इन दिनों सोशल मीडिया में माँ कुछ ज्यादा ही
गुणगान पा रही है। हर ओर धूम मची है माँ के हाथ के खाने की। जैसै ही फेसबुक खोलते
हैं, एक ना एक पोस्ट माँ पर होती है, उसके खाने पर होती है। मैं भी माँ हूँ, जैसे
ही पढ़ती हूँ मेरे ऊपर नेतिक दवाब बढ़ने लगता है, अच्छे होने का। अभी हम जिस जमाने
में जी रहे हैं, वहाँ संयुक्त परिवार विदा ले चुके हैं, अब तो एकल परिवार ही
दिखायी दे रहे हैं। शिक्षा के कारण युवा
एकल परिवार से भी वंचित हो गया है, अब युवक और युवती दोनों को ही अकेले किसी महानगर
या विदेश में जीवन यापन करना होता है। विवाह की भी बात कर रही हूँ, जरा रूकिये।
विवाह होने के बाद एक से दो हो जाते हैं लेकिन दोनों ही रसोई से अनजान होते हैं। जैसे-तैसे
पेट भरने का जुगाड़ कर लिया जाता है लेकिन भोजन की तृप्ति क्या होती है, वे भूल ही
जाते हैं। अब माँ याद आती है, माँ कैसा भी भोजन बनाती थी लेकिन वे जो खा रहे हैं
उससे तो लाख गुणा अच्छा ही होता था। जब
ऐसी परिस्थिति अपने घर में भी देखती हूँ तो मेरे ऊपर नैतिक दवाब स्वाभाविक रूप से
पड़ने लगता है और मैं कुछ नया और कुछ रुचिकर बनाने की ओर ध्यान देने लगती हूँ।
अब अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, वह
सीधा-सादा भोजन बनाती थी, हमें बिना हाथ हिलाये भोजन मिलता था तो परम स्वादिष्ट ही
लगता था लेकिन दुनिया में आने वाले नये
व्यंजनों को बनाने की शुरुआत हम ही करते थे। हम से मतलब नयी पीढ़ी है। हमें हमारी
माँ के हाथ से बने भोजन की आदत सी हो जाती है और मन करने लगता है कि वही स्वाद
हमें मिलता रहे। लेकिन माँ क्या चाहती है, यह कोई नहीं सोचता! जैसे ही नयी पीढ़ी
आंगन में अंगड़ाई लेने लगती है, माँ भी सोचने लगती है कि अब मुझे भी कुछ नया
व्यंजन खाने को मिलेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। बस माँ तू अच्छी है, यही गुणगान
सुनकर चुप लगा जाती है। भारतीय परिवारों में अभी तक नासमझी बरकरार है कि बेटे का
घर बसेगा और बहु आकर सास की सेवा करेगी। माँ पलक-पाँवड़े बिछा देती है कि अब तो
मुझे भी कोई भोजन कराएगा। लेकिन यह क्या बहु तो बेटे से भी अधिक कोरी निकल जाती
है। उसने भी केवल शिक्षा पर ही ध्यान दिया, पेट कैसे भरा जाएगा चिन्तन ही नहीं
किया!
बेचारी माँ, बुढ़ापे में भी रसोई में अपनी टूटी
कमर को लेकर साधी खड़ी रहने का प्रयास करती है और माँ के हाथों में जन्नत है इस बात को पोर-पोर से सुनती हुई खाना बनाने
को मजबूर होती रहती है। कोई बेटा नहीं कहता कि माँ मैं तेरी सेवा करना चाहता हूँ,
तू मेरे पास चली आ, बस सभी यह कहते सुने जाते हैं कि माँ तेरे हाथ के खाने का मन
कर रहा है। माँ महान होती है, पुत्र कपूत हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीं होती
है। अरे बस भी करो, सारे भाषण! माँ को भी जीने का अधिकार दे दो। उसकी सेवाओं की भी
उम्र तय कर दो। तुम सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो लेकिन बुढ़ापे में उनकी उम्र पर
तो गाज ना गिराओ।
अन्तिम बात, अब जब हम सारे काम खुद कर सकते हैं
तो क्या लड़का और क्या लड़की दोनों को ही पेट भरने के और जीने के सारे ही काम
सिखाइये। माँ को अनावश्यक महान मत बनाइये, वह भी जीवित प्राणी है, उसे भी कुछ
चाहिये। माँ पर लिखने से पहले यह सोचिये कि क्या किसी माँ ने भी अपने बेटे पर लिखा
कि उसने माँ का जीवन धन्य कर दिया हो। जब संतान बड़ी हो जाती है तब माँ का कर्तव्य
पूरा हो जाता है, इसलिये परस्पर सम्मान और प्रेम देने की सोचिये ना कि खुद की
नाकामी छिपाकर माँ को काम में जोतिए।
(सारी संतानों से क्षमा मांगते हुए)