अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द शायद इतना गहरा नहीं होता जितनी गहरी वह टीस होती है, जब हमें हर क्षण यह अनुभव कराया जाता हो कि तुम पराए हो। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व भारत से लाखों लोग विदेशी धरती को आबाद करने के लिए दुनिया के विभिन्न कोनों में गए थे। उनकी मेहनत से दलदली भूमि में भी गन्ने की फसलें लहलहाने लगीं थीं। आज वे सारे ही देश सम्पन्न देशों की श्रेणी में हैं। लेकिन उन धरती के बाशिन्दों ने उन्हें अपनेपन की उष्मा कभी प्रदान नहीं की। भारत अनेक राज्यों का समूह है, विश्व के सारे ही राष्ट्र अनेक राज्यों के समूह से निर्मित होते हैं। लेकिन भारत में और अन्य राष्ट्रों में शायद एक मूल अन्तर है। भौगोलिक दृष्टि से किसी भी राष्ट्र का राज्यों में विभक्त होना पृथक बात है लेकिन भाषा, खान-पान आदि की पृथकता अलग बात है। ये अन्तर एक होने में अड़चने डालते हैं। जब दुनिया में किसी देश की सीमाएँ नहीं थी तभी से भारतवंशी व्यापार के लिए, घुम्मकड़ता के लिए दुनिया के कोनों में जाते रहे हैं। इतिहास तो यह भी कहता है कि भारतीय मेक्सिको तक गए थे। यही कारण है कि जब दुनिया सीमाओं में बँटी, तब भी भारतीय व्यक्ति अपने कदमों पर लगाम नहीं लगा सके। शायद भारतीय मन असुरक्षा-भाव से ग्रसित नहीं हैं, यही कारण है कि वे अकेले ही दुनिया के किसी भी कोने में बसने के लिए निकल पड़ते हैं। इसीलिए भारतीयों में पराएपन के भाव की पीड़ा मन के अन्दर तक बसी है। वे कभी विदेश में और कभी अपने ही देश में इस पीड़ा को भुगतते हैं। इसलिए ओबामा की जीत उनके लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।
हम भारतीय जब सम्पूर्ण सृष्टि को एक कुटुम्ब मानते हैं तब भला एक भारतीय अपने ही देश भारत में प्रांतों की सीमाओं में कैसे सिमटकर रह सकता है? कभी राजस्थान में रेगिस्तान का फैलाव अधिक होने के कारण यहाँ विकास की सम्भावनाएँ नगण्य थीं। तभी से यहाँ का व्यापारी भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी रोजगार और व्यापार की सम्भावनाएँ तलाशने के लिए निकल पड़ा। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ पर राजस्थान का निवासी नहीं हो। ऐसे ही भारत के आसपास के देशों में भी राजस्थानी बहुलता से गए। राजस्थान की तरह ही सम्पूर्ण देश की जनसंख्या भारत के महानगरों में रोजगार की तलाश में गयी। कभी कलकत्ता उद्योग नगरी थी तो सभी का गंतव्य कलकत्ता था। मुम्बई फिल्मी नगरी थी तो आम भारतीयों के सपने वहीं पूर्ण होते थे। पूर्वांचल में भी व्यापार की प्रचुर सम्भावनाएं थीं तो भारतीय वहाँ भी गए।
अमेरिका में जब यूरोप का साम्राज्य स्थापित हुआ तब उसके नवनिर्माण की बात भी आई। दक्षिण-अफ्रीका से बहुलता से गुलामों के रूप में वहाँ के वासियों को अमेरिका लाया गया। उन लोगों ने रात-दिन एक कर अमेरिका का निर्माण किया। जैसे भारतीयों ने फिजी, मोरिशस आदि देशों का निर्माण किया था। घनघोर जंगल, दलदली भूमि को स्वर्ग बनाने का कार्य यदि किसी ने भी इस दुनिया में किया है तो इन्हीं मेहनतकश मजदूरों ने किया है। लेकिन कभी धर्म के नाम पर, कभी त्वचा के रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर या फिर कभी बाहरी बताकर जब हम मनुष्य में अन्तर करते हैं तब वेदना का उदय होता है। यही वेदना जब एकीकृत होती है तब उसमें से एक क्रांति का सूत्रपात होता है। कभी यह क्रांति प्रत्यक्ष होती है और कभी इस क्रांति का मूल हमारे मन में होता है। यह घर हमारा भी है, इसी सूत्र को थामे करोड़ों दिलों ने ओबामा को देश का प्रथम नागरिक बना दिया। ओबामा के स्थापित होते ही वे करोड़ों लोग जो बाहरी होने की पीड़ा झेलते आए थे, वे सभी भी इस पीड़ा से मुक्त हो गए। अमेरिका में आकर यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया, अफ्रीका आदि देशों से बसे करोड़ों बाशिन्दे इस पीड़ा को कहीं न कहीं मन में बसाए थे कि वे बाहरी हैं। उन्हें कभी न कभी इस पीड़ा से गुजरना पड़ा है। गौरी चमड़ी बाहरी रूप से एक दिखायी देती है लेकिन अश्वेत और एशिया मूल के लोग एकाकार नहीं हो पाते। इसलिए इन सभी ने एक स्वर में यह माना कि हम सब एक हैं। अब अमेरिका हमारा देश है। ओबामा की जीत के मायने यह भी नहीं है कि सभी ने इस सत्य को स्वीकार किया है लेकिन सत्य प्रतिष्ठापित हो गया है। घनीभूत वेदना पिघलने लगी है। फिर ओबामा सभी का प्रतीक बनकर आए थे।
ओबामा की जीत मानवता की जीत दिखायी देने लगी है। जिन यूरोपियन्स ने करोड़ों मेहनसकश इंसानों को गिरमिटिया बनाया और कभी भी समानता का दर्जा नहीं दिया। जिन यूरोपियन्स ने महिलाओं को समानता प्रदान नहीं की, उन्हीं यूरोपियन्स ने अमेरिका में अपने पापों को धो लिया। अमेरिका में ही यह क्यों सम्भव हुआ? शायद इसलिए कि अमेरिका की धरती पर ही यूरोपियन्स को पराए होने की वेदना का अनुभव हुआ। वे भी इस वेदना के भागीदार बने। आज अमेरिका के मूल निवासी रेड-इण्डियन तो वहाँ केवल बीस प्रतिशत हैं, शेष तो यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, मेक्सिको आदि के निवासी ही हैं। जब एक भारतीय से यूरोपियन कहता है कि तुम अमेरिकी नहीं हो तब वह भी प्रश्न करता है कि तुम अमेरिकी कैसे हो? तुमने तो यहाँ अत्याचार किए थे, लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया था। मैं तो यहाँ के नवनिर्माण का भागीदार हूँ, अतः बताओ कि कौन श्रेष्ठ है? तुम तो लाखों अफ्रिकन्स को गुलाम बनाकर यहाँ लाए थे! तुमने उन्हें इंसान कब समझा? तुमने तो उन्हें 1962 के बाद मताधिकार दिया। इसी वेदना के चलते ओबामा की जीत हुई। उन सभी ने स्वीकार किया कि हम सब अमेरिकी हैं। अमेरिका में अब रंग-भेद के आधार पर राष्ट्रीयता की अनुभूति नहीं होगी। लेकिन वहाँ के मूल निवासियों की वेदना शायद इससे और बढ़ जाए! वे वहाँ अल्पमत में थे और उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती थी। दुनिया में यह संदेश गया है कि अमेरिका की धरती सबके लिए है। किसी भी शान्त और सहिष्णु कौम का शायद यही हश्र होता हो!
अमेरिका का एक उज्ज्वल पक्ष और भी है। वहाँ बसे समस्त नागरिकों ने स्वयं को अमेरिकी कहने में गर्व का अनुभव किया। वहाँ तो उन्हें अमेरिकी नहीं कहने से ही वेदना उपजी थी। भारत में ऐसा नहीं है। हम स्वयं को भारतीय होने पर गर्व नहीं करते। हमारी पहचान क्षेत्रीयता के आधार पर विभक्त होती जा रही है। क्यों नहीं हमें भारत कहने में गर्व की अनुभूति होती? क्यों हम इण्डिया कहकर अपनी पहचान छिपाने का प्रयास करते हैं?
ओबामा की जीत हमारी हीनभावना को परे धकेलती है, हम में गौरव की अनुभूति जगाती है। जब ओबामा की जीत विदेशी धरती पर बसे करोड़ों भारतीयों के मन में सपने जगा सकती है तब हम भारतीयों के मन में भी क्षेत्रीयता का दर्द भी मिटा सकती है। ओबामा ने प्रयास किया, वह सफल हुआ। हम भी प्रयास करें, सफल होंगे। सम्पूर्ण भारत हम भारतवासियों का है, यहाँ के कण-कण से अपनत्व की महक आनी चाहिए। हम भारत के किसी भी कोने में जाकर बसें, हमें वहाँ पराएपन की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। चाहे वो कश्मीर हो, पूर्वांचल हो या फिर महाराष्ट्र। किसी भी व्यक्ति के मन में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर पूर्वांचल तक, प्रत्येक प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना जगना चाहिए। ओबामा की जीत का उत्सव इसलिए नहीं मनाना है कि वह बेहतर राष्ट्रपति सिद्ध होगा अपितु इसलिए मनाना है कि अब कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को पराया नहीं कह सकेगा। कोई भी इंसान छोटा-बड़ा नहीं बताया जाएगा। किसी भी देश, प्रदेश या संस्था पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का कब्जा ही नहीं बताया जाएगा। भारत देश हम सबका है, हमारे पूर्वजों ने इसका निर्माण किया है। अब किसी भी कारण से कहीं भी अवरोध खड़े नहीं किए जाएँगे। मैंने भारत की भूमि पर जन्म लिया है, सम्पूर्ण भारत मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि है। मैं भारत का हूँ और भारत मेरा है। ओबामा के बहाने इसी भावना को पुष्ट करने की आवश्यकता है। हमारे लिए ओबामा के मायने यही हैं।
5 comments:
काश आपकी परिकल्पना साकार रूप धारण कर पाती...|
अभी तो यह सच्चाई के मेले में शीर्षासन करती दिख रही है।
bahutbadiyaa aapne ye sandesh dene ki badia koshish ki hai ki
ham punjaabi bangali marathi hai kab kehna seekhoge ham sab bharatvasi hain
ओबामा का आना अपेक्षाएं जगाता है पर कितनी अपेक्षाएं पूरी होंगी यह तो समय ही बताएगा. जब इन्सान परदेश में ठोकर खाता है तो उसे हर स्वदेशी अपना लगता है. वही इन्सान जब स्वदेश में आता है तो उसे अपना भाई और पड़ोसी भी गैर लगता है. वह परदेश में अनुशासित रहता है पर स्वदेश में हर कानून को ठेंगा दिखाना वह अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है. इस विडम्बना के बीच ओबामा को अमरीकियों की कसौटी पर खरा उतरना है. हम भारतवासी हर किसी को सगा और सगों को,गैर मानने के अभ्यस्त हैं. ओबामा के आने का मतलब सिर्फ़ इतना है की अब अमरीकी हितों के संरक्षण के तरीके कुछ बदल जायेगे, उनसे भारत ओके लाभ होग या हानि इससे न ओबामा को मतलब होगा न सलाहकारों को.
Bharat ko ek obama mil to jaye,dikkat ye hai:yahan kee vasindon ko batlaya gaya hai,kunbon ka mulk hai ye.sahi salamat rahna hai to tum bhi kunba paristi karo.is liye chand kunbon ne desh ko aapas main baant liya hai.ye tamam kunbay secular hain ,baki sab sampradayik.Isliye hum aaj bhi apna Obama dhund rahe hain kisi ko milay to batana.
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