Sunday, February 5, 2017

छोटे डर का डेरा


आप यदि विचारक है या चिंतक हैं तो सच मानिये आपको रोज ही जहर पीना पड़ता है। आपके आसपास रोज ऐसी घटनायें घटती हैं कि आपकी नींद उड़ा देती हैं लेकिन शेष समाज या तो उस ओर ध्यान देता नहीं या देता भी है तो सोचता नहीं। बस दुखी होने के लिये केवल आप  हैं। ऐसी घटनायें खुद चलकर आप तक आती हैं, वे शायद समझ गये हैं कि इनके पास कोई समाधान है। यदि हम जैसे लोगों के पास समाधान भी है तो हम दुखी होते हैं क्योंकि समाज में चारों तरफ फैली समस्या का यदि हमने एक परिवार में समाधान कर भी दिया तो क्या! चारों तरफ तो वही आग लगी है। कैसे बुझाएंगे इसे?
एक दिन एक माँ का फोन आता है, फोन पर जार-जार रो रही थी। पहली बार फोन आया था तो पहचान में भी कठिनाई हुई, खैर बात सामने आयी कि उसकी उच्च शिक्षित बेटी एक निठल्ले लड़के के साथ भाग गयी है। यह भागमभाग हर घर का हिस्सा बन चुकी  है। इसके अतिरिक्त भी कोई अपनी सास से दुखी है तो कोई बहु से,  कोई पिता से दुखी है तो कोई बेटे से। सामाजिक ताना-बाना इतना उलझ गया है कि सुलझाने का कोई मार्ग दिखायी नहीं देता। जैसे ही रिश्तों की डोर उलझे, बस काटकर फेंक दो, आज यह फैसला आम हो गया है। कभी हम रास्ते चलते रिश्ते बनाते थे लेकिन आज रास्ते चलते रिश्ते तोड़ रहे हैं। हम सब तोड़ रहे हैं, क्योंकि इसके अतिरिक्त कोई मार्ग दिखायी देता ही नहीं।
अक्सर हम मानते हैं कि समस्याएं गरीब लोगों में हैं, लेकिन वहाँ कितना ही गाली-गलौंच हो, लेकिन परिवार टूटता नहीं है। हमारे आसपास सफाई कर्मचारी-सब्जी बेचने वाली-काम वाली सभी घर में सास के बड़ा मानती हैं। अधिकांश में तो सभी का वेतन सास के पास ही एकत्र होता है। सारे ही वार-त्योहार और शादी आदि वे धूमधाम से करते हैं। मैं ऐसे लोगों को अक्सर हँसते हुए देखती हूँ और जब इन्हें खुश देखती हूँ तो मुझे भी जीने का तरीका समझ आने लगता है। मैंने शायद ही कभी किसी बड़े व्यक्ति से कुछ सीखा हो लेकिन इन छोटे लोगों से मैं रोज ही सीख लेती हूँ। यहाँ की महिलाएं रोती नहीं हैं, शराबी पति के साथ रहकर भी रोज ही खुश रहने के साधन ढूंढ लेती हैं।

मुझे लगता है कि हमने संघर्ष के मार्ग को भुला दिया है, दुनिया को आसान समझ लिया है। यदि जंगल में घूम रहे हिरण की तरह अपने जीवन को जीया होता तो हर पल चौकन्ना रहते। समूह में  रहने की आदत डालते। वर्तमान में माता-पिता बड़ी होती संतान के प्रति शंका नहीं पालते हैं, उन्हें सुरक्षा का वातावरण देते हैं। उन्हें पता ही नहीं लगता कि जीवन में असुरक्षा भी है और अपना घोड़ा छांव में बांधना सीखना पड़ता है। संतान असुरक्षित जीवन जीकर खुश होना चाहती है और माता-पिता उन्हें सुरक्षित जीवन देना चाहते हैं। माता-पिता के पास अनुभव है और वे इसी आधार पर जार-जार रोने लगते हैं लेकिन संतान के पास खुला आसमान है। वे गिद्दों के बीच जाकर भी स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल कर बैठते हैं। लेकिन संघर्ष भरे जीवन को जीने की कला भी आनी ही चाहिये। यह मानकर जीवन जीना होगा कि हम जंगल में हिरण के समान है और हर पल हम पर शेर की नजर है। हमें शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में शक्तिशाली होना पड़ेगा। जीवन की सच्चाई को समझना पड़ेगा। शून्य से जीवन कैसे शुरू किया जाता  है, हमारी संतान को आना चाहिये। बड़े डर जीवन से दूर चले गये हैं तो छोटे डर ने डेरा डाल लिया है, इसलिये बड़े डर को भी परिचय में रखने की आदत डालिये। जैसे छोटे लोग करते हैं। उनके पास बड़े डर हैं तो वे छोटे डर से डरते नहीं और जीवन में खुश रहने के तरीके ढूंढ लेते हैं।

2 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "निजहित, परहित और हम “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

अजित गुप्ता का कोना said...

आभार आपका।