कभी मन हुआ करता था
कि दुनिया की हर बात जाने लेकिन आज कुछ और जानने का मन नहीं करता! लगने लगा है कि
यह जानना, देखना बहुत हो गया अब तो बहुत कुछ भूलने का मन करता है। तृप्त सी हो गयी
मन की चाहत। शायद एक उम्र आने के बाद सभी के साथ ऐसा होता हो और शायद नहीं भी होता
हो! दौलत के ढेर पर बैठने के बाद दौलत कमाने की चाहत बन्द होनी ही चाहिये और
दुनिया को समझने के बाद और अधिक समझने की
चाहत भी बन्द होनी चाहिये। लेकिन इस चाहत
पर अपना जोर नहीं है, जब तक मन चाहत की मांग करता है, हम कुछ नहीं कर पाते लेकिन
यदि मन तृप्त हो गया है तब उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। रोज ही कोई ना कोई फोन आ
धमकता है, यहाँ आ जाओ, वहाँ आ जाओ लेकिन मन कहता है कि भीड़ में जाकर क्या होगा,
कहीं ऐसा ना हो कि ढूंढने निकले थे मन का सुकून और गँवा बैठे खुद का ही चैन। अक्सर
देखती हूँ कि अधिकतर लोग कोई ना कोई कुण्ठा लेकर बैठे हैं, वही कुण्ठा उनके जीवन
का उद्देश्य बन जाती है। आप उनके सामने कितनी ही अच्छी बाते परोस दें लेकिन उनकी
सोच अपनी कुण्ठा से बाहर निकल ही नहीं पाती। हम यहाँ भी लिखते हैं तो हर व्यक्ति
आपकी हर बात नहीं पढ़ पाता है, बस जो मन माफिक हो वही पढ़ी जाती है। लेकिन लिखना
हमारा उद्देश्य बन बैठा है तो स्वयं को प्रकट करना मन की चाहत बन गयी है और जब
स्वयं को प्रकट करना ही चाहत बन जाए तब दुनिया की हर बात को जानना अनावश्यक सा
लगता है। मैं अपने मन को हरदम कुरदेती रहती हूँ और ईमानदारी से सबको अवगत भी कराती
रहती हूँ।
कभी हम भी थोड़ा
बहुत राजनीति पर लिख लेते थे लेकिन अब लगने लगा है कि जब हर व्यक्ति सत्ता की
तलवार लेकर निकल पड़ा है तो मेरी आवाज तो नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह
जाएगी। सामाजिक मुद्दे भी राजनीति की भेंट चढ़ते जा रहे हैं इसलिये खुद में डूबकर
केवल अकेले व्यक्ति की बात करने से ही शायद बीज में ही सृष्टि समायी है का समाधान
हो जाएगा। दुनिया का हर आदमी सुख चाहता है लेकिन उसके सुख अलग-अलग रास्ते में खड़े
हैं। मेरा रास्ता कहाँ से जाता है और कहाँ तक जाता है, बस यही बात हम समझ नहीं पा
रहे हैं, हम कभी किसी रास्ते पर जाकर भटक
जाते हैं और कभी किसी रास्ते पर जाकर लेकिन मेरा रास्ता मेरे अंदर से ही होकर जाता
है यह जान नहीं पाते। हम दूसरों के सहारे से सुख ढूंढते हैं, जो कभी नहीं मिलता।
यदि हम खुद के सहारे से सुख ढूंढे तो पल भर में सुख मिल जाएंगा, बस मैं यही करने
का प्रयास कर रही हूँ। आज मेरा कथन भाषण जैसा हो गया है लेकिन जो शब्द लिखे जा रहे
हैं उनपर मेरा जोर नहीं, मैं क्या लिखने बैठती हूँ और क्या लिख बैठती हूँ ये मेरे
शब्द ही तय करते हैं, आज यही सही। मैं बीते पाँच-सात दिनों में कई लोगों से मिली,
सभी लोग दूसरों के माध्यम से सुखी होना चाहते थे, कोई परिवार से धन चाहता था तो कुछ
सरकार से रोजगार, कोई समाज से सम्मान चाहता था तो कोई पुरस्कार। सबकी शिकायते और
आशाएं थी लेकिन कोई यह नहीं कह रहा था कि मेरा सुख मैं खुद अर्जित करूंगा! मुझे
केवल अपनी बात कहने में सुख मिलता है और इसके लिये मैं दूसरों का माध्यम नहीं
चुनती। मेरे सुख से भला दूसरों का क्या लाभ! दूसरे मेरे सुख के लिये क्यों चिंतित
हों! मुझे सुखी होना है तो मेरा मार्ग मुझे ही ढूंढना है। मैं केवल सुख की तलाश
में खुद तक सीमित रहती हूँ, इस बात से दुखी नहीं होती कि मुझे कौन पढ़ रहा है और कौन नहीं। बस मैं लिख रही हूँ और
सुखी हो रही हूँ। आप भी अपने अन्दर झांककर देखिये, आपका सुख भी आपका इंतजार कर रहा
होगा। दूसरों के हाथों सुखी होने की जगह खुद से सुखी होना ही अन्तिम सत्य है। जैसे
अपनी रसोई की रोटी खाने से ही तृप्ति होती है ना कि दूसरे की रसोई की रोटी खाने
पर। खुद की रोटी थेपिये और खाकर आनन्दित हो जाइए। तब जरूरत ही नहीं पड़ेगी दूसरे के
छप्पन भोग को देखने की। इसलिये दुनिया का आनन्द उठाने का मन अब नहीं करता बस खुद
का आनन्द ही सच्चा लगता है।
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6 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (12-03-2018) को ) "नव वर्ष चलकर आ रहा" (चर्चा अंक-2907) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कमाल के विचार ,लाजवाब लेख....
वाह!!!
सुधा जी आभार।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति......बहुत बहुत बधाई......
चतुर्वेदी जी आभार।
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