समाचार पत्र में हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयोगी पेज- होता है- पेज चार। समाचार पत्र आते ही मुख्य पृष्ठ से भी अधिक उसे वरीयता मिलती है। क्यों? इसलिए कि उसमें शोक-संदेश होते हैं। कल ऐसे ही एक शोक-संदेश पर निगाह पड़ी, कुछ अटपटा सा लगा। बहुत देर तक मन में चिन्तन चलता रहा कि ऐसा लिखना कितना तार्किक है? किसी महिला का शोक-संदेश था और महिला की फोटो के नीचे लिखा था – अवतरण दिनांक ---- और निर्वाण दिनांक -----। अवतरण और निर्वाण शब्दों का प्रयोग हम ऐसे महापुरुषों के लिए करते हैं जिनको हम कहते हैं कि ये साक्षात ईश्वर के अवतार हैं। इसलिए इनका धरती पर अवतरण हुआ और मृत्यु के स्थान पर निर्वाण अर्थात मोक्ष की कल्पना करते हैं। भारत भूमि में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्हें हम भगवान का अवतार मानते हैं। पृथ्वी पर भगवान के रूप में साक्षात अनुभूति के लिए महापुरुषों के रूप में अवतरण होता है, ऐसी मान्यता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्येक परिवार के लिए माँ का रूप भगवान के समान होता है और इसी कारण अवतरण एवं निर्वाण शब्द का प्रयोग किया गया होगा। इसी संदर्भ में एक अन्य प्रसंग भी ध्यान में आता है। क्रिकेट के खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को पत्रकार भगवान कहते हैं और क्रिकेट के भगवान सचिन ऐसी उपाधि देते है। इसी प्रकार कई बार अमिताभ बच्चन को भी उनके प्रशंसक भगवान की उपाधि देते हैं। दक्षिणी प्रांतों के कई अभिनेताओं के तो मन्दिर भी हैं और बकायदा उनकी पूजा भी होती है। भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि हम सब प्राणी भगवान का ही अंश हैं। लेकिन भगवान नहीं है। भगवान सृष्टि का निर्माता है, सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन उसी के अनुरूप होता है। सृष्टि के सम्पूर्ण तत्वों का वह नियन्ता है। मनुष्य के सुख-दुख भी भगवान द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। जब व्यक्ति थक जाता है, हार जाता है, दुख में डूब जाता है, तब उसके पास भगवान के समक्ष प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई आशा शेष नहीं रहती। यह भी अकाट्य सत्य है कि लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, उनके दुख दूर होते हैं। उनके मन में नवीन आशा का संचार होता है।
बच्चों के लिए माता, भगवान का रूप हो सकती है लेकिन समाज के लिए नहीं। यदि हमने सभी को यह उपाधि देना प्रारम्भ कर दिया तो भगवान का स्वरूप ही विकृत हो जाएगा। आप कल्पना कीजिए, एक बच्चे को भूख लगी है, वह माँ से भोजन प्राप्त करता है। लेकिन यदि उसके प्राणों की रक्षा की बात है तब उसे माँ के स्थान पर भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी। इस उदाहरण में तो केवल कुछ शब्दों का ही उल्लेख है। अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार पढ़कर तो आश्चर्य की सीमा ही नहीं रही। समाचार था – एक पुरुष ने संन्यास धारण किया और संन्यासी बनते ही उसने प्राण त्याग दिए। पहले तो मैं इसका अर्थ नहीं समझी, लेकिन फिर समझ आया कि संन्यासी बनकर मृत्यु की कामना करना भी समाज में उत्पन्न हो गया है। अन्त समय में संन्यासी बनने की ईच्छा व्यक्त करना और फिर संन्यासियों की तरह दाह-संस्कार करना। जैसे हमारे राजनेताओं की ईच्छा रहती है कि हम तिरंगे में ही श्मशान जाएं वैसे ही संन्यासी वेश में मृत्यु की ईच्छा रहती है। यह कृत्य भी क्या संन्यासियों की तपस्या को धूमिल करने वाला नहीं है?
क्या कोई भी खिलाड़ी अपने खेल में उत्कृष्टता के लिए सचिन से प्रार्थना करता है? या अन्य सामान्य व्यक्ति अपने सुख-दुख के लिए सचिन से प्रार्थना करता है। वे सब भी प्रभु के दरबार में जाते हैं। किसी अभिनेता का प्रदर्शन अच्छा हो इसके लिए अमिताभ बच्चन आशीर्वाद दे सकते हैं? कह सकते हैं कि वत्स तथास्तु। तब हम क्यों एक सामान्य व्यक्ति की तुलना भगवान से करने लगते हैं? एक मनोरंजन करने वाला व्यक्ति कैसे भगवान की उपाधि पा सकता है? गुरु नानक, दयानन्द सरस्वती, शिरड़ी बाबा आदि जिन्होंने समाज के लिए अवर्णनीय कार्य किए उन्हें हम भगवान की तरह पूजते हैं। लेकिन जो केवल मनोरंजन जगत के व्यक्ति हैं उन्हें भी हम भगवान के समकक्ष स्थापित कर दें तो क्या यह उस ईश्वर का अपमान नहीं है जिसे हम सृष्टि का रचयिता कहते हैं? इसलिए समाज को और पत्रकार जगत को गरिमा बनाकर रखनी चाहिए। सामान्य व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना मुझे तो उचित कृत्य नहीं लगता, हो सकता है मेरा कथन सही नहीं हो। इस संदर्भ में आप सभी की मान्यताएं कुछ और हो। इसलिए मैंने यह विषय उठाया है कि मैं भी समाज में फैल रही इस मनोवृत्ति का कारण जान सकूं और स्वयं में सुधार कर सकूं। आप सभी के विचार आमन्त्रित हैं।
52 comments:
आपने अच्छा मुददा उठाया है।
लोग तो अपने महबूब को भी भगवान और खुदा कह देते हैं।
लोगों का क्या है ?
वे जानते ही क्या हैं कि किस चीज़ की शान और हैसियत क्या है ?
अच्छा तो यह है कि भगवान शब्द का अर्थ भी आपने खोल दिया होता और यह भी बता दिया होता कि भगवान के गुण क्या हैं ?
ताकि लोग पहचान सकते कि असल में भगवान है कौन ?
हमारे यहां तो ऐश ही ऐश है. जिसे चाहे भगवान मान लो, पत्थर से लेकर इंसान तक. भगवानों को फ़िल्मों में ही हंसते-खेलते दिखा लेते हैं हम. हमारे यहां राम को पुरूषों में उत्तम मानते हैं तो रजनीश को भगवान बताते हैं. कई धूर्त-लंपट भी बड़े बड़े आश्रमों से तरह-तरह की सतरंगी भगवानबाज़ी करते ही रहते हैं. जबकि दूसरे कई धर्मों में इस प्रकार का स्वछंद व्यवहार मुंडी क़लम करवा सकता है...
मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ प्रत्येक जीवित प्राणी में आत्मा होती है व जहाँ आत्मा होती है वहाँ परमात्मा भी निवास करता है, जिस कारण प्रत्येक प्राणी पूज्नीय है, रही बात पूजने की तो जिसने भी लोगों की भलाई का कार्य किया होगा वो आने वाले समय में पूजा जायेगा, व जिसने अपना भला किया होगा वो लोगों की गाली खायेगा। जैसे राम-रावण, कंस-कृष्ण, ..........
सहमत हूं आपसे। बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए।
सहमत हूं आपसे । बिल्कुल नहीं।
जाट देवता जी, पूजने और भगवान मानने में तो अन्तर है। इसलिए आप अपनी बात और स्पष्ट करें। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा का अंश है यह तो मैंने भी लिखा है। आप और स्पष्ट करेंगे तो अच्छा लगेगा।
भारतीय संस्कृति में माना जाता है - सहमत हूं.
आम आदमी के लिये जो इश्वर में लीन होगया वो ईश्वर ही होगया . मृत्यु के बाद मरने वाले के चित्र को बहुत से घरो में मंदिर में ही रख दिया जाता हैं . ये महज एक भाव हैं . मृतक के चित्र से आशीर्वाद लेने की परम्परा नयी नहीं हैं
बाकी जब क़ोई भी व्यक्ति वो करदेता हैं जो हम साधारण रूप से नहीं करपाते हैं तो उसको हम हम अपने से ऊँचा दर्जा देना चाहते हैं . उस से आशीर्वाद चाहते हैं की हम उन जैसे बन सके . सचिन , अमिताभ इत्यादि उस क्षेणी में हैं .
इसके अलावा राम , कृष्ण इत्यादि भी अपने समय में मनुष्य थे लेकिन बाद में ईश्वर की पदवी पर आसीन हैं .
ये सब कुछ ऐसे ही हैं
जैसे लोग राहुल गाँधी को "युवराज " कहते हैं . मीडिया रोज नए नाम देता हैं शाहरुख़ बादशाह तो अमिताभ शहेनशा
पर राहुल गाँधी कैसे "युवराज " बनगए ?? क़ोई बता सकता हैं
1. सम्मान देने का अपना-अपना तरीका है, स्वर्गीय के साथ श्री भी लिखा जाता है.
2. खेल आयोजन महाकुंभ कहे जाते हैं और खेल के मैदान में भारत के राम श्रीलंकाई रावण को रण भूमि में परास्त करते हैं, फिर तो सचिन क्रिकेट के भगवान ही हुए.
3. यह भी कहा जाता है कि भगवान भी मानव जीवन की चाह रखते हैं, सोलह कलाओं से पूर्ण होने के बाद भी वे अधूरे होते हैं.
हम भारतीयों को भक्त बनने की बीमारी है, किसी को भी देख कर भगवान बना लेते हैं।
Kajalji ki baato se mein sahmat hun ..
Nice post .
♠ http://mushayera.blogspot.com/2011/09/blog-post_588.html
इसी प्रकार कई बार अमिताभ बच्चन को भी उनके प्रशंसक भगवान की उपाधि देते हैं।
...इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हूं
हमें तो सबसे ज्यादा ख़राब तब लगता है जब कोई मनुष्य स्वयं को भगवान घोषित कर अपनी पूजा करवाता है । ऐसे ढोंगी बाबा आजकल टी वी पर छाये रहते हैं । सब दिमाग की उपज है ।
इस दुनिया में या इससे परे भी भगवान ऐसी कोई चीज नहीं होती. सब एक दिखावा है, एक मायाजाल लोगों को फ़साने के लिए ताकि कुछ लोग उसके नाम से दूसरों को डरा सकें एवं अपना फायदा निकाल सकें.
डॉक्टर दी,
दरसल हमने भगवान या इश्वर को एक सीमित दायरे में रखकर परिभाषित कर दिया है इसीलिये यह सारी समस्या या प्रश्न हमारे मस्तिष्क में आते हैं... एक छोटा सा उदाहरण.. हम साँस लेते हैं ऐसा सब कहते हैं... लेकिन गौर से सोचिये क्या ये सच है??? अगर "हम" साँस लेते होते, तो एनी कामों की तरह कभी कभी साँस लेना भूल भी जा सकते थे, या फिर सोये में जब हम कोई काम नहीं कर सकते, तो साँस कैसे ले पाते.. इसलिए हम साँस अपनी इच्छा से नहीं ले रहे होते हैं.. कोई है जो जो सबके अंदर बैठा यह काम रहा है और यदि वही परमात्मा है तो सबमें उसी का अंश है.. सब में भगवान है.. उस सीमित दायरे में भगवान की बात न की जाए... हमारा सोना जागना अगर हम करते तो एक स्विच होती जिसके दबाते ही नींद आ जाती और दुबारा दबाते ही हम जग जाते..
अब प्रश्न अवतरण या निर्वाण की.. हम सदा से यह मानते आये हैं कि जीवन और मृत्यु एक यात्रा है.. मृत्यु कभी अचानक नहीं आती बल्कि पैदा होने से मृत्यु तक धीरे धीरे हर रोज आती रहती है.. मैं कलकता में १९९५ से २००१ तक था.. अगर यह सच है तो यह भी सच है इस ग्रह पर कोई व्यक्ति १९२३ से २०१० तक के प्रवास पर रहा.. पहला साल उसका अवतरण का वर्ष था और दूसरा उसके निर्वाण का.. अर्थात वह वर्ष जब वह किसी दूसरे ग्रह की यात्रा पर निकल गया!!
'भगवान' शब्द कोई उपाधि नहीं, जो किसी को डी जा सके... वह तो हर कोई "है" मनुष्य, पशु, जीव, वनस्पति आदि!!
mere vichar व
चला बिहारी ब्लॉगर बनने- दोनों के एक दम खुल्ले विचार से सब कुछ्साफ़ हो गया है। मुझे लगता है कि अब मुझे कुछ कहने की गुंजाईस नहीं बची है।
हर व्यक्ति दिवंगत होकर ईश्वर में मिल जाता है। और फिर, मरनेवाला शायद संदेश देनेवाले के लिए ईश्वर से कम न होगा॥
विचारणीय मुद्दा उठाया है आपने ...मुझे लगता है ये झमेला शब्द के उपयोग से खड़ा हुआ है। हमे भाषा के अलंकृत और विवरणात्मक उपयोग में भेद करना चाहिए। बेहतर हो यदि जनसंचार के माध्यम ज्यादा विवेक से भाषा का इस्तेमाल करें। वैसे सचिन को जब भगवान कहा जाता है तो यह ऐसा ही है जैसे माँ अपने बेटे को चाँद या लाल कह देती है। जहां तक मंदिर बनाने और पूजने की बात है, सुना है लोगों ने अँग्रेजी देवी का मंदिर भी बनवाया हुआ है।
आपकी बात से सहमत हूँ,एक समान्य इंसान को भगवान का स्थान नहीं दिया जा सकता। किन्तु फिर भी,मैं "राहुल सिंग" जी की बात से सहमत हूँ। हर किसी का किसी खास इंसान को समान देने का अपना एक तरीका है और रही बात "अमिताभ बच्चन जी" या "सचिन तेंदुलकर" जी की तो निश्चित ही वो भगवान नहीं है, न ही किसी को कोई वरदान ही दे सकते हैं। किन्तु उन जैसा कोई और कर भी नहीं सकता। जो उन्होने अपने क्षेत्र में किया है। शायद यह भी एक बड़ी वजह हो सकती है,कि उनके प्र्शंशक उनको भगवान की उपाधि देते हैं।
क्यूंकि यदि ऐसा ना होता, तो अब तक क्रिकेट में जाने कितने सचिन और फिल्मों में ना जाने कितने अमिताभ बच्चन पैदा हो चुके होते। मगर ऐसा नहीं है।
क्यूंकि इतना आसान भी नहीं है किसी के लिए सदी का महानायक कहा जाना...या क्रिकेट का भगवान कहा जाना आज भी जब इंडियन टीम खेलती है तो लोगो सचिन का ही जाप करते है और उस पर हे पूरी टीम निर्भर रहती है यदि वो जाम गया तो एक अलग ही माहौल होता है और यदि वो आउट हो जाय तो बस इंडियन टीम में तू चल में आया का ताता लग जाता है। इसलिए मेरी समझ से सचिन को क्रिकेट का भगवान कहा जाता है। हो सकता है शायद अब आप मेरी बातों से सहमत ना हों। आपको क्या लगता है :)?
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भगवान या ईश्वर की यह अवधारणा है ही अनोखी... हर कोई अपनी अपनी समझ व सुविधा से अपने लिये अपना भगवान गढ़ने के लिये स्वतंत्र है और यही हुआ भी है इसलिये भगवानों की गिनती भी दिन ब दिन बढ़ती जा रही है... :)
भगवान सृष्टि का निर्माता है, सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन उसी के अनुरूप होता है। सृष्टि के सम्पूर्ण तत्वों का वह नियन्ता है। मनुष्य के सुख-दुख भी भगवान द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं।
अगर सचमुच आपका कहा सत्य है तो मानवता के एक बड़े हिस्से के हिस्से में आये दुख, भूख, गरीबी, कुपोषण, बीमारी व गंदगी को देख तो यही लगता है कि बड़ा ही क्रूर व Sadist है यह नियन्ता... :(
ऐसे भगवान को उसकी 'भगवानी' मुबारक !
...
भय ने या फिर अनंत श्रद्धा ने भगवान को जन्म दिया। अभी भी हम उस अदृष्य शक्ति को भगवान कहते हैं जिनसे यह संसार चल रहा है। सबकी अपनी-अपनी श्रद्धा अपने-अपने विश्वास हैं। कौन किसका भगवान है यह उसके भय या श्रद्धा पर निर्भर करता है। जैसे एक का भगवान दूसरे का भी हो..यह जरूरी नहीं। वैसे ही उसकी श्रद्धा गलत, मेरी सही है।.. यह कहना भी गलत है।
दक्षिण के हीरो जीते जी भगवान बन गए थे।
कई साधु सन्यासियोम ने खुद को भगवान कहना शुरु कर दिया।
जब हमारे देश में छत्तीस करोड़ भगवान हैं, तो एकाध बढ़ ही गए तो क्क्या फ़र्क़ पड़ता है।
देवता स्वरूप और देवता होने में फ़र्क़ तो है ही।
bilkul sahi kaha hai aapne mein aapki baaton se puri tarah se sehmat hoon.
भगवान् नाम का अर्थ यह लोग नहीं जानते ....
शुभकामनायें आपको !
लोगों का अपना अपना तरीका होता है सम्मान देने के लिए....
वैसे मेरा यह मानना है कि प्रतीक रूप में कहा जाता है यह। आपके ही दिए उदाहरणों से लेकर बात करूं तो सचिन ने क्रिकेट के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल की हैं वो अपने आप में अनूठे और अद्वितीय हैं, इसलिए उन्हें भगवान कहा गया..... आपने ही कहा है ध्यान दें, क्रिकेट का भगवान।
अभिनय के क्षेत्र में इस उम्र में भी अमिताभ बच्चन जो कर रहे हैं वो अलहदा है। उनके प्रशंसक उन्हें भगवान कहते हैं...... दक्षिण भारतीय सितारों के मंदिर तक बन गए हैं...... प्रशंसकों का उनके प्रति प्रेम प्रदर्शन का तरीका है यह।
बिलकुल नही...
हमारी मानसिकता ही ऐसी बनी हुयी है की हम तो तलाशते रहते हैं की किसे प्रभु की पदवी दी जाये ...... बिलकुल अच्छी नहीं लगती यह सोच मुझे तो...... ईश्वर को ईश्वर और मनुष्य को मनुष्य ही रहने दिया जाये तो अच्छा है और मीडिया वाले तो न जाने कहाँ से ऐसे संबोधन खोज लाते हैं....बहुत कोफ़्त होती है कभी कभी.....
जिस देश में पत्थरों को भगवान कहा जाता है, वहीं गर किसी जीवित या मृत को कुछ लोग भगवान मानें तो क्या हर्ज है।
कोई भी वस्तु आस्था से भगवान बनती है, वर्ना भगवान है या नहीं इस बारे में कौन जाने।
प्रणाम स्वीकार करें
24-25 को चण्डीगढ में भारतीय विकास परिषद का सम्मेलन है, इस बारे में पहले पता नहीं था। वर्ना आपके दर्शन इस बार हो सकते थे।
प्रणाम
जीते हों किसी ने देश तो क्या, हमने तो दिलों को जीता है,
जहां राम अभी तक है नर में, नारी में अभी तक सीता है,
इतने पावन हैं लोग जहां, मैं नित-नित शीश झुकाता हूं,
भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं,
इतनी ममता नदियों को भी, जहां माता कहके बुलाते हैं,
इतना आदर इन्सान तो क्या, पत्थर भी पूजे जातें हैं,
उस धरती पे मैंने जन्म लिया, ये सोच के मैं इतराता हूं,
भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं...
जय हिंद...
पूरी समस्या की जड़ यह सोच है कि भगवान कोई व्यक्ति है जो हमें कहीं से नियंत्रित कर रहा है और ज़रूरी होने पर, फिल्मों की तरह अवतरित होकर हमें वरदान दे सकता है। नहीं,ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर एक क्वालिटी है,पर्सनैलिटी नहीं। ध्यान रहे कि जिन राम,कृष्ण,बुद्ध आदि का ज़िक्र आप कर रही हैं,वे भी अपने ज़माने में सर्वस्वीकार्य नहीं थे और उन्हें भी भगवान का दर्ज़ा प्रायः उनकी मृत्यु के पश्चात् ही प्राप्त हुआ।
माता-पिता के लिए अवतरण और निर्वाण शब्द का प्रयोग एक शुभ संकेत है,बशर्ते यह औपचारिकता अथवा आडम्बरवश न किया गया हो। यदि बच्चों के मन में अपने माता-पिता के लिए यह भाव जग सके कि उनके माता-पिता ही उनके लिए असली भगवान हैं,तो कहानी वाला श्रवण कुमार स्वयं अप्रासंगिक हो जाएगा क्योंकि तब हर घर में कई-कई श्रवण कुमार होंगे।
यह सोचने की बजाय कि साधारण व्यक्ति को भगवान की पदवी दी जाय या नहीं,चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि जो सचमुच भगवान है,वह हमारे लिए क्यों इतना साधारण बना हुआ है!
मानने और न मानने पर तो वही बात मुफ़ीद है कि ’मानो तो मैं गंगा माँ हूँ, न मानो तो बहता पानी।’ किसी के मानने या न मानने से खैर अपने को फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन जब दूसरों को अपनी इच्छानुसार मानने या न मानने पर मजबूर किया जाता है तब जरूर असुचिधा होती है।
Waise mool shabd hai "bhagnwaan" matlab jisne apne wikaron ko bhagn kiya....jaise ki Gautam buddh! Prachalit bhashame ye shabd aur hee mayne rakhne laga ye baat alag hai. Gar ham mool arth len to samany manushy hee apnee sadhana se vikar bhagn karta hai!
लोग जिनसे अतिशय प्रेम करते हैं...उन्हें भगवान का नाम दे देते हैं...क्रिकेट के दीवाने सचिन को भगवान मानते हैं तो फिल्मो के दीवाने अमिताभ को....यह बस symbolic ही होता है और मिडिया तो लोगो को आकृष्ट करने के लिए इस तरह के वजनदार शब्दों का प्रयोग करेगी ही.
दिवंगत माता-पिता की तस्वीरें लोग पूजा घरों में लगाते हैं....बाकायदा धूप अगरबत्ती भी दिखाते हैं और हर शुभ मौके पर या संकट की घड़ी में उनका आशीर्वाद भी लेते हैं.
ख़ाकसार को अपनी टिप्पणी नजर नहीं आ रही...पता नहीं उसी किस्म का कोई गड़बड़झाला तो नहीं, जिसका जिक्र सलिल भाई अपनी पोस्ट ब्लॉग बस्टर पखवाड़ा में कर रहे हैं...!!!!
भगवान को सर्व-समर्थ ,सर्वत्र,सर्वज्ञ,सर्वगुण-संपन्न अनादि और अनंत माना जाता है.मनुष्य में ये विशेषतायें कहाँ ?
रही निर्वाण शब्द के प्रयोग की बात तो राजनीति में अंबेडकर जी का निर्वाण दिवस होने लगा ,और अवतार तो बड़ा व्यापक शब्द हो गया है(धर्मावतार आदि ..).
शब्दों का मनमाना प्रयोग चलता है .आविर्भाव और तिरोभाव भी चलन में आ जाय तो आश्चर्य नहीं .
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 01-12 - 2011 को यहाँ भी है
...नयी पुरानी हलचल में आज .उड़ मेरे संग कल्पनाओं के दायरे में
सबकुछ आस्था और विश्वास पर ही निर्भर करता है , जबकि हर आत्मा उस परमात्मा का ही अंश है ...
भगवान् मान लेना तो फिर भी समझ आता है , मगर अपने आपको भगवान् मनवाना आपत्तिजनक लगता है !
आपकी हर बात से सहमत हूँ.खुद सचिन और अमिताभ भी खुदको भगवान कहलाने पर असहज महसूस करते होंगे.
@रचना जी,
राम और कृष्ण साधारण मनुष्य नहीं,भगवान के अवतार थे.
कदापि नही,...इंसान जो भी करता है उसका स्वार्थ
छिपा होता है,..चाहे कोई भी हो,...
बेहतरीन आलेख,...
मेरे नये पोस्ट -प्रतिस्पर्धा-आपका इंतजार है,...
ऐसे अतिश्योक्ति भरे उपाधि-अलंकरण वस्तुतः हमारा मिथ्याड़म्बर है। झूठ का सेवन!!
धर्म-कर्म आध्यात्म में आस्था रखनेवालों के लिए तो असत्य सम्भाषण पाप ही है।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!चर्चा मंच में शामिल होकर चर्चा को समृध्द बनाएं....
अच्छी पोस्ट
मैं पूरी तरह सहमत हूं
बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। मै आपसे पूर्णत: सहमत हूं ..
एक प्रश्न यह भी है कि यह उपाधि देता कौन है? और फिर मनुष्य की सामान्यता और असामान्यता तय करने का पैमाना क्या है? दूसरा पक्ष यह है कि जिस संस्कृति में नदी, पर्वत, वायु, से लेकर पशु पक्षियों तक भगवान मानने में कुछ अनूठा नहीं है वहाँ किसी मानव को भगवान कहने, मानने या समझने में क्या आश्चर्य है? हाँ, अभारतीय संस्कृति में यह कन्सेप्ट समझना न केवल कठिन है बल्कि ऐसी बात जानलेवा भी हो सकती है।
बिलकुल सही प्रश्न उठया है आपने ... आज समाज में ये ओरवृति फैलती जा रही है हर किसी को भगवान मानने लगे हैं ... अगर किसी विशेष ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त भी कर लिया है तो उसे गुरु का स्थान दिया जा सकता है न की भगवान का ...
मनुष्य के सत्कर्म उसे भगवान तो नहीं पर भगवान जैसा दर्ज़ा अवश्य दिलवा सकते हैं
Girja Bhargava:-
Mai Aapse puri tarah se sahmat hun.Ek Patni ke liye uska pati Bhagwan ho sakta hai,Ek Santan ke liye uske Maata-Pita Bhagwan ho sakte hain Par un sabka ishwar ek hi hai.Aur phir ye jaruri nahin ke jise aap apna bhagwan maan rahen hai use sab mane.Hamare andar aatma ka was hai par use milna ant mai parmatma se hi hota hai.Isliye kisi ke dwara kiye gaye achche kritya ke liye ham uski tarif kar sakte hai par use ishwar ki upadhi dena sarasar galat hai.
Girja Bhargava:-
Mai Aapse puri tarah se sahmat hun.Ek Patni ke liye uska pati Bhagwan ho sakta hai,Ek Santan ke liye uske Maata-Pita Bhagwan ho sakte hain Par un sabka ishwar ek hi hai.Aur phir ye jaruri nahin ke jise aap apna bhagwan maan rahen hai use sab mane.Hamare andar aatma ka was hai par use milna ant mai parmatma se hi hota hai.Isliye kisi ke dwara kiye gaye achche kritya ke liye ham uski tarif kar sakte hai par use ishwar ki upadhi dena sarasar galat hai.
vicharniy bat.
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