Friday, June 29, 2018

विश्वास बड़ी चीज है


विश्वास बड़ी चीज होती है, लेकिन यह बनता-बिगड़ता कैसे है, इसका किसी को पता नहीं। शतरंज का खेल सभी ने थोड़ा बहुत खेला होगा, खेला नहीं भी हो तो देखा होगा, इसमें राजा होता है, रानी होती है, हाथी होता है घोड़ा होता है, ऊँट है तो पैदल भी  हैं। सभी की चाल निश्चित है, खिलाड़ी इन निश्चित चालों के हिसाब से ही अपनी चाल चलता है। उसे घोड़ा मारना है तो अपनी रणनीति तदनुरूप बनाता है और हाथी मारना है तो उसी के अनुसार। राजनीति भी एक शतरंज के खेल समान है, दोनों तरफ सेनाएं सजी हैं और दोनों ही सेनाएं अपनी-अपनी योजना से खेल को खेल रही हैं। खिलाड़ी को पता है कि मुझे क्या चाल चलनी है लेकिन दर्शक को पता नहीं है कि इस चाल का अर्थ क्या है! आज की राजनीति में दर्शक के साथ फेसबुकिये भी आ जुटे हैं, वे अपने ही खिलाड़ी को किसी भी चाल पर बदनाम कर सकते हैं। इस बेवजह की टोका-टोकी से जीतता हुआ खिलाड़ी भी हार जाता है। शतरंज का खिलाड़ी अपनी मेहनत से बनता है और इस मुकाम तक पहुँचता है कि वह राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय मुकाबलों में भागीदार बने, उसे  बनाने में किसी की  भूमिका नहीं होती है, बस उसकी लगन और उसकी बुद्धि ही उसे चोटी का खिलाड़ी बनाती है। राजनीति में भी लगन और बुद्धि ही आगे ले जाती है। एक राजनीतिज्ञ सोच-समझकर अपने कदम रख रहा होता है कि चारों ओर से शोर मच जाता है कि तुम्हारी चाल गलत है। याने दर्शकों को अपने खिलाड़ी पर विश्वास ही नहीं है। चतुर दर्शक खिलाड़ी के खेल को आश्चर्य से देखते है कि देखों हमारे खिलाड़ी ने यह अनोखी चाल चली है तो कैसे सामने वाला वार करता है लेकिन कमअक्ल दर्शक चिल्लाने लगते हैं कि चाल गलत चल दी है।
जब हम खुद कमजोर होते हैं तब हमारा विश्वास भी हर घड़ी डगमगाता रहता है, हम अपने व्यक्ति पर विश्वास रख ही नहीं पाते। परिवार में भी यही देखने को मिलता है कि जो रात-दिन आपकी सेवा कर रहा है, उसके प्रति भी किसी बाहरी व्यक्ति के कहे अनर्गल शब्द विश्वास डगमगा देते हैं। यह उस व्यक्ति का दोष सिद्ध नहीं करते अपितु आपको अपरिपक्व सिद्ध करते हैं। लेकिन आपकी अपरिपक्वता कभी परिवार को तो कभी देश को ले डूबती है। परिवार वाले मेला देखने गये हैं, बच्चा जाते ही जिद पकड़ लेता है कि खिलौना दिलाओ। माता-पिता कहते हैं कि दिला देंगे, लेकिन बच्चा बीच रास्ते पसर जाता है, तमाशा खड़ा कर देता है और झक मारकर माता-पिता बच्चे को खिलौना दिला देते हैं। थोड़ी देर में वही खिलौना बच्चे के लिये भार बन जाता है, तब माता-पिता कहते हैं कि हमने इसलिये ही कहा था कि जाते समय दिला  देंगे। बच्चे को हर चीज देखते ही चाहिये, माता-पिता को पता है कि कब दिलानी है और कहाँ से लेनी है, लेकिन बच्चा मानता नहीं। राजनीति में भी यही हो रहा है, हमें आज की आज यह चाहिये। राजनैतिक परिस्थितियाँ चाहे कुछ भी हो, लेकिन उन्हें आज की आज चाहिये। बच्चा रो रहा है कि आप मुझे कुछ नहीं दिलाते हो, मेरे लिये आपने किया ही क्या है, हम भी रो रहे हैं कि हमारे नेताओं ने हमारे लिये किया ही क्या है?
दो दिन से पुरी के मन्दिर का प्रकरण आ रहा है, मैं भी दो-तीन बार पुरी गयी हूँ, वहाँ के जो हाल हैं वह अकथनीय हैं। पण्डे सरे आम लकड़ी मारते हैं, गाली देते हैं, धक्का देते हैं। आदत पड़ गयी है तो राष्ट्रपति की पत्नी को भी धक्का मार दिया। लेकिन क्या इसके लिये सरकार दोषी है? अपने गिरेहबान में झांक कर देखिये जो रात-दिन हिन्दुत्व का रोना रोते हैं वे खुद क्या कर रहे हैं! पुरी हो या बनारस, सभी जगह पण्डों के हाल बुरे हैं। अभी पिछले साल  ही गंगा सागर जाना हुआ, जहाज में बैठने के लिये इतनी धक्कामुक्की की कुछ भी हो जाए! क्या हिन्दुत्व वादी संगठनों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती! हम वृन्दावन गये, इतनी दुर्दशा कि रोना आ जाए, लेकिन कोई संगठन वहाँ दिखायी नहीं देता। देश के सारे ही धार्मिक पर्यटक स्थलों पर जा आइए, दुर्दशा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। सारे भिखारी वहीं मिलेंगे, सारे लुटेरे वहीं होंगे, लेकिन हिन्दुत्व के लिये गरियाने वाले संगठन कहीं नहीं होंगे। अब आप कहेंगे कि हम क्या करें! आप अपने अन्दर झांकिये कि आपने आजतक हिन्दुत्व के लिये क्या किया? एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूंगी, हमारे शहर में एक अमरूद का ठेका लेने वाले की मृत्यु हो गयी, सम्प्रदाय विशेष ने धार्मिक रंग देकर उसे बाबा बना दिया। हिन्दुओं ने जुलूस निकाला और जिलाधीश के पास गये। जिलाधीश ने  मेरे सामने कहा कि वे पचास हजार थे और आप पाँच हजार भी नहीं हैं, अपितु पाँच सौ हैं, तो अब कैसे हम आपके अधिकारों की रक्षा करें।  इसलिये अपने नेता पर विश्वास करना सीखिये, यदि आप में दमखम होता तो आप नेता होते। घड़ी-घड़ी कटघरे में खड़ा करने की आदत आपको ही महंगी पड़ जाएगी। कल एयरलिफ्ट फिल्म देख रही थी तो उस दिन की घटना को अभी यमन की घटना के संदर्भ में देखा तो सुषमाजी के लिये मैं नतमस्तक हो गयी। करना सीखिये, विश्वास भी अपने आप आ जाएगा, अभी तक आपने कुछ नहीं किया है, बस कॉपी-पेस्ट करके हवा में तूफान खड़ा किया है, इसलिये विश्वास नाम की चीज आपके खून से रिसती जा रही है। जिस दिन कुछ करने लगेंगे उस दिन काम कैसे होता है जान जाएंगे और स्वत: ही अपने नेताओं पर विश्वास बन जाएगा।
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2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-06-2018) को "तुलसी अदालत में है " (चर्चा अंक-3017) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार शास्त्री जी