Saturday, April 1, 2017

इस गर्मी को नमन

और अंतत: आज एक तारीख को गर्मी ने एलान कर ही दिया कि मैं आ गयी हूँ। अब से अपने कामकाजी समय में परिवर्तन कर लो नहीं तो मेरी चपेट में आ सकते हो। स्कूल ने अपने समय बदल लिये, क्योंकि नन्हें बच्चे गर्मी की मार कैसे सहन कर सकेंगे। अस्पतालों ने भी समय बदल लिए क्योंकि बेचारे रोगी इतने ताप को कैसे सहन कर पाएंगे। और तो और पैसे के लेखा-जोखा ने भी आज से नयी शुरुआत कर दी है, गर्मी में हम नये तेवर के साथ रहेंगे। वस्त्र भी बदल गये हैं, पुराने संदूक में चले गये और नये पतले से और झीने से बाहर आ गये हैं।
सड़के तपने लगी हैं, कहीं पिघलने भी लगी हैं। तालाबों से पानी उड़ने लगा है। बालू रेत का तापमान भूंगड़े सेकने के लिये पर्याप्त हो गया है। प्रकृति गर्मी की तलाश कर रही है और प्राणी पेड़ों की छांव की तलाश कर रहे हैं। सूरज को शीघ्रता होने लगी है और वह सुबह जल्दी ही उदय होने लगा है, शाम को भी वह खरामा-खरामा ही यहाँ से दूर जाता है। लेकिन पक्षियों की रौनक लौट आयी है, भोर होते ही उनकी चहचहाट शुरू हो जाती है और शाम के साथ ही अपने-अपने ठिकाने में लौट आने की ताबड़-तोड़ कोशिश भी। अब प्रकृति अपने हिस्से की गर्मी खींच लेगी, सारी सृष्टि के रोम-रोम को विसंक्रमित कर देगी और जब ताप अपने उच्च माप पर जा पहुंचेगा तब अमृत वर्षा होगी।

इसलिये आज नव संकल्प प्रारम्भ हुआ है, गर्मी को आत्मसात करने का। सूर्य के आक्रोश को प्रकृति के सहारे झेलने का। प्रकृति की महत्ता समझने का। प्रकृति के एक-एक तत्व को सम्भालकर रखने का उसके संवर्द्धन करने का। सूर्य का ताप हमेशा से वृक्ष ही झेलते आए हैं तो आओ हम संकल्प करें कि अपने हिस्से के और जो असमर्थ हैं उनके हिस्से के भी वृक्ष लगाकर प्रकृति को ताप से बचाएंगे। सूर्य तो अपने चक्र के अनुसार ही कार्य करेगा लेकिन यदि हम प्रकृति को वृक्षों से लाद दें तो हमें शीतलता जरूर मिलेगी, हम भी बिना एसी खुली हवा में सांस ले सकेंगे। विचार शुरू कर दीजिये, शीघ्र ही पेड़ लगाने का अवसर प्रकृति देंगी तो हम अपनी तैयारी अभी से कर लें। हमें अपना कर्तव्य स्मरण कराने के लिये इस गर्मी को नमन।

2 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और केदारनाथ अग्रवाल में शामिल किया गया है।कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर। .. रहीम जी कहते हैं
"धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्यों 'रहीम' यह देह।।"