जब-जब भी आइने में खुद को देख लेती हूँ तो रातों की नींद उड़ जाती है। दूसरे दिन से ही मोर्निंग वाक शुरू हो जाता है। लेकिन फिर एकाध प्रवास और घूमना निरस्त। कम्प्यूटर छूटता नहीं और फेट बढ़ने का क्रम टूटता नहीं। लेकिन फिर भी अभी कुछ दिनों से क्रम चल ही रहा है, घूमने का। हमारे घर के पास ही एक सरकारी विभाग का परिसर है, जिसमें काफी जगह है और एकदम शान्त हैं। हम जैसे कई लोग वहाँ घूमने आते हैं। एक साल पहले हमने देखा कि एक कुतिया ने बच्चे दिए, शायद छ या सात थे। धीरे-धीरे वे बड़े हुए और अब पूरे युवा हैं। कुल मिलाकर वहाँ 10 कुत्ते हैं। पहली बार जब हम गए ( मैं हम का प्रयोग इसलिए कर रही हूँ कि मेरे साथ मेरे पतिदेव भी होते हैं) तो कुत्ते हमें देखकर हमारे पास आ गए और पूछ हिलाने लगे। लेकिन जब हमने हाथ झटका दिए तब वे दूर चले गए। थोड़ी देर में ही देखा कि एक दम्पत्ति अपने साथ एक थैला लेकर आए हैं। वे उसमें से बासी डबलरोटी और रोटी निकालकर उन कुत्तों को खिला रहे हैं। मुझे बात समझ आ गयी थी कि ये हमारे पीछे भी क्यों लपके थे।
आप सभी ने देखा होगा कि लोग धार्मिक स्थानों पर बंदरों को, सड़क पर खड़ी गायों को, कुत्तों को रोटी खिलाते हैं। मैंने एक फोरेस्ट ऑफिसर से पूछा कि क्या यह ठीक है? वे बोले कि यह जानवरों के प्रति अन्याय है। वे अपना स्वाभाविक जीवन जीना छोड़ देते हैं और जब ऐसे दानदाताओं के द्वारा उन्हें खाना नहीं मिल पाता तो अन्य लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। मुझे एक घटना अमेरिका की याद आ गयी। हम येशुमेटी (एक पर्यटकीय स्थान) गए थे। वहाँ लोगों ने कहा कि यहाँ भालू हैं। लोग देखने के लिए उत्सुक हो रहे थे। हम भी उनके पीछे चले गए। एक दो भालू हमने देखे भी। एक तो सेव के पेड़ पर चढ़कर सेव का आनन्द ले रहा था। लेकिन हम शीघ्र ही बाहर आ गए। कुछ लोग जंगल में अन्दर तक चले गए। तभी वनकर्मियों को इस हरकत का पता लगा और वे वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने कहा कि आप अपने शौक के लिए जंगल में घुस जाते हैं लेकिन यदि किसी भी भालू ने या अन्य जानवर ने आपको नुक्सान पहुंचा दिया तब हमें मजबूरन उस भालू को मारना पड़ता है। क्योंकि आमतौर पर जानवर मनुष्य पर हमला नहीं करते हैं। यदि उसने हमला कर दिया है तो हो सकता है कि उसकी आदत में आ जाए। अर्थात हमारा शौक और बेचारे जानवर की मृत्यु। ऐसे ही बंदरों, कुत्तों, गायों को रोटी देने का आप पुण्य करे लेकिन दुष्परिणाम भुगते अन्य व्यक्ति या फिर ये जानवर। मैं वहाँ कइयों को टोक देती हूँ लेकिन कुछ इतने बुजुर्ग हैं कि मुझे लगता है कि उन्हें केवल पुण्य की भाषा ही समझ आ रही है वे मेरी बात को अनसुना कर देंगे। पुण्य कमाना है तो अपने घर पर कमाना चाहिए, सार्वजनिक स्थानों पर पुण्य कमाने के चक्कर में हम पाप कर बैठते हैं। आपका इस बारे में क्या विचार है?
23 comments:
वन्य पशुओं, जैसे कि धार्मिक स्थलों में बन्दरों, को खाने की वस्तु देना अवश्य ही गलत है। किन्तु गाय, कुत्ते आदि पालतू जानवरों, जो कि पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर हैं, को खाना देना मेरे विचार से गलत नहीं है।
अवधिया जी मेरा मन्तव्य सार्वजनिक स्थानों से है। लोग दूध निकालकर गायों को सड़कों पर छोड़ देते हैं ऐसे ही कुत्तों को भी घर की रखवाली के स्थान पर सार्वजनिक स्थानों पर रोटी देने पर वे इंसानों पर लपकने लगते हैं। पालतू पशुओं को तो हमें सहेजना ही है।
ममा....बहुत अच्छी , सार्थक और जागरूक करने वाली पोस्ट.....
जब ऐसे दानदाताओं के द्वारा उन्हें खाना नहीं मिल पाता तो अन्य लोगों पर आक्रमण कर देते हैं।
आपकी ये बात पढ़ कर सच ही लगता है कि इस तरह खाना नहीं देना चाहिए..वरना राह चलते लोगों पर जानवर आक्रमण कर सकते हैं....मैंने बचपन देखा था कि मेरी दादी के घर एक गाय रोज सुबह आ जाती थी और उसको दादी रोटी दे देतीं थीं...जब तक रोटी मिलती नहीं थी वो गाय घर के सामने ही खड़ी रहती थी...इस तरह तो शायद कोई आपत्ति ना हो..पर रस्ते में खाना देना...वाकई कभी कोई बड़ा हादसा हो सकता
कुछ टाइपिंग की गलती होने के कारण पहली टिप्पणी हटा दी गयी है
अजित जी ,
है तो ये गलत ही ....पर जिनके घरों में न गाय है न कुत्ता ....वे ही सार्वजनिक स्थानों में जाकर ऐसा करते हैं .....!!
आप ने सही कहा सार्वजनिक स्थानों में ऐसा नहीं होना चाहिए ....वैसे सार्वजनिक स्थानों पे तो ऐसे आवारा कुत्ते भी नहीं होने चाहिए ......!!
आपकी बात काफी हद तक सही है, हम सहानुभूति के चलते इन जानवरों को खाना देते हैं परन्तु दूरगामी परिणामों को भी सोचना चाहिए. क्या करें हम पर भावना पक्ष इस कदर हावी हो जाता है कि सामान्य तौर पर आगे नहीं सोच पाते. महत्त्वपूर्ण जानकारी थी :) ... स्वर्णिमा..
और इससे भी बदतर पहलु ये है कि तपती गर्मी में सड़क पर खड़े इन निरीह मवेशियों और जानवरों को हमारे प्रशासन और संचार माध्यम के लोग आवारा पशुओं की संज्ञा देता है!
डा. गुप्ता आपने शब्द साधना राह कठिन..का प्रयोग
किया है आपने "सुरति शब्द साधना" के वारे में सुना
या पङा है जिसके वारे में तुलसी रामायण में भुसुन्ड जी
द्वारा कहा गया है "ग्यान का पन्थ कृपाण की धारा कहो
खगेस को बरने पारा " मैं प्रायः देखता हूँ कि बङे बङे
बुद्धिजीवियों के पास इसका उत्तर नहीं हैं ..हो सकता
है आपके पास हो..शायद..मैं ये बात इसलिये कह रहा
हूँ कि तमाम ब्लाग्स को देखते हुए मैं यही सोचता हूँ
कि इनका चिंतन शायद आत्मिक हो पर अक्सर वह
जीवनात्मक निकलता है मैं वास्तव मैं आपकी पुस्तक
के नाम " अहम से वयम तक " से भी आकर्षित हुआ
पर अभी मैंने पङी तो नहीं है वैसे आप आध्यात्मिक
विचारों की हैं तो मेरा पूर्णत आध्यात्मिक ब्लाग
अवश्य देखियेगा .शुभकामनाएं
satguru-satykikhoj.blogspot.com
बिलकुल सही मुद्दा उठाया और एक बार रोटी देने के बाद ,उनकी आदतें खराब हो जाती हैं...वे इधर उधर घूमते रहते हैं,उसकी तलाश में
सहमत हूं आपसे.तीर्थस्थलों पर बंदर तो झपट्टा मार कर बच्चों को घायल तक कर देते हैं.
पुण्य कमाना है तो अपने घर पर कमाना चाहिए, सार्वजनिक स्थानों पर पुण्य कमाने के चक्कर में हम पाप कर बैठते हैं।...
Aisa aksar dekha jaata hai. Hamein janvaron ke prati bhi insaanon jaisa samvedansheel bane rahne ki jarurat hai...
Jagrukta ke saath Saarthak post..
Aabhar
इस पोस्ट पर क्या कहूँ? स्वीकारोक्ति...?
आज तक तो यह करते आ रहा हूँ। मछलियों को (ऋषिकेश), बन्दरों को, काली गाय, काला कुता, ... इन्हे़ खिलाते रहा हूँ, अब कितना पुण्य कमाया यह कह तो नहीं सकता और आगे .. शायद दाना डलने के पहले आपका पोस्ट याद आ जाए...!
सार्थक आलेख।
अजित जी , लोग तो ऐसे दानी और दाता भी होते हैं , जो रास्ते पर चीटियों को आटा डालते हैं। कहीं चूहों को खाना खिलाते हैं ।
कहीं बरगद पर धागा लपेट , दूध और घी तेल डाल पूजा करते हैं । कितने ढकोसलों में जीते हैं लोग ।
आपकी कुछ पिछली पोस्ट्स भी पढ़ीं , लेखन यथार्थ से जुड़ा हुआ है इसलिए भा गया । सचमुच पुण्य कमाना है तो पहले शुरुवाद घर से होनी चाहिए , सर्टिफिकेट भी घर वाले ही दें ..तभी तो बात है कुछ । सब का खाना चलता है , ये हमें ध्यान रखना चाहिए कि कहीं हम किसी की आदत बिगाड़ तो नहीं रहे .... । काश आईना देख कर हमारी भी नींद हराम हो जाती और हम वाक् पर जाते |
शायद मेरी स्मृति में यह आपकी पहली पोस्ट है जिसे मैं स्पष्ट सहमति नहीं बना पा रहा हूँ -चिड़ियाघरों /जंगलों में तो बाहरी भोजन दिया जाना ठीक नहीं है मगर घर के इर्द गिर्द अगर स्ट्रीट एनिमल्स के प्रति हम सभी ने ऐसी धारणा बना ली तो बिचारे भूखों मर जायेगें ....उन्हें खाना खिलाने में क्या हर्ज है ?
सार्वजनिक स्थलों पर तो उचित नहीं है. आपसे सहमत.
आपकी बात बहुत हद तक सही है लेकिन जब इंसान ही भूख से बिलबिला कर मर रहा हो वहां जानवर का भूख से तड़प कर मरना स्वाभाविक है...इंसान भी उसी के पीछे जाता है जिस से उसको कुछ मिलने की उमीद हो...तो फिर जानवर क्यूँ ना जाये? हाँ आपके दु:साहस की वजह से किसी जानवर को मरना पड़े तो बात गलत लगती है
नीरज
shukriya dr.gupta ji. hamne kabhi aisa socha hi nahi tha. aapki is post ne soch ko badalne me sahayta ki. shukriya.
aur Dr. Sahab ek request hai aap se ki aap mere naam ke peeche Ji na lagaya kijiye..aapse bahut chhoti hu.
sadar
Anamika
बहुत अच्छी सार्थक और जागरूकता बढ़ाने वाली पोस्ट
आपका कहना ठीक है पर फिर ऐसे आवारा घूमते जीवों को जिनका कोई ठिकाना नही है .... भोजन कैसे मिलेगा ...
marmik rachana///\\
ये बात कही गलत तो कही पर जायज भी.... बस इतना नही कहूँगा की समय, स्थान और परिस्थिति के साथ सच का अस्तित्व भी बदलता रहता है......
लेकिन मै इस बात से जरूर सहमत हूँ की किसी भी जंतु की निजिता में छेड़कानी निंदनीय है....
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