किसी विशेषज्ञ के पास ही चिकित्‍सा कराता है। इसकारण जहाँ पोस्‍ट ग्रेजुएशन करने के लिए लाइन लगी रहती है वहीं एमबीबीएस की कोई पूछ नहीं होती। मजेदार बात यह है कि अमेरिका में रह रहे नागरिक भी जब भारत आते हैं तो इन्‍हीं विशेषज्ञों के पास भागते हैं, वे कभी भी छोटी-मोटी, सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियों के लिए एमबीबीएस के पास नहीं जाते और ना ही छोटे अस्‍पतालों में जाते हैं। प्राइमरी हेल्‍थ केयर के चिकित्‍सक रोगी की सम्‍पूर्ण चिकित्‍सा करते हैं और साथ ही आयुर्वेद की चिकित्‍सा करने के लिए भी अधिकृत होते हैं। भारत में हम बच्‍चों की चिकित्‍सा के लिए बड़े चिंतित रहते हैं जबकि वहाँ पाँच साल के बच्‍चों के लिए सभी प्रकार की दवाइयों पर प्रतिबंध है। केवल पेरासिटेमोल सीरप ही उन्‍हें दी जाती है। इन्‍फेक्‍शन होने पर ही एण्‍टी बायटिक्‍स का प्रयोग किया जाता है। कोशिश यही रहती है कि ज्‍यादा से ज्‍यादा घरेलू चिकित्‍सा की जाए। वहाँ आयुर्वेद की रिसर्च पर सर्वाधिक पैसा खर्च किया जा रहा है और आम चिकित्‍सक जीवन-शैली में बदलाव की ही वकालात करता है। जबकि भारत में आयुर्वेद को झाड-फूंक के समान मान लिया गया है। मेरी भतीजी भी वहाँ डॉक्‍टर है और वह भी पूर्णतया आयुर्वेद और योग के आधार पर ही चिकित्‍सा कर रही है। मैंने आयुर्वेद महाविद्यालय से प्रोफेसर के पद से स्‍वैच्छिक सेवानिवृति ली थी और अपना जीवन सामाजिक कार्य और लेखन को ही समर्पित किया था तो मेरी भतीजी और भानजे का आग्रह था कि मैं आयुर्वेद की चिकित्‍सा में उनका सहयोग करूं। अमेरिका में आयुर्वेद के स्‍कोप को देखते हुए उनका कहना भी अपनी जगह ठीक ही था लेकिन मेरा मन इस सब में लगता नहीं तो मैंने उन्‍हें कहा है कि मैं उन्‍हें किसी अन्‍य से सहयोग दिलाऊँगी।

मेरे कहने का तात्‍पर्य यह है कि हम अमेरिका की चिकित्‍सा के बारे में बहुत अलग राय रखते हैं जबकि प्रारम्भिक चिकित्‍सा में वे बहुत ही साधारण तरीके अपनाते हैं और एमबीबीएस के समकक्ष चिकित्‍सक ही चिकित्‍सा करते हैं। उनका सारा ध्‍यान जीवन-शैली के बदलाव की ओर है और हमारा सारा ध्‍यान केवल चिकित्‍सा में।

Tuesday, July 6, 2010

क्‍या आप ime setup से हिन्‍दी में लिखते हैं तो मेरी सहायता करे

अमेरिेका से वापस आते समय बेटे ने लेपटॉप थमा दिया। लेपटॉप में विण्‍डोज 7 है। मैं ime setup से हिन्‍दी में काम करती हूं। इसमें pnb hindi remington में काम करने पर चन्‍द्र बिन्‍दु आदि का प्रयोग आसानी से होता है। लेकिन अभी इस सेटअप को डाउनलोड करने के बाद कन्‍ट्रोल से चलने वाले शब्‍द नहीं है इस कारण टाइपिंग में कठिनाई आ रही है। जो भी इस सेटअप से काम करते हैं वे कृपया मेरी परेशानी दूर करें। विण्‍डोज 7 में भी काम करना कठिन हो रहा है।