कल मैंने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक पति की
लाचारी की दास्तान लिखी थी, सभी ने बेचारे पति पर तरस खाने की बात लिखी। अब मैं अपना पक्ष लिखती हूँ। आजादी
के बाद घर में पुत्र का जन्म थाली बजाकर,
ढिंढोरा पीटने का विषय होता था और
माँ-दादी पुत्र को कलेजे के टुकड़े की तरह पालती थी। क्या मजाल जो उसे जमाने की
हवा लग जाए। पानी भी उसके लिये बिस्तर पर
ही आता था। उसे यह नहीं मालूम पड़ने दिया जाता था कि जो पानी तू पी रहा है, उसका
स्त्रोत क्या है? दुनिया के सारे ही संघर्षों से उसे दूर रखा जाता था इसके विपरीत
पुत्री को बार-बार यह कहा जाता था कि कुछ सीख लें, पराये घर जाना है। अब लड़की तो
सीख गयी और लड़का भौंदूनाथ रह गया। शादी का समय आया, जन्मपत्री मिलायी गयी। मंगली
लड़की हमारे बेटे के लिये नहीं चलेगी, क्योंकि मंगली लड़की मतलब तेजवान। हमारा
लड़का तो जीते जी मर जाएगा। लड़के को पूरी तरह सुरक्षित रखने के सारे उपाय परिवार
और समाज द्वारा किये जाने लगे। कम से कम चार साल छोटी लड़की देखना, दबकर रहेगी।
लम्बी नहीं चलेगी, छोटी ही ठीक रहेगी। पढ़ी-लिखी, ना बाबा ना! बस थोड़ा बहुत पढ़ना
जानती हो इतना ही। सारे जतन कर लिये,
भौंदू भी बना दिया और उस भौंदूनाथ को सुरक्षित भी करने के जुगाड़ कर लिये। जैसे
अभी रबड़ी देवी अपने भौंदूनाथों के लिये कह रही है।
अब शादी हो गयी। लड़के को कुछ पता नहीं कि
दुनिया कैसे चलती है। लड़की पहले दिन ही बोल गयी कि अरे तुम्हें तो ढंग से खाना
खाना भी नहीं आता! कभी कहती कपड़े पहनने की सहूर नहीं। लड़के को यह नहीं मालूम की
सूरज पूरब से निकलता है या पश्चिम से। रोज-रोज उसे बताया जा रहा था कि तुम्हें कुछ
नहीं आता। लड़के में हीन भावना घर कर गयी, अब वह कोशिश करने लगा कि जब पत्नी घर पर
नहीं हो तो मैं ऐसा कुछ कर दूँ जिससे वह चमत्कृत हो उठे। लेकिन जिसने कभी कुछ देखा
ही नहीं, वह भला क्या चमत्कार करेगा! तब और कुछ गुड़-गोबर कर दे। आखिर अपने से
छोटी, कम पढ़ी-लिखी पत्नी के सामने भी वह घुघ्घू बन कर रह गया। सारी ही लड़कियां
मांगलिक निकल गयीं। सारे ही सुरक्षा के उपाय धरशायी हो गये। कभी मारने को हाथ भी
उठाये तो कब तक? आखिर जीवन भर गर्दन नीचे कर रहने को मजबूर हो गया। वह टेक्सी भी करता है तो पत्नी कहती है
कि जरूर इसी को कुछ नहीं आता तभी तो दूसरी टेक्सी तो आ गयी लेकिन इसी की नहीं आयी
और वह भी सोचता है कि जरूर मैंने ही कुछ गलत कर दिया होगा।
आज की पीढ़ी में ऐसा कम देखने को मिलता है, क्योंकि माता-पिता ने पुत्र और पुत्री का एक समान लालन-पालन किया है। ना पुत्र
को चाय बनानी आती है और ना ही पुत्री को। अब हीन
भावना कौन जागृत करे? दोनों ही मिल-जुलकर चाय बना लेते हैं और खुश रहते
हैं। इसलिये संतान को संघर्ष करने दो, दुनिया कैसे चल रही है, उसे दिखाओ। जिन
माता-पिता ने संतान को दुनिया दिखायी है, वहाँ ऐसी स्थिति नहीं है। इसलिये गड़बड़ी
पपोलने में है, लड़के और लड़की में नहीं है। ऐसे पुरुषों पर तरस मत खाओ। ये
लाड़-प्यार से पले हैं, उसकी कीमत उन्हें चुकानी ही होगी।
कल की पोस्ट - दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उबर-टेक्सी के इन्तजार में खड़े थे, देखा एक महिला बड़ी नाखुश होकर पति को हड़का रही थी। पति बेचारा हर आती गाड़ी में अपनी टेक्सी ढूंढ रहा था। पत्नी बोली – सारे जमाने की गाड़ियां आ गयी लेकिन बस इनने ही न जाने कौन सी टेक्सी बुलायी है? पति बोला – अब इसमें मैं क्या करूं। बहुत बुरा सीन था, पति की लाचारी देखी नहीं जा रही थी और पत्नी का बस चलता तो वहीं बर्तन-भांडे फेंक देती। आखिर उनकी टेक्सी आ गयी। पति नामक जीव पर इतना अत्याचार देखकर, दिल्ली में हर जगह लगे पोस्टर फिर से याद आ गये। "जब पत्नी सताये तो हमें बतायें"।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्री जी।
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