अर्चना अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक सॉफ्टवेयर कंपनी में ऊँचे पद पर है। उसका एक पाँव देश में, तो दूसरा विदेश में रहता है। वह एक ऐसी युवती है, जो बेहतरीन खाना बनाती है, जिसने सिलाई-बुनाई जैसे लड़कियों वाले काम भी अत्यंत कुशलता से किए हैं और इंजीनियरिंग की उपाधि विश्वविद्यालय में अव्वल रहकर प्राप्त की है।
सही समय पर विवाह किया और एक बेटी की माँ बनने के बाद उसके केरियर ने गति पकड़ी। अब जब भी अर्चना को विदेश जाना पड़ता है, अविनाश बेचारगी से रिश्तेदार महिलाओं को ताकता है। कभी खुद अविनाश की माँ, कभी अर्चना की माँ या फिर कोई बुआ, मौसी अर्चना की कही जाने वाली गृहस्थी और बेटी को सम्भालती हैं, जो कि वास्तव में अविनाश की भी है, पर अविनाश न तो गृहस्थी संभालने में समर्थ है और न ही बेटी संभालने में। तुर्रा यह कि “बेचारा अविनाश” घर संभाले, बेटी सम्भाले या नौकरी करे? जबकि अर्चना जब देश में होती है, तो वह इन तीनों के साथ अविनाश को भी सम्भालती है। उसकी सहायता के लिए न उसकी सास रुकती है, न माँ, न बुआ और न ही मौसी। अर्चना के आते ही सब अपने-अपने घर लौट जाती हैं क्योंकि अर्चना कोई “बेचारी” थोड़े ही है। वह तो औरत है।
मधुरिमा – 21 जनवरी 2009
श्रीमती अजित गुप्ता प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास) हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।
Wednesday, January 21, 2009
जो औरत है, वो बेचारी कैसे?
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7 comments:
बहुत सामयिक मुद्दा उठाया है आपने. "बेचारा अविनाश घर संभाले, बेटी सम्भाले या नौकरी करे?" वाली मानसिकता न सिर्फ़ अपरिपक्व है बल्कि घातक भी है.
यथार्थ और सार्थक आलेख सामयिक विषय पर आपने बखूबी ध्यान आकर्षित किया है
प्रदीप मनोरिया 09425132060
http://manoria.blogspot.com
http://kundkundkahan.blogspot.com
purush ki mansikta ka bahut badiya udahran dya hai is mude par aur likhiyeapko aaj ki is smasia par likhne ke liye bahut bahut bdhaai
औरत में कई मोर्चों पर लड़ सकने का बेजोड़ माद्दा होता है . आदमी इस मामले में एकआयामी साबित होता है .
न औरत बेचारी है और न पुरुष बेचारा, बेचारे तो वह बच्चे हैं जो इन अर्थहीन और अंतहीन त्रासदी को झेलते हैं बिना लिंगभेद के। और कहानी का अंत नारियों की सच्चाई को अनायास (या लेखन की प्रतिभा से ही) सामने ले आता है जब उसकी सहायता के लिए न उसकी सास रुकती है, न माँ, न बुआ और न ही मौसी न बहन और न पडोसन और न ही कोई और औरत। अर्चना के आते ही सब अपने-अपने घर लौट जाती हैं क्योंकि अर्चना कोई “बेचारी” थोड़े ही है। वह तो औरत है। उन्हीं औरतों के जैसी एक और औरत। मुझे इस कहानी में यही विरोधाभास लगता है और ऐसा लगता है जैसे कि यह कहानी एक पुरुष ने लिखी है वह भी नारी के छदम रुप में क्योंकि पुरुष ही तो नारी के विरोधी हैं। वे कभी नारी को पत्नी बनाते हैं, कभी मॉं। कभी पिता बनकर उन्हें लिखाते पढाते हैं, उन्हें स्वावलंबी बनाते हैं और यह सब करते हैं नारी के अपमान के लिए।
अविनाशी है पुरूष पर,
प्रकृति अर्चना पात्र.
शक्ति बिना शिव शव बने,
शिव बिन शक्ति अमातृ.
प्रकृति-पुरूष मिल सृष्टि को,
करते हैं जीवंत.
मिलें न तो वह साध्वी,
यह हो जाता संत.
ताल-मेल की कमी ही,
करती खड़े सवाल.
बनते परिजन-स्वजन भी,
बस जी का जंजाल.
न्यूनाधिक सामर्थ्य से,
करें समन्वय आप.
तभी सके परिवार में,
नेह नर्मदा व्याप.
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम
सजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम
स्वालम्बन के राह में आने वाली चुनौतियों का दृढ़ता से सामना करना अर्चना का संदेश है। नर नारी एक दुसरे के पुरक के रुप में सह अस्तित्व की भावना विकसित करें, यह समाज रचना का यह आधारभूत तत्व है।
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