आज समाचार पत्रों में एक समाचार प्रकाशित हुआ, बी.बी.सी. ने एक सर्वे कराया कि सात मानवीय दुर्गुण यथा लोभ, ईर्ष्या, आलस्य, पेटूपन, वासना, क्रोध और अभिमान किन देशों के नागरिकों में अधिक है? आस्ट्रेलिया, अमेरिका, मेक्सिको, दक्षिणी कोरिया आदि देश इन दुर्गुणों में प्रथम रहे। हम अपने देश भारत को इन दोषों से युक्त मानते हैं और हम इसी हीन भावना से ग्रसित हैं कि हम ही सर्वाधिक इन दुर्गुणों से ग्रसित हैं। क्यों भारत के नागरिक इस सर्वे में प्रथम नहीं आए और क्यों विकसित देश इस सर्वे में प्रथम आए? हमें इस विषय पर चिंतन करना चाहिए।
विश्व में जब से सभ्यता का जन्म हुआ तभी से परिवारवाद को महत्व मिला। इसका मुख्य कारण व्यक्ति की सुरक्षा था। व्यक्ति परिवार में रहकर स्वयं को सुरक्षित पाता था। लेकिन पश्चिम में जब से व्यक्तिवादी दर्शन की स्थापना हुई तभी से परिवारवाद का विघटन प्रारम्भ हुआ। विज्ञान के आविर्भाव के साथ ही इस व्यक्तिवादी चिन्तन में तीव्रता आई। डार्विन नामक वैज्ञानिक ने यह सिद्ध किया कि सृष्टि में जो शक्तिशाली है वही जीवित रहता है। इस दर्शन के बाद तेजी से व्यक्तिवाद बढ़ा। लगभग 100 वर्षों पूर्व व्यक्तिवाद का नया नामकरण हुआ और वह था केरियर। अब आधुनिकता का पर्याय बन गया केरियर। ज्ञान के स्थान पर विज्ञान के आने का परिणाम यह हुआ कि ज्ञान पुरातन का प्रतीक बना और विज्ञान आधुनिकता का। इस कारण जो परम्परागत चिन्तन एवं व्यवस्थाएं थीं वे पुरातन हो गयीं और इसके विपरीत सारी ही व्यवस्थाएं आधुनिक हो चली।
भारत सन् 1500 तक सर्वाधिक समृद्ध राष्ट्र था, यह इतिहास का निर्विवादित सत्य है। इसके विपरीत यूरोप जैसे देश सर्वाधिक अविकसित देश थे। अमेरिका आदि देश तो कहीं गणना में ही नहीं थे। भारत में तब तक पारिवारिक व्यापार या रोजगार प्रथा थी। ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण और क्षत्रीय का बेटा क्षत्रीय बनता था। लेकिन विज्ञान और अंग्रेजों के आने के बाद भारत में भी आधुनिकता का प्रवेश हुआ। अंग्रेजों की वेशभूषा, खानपान और विवाह पद्धति हम से एकदम भिन्न थे इस कारण भारतीयों को इनने आकृष्ट किया। शिक्षा के नवीन आयामों के कारण नवीन रोजगार प्रारम्भ हुए। पारिवारिक व्यवसाय बिखरने लगे। लेकिन यह बदलाव बहुत ही कम मात्रा में था। लेकिन लगभग 100 वर्षों से शिक्षाजनित रोजगारों में तेजी आयी और परिवारवाद के स्थान पर व्यक्तिवाद आ गया। धीरे-धीरे व्यक्तिवाद का नामकरण हुआ केरियर। केरियर निर्माण आधुनिकता का प्रतीक बन गया और समय की आवश्यकता भी।
शिक्षा से उत्पन्न रोजगारों के कारण गाँव-कस्बों में निकलकर युवावर्ग शहरों में बसने लगा। शहरों और महानगरों में जनसंख्या वृद्धि के कारण अनेक रोजगार उत्पन्न हुए और गाँव से मजदूर भी अब शहरों की ओर पलायन करने लगे। यह स्थिति भारत में ही नहीं आयी अपितु विश्व के प्रत्येक देश में आयी। जिन देशों का समाज जितना अधिक केरियर ओरियेण्टेड हुआ उतने ही परिवार बिखर गये। परिवारवाद और व्यक्तिवाद में एक मूल अन्तर है। परिवारवाद में सबको साथ रखने का भाव है जबकि व्यक्तिवाद में केवल स्वयं का चिन्तन है। इस कारण परिवार में त्याग की भावना सर्वोपरि होती है और व्यक्तिवाद में भोग की। परिवार में रहते हुए सभी सदस्यों के अभ्युत्थान का भाव रहता है तथा किसी अशक्त व्यक्ति को भी बराबर के अवसर प्राप्त होते हैं। लोभ, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, आलस्य, पेटूपन और वासना के भावों की वृद्धि नहीं होती। व्यक्ति अपने परिवार से ही संस्कारित होता है इस कारण उसके सार्वजनिक जीवन में भी इन दुर्गुणों का प्रवेश नहीं होता है।
लेकिन वर्तमान परिवेश में जब केरियर ही हमारी प्राथमिकता हो गयी है तब यह सारे ही दुर्गुण स्वयं ही चले आते हैं। केरियर का अर्थ होता है कि जीवन की घुड़दौड़ में प्रथम आना। आज के माता-पिता अपने बच्चों को इस घुड़दौड़ में प्रथम लाने के प्रयास में लगे रहते हैं। वे स्वयं को मिटाकर केवल बच्चे को प्राथमिकता देते हैं इस कारण बच्चे में अहंकार का दोष उदय होता है। जैसे-जैसे उसकी शिक्षा बढ़ती है माता-पिता के लिए केवल बालक ही सर्वोपरि होने लगता है और बच्चा अहंकार से परिपूर्ण बन जाता है। जब वह प्रतियोगिता में भाग लेता है तब वह क्रोध और ईर्ष्या का शिकार होता है। माता-पिता ही उसे आलसी और पेटू बना देते हैं। जब बालक व्यक्तिवादी बनता है तब लोभ और भोग स्वत: ही चले आते हैं। ये सात दुर्गुण केरियर निर्माण की देन है।
आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में परिवार पूर्णतया: बिखर चुके हैं। जिन-जिन देशों से जनसंख्या का सर्वाधिक पलायन हुआ या जिन देशों में सर्वाधिक आगमन हुआ, ये दोष वहीं अधिक उपजे। क्योंकि पलायन करने से ही परिवार का बिखराव हुआ। अमेरिका और आस्ट्रेलिया दोनों ही देश यूरोपियन्स के कारण विकसित हुए हैं। वे वहाँ जाकर बसे और अब तो इन दोनों देशों में विश्व के सारे देशों की जनसंख्या बसती है। इसकारण परिवार के संस्कार वहाँ सर्वाधिक न्यून है। भारत में आज भी बहुत बड़ी जनसंख्या परिवार के संस्कार के साथ रहती है इसी कारण ये सारे ही दोष हमारी अधिकांश जनसंख्या में नहीं है।
लेकिन केरियर निर्माण की दौड़ में प्रत्येक व्यक्ति दौड़ने को आतुर है। देर-सबेर भारत में भी केरियर के कारण परिवार प्रथा समाप्त होगी। तब हम भी इन सारे ही दुर्गुणों से बच नहीं सकते। इसलिए हमें पुन: विचार करना होगा अपने पारिवारिक व्यवसाय प्रणाली पर। गाँवों और कस्बों से पलायन रोकने के लिए वहाँ रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे। नहीं तो महानगरों और शहरों में संस्कारविहीन युवाओं की जनसंख्या बढ़ती जाएगी। शिक्षित युवाओं को भी अपने ग्रामों में ही रोजगार के साधन खोजने होंगे। अधिक से अधिक स्थानीयता को महत्व देना होगा। सरकार को भी अपनी नीति बदलनी होगी। परिवारप्रथा को बचाने के लिए कर्मचारी की नियुक्ति स्थानीय स्तर पर ही करनी होगी। बड़ी कम्पनियों को भी कर्मचारी के कार्य-समय को नियमित करना होगा, जिससे वह परिवार में पूर्ण समय दे सके। इससे दो लाभ होंगे, एक कर्मचारी के स्थान पर दो कर्मचारी की नियुक्ति होगी और परिवार भी बचेंगे। अब समय आ गया है कि हम इस विषय को गम्भीरता से लें और परिवारवाद को पुन: विकसित करें और केरियरवाद को गौण करें।
श्रीमती अजित गुप्ता प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास) हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।
Saturday, January 30, 2010
Wednesday, January 27, 2010
गाँव में गणतन्त्र दिवस
गणतन्त्र दिवस का उत्सव मनाया जा रहा है। बच्चे चबूतरे पर बैठे हैं, गाँव वाले पेड़ों के नीचे और महिलाएं अपने झोपड़े के आगे घूंघट निकालकर बैठी हैं। कुछ बच्चे पास के पक्के मकान की छत पर भी चढ़ गए हैं। विद्यालय के बच्चे आज प्रस्तुति देंगे। कोई कविता पाठ करेगा तो कोई नृत्य। सामूहिक नृत्य करने को भी बालिकाएं सज-धज कर तैयार हैं। कल तक गंदे कपड़ों में आकर बैठने वाले बच्चों के तन पर अब स्कूल की साफ धुली हुई यूनिफार्म है। कुछ छोटे बच्चों ने जरूर गंदी ही ड्रेस पहन रखी है, वो ड्रेस उसके बड़े भाई या बहन की होगी। पूरे गाँव में उत्सव का सा माहौल है।
मेरे शहर से मात्र 12 कि मी की दूरी पर बसा है एक गाँव ‘नयाखेड़ा’। इसे हमारी संस्था भारत विकास परिषद ने गोद ले रखा है और वहाँ वर्तमान में एक सिलाई केन्द्र संचालित हैं। हम स्वतंत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस वहाँ प्रतिवर्ष मनाते हैं। सिलाई केन्द्र के पूर्व संस्था वहाँ विद्यालय संचालित करती थी लेकिन अब वहाँ सरकारी विद्यालय खुल गया है तो हमने विद्यालय के स्थान पर सिलाई केन्द्र संचालित करने का निश्चय किया। इन दोनों राष्ट्रीय पर्वों पर हम विद्यालय के बालक-बालिकाओं को माध्यम बनाकर वहाँ उत्सव मनाते हैं। इस उत्सव में सारा गाँव ही भागीदारी करता है। इस वर्ष गाँव में पंचायत के चुनाव हो रहे हैं तो इस गणतन्त्र दिवस पर गाँव में गहमा-गहमी थी। वर्तमान सरपंच हमारे साथ मंच पर बैठे थे। मुझे बताया गया कि इस बार उनकी पत्नी सरपंच का चुनाव लड़ रही है। मैंने उनसे पूछा कि कहाँ है आपकी पत्नी? उन्होंने दूर बैठी, लम्बा घूंघट निकाले एक महिला की तरफ इशारा किया।
इतने में ही संचालक ने घोषणा की कि अब पूजा आपके सामने कविता पाठ करेगी। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली पूजा का काव्य पाठ प्रारम्भ हुआ। पूजा ने एक लम्बी कविता बड़े ही जोश के साथ बोली। कभी यही लड़की हमारे विद्यालय में ही पढ़ती थी और आज इतने जोश के साथ कविता पाठ कर रही थी। अटक-अटक कर पढ़ने वाले बच्चे कब इतने होशियार हो गए? लेकिन मन को बहुत अच्छा लगा। मैंने गाँव वालों को अपने संदेश में यही कहा कि हमें हर घर में पूजा चाहिए।
कुछ ही देर में बिजली चले गयी। नृत्य करने को तैयार बच्चे मायूस होने लगे। हमने हमारे पति से कहा कि आप गाड़ी को आगे लगाकर उसका टेप रिकार्डर चालू कर दीजिए। काम हो गया और बच्चों ने अपना नृत्य प्रारम्भ कर दिया। लेकिन इस सबमें नृत्य करने का स्थान बदल गया। एक दस वर्षीय बच्ची मेरे पास आ खड़ी हुई। हमारी ही एक सदस्य ने मुझे बताया कि यह नन्हीं बच्ची सिलाई मशीन चला लेती है और बड़ी अच्छी सिलाई करती है। एक और लड़की भी पास आ गयी, उसने घाघरा, ब्लाउज पहन रखा था और उसने बताया कि उन सबकी उसने ही सिलाई की है। मन को तृप्ति सी होने लगी इस नन्हीं बालिकाओं को देखकर।
तीन विभिन्न आयु की स्त्री-शक्ति मेरे सम्मुख थी। एक सरपंच का चुनाव लड़ रही थी लेकिन वो घूंघट में थी, दूसरी अठारह साल की नौजवान लड़की, जो धडल्ले से कविता पाठ कर रही थी और तीसरी दस वर्ष की बालिका जो अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर सिलाई सीख रही थी। आज गमेरा लाल की पत्नी सरपंच बनेगी, सारे ही काम गमेरा लाल ही करेगा लेकिन शहर से जब अफसर आएंगे तब पेमली बाई ही उनसे बात करेगी। धीरे-धीरे गमेरा की जगह पेमली ले लेगी। घूंघट चले जाएगा और महिला में हिम्मत का संचार होगा। जब पूजा बड़ी हो जाएगी और वह नन्हीं सी बच्ची कुसुम बड़ी हो जाएगी तब तो गाँव की तस्वीर ही बदल जाएगी, महिलाओं का स्वरूप ही बदल जाएगा।
गाँव तेजी से करवट बदल रहे हैं। महिलाएं तेजी से सोपान चढ़ रही हैं। आत्मविश्वास लौट रहा है। अब पढ़ी-लिखी पत्नी के सामने पति शराब पीकर आने की हिम्मत नहीं करेगा और ना ही उसपर हाथ उठाने की जुर्रत। पत्नी के हाथ में भी पैसा होगा। वह भी शहर जाकर मीटींग में भाग लेगी। आज पेमली सरपंच बनेगी तो कल पूजा विधायक और कुसुम शायद मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या शायद राष्ट्रपति भी।
मेरे शहर से मात्र 12 कि मी की दूरी पर बसा है एक गाँव ‘नयाखेड़ा’। इसे हमारी संस्था भारत विकास परिषद ने गोद ले रखा है और वहाँ वर्तमान में एक सिलाई केन्द्र संचालित हैं। हम स्वतंत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस वहाँ प्रतिवर्ष मनाते हैं। सिलाई केन्द्र के पूर्व संस्था वहाँ विद्यालय संचालित करती थी लेकिन अब वहाँ सरकारी विद्यालय खुल गया है तो हमने विद्यालय के स्थान पर सिलाई केन्द्र संचालित करने का निश्चय किया। इन दोनों राष्ट्रीय पर्वों पर हम विद्यालय के बालक-बालिकाओं को माध्यम बनाकर वहाँ उत्सव मनाते हैं। इस उत्सव में सारा गाँव ही भागीदारी करता है। इस वर्ष गाँव में पंचायत के चुनाव हो रहे हैं तो इस गणतन्त्र दिवस पर गाँव में गहमा-गहमी थी। वर्तमान सरपंच हमारे साथ मंच पर बैठे थे। मुझे बताया गया कि इस बार उनकी पत्नी सरपंच का चुनाव लड़ रही है। मैंने उनसे पूछा कि कहाँ है आपकी पत्नी? उन्होंने दूर बैठी, लम्बा घूंघट निकाले एक महिला की तरफ इशारा किया।
इतने में ही संचालक ने घोषणा की कि अब पूजा आपके सामने कविता पाठ करेगी। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली पूजा का काव्य पाठ प्रारम्भ हुआ। पूजा ने एक लम्बी कविता बड़े ही जोश के साथ बोली। कभी यही लड़की हमारे विद्यालय में ही पढ़ती थी और आज इतने जोश के साथ कविता पाठ कर रही थी। अटक-अटक कर पढ़ने वाले बच्चे कब इतने होशियार हो गए? लेकिन मन को बहुत अच्छा लगा। मैंने गाँव वालों को अपने संदेश में यही कहा कि हमें हर घर में पूजा चाहिए।
कुछ ही देर में बिजली चले गयी। नृत्य करने को तैयार बच्चे मायूस होने लगे। हमने हमारे पति से कहा कि आप गाड़ी को आगे लगाकर उसका टेप रिकार्डर चालू कर दीजिए। काम हो गया और बच्चों ने अपना नृत्य प्रारम्भ कर दिया। लेकिन इस सबमें नृत्य करने का स्थान बदल गया। एक दस वर्षीय बच्ची मेरे पास आ खड़ी हुई। हमारी ही एक सदस्य ने मुझे बताया कि यह नन्हीं बच्ची सिलाई मशीन चला लेती है और बड़ी अच्छी सिलाई करती है। एक और लड़की भी पास आ गयी, उसने घाघरा, ब्लाउज पहन रखा था और उसने बताया कि उन सबकी उसने ही सिलाई की है। मन को तृप्ति सी होने लगी इस नन्हीं बालिकाओं को देखकर।
तीन विभिन्न आयु की स्त्री-शक्ति मेरे सम्मुख थी। एक सरपंच का चुनाव लड़ रही थी लेकिन वो घूंघट में थी, दूसरी अठारह साल की नौजवान लड़की, जो धडल्ले से कविता पाठ कर रही थी और तीसरी दस वर्ष की बालिका जो अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर सिलाई सीख रही थी। आज गमेरा लाल की पत्नी सरपंच बनेगी, सारे ही काम गमेरा लाल ही करेगा लेकिन शहर से जब अफसर आएंगे तब पेमली बाई ही उनसे बात करेगी। धीरे-धीरे गमेरा की जगह पेमली ले लेगी। घूंघट चले जाएगा और महिला में हिम्मत का संचार होगा। जब पूजा बड़ी हो जाएगी और वह नन्हीं सी बच्ची कुसुम बड़ी हो जाएगी तब तो गाँव की तस्वीर ही बदल जाएगी, महिलाओं का स्वरूप ही बदल जाएगा।
गाँव तेजी से करवट बदल रहे हैं। महिलाएं तेजी से सोपान चढ़ रही हैं। आत्मविश्वास लौट रहा है। अब पढ़ी-लिखी पत्नी के सामने पति शराब पीकर आने की हिम्मत नहीं करेगा और ना ही उसपर हाथ उठाने की जुर्रत। पत्नी के हाथ में भी पैसा होगा। वह भी शहर जाकर मीटींग में भाग लेगी। आज पेमली सरपंच बनेगी तो कल पूजा विधायक और कुसुम शायद मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या शायद राष्ट्रपति भी।
Friday, January 22, 2010
जमाखोरों के विरोध में आम जनता को जागृत होना होगा
कहते हैं कि सुधार सरकारे नहीं समाज करता है। लेकिन आज हम सब सरकारों के मुँह की ओर ताक रहे हैं। सरकारों को वे लोग संचालित कर रहे हैं जिनके पास शक्कर की ‘मिले’ हैं, हजारों बीघा जमीन हैं। क्या ऐसी सरकार और ऐसे मंत्री जमाखोरों को सबक सिखा सकते हैं?
उदयपुर में सहकारी बाजार संचालित है। वहाँ रोजमर्रा की आवश्यकताएं पूरी की जा सकती है। आप सभी के शहरों में भी संचालित ही होगा। हमारे यहाँ अभी दो-तीन वर्ष से एक स्कीम आयी कि आप दस हजार रूपए जमा कराएं और प्रतिमाह 100 रूपए के कूपन लें ले समान खरीदने के लिए। आज जहाँ बैंक में ब्याज के नाम पर कुछ नहीं मिलता है, वहीं यह स्कीम अच्छी लगी। हमनें भी तीस हजार रूपए जमा करा दिए। अब हमें तीन सौ रूपए के कूपन प्रतिमास मिल जाते हैं। हम घर में दो ही प्राणी हैं तो हमारा तैल, साबुन, चावल, दाल आदि का छोटा-मोटा खर्चा इस कूपन से चल ही जाता था। लेकिन अभी दो माह पहले हमें लगा कि यहाँ पैसा जमा कराना लाभ का सौदा है तो हमने पचास हजार रूपए और जमा करा दिए। अब हमारे पास आठसौ रूपए के कूपन हो गए। हमें लगा कि अरे ये तो खूब हैं। इनका तो हम सामान ला ही नहीं पाएंगे। लेकिन जैसे ही इस महिने सहकारी बाजार गए तो हमें जिन्दगी में पहली बार आटे-दाल का भाव मालूम पड़ा। ये क्या? आठ सौ के कूपन तो फुर्र से उड़ गए। बीस रूपए आने वाली शक्कर पचास रूपए हो चुकी थी और दालें तो सौ के भाव से बिक रही थी। इन बढ़ती कीमतों से आज एक मजदूर का दर्द सामने आ गया। सौ रूपए प्रतिदिन कमाने वाला मजदूर अब कैसे खा पाएगा दाल और रोटी? दूध तो उसके नसीब में था ही नहीं, बस छंटाक भर दूध से सारे घर की चाय बना लेता था तो अब तो शरद पँवार जी ने दूध की कीमत बढ़ाने की भी मुनादी करा दी है। आखिर ऐसा क्या हो गया, रातों-रात की कीमतें आसमान छू रही हैं? माना की सरकार के बस की नहीं है जमाखोरों पर लगाम लगाना। क्योंकि इन्हीं के पैसे से तो वे चुनाव लड़ते हैं। लेकिन जमाखोर भी तो जनता के ही व्यक्ति हैं, क्या वे लोगों का निवाला छीनकर अपनी सुख की सेज सजाना चाहते हैं? हम सुबह उठने से लेकर रात सोने तक प्रतिपल स्वर्ग में जाने की इच्छा रखते हैं और जैसे भी बने पुण्यों का संचय करने का प्रयास करते हैं। जमाखोर कौन से पुण्यों का संचय कर रहे हैं? आम जनता से निवाला छीनकर ये जमाखोर मन्दिर बनवाते हैं, धर्मशालाएं बनवाते हैं। सारे ही संन्यासियों को दान देते हैं। राजनेता तो इनसे नहीं पूछते लेकिन संन्यासियों को तो इनसे पूछना ही चाहिए कि तुम जमाखोरी तो नहीं कर रहे हो? कहीं ऐसा न हो कि जनता ही इनके गोदामों को लूट ले और एक समग्र क्रांति का सूत्रपात इस देश में हो जाए। हम सब ब्लागरर्स को ऐसे जमाखोरों के प्रति निन्दा प्रस्ताव पारित करना चाहिए और जहाँ भी कोई परिचित हो उससे अवश्य पूछना चाहिए कि क्या तुम भी जमाखोरी कर रहे हो? आज सरकारें बेबस हैं लेकिन जनता को अब जागरूक होना पड़ेगा। वो ही देश फलता-फूलता है जहाँ की जनता जागरूक होती है।
उदयपुर में सहकारी बाजार संचालित है। वहाँ रोजमर्रा की आवश्यकताएं पूरी की जा सकती है। आप सभी के शहरों में भी संचालित ही होगा। हमारे यहाँ अभी दो-तीन वर्ष से एक स्कीम आयी कि आप दस हजार रूपए जमा कराएं और प्रतिमाह 100 रूपए के कूपन लें ले समान खरीदने के लिए। आज जहाँ बैंक में ब्याज के नाम पर कुछ नहीं मिलता है, वहीं यह स्कीम अच्छी लगी। हमनें भी तीस हजार रूपए जमा करा दिए। अब हमें तीन सौ रूपए के कूपन प्रतिमास मिल जाते हैं। हम घर में दो ही प्राणी हैं तो हमारा तैल, साबुन, चावल, दाल आदि का छोटा-मोटा खर्चा इस कूपन से चल ही जाता था। लेकिन अभी दो माह पहले हमें लगा कि यहाँ पैसा जमा कराना लाभ का सौदा है तो हमने पचास हजार रूपए और जमा करा दिए। अब हमारे पास आठसौ रूपए के कूपन हो गए। हमें लगा कि अरे ये तो खूब हैं। इनका तो हम सामान ला ही नहीं पाएंगे। लेकिन जैसे ही इस महिने सहकारी बाजार गए तो हमें जिन्दगी में पहली बार आटे-दाल का भाव मालूम पड़ा। ये क्या? आठ सौ के कूपन तो फुर्र से उड़ गए। बीस रूपए आने वाली शक्कर पचास रूपए हो चुकी थी और दालें तो सौ के भाव से बिक रही थी। इन बढ़ती कीमतों से आज एक मजदूर का दर्द सामने आ गया। सौ रूपए प्रतिदिन कमाने वाला मजदूर अब कैसे खा पाएगा दाल और रोटी? दूध तो उसके नसीब में था ही नहीं, बस छंटाक भर दूध से सारे घर की चाय बना लेता था तो अब तो शरद पँवार जी ने दूध की कीमत बढ़ाने की भी मुनादी करा दी है। आखिर ऐसा क्या हो गया, रातों-रात की कीमतें आसमान छू रही हैं? माना की सरकार के बस की नहीं है जमाखोरों पर लगाम लगाना। क्योंकि इन्हीं के पैसे से तो वे चुनाव लड़ते हैं। लेकिन जमाखोर भी तो जनता के ही व्यक्ति हैं, क्या वे लोगों का निवाला छीनकर अपनी सुख की सेज सजाना चाहते हैं? हम सुबह उठने से लेकर रात सोने तक प्रतिपल स्वर्ग में जाने की इच्छा रखते हैं और जैसे भी बने पुण्यों का संचय करने का प्रयास करते हैं। जमाखोर कौन से पुण्यों का संचय कर रहे हैं? आम जनता से निवाला छीनकर ये जमाखोर मन्दिर बनवाते हैं, धर्मशालाएं बनवाते हैं। सारे ही संन्यासियों को दान देते हैं। राजनेता तो इनसे नहीं पूछते लेकिन संन्यासियों को तो इनसे पूछना ही चाहिए कि तुम जमाखोरी तो नहीं कर रहे हो? कहीं ऐसा न हो कि जनता ही इनके गोदामों को लूट ले और एक समग्र क्रांति का सूत्रपात इस देश में हो जाए। हम सब ब्लागरर्स को ऐसे जमाखोरों के प्रति निन्दा प्रस्ताव पारित करना चाहिए और जहाँ भी कोई परिचित हो उससे अवश्य पूछना चाहिए कि क्या तुम भी जमाखोरी कर रहे हो? आज सरकारें बेबस हैं लेकिन जनता को अब जागरूक होना पड़ेगा। वो ही देश फलता-फूलता है जहाँ की जनता जागरूक होती है।
Friday, January 15, 2010
सुकून आता जाएगा
अभी समीरलाल जी की पोस्ट आयी, "दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे"। मन में कहीं उथल-पुथल सी हुई, रिश्तों को लेकर। मेरा यह आलेख समीर जी के लिए -
सुकून आता जाएगा
कई दिनों से मन में एक उद्वेग उथल पुथल मचा रहा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या है? तभी डॉक्टर पति के पास एक बीमार आया, उसे फूड पोइजनिंग हो गयी थी और वह लगातार उल्टियां कर रहा था। मुझे मेरी उथल पुथल भी समझ आ गयी। दिन रात मनुष्यता को समाप्त करने वाला जहर हम पीते हैं, शरीर और मन थोड़ा तो पचा लेता है लेकिन मात्रा अधिक होने पर फूड पोइजनिंग की तरह ही बाहर आने को बेचैन हो जाता है। मन से निकलने को बेचैन हो जाता है यह जहर। कुछ लोग गुस्सा करके इसे बाहर निकालते हैं, कुछ लोग झूठी हँसी हँसकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं और हम स्याही से खिलवाड़ करने वाले लोग स्याही को बिखेर कर अपनी उथल-पुथल को शान्त करते हैं। बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है। शब्द भी पेड़ों से झरे फूलों की तरह होते हैं, वे झरते हैं और सिमट कर एक कोने में एकत्र हो जाते हैं। अच्छा मकान मालिक उन्हें झोली में भरता है और अपने घर में सजा लेता है। लेखक भी शब्दों को अपनी स्याही के सहारे पुस्तकों में सजा देता है। जैसे ही कमरे में फूलों का गुलदस्ता सजा दिया जाता है स्वतः ही वातावरण सुगंधित हो जाता है। वहाँ फैली घुटन, सीलन झट से बाहर भाग जाती है। ऐसे ही जब हम शब्दों को मन में सजाते हैं उन्हें कोरे पन्नों में उतारते हैं तब मन की घुटन और ऊब पता नहीं कहां तिरोहित हो जाती हैं। जीवन फिर खिल उठता है।
आज एक कसक फिर उभर आयी। बचपन से ही मेरे पीछे पड़ी है, कभी भी छलांग लगाकर मेरे वजूद पर हावी हो जाती है। मैं नियति का देय मानकर सब कुछ स्वीकार कर चुकी हूँ लेकिन फिर भी यह कसक मेरे अंदर अमीबा की तरह अपनी जड़े जमाए बैठी है। जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है यह भी अमीबा की तरह वापस सक्रिय हो जाती है। आदमी सपनों के सहारे जिंदगी निकाल देता है। बचपन में जब नन्हें हाथ प्रेमिल स्पर्श को ढूंढते थे तब एक सपना जन्म लेता था। हम बड़े होंगे अपनी दुनिया खुद बसाएंगे और फिर प्रेम नाम की ऑक्सीजन का हम निर्यात करेंगे। जिससे कोई भी रिश्ते में उत्पन्न हो रही कार्बन-डाय-आक्साइड का शिकार ना हो जाए। लेकिन यह कारखाना लगाना इतना आसान नहीं रहा। हवा इतनी दूषित हो चली थी कि आक्सीजन का निर्यात तो दूर स्वयं के लिए भी कम पड़ती थी। जैसे तैसे करके काम चलाते रहे। बच्चे बड़े होने लगे, तब फिर सपना देख लिया। सपने में देखने लगे कि अब तो प्राण वायु का पेड़ बड़ा होगा और हमें भरपूर वायु मिलेंगी। लेकिन क्या? हमने पेड़ बोना चाहा लेकिन बच्चे पंछी बन गए। वे हमारे पेड़ से उड़कर बर्फ की धवल चोटी पर बैठ गए। जहाँ उष्मा नहीं थी, थी केवल ठण्डक। हम फिर आक्सीजन के अभाव में तड़फड़ाने लगे। अब तो सपने भी साथ छोड़ने को आमादा हो गए। वे बोले कि तुम जिंदगी भर हमारा सहारा लेते रहे, तुमने सच करके कुछ भी नहीं दिखाया। हम भला तुम्हारा साथ कब तक देंगे? और एक दिन उन्होंने बहुत ही रुक्षता के साथ हम से कह दिया कि नहीं अब नहीं होगा, बाबा हमारा पीछा छोड़ो।
हमने भी जिद ठान ली कि देखें सपने कैसे नहीं आते? लेकिन सपनों ने नींद से दोस्ती कर ली। वे बोले सपने तभी देखोंगे ना, जब नींद आएगी? हम नींद को भी अपने साथ ले जाते हैं। हम फिर भी हताश नहीं हुए। हमने कहा कि कोई बात नहीं हम खुली आँखों से सपना देखेंगे। लेकिन इतना सुनते ही सपने फिर हँस दिए, वे बोले कि दिन में जब भी खुली आँखों से सपना देखने की कोशिश करोगे तो नींद झपकी बनकर उसे तोड़ देगी। अब तुम उस संन्यासी की तरह हो जिस का तप भंग करने के लिए अप्सरा जरूर आएगी। अतः भूल जाओ सपने और कठोर धरातल पर जीना सीखो। यहाँ रिश्तों में जहरीली हवा ज्यादा है और प्रेम की ताजगी से भरी प्राण वायु कम है। तुम ने जिस प्राण वायु का कारखाना लगाना चाहा था वह भी तुम्हारे लिए नहीं रहा। तुम्हें तो उसी जद्दो-जहेद में अपनी जिंदगी निकालनी है। यदि हिम्मत को बटोर सको तो फिर जुट जाओ। लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
सुकून आता जाएगा
कई दिनों से मन में एक उद्वेग उथल पुथल मचा रहा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या है? तभी डॉक्टर पति के पास एक बीमार आया, उसे फूड पोइजनिंग हो गयी थी और वह लगातार उल्टियां कर रहा था। मुझे मेरी उथल पुथल भी समझ आ गयी। दिन रात मनुष्यता को समाप्त करने वाला जहर हम पीते हैं, शरीर और मन थोड़ा तो पचा लेता है लेकिन मात्रा अधिक होने पर फूड पोइजनिंग की तरह ही बाहर आने को बेचैन हो जाता है। मन से निकलने को बेचैन हो जाता है यह जहर। कुछ लोग गुस्सा करके इसे बाहर निकालते हैं, कुछ लोग झूठी हँसी हँसकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं और हम स्याही से खिलवाड़ करने वाले लोग स्याही को बिखेर कर अपनी उथल-पुथल को शान्त करते हैं। बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है। शब्द भी पेड़ों से झरे फूलों की तरह होते हैं, वे झरते हैं और सिमट कर एक कोने में एकत्र हो जाते हैं। अच्छा मकान मालिक उन्हें झोली में भरता है और अपने घर में सजा लेता है। लेखक भी शब्दों को अपनी स्याही के सहारे पुस्तकों में सजा देता है। जैसे ही कमरे में फूलों का गुलदस्ता सजा दिया जाता है स्वतः ही वातावरण सुगंधित हो जाता है। वहाँ फैली घुटन, सीलन झट से बाहर भाग जाती है। ऐसे ही जब हम शब्दों को मन में सजाते हैं उन्हें कोरे पन्नों में उतारते हैं तब मन की घुटन और ऊब पता नहीं कहां तिरोहित हो जाती हैं। जीवन फिर खिल उठता है।
आज एक कसक फिर उभर आयी। बचपन से ही मेरे पीछे पड़ी है, कभी भी छलांग लगाकर मेरे वजूद पर हावी हो जाती है। मैं नियति का देय मानकर सब कुछ स्वीकार कर चुकी हूँ लेकिन फिर भी यह कसक मेरे अंदर अमीबा की तरह अपनी जड़े जमाए बैठी है। जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है यह भी अमीबा की तरह वापस सक्रिय हो जाती है। आदमी सपनों के सहारे जिंदगी निकाल देता है। बचपन में जब नन्हें हाथ प्रेमिल स्पर्श को ढूंढते थे तब एक सपना जन्म लेता था। हम बड़े होंगे अपनी दुनिया खुद बसाएंगे और फिर प्रेम नाम की ऑक्सीजन का हम निर्यात करेंगे। जिससे कोई भी रिश्ते में उत्पन्न हो रही कार्बन-डाय-आक्साइड का शिकार ना हो जाए। लेकिन यह कारखाना लगाना इतना आसान नहीं रहा। हवा इतनी दूषित हो चली थी कि आक्सीजन का निर्यात तो दूर स्वयं के लिए भी कम पड़ती थी। जैसे तैसे करके काम चलाते रहे। बच्चे बड़े होने लगे, तब फिर सपना देख लिया। सपने में देखने लगे कि अब तो प्राण वायु का पेड़ बड़ा होगा और हमें भरपूर वायु मिलेंगी। लेकिन क्या? हमने पेड़ बोना चाहा लेकिन बच्चे पंछी बन गए। वे हमारे पेड़ से उड़कर बर्फ की धवल चोटी पर बैठ गए। जहाँ उष्मा नहीं थी, थी केवल ठण्डक। हम फिर आक्सीजन के अभाव में तड़फड़ाने लगे। अब तो सपने भी साथ छोड़ने को आमादा हो गए। वे बोले कि तुम जिंदगी भर हमारा सहारा लेते रहे, तुमने सच करके कुछ भी नहीं दिखाया। हम भला तुम्हारा साथ कब तक देंगे? और एक दिन उन्होंने बहुत ही रुक्षता के साथ हम से कह दिया कि नहीं अब नहीं होगा, बाबा हमारा पीछा छोड़ो।
हमने भी जिद ठान ली कि देखें सपने कैसे नहीं आते? लेकिन सपनों ने नींद से दोस्ती कर ली। वे बोले सपने तभी देखोंगे ना, जब नींद आएगी? हम नींद को भी अपने साथ ले जाते हैं। हम फिर भी हताश नहीं हुए। हमने कहा कि कोई बात नहीं हम खुली आँखों से सपना देखेंगे। लेकिन इतना सुनते ही सपने फिर हँस दिए, वे बोले कि दिन में जब भी खुली आँखों से सपना देखने की कोशिश करोगे तो नींद झपकी बनकर उसे तोड़ देगी। अब तुम उस संन्यासी की तरह हो जिस का तप भंग करने के लिए अप्सरा जरूर आएगी। अतः भूल जाओ सपने और कठोर धरातल पर जीना सीखो। यहाँ रिश्तों में जहरीली हवा ज्यादा है और प्रेम की ताजगी से भरी प्राण वायु कम है। तुम ने जिस प्राण वायु का कारखाना लगाना चाहा था वह भी तुम्हारे लिए नहीं रहा। तुम्हें तो उसी जद्दो-जहेद में अपनी जिंदगी निकालनी है। यदि हिम्मत को बटोर सको तो फिर जुट जाओ। लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
Tuesday, January 12, 2010
तीन लघुकथाएं
रोटी और कुत्ते
झबरा कुत्ता आराम से सो रहा था। तभी कालू कुत्ता उसके पास आया और बोला कि अरे झबरे तू बड़े आराम से सो रहा है, अभी मालिक देखेंगे तो तुझे रोटी भी नहीं देंगे और दो लात भी लगाएँगे।
मैं अब उनकी रोटी पर नहीं पलता। मुझे उनकी चिन्ता भी नहीं। मुझे लात मारकर तो देखें, मैं उनकी टंगड़ी को ही चबा डालूँगा।
अरे भाई ऐसा क्या हो गया? मालिक तो बड़े भले हैं!
अरे कुछ नहीं, शहर के बहुत लोग रोज यहाँ घूमने आते हैं और हमें मुफ्त में ही रोटियां डालते हैं तो फिर हम काम क्यों करें?
दुश्मन
यार सुधांशु! तुम इतने कठोर क्यों हो? अपने किसी भी कर्मचारी की पदोन्नति नहीं करते। पदोन्नति तो उनका अधिकार है। तुम्हारे कार्यालय में बेचारे तीन र्कचारी दस वर्ष से अपनी सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन वे अभी भी अस्थायी ही हैं। ये सारे ही निम्न वर्ग के लोग हैं। इनका भला करो, तुम्हें दुआएं देंगे।
हाँ राजेन्द्र तुम सत्य कहते हों। मैं अभी इस विभाग में दो वर्ष पूर्व ही आया हूँ और शायद एक वर्ष बाद मेरा स्थानान्तरण दूसरे विभाग में हो जाएगा। मैं पदोन्नति और स्थायीकरण करके किसी को भी अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहता।
अशिक्षित माँ
एक आत्मा एक दिन भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़ी थी। भगवान मुझे माँ चाहिए। माँ के माध्यम से ही मैं शरीर धारण कर सकूंगा, धरती का उपभोग कर सकूंगा।
तथास्तु। भगवान ने कहा। लेकिन साथ ही एक प्रश्न भी कर दिया।
तुमको कैसी माँ चाहिए?
मेरे पास एक माँ है जो शिक्षित है और दूसरी है अशिक्षित।
शिक्षित तुम्हें ममता देगी, संस्कार देंगी, अच्छे, बुरे की समझ देगी।
अशिक्षित केवल ममता देगी। तुम जो भी मांगोंगे बस वो देगी।
अच्छा और बुरा सबकुछ उसकी ममता के सामने टिक नहीं पाएगा।
बोलो तुम्हें शिक्षित माँ चाहिए या अशिक्षित?
कलियुग की आत्मा बोली कि अशिक्षित।
झबरा कुत्ता आराम से सो रहा था। तभी कालू कुत्ता उसके पास आया और बोला कि अरे झबरे तू बड़े आराम से सो रहा है, अभी मालिक देखेंगे तो तुझे रोटी भी नहीं देंगे और दो लात भी लगाएँगे।
मैं अब उनकी रोटी पर नहीं पलता। मुझे उनकी चिन्ता भी नहीं। मुझे लात मारकर तो देखें, मैं उनकी टंगड़ी को ही चबा डालूँगा।
अरे भाई ऐसा क्या हो गया? मालिक तो बड़े भले हैं!
अरे कुछ नहीं, शहर के बहुत लोग रोज यहाँ घूमने आते हैं और हमें मुफ्त में ही रोटियां डालते हैं तो फिर हम काम क्यों करें?
दुश्मन
यार सुधांशु! तुम इतने कठोर क्यों हो? अपने किसी भी कर्मचारी की पदोन्नति नहीं करते। पदोन्नति तो उनका अधिकार है। तुम्हारे कार्यालय में बेचारे तीन र्कचारी दस वर्ष से अपनी सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन वे अभी भी अस्थायी ही हैं। ये सारे ही निम्न वर्ग के लोग हैं। इनका भला करो, तुम्हें दुआएं देंगे।
हाँ राजेन्द्र तुम सत्य कहते हों। मैं अभी इस विभाग में दो वर्ष पूर्व ही आया हूँ और शायद एक वर्ष बाद मेरा स्थानान्तरण दूसरे विभाग में हो जाएगा। मैं पदोन्नति और स्थायीकरण करके किसी को भी अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहता।
अशिक्षित माँ
एक आत्मा एक दिन भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़ी थी। भगवान मुझे माँ चाहिए। माँ के माध्यम से ही मैं शरीर धारण कर सकूंगा, धरती का उपभोग कर सकूंगा।
तथास्तु। भगवान ने कहा। लेकिन साथ ही एक प्रश्न भी कर दिया।
तुमको कैसी माँ चाहिए?
मेरे पास एक माँ है जो शिक्षित है और दूसरी है अशिक्षित।
शिक्षित तुम्हें ममता देगी, संस्कार देंगी, अच्छे, बुरे की समझ देगी।
अशिक्षित केवल ममता देगी। तुम जो भी मांगोंगे बस वो देगी।
अच्छा और बुरा सबकुछ उसकी ममता के सामने टिक नहीं पाएगा।
बोलो तुम्हें शिक्षित माँ चाहिए या अशिक्षित?
कलियुग की आत्मा बोली कि अशिक्षित।
Friday, January 1, 2010
एक कविता ब्लागर मित्रों के नाम
नये वर्ष पर आज फिर डायरी और कलेण्डर बदल गए, बस नहीं बदले तो ब्लागर मित्र। मेरी दीवारें और टेबल खुश है, क्योंकि उन पर कोई नया चित्र आने वाला है। लेकिन मैं खुश हूँ कि मेरे पास मेरे पुराने मित्र हैं। नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ आप सभी के लिए एक कविता।
सूची एक बनायी मैंने
विगत वर्ष के दुष्ट जनों से
इक्का-दुक्का ही थे वे सब
आँचल भर गया मित्र जनों से।
आँसू कम औ खुशियाँ ज्यादा
दो औ दस का मेल बनाया
पलड़े में भारी थी खुशियाँ
आँसू तो बस बेचारे थे
आँखों में दिखते वे केवल
अन्तस भर गया सुधि जनों से।
कितने साँप निकल आए थे
आस्तीन को जब झाड़ा था
कितने अनदेखे मन ऐसे
जिनके पास फूलमाला थी
साँपों को अनदेखा कर के
अँजुरी भर गयी मिष्ट जनों से।
तीर धनुष भाला औ बरछी
दुश्मन में सारे दिखते थे
ढाई अक्षर प्रेम के देखे
सारे ओझल हो जाते थे
कलम प्रेम की मन के कागज
भर डालो तुम श्रेष्ठ जनों से।
खुशियाँ लाए समय नवान्तर
दुख को पीछे छोड़ निरन्तर
जग जाने दे प्रीत स्वयं की
काल रहेगा नूतन मनहर
सिंचित सकल प्रेम को लेकर
ज्योत जला ले इष्ट जनों से।
सूची एक बनायी मैंने
विगत वर्ष के दुष्ट जनों से
इक्का-दुक्का ही थे वे सब
आँचल भर गया मित्र जनों से।
आँसू कम औ खुशियाँ ज्यादा
दो औ दस का मेल बनाया
पलड़े में भारी थी खुशियाँ
आँसू तो बस बेचारे थे
आँखों में दिखते वे केवल
अन्तस भर गया सुधि जनों से।
कितने साँप निकल आए थे
आस्तीन को जब झाड़ा था
कितने अनदेखे मन ऐसे
जिनके पास फूलमाला थी
साँपों को अनदेखा कर के
अँजुरी भर गयी मिष्ट जनों से।
तीर धनुष भाला औ बरछी
दुश्मन में सारे दिखते थे
ढाई अक्षर प्रेम के देखे
सारे ओझल हो जाते थे
कलम प्रेम की मन के कागज
भर डालो तुम श्रेष्ठ जनों से।
खुशियाँ लाए समय नवान्तर
दुख को पीछे छोड़ निरन्तर
जग जाने दे प्रीत स्वयं की
काल रहेगा नूतन मनहर
सिंचित सकल प्रेम को लेकर
ज्योत जला ले इष्ट जनों से।
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