Wednesday, September 23, 2009

जनजातीय गाँव - 2


मौसम कुछ-कुछ खुशगवार था, सोचा कि किसी गाँव में घूम आया जाए। अभी भुटटो का भी मौसम था तो सोचा गया कि किसी के खेत पर जाकर ताजे भुट्टो का मजा लिया जाए। उदयपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर बसा था एक गाँव अलसीगढ़। वहाँ एक पानी का बंधा भी था तो पानी का लुत्‍फ और साथ में भुट्टे। लेकिन हमारी गाडी अलसीगढ गाँव में चले गयी, वहाँ से एक कच्‍चा रास्‍ता जाता था बांध की ओर। हमने उस कच्‍चे रास्‍ते पर जाने का विचार त्‍याग दिया और वहीं गाँव को निहारने लगे। हम एक पेड की छाँव तले खडे थे और किसी के खेत पर जाकर भुट्टे खाने की सोच रहे थे। देखा कि झुण्‍ड के झुण्‍ड जनजातीय लोग चले आ रहे हैं। हमें देखकर वे रुके, राम-राम हुई। मेरे पति चिकित्‍सक हैं और इस क्षेत्र के सारे ही लोग उनके पास चिकित्‍सा कराने आते हैं तो पहचान का संकट नहीं था। हमने पूछा कि कहाँ जा रहे हो तो वे बोले कि गवरी में।
आज गवरी का समापन था। तब हमें ध्‍यान आया कि आज भुट्टे खाना कठिन काम है। रक्षाबंधन के बाद से ही पूरे सवा महिने चलने वाला यह पर्व है। इस पर्व में वनवासी अपनी फसल को तोडता नहीं है और न ही हरी सब्जियों का सेवन करता है। हमने फिर भी एक-दो लोगों से कहा कि भुट्टे खिला दो लेकिन उन्‍होंने कहा आज तो नहीं। तभी हमें लगा कि हम भी गवरी देख ही आएं। सारे ही क्षेत्र वाले वहाँ एकत्र थे, गवरी उनके जीवन का अभिन्‍न पर्व है तो उसे देखने से ज्‍यादा वहाँ आना ज्‍यादा आनन्‍द दायक होता है तो लोग जहाँ जगह मिली वहाँ ही पहाडियों पर बैठ गए थे। गवरी जहाँ खेली जा रही थी वहाँ लोग झुण्‍ड बनाकर डटे थे।
यहाँ का जनजातीय समाज के पास कहीं आधा बीघा तो कहीं एक और ज्‍यादा हुई तो पाँच बीघा जमीन खेती के लिए होती है। अधिकतर वहीं उनका झोपड़ा होता है। खाने को मक्‍की हो जाती है और दूसरी आवश्‍यक वस्‍तुएं मजदूरी की आमद से मिलती हैं। गवरी के समापन के बाद ही वे फसल को तोडते हैं और सौगात के रूप में पाँच भुट्टे डाक्‍टर आदि को देते हैं। यह गाँव अलसीगढ़ उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा है। पतली सी सडक पर वाहन को चलाना पडता है, पूरा ही क्षेत्र पहाडों से घिरा है और बहुत ही मनोरम है। आज के पचास वर्ष पूर्व यहाँ घना जंगल था, लेकिन अब पेड दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते। कभी यहाँ के वनवासी जंगल के राजा थे लेकिन अंग्रेजों ने जब से जंगल को सरकारी सम्‍पत्ति बनाया तब से ही ये जंगल की उपज से दूर हो गए। बस अब तो जंगल में महुवा और पलाश के कुछ ही पेड दिखायी देते हैं। ये दोनों ही पेड इनकी आमदनी का मुख्‍य जरिया हैं। इस जगह अभाव है लेकिन फिर भी एक संतुष्टि का भाव सब के चेहरों पर दिखायी देता है।
मैंने अपनी बात भुटटो से की थी, आप सोच रहे होंगे कि आखिर हमें भुट्टे खाने को मिले या नहीं। हमें मिले, एक चाय की टापरी थी, हमने उसी को कहा और उसने डॉक्‍टर साहब का लिहाज करते हुए हमें भुट्टे खिलाए। खेत से ही भुट्टे तोडे गए और वहीं से कांटे लाकर उनके बीच में ही सेके गए। कितना मीठा स्‍वाद था उन भुट्टो का? जितना सुंदर यह स्‍थान है उतने ही मीठे यहाँ के भुट्टे भी हैं और लोग भी एकदम सीधे। पोस्‍ट लम्‍बी न हो जाए इसके लिए यहीं समाप्‍त करती हूँ, अगली बार आगे की बात करेंगे। चित्रों को बडा करके देखेंगे तो अधिक आनन्‍द आएगा।
अजित गुप्‍ता

17 comments:

डॉ टी एस दराल said...

भुट्टो की कहानी तो बड़ी मजेदार रही. लेकिन आपने ये नहीं बताया की इस गवरी पर्व में होता क्या है. जाने की उत्सुकता है.

अजित गुप्ता का कोना said...

दराल जी
मैंने इससे पूर्व की पोस्‍ट पर गवरी के बारे में लिखा था कि यह महाभारत कालीनपौराणिक कथाओं का मंचन है। जनजातीय लोग इसे गाँव-गाँव और उदयपुर शहर में भी स्‍वांग भरकर नृत्‍य नाटिका के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं।

Arvind Mishra said...

आह आपने तो जिस तरह भुट्टे खाने का वर्णन किया है की मुंह में पानी आ गया -अब कहाँ से मिलेगें भुट्टे ?

निर्मला कपिला said...

आपका संस्मरण पढ कर तो अपना भी दिल भुटे खाने का करने लगा मगर नवरात्र पर्व के व्रत हैं खा नहीं सकते। मैने भी गवरी पर्व के बारे मे पहली बार सुना है। एक ही भारत मे कितनी अलग अलग पर्व और त्यौहार देखने को मिलते हैं जिनके बारे मे शायद भारत मे रहने वाले लोग ही नहीं जानते । तभी तो जीवन अगर कहीं है तो भारत मे अनेक रंग रूप लिये। आपकी अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा। शुभकामनायें

Mumukshh Ki Rachanain said...

गवरी पर्व सवा महिने चलने वाला पर्व है। सवा माह का नियम तो रमजान के एक माह के रोजे से भी लम्बा है. यह जान कर बहुत ही आर्श्चय हुआ " इस पर्व में वनवासी अपनी फसल को तोडता नहीं है और न ही हरी सब्जियों का सेवन करता है।" बहुत ही संयम से सवा महिना गुज़रना पड़ता होगा उन्हें.................

ऐसे श्रद्धा के सवा महीने के संयम और नियमबद्ध पर्व और भोले बनवासियों को नमन.

एक अच्छी जानकारी और सुन्दर चित्र द्वारा उसका दर्शन करने के लिए आपका आभार.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत उम्दा वृत्तांत लिखा है आपने.
बधाई.

Udan Tashtari said...

्बेहतरीन भुट्टा वृतांत...:) मजा आ गया.

शोभना चौरे said...

आनन्द आ गया आपकी पोस्ट पढ़कर खासकर जन्जतियो के साथ बात करके और भुट्टे खाने वाला संस्मरण |हम भी करीब १५ साल राजस्थान और मध्य प्रदेश कि सीमारेखा के पास नया गाव के पास विक्रम सीमेंट में रहे
वहां के आदिवासी गाँवो में बहुत काम किया है \बहुत सारे चिकित्सा शिविर महिलाओ के लिए सिलाई कक्षाए ,बच्चो के लिए आगंवादी कारपेट सेंटर आदी |तभी गावो में ही काफी समय बीतता था |वो ही यादे ताजा हो गई \
आभार

रचना त्रिपाठी said...

भुट्टा खाने का असली आनंन्द तब आता है जब खेत में ही भुनवा के खाया जाय|
बहुत अच्छा वर्णन किया है।
बधाई!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस पोस्ट से बहुत ही रोचक
और एकदम नई जानकारी मिली।
धन्यवाद!

daanish said...

rochak......
aur gyaanvardhak

abhivaadan svikaareiN

---MUFLIS---

सागर नाहर said...

सिर्फ भुट्टे ही नहीं गेहूं की डांगिया, हरे चने आदि कई चीजें हैं जो ताजे तोड़ कर खेत में में सिकवा कर गर्मा-गर्म खाने का मजा ही अलग है।

हरकीरत ' हीर' said...

आपके लेख से पर्वों की नयी जानकारियाँ मिली शुक्रिया .....!!

बाल भवन जबलपुर said...

बांधती है आपकी शैली

Unknown said...

ji bahut achhi kahani sunaye aapne ..

ताऊ रामपुरिया said...

वाह बडा रोचक संस्मरण लिखा आपने एक दिनी पिकनिक का. भुट्टे और वो भी ताजा तोडकर..पढते ही मुंह मे पानी आजाता है. उदयपुर कई बार आना हुआ पर इन गांवों की तरफ़ जाने का समय ही नही मिला. बहुत शुभकामनाए.

रामराम.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

रोचक विवरण, पढकर अच्छा लगा।
करवाचौथ और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?