#हिन्दी_ब्लागिंग
मन का दोगलापन देखिये, कभी मन कहता है कि
अकेलापन चाहिये और कभी कहता है कि अकेलापन नहीं चाहिये। कभी कहता है कि अकेलापन तो
चाहिये लेकिन केवल अपनी चाहत के साथ का अकेलापन चाहिये। हम अपनी पसन्द का साथ
चाहते हैं, बस उसी के लिये सारी मारा-मारी करते हैं। दुनिया भरी पड़ी है लेकिन हम
भरी दुनिया में अकेले रह जाते हैं। समारोह में जाते हैं और साथी का साथ छूट जाये
तो कह देते हैं कि तुम मुझे अकेला छोड़कर चले गये। अरे कहाँ थे तुम अकेले! समारोह
में इतने लोग तो थे! लेकिन बस जो अपना है, जो अपने दिल के करीब है या जो हमारा
आत्मीय है, बस उसी का साथ चाहिये। बचपन में माँ अपनी होती है, लोकिन यौवन आते ही मन संगी का साथ ढूंढने लगता
है और माँ विस्मृत हो जाती है। माँ अपने पुत्र के बिना अकेलापन अनुभव करती है और
पुत्र को यौन आकांक्षा की पूर्ति करने वाली संगी के साथ का अकेलापन चाहिये।
अकेलापन दोनो को ही चाहिये, दोनो की ही शर्तें हैं। अपना इच्छित साथी दोनों को ही
चाहिये। माँ दुखी है क्योंकि पुत्र अब उसके पास नहीं है लेकिन पुत्र सुखी है
क्योंकि जीवन संगनी उसके साथ है। माँ कहती है कि पुत्र मैं अकेली हूँ और पुत्र
कहता है कि मुझे अकेला छोड़ दो। ऐसा ही कुछ हमारे जीवन में होता है। कभी कहानी बन
जाती है और कभी बिना कहानी के ही जीवन बीत जाता है। मुम्बई की आशा साहनी की कहानी
बन गयी। उसके अकेलेपन की घटना समाज के अस्तित्व की कहानी बन गयी।
मन के धागे आत्मीयता से बंधते हैं, प्रेम भी
आत्मीय भाव से ही उपजता है। सम्बन्धों को आत्मीयता की अनुभूति हर पल करानी होती
है, कभी त्याग भी करना पड़ता है तो कभी प्यार भी देना पड़ता है। आशा साहनी की
कहानी में आत्मीयता के धागे उलझ गये थे। जब पुत्र को प्यार की जरूरत थी तो माँ ने
त्याग नहीं किया और जब माँ को प्यार की जरूरत थी तो पुत्र की आत्मीयता दूर चले गयी
थी। किसे दोष दें? यह मन का ही दोष है कि हम केवल मनचाहे से ही बंधना चाहते हैं। अपने
रिश्तों को विस्तार नहीं देते। पत्नी की मृत्यु होने पर पति को दूसरी पत्नी का साथ
चाहिये ही तो पति की मृत्यु होने पर पत्नी को भी दूसरा साथी चाहिये। हमें दूसरा साथी
तो चाहिये लेकिन हम अपनी संतान के साथ के बारे में भूल जाते हैं। तब हमें संतान के
रहते अकेलापन लगता है और अपनी संतान के अकेलेपन को भूल जाते हैं। अक्सर सौतले
रिश्तों में प्रेम पनपता नहीं है। आशा साहनी के मामले में भी यही हुआ। आशा साहनी
ने दूसरी शादी की और पुत्र का प्रेम दूसरे पिता के साथ नहीं पनपा। पुत्र अकेला हो
गया और जब माँ दोबारा अकेली हुई तो पुत्र की आत्मीयता जागृत नहीं हुई। दोनो के
सम्बन्धों में दूरी आ गयी। छटे-चौमासे बात होने लगी। माँ पुत्र के आलावा अकेलेपन
को कहीं बांट नहीं पायी और अकेलापन उसका
काल बन
गया। रिश्ते जब दुराव के रास्ते चल पड़ते हैं तब समय कितना निकल गया यह
रिश्ते याद नहीं रखते। अनबोलापन पसर जाता है और रह जाता है अकेलापन। लेकिन हम सभी
को अपने रिश्तों को विस्तार देना होगा, केवल खून के रिश्तों को जिद से नहीं बांध
सकते और ना किसी अधिकार से बांधकर रखा जा सकता है। यह हम सब की विडम्बना है कि आज
हम अकेले हैं लेकिन हम अकेले केवल संतान से है, बाकि रिश्ते तो हमारे साथ हैं।
आत्मीयता का विस्तार करते रहिये, फिर सब अपने से लगेंगे। अपने मन को खोलना सीखिये,
फिर देखिये कैसे दूसरे भी अपने ही बन जाते हैं। आशा साहनी की कहानी को मत
दोहराइये, मत जिद करिये इच्छित के साथ की। बस दुनिया बहुत बड़ी है और अपना दिल भी
इतना बड़ा कर लीजिये कि इसमे दुनिया समा जाये।
No comments:
Post a Comment