Sunday, October 30, 2011

इक वो भी दीवाली थी, इक यह भी दीवाली है



एक छोटा सा घर, चार जोड़ी कपड़े, दो जोड़ी जूते-चप्‍पल। रात को सोने के लिए केवल गद्दे जो सुबह होते ही तह कर के उठाकर रख दिए जाते थे। ना सोफा, ना डायनिंग टेबल, ना ड्रेसिंग टेबल और ना पलंग। रसोई भी नहीं थी मोडलर और ना ही आयी थी गैस। बस थी तो एक मात्र सिगड़ी, जिसके आसपास आसन बिछाकर माँ के हाथ की गर्मागर्म रोटियो का आनन्‍द शायद दुनिया में दूसरा नहीं होगा। दीवाली आ रही है, इसका शोर अन्‍दर से उठता था जैसे फूल से परागकण फूट पड़ते हैं बस वैसे ही आनन्‍द और उल्‍लास वातावरण को सरोबार कर देता था। सफाई बस एक-दो दिन में पूरी हो जाती। क्‍योंकि घर में ताम-झाम कुछ नहीं थे। सफाई के बाद कचरे में पुराने डिब्‍बे, किताब-कॉपियां, तार, सूतली आदि निकलते। इन बेचारों को हम बड़े शौक से घर निकाला दे देते। लेकिन तभी पिताजी की कड़कडाती आवाज सुनायी दे जाती, यह डिब्‍बा क्‍यों फेंक दिया गया है? वे सारे सामान का ऑडिट की तरह मुआयना करते। डिब्‍बे घर के अन्‍दर वापस जगह पा जाते, मुड़ा-तुड़ा तार भी किसी खूंटी पर लटक जाता और चिठ्ठी-पत्री के लिए हेंगर बन जाता। पुरानी कॉपियों के खाली पन्‍ने फाड़ लिए जाते और किताबे पुस्‍तकालय की आस में वापस अल्‍मारी में चले जातीं। फिर उनका ध्‍यान आकर्षित होता थैलियों और सू‍तलियों पर, वे भी धूल झाड़कर इठलाती हुई सी वापस घर के अन्‍दर चले जातीं। बस कूड़े के नाम पर रह जाती पाव-आधा किलो धूल। तब ना तो कबाड़ी आता और ना ही डस्‍टबीन भरता।
नए कपड़ों के नाम पर कभी-कभी एक जोड़ी कपड़े मिल जाते और वे हमारे लिए अमूल्‍य भेंट होती। दीवाली पर सबसे ज्‍यादा आबाद रहती रसोई। दो दिन तक मिठाइयां बनाने का दौर चलता। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस दीपावली पर ही होता तो मन्दिर में चढ़ाने के लिए लड्डू घर पर ही बनते। देसी घी में बूंदी निकाली जाती और हम सब लड्डू बांधते। बाजार की मिठाई लाना तो अपराध की श्रेणी में था। साथ में जलेबी भी बनती और गजक भी कुटती। माँ मीठे नमकीन शक्‍करपारे भी बनाती। गुड़ और आटे के खजूर भी बनते, जो आज तक भी भुलाए नहीं भूलते, लेकिन वे सब माँ के साथ ही विदा हो गए। दीवाली पर पटाखे खरीदना और चलाना मानो रूपयों में सीधे ही माचिस दिखाना था। लेकिन बाल मन पटाखों का मोह कैसे त्‍याग सकता था? भाइयों से कहकर कुछ पटाखों का इंतजाम हो ही जाता और छोटी लड़ी वाले बम्‍ब एक-एककर चलाए जाते।
दीवाली की सांझ भी नवीन उत्‍साह लेकर आती। थाली में दीपक सजते और हम नए कपड़े पहनकर निकल पड़ते सारे ही पड़ोसियों के घर। पड़ोसी के घर की चौखट पर दीपक रखते और दीवाली की ढोक देते। ना उस समय मिठाइयां होती और ना ही कोई तड़क-भड़क। बस मिलने-मिलाने का जो आनन्‍द आता वो अनोखा था। हमारे एक पड़ोसी थे, थोड़े पैसे वाले थे लेकिन पैसे को सोच समझकर खर्च करते थे। इसलिए दीवाली के दूसरे दिन अनार खरीदकर लाते। उन दिनों में अनार मिट्टी की कोठियों में मिलते थे और काफी बड़े होते थे। खूब देर तक भी चलते थे। पटाखे दीवाली के दिन ही चलते थे तो दूसरे दिन पटाखे सस्‍ते मिल जाते थे। वे तभी अनार खरीदते थे और हम सब उनके अनार का आनन्‍द लेते थे। दीवाली के दूसरे दिन मिठाइयों का आदान-प्रदान भी होता था। लेकिन हमारे पिताजी डालडा के प्रति बहुत सख्‍त थे तो किसी के यहाँ की भी मिठाई घर में आने नहीं देते थे। बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट पूछ लिया जाता था कि डालडा कि है तो हमारे घर पर नहीं चलेगी। उन दिनों डालडा घी नया-नया चला ही था तो लोगों को उससे परहेज नहीं था। लेकिन हमारे यहाँ तो कर्फ्‍यू जैसा था। इतनी बंदिशों के बावजूद भी दीवाली का उल्‍लास मन में बसा रहता था, हम किशोर तो न जाने कितने दिन तक दीवाली मनाते थे। क्‍योंकि उन दिनो दिवाली की छुट्टियां भी कई दिनों की आती थी। होमवर्क भी मिलता था लेकिन सभी अध्‍यापकों को पता था कि कोई होमवर्क नहीं करता है तो पूछताछ भी नहीं होती थी।
और आज की दीवाली? घर की सफाई, समस्‍या लेकर आती है। कम से कम पंद्रह दिन चाहिए सफाई को। थोड़ा सा भी पुराना सामान हुआ नहीं कि फेंको इसे, बस यही मानसिकता रहती है। यदि समय पर कबाड़ी नहीं आए तो छत भर जाती है। अब कोई नहीं आता जो यह कह दे कि यह सामान वापस काम आएगा। हम जैसे कचरा उत्‍पन्‍न करने की मशीने बन गए हैं। मिठाइयों से बाजार भरे रहते हैं ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ खरीदने में आता ही है। घर पर मिठाई शगुन की ही बनती है। बन जाती है तो समाप्‍त नहीं होती। अपने-अपने घरों में दीपक जला लेते हैं और दीपक से ज्‍यादा लगती है लाइट। पटाखों का ढेर लगा रहता है लेकिन चलाने का उल्‍लास तो खरीदा नहीं जा सकता? मेहमान भी गिनती के ही रहते हैं क्‍योंकि सभी तो दीवाली मिलन पर मिलेंगे। सामूहिक भोज हो गया और रामा-श्‍यामा हो गयी बस। बड़े-बड़े समूह बन गए और छोटे-छोटे समूहों की उष्‍णता समाप्‍त हो गयी। दीवाली की ढोक या प्रणाम ना जाने कहाँ दुबक गए, अब आशीर्वाद नहीं मिलते बस एक-दूसरे को हैपी दीवाली कहकर इतिश्री कर ली जाती है। न जाने क्‍या छूट गया? पहले थोड़ा ही था  लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है। हो सकता हो कि यह उम्र का तकाजा हो, कि अब रस नहीं आता। जिनकी अभी रस ग्रहण करने की उम्र है वे कर ही रहे होंगे लेकिन हमारे जैसे तो यही कहेंगे कि पहले जैसा आनन्‍द अब नहीं। यही गीत याद आता रहा कि इक वो भी दीवाली थी और इक यह भी दीवाली है। आप लोग क्‍या कहते हैं?   

50 comments:

विवेक रस्तोगी said...

सब वक्त का खेल है, और त्यौहारों के रंग अगर संभाल कर ना रखे गये तो ये फ़ीके होते जायेंगे।

Sushil Bakliwal said...

आपके ये सब पूर्व अनुभव अब स्मृतियों की ही बातें रह गये हैं । अब सभी घरों में कबाड के ढेर हर रुप में बढते ही जा रहे हैं । शायद हम सभी भौतिक रुप से अतिसम्पन्न होते जा रहे हैं ।

ताऊ रामपुरिया said...

यकीनन जमीन आसमान का अंतर आगया है. अब वो उष्णता इस पर्व में नही रही है. उम्र के साथ साथ अब वो अभाव शायद नही रहा जो हमारे बचपन में था. पटाखे मिठाई शायद इसलिये ज्यादा लुभाते थे कि उस समय इनकी सहज उपलब्धि नही हो पाती थी. आज के बच्चे और युवाओं को हर चीज मांगने के पहले ही उपलब्ध करवा दी जाती है.

दीपावली का त्योंहार अब उल्लास और उमंग की बजाये एक औपचारिकता सी लगने लगा है.

रामराम.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पुरानी यादों में भटकता मन ... शायद उम्र का ही तकाजा है जो आपकी सोच मुझसे मिलती है .. अब तो बस हर त्यौहार एक खाना पूर्ति की तरह माना लिए जाते हैं ...लेकिन बच्चों में भी वो उत्साह नहीं दिखता जो हमारे बचपन में था ..

प्रवीण पाण्डेय said...

आपकी दीवालियों के अन्तर को बड़े पास से देखा है हमने भी, बड़ा रुचिकर आलेख।

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut achcha aalekh

Amit Sharma said...

@बड़े-बड़े समूह बन गए और छोटे-छोटे समूहों की उष्‍णता समाप्‍त हो गयी।.......................... न जाने क्‍या छूट गया? .........................पहले थोड़ा ही था लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है।

#वाकई में बहुत कुछ छूट गया है ..................... सिर्फ आप बड़ों को ही नहीं हमारी पीढ़ी को भी अन्दर से खालीपन महसूस होता है !!!!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

पहले थोड़ा ही था लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है।
..वाकई कुछ छूट रहा जैसा लगता है। शायद हमी ठीक से सौंप नहीं सके अपने त्योहार नई पीढ़ी को। या चली ऐसी आँधी की बहुत कुछ उड़ा कर ले गई। हम यह भी नहीं जान पाये कि क्या था पहले अपने पास। हिसाब लगाने की फुर्सत भी नहीं।

Satish Saxena said...

परिवर्तन को रोक नहीं सकते , स्वीकार करना ही है, हंसकर अथवा दुखी होकर !
शुभकामनायें आपको !

Khushdeep Sehgal said...

त्यौहारों का रूप बदलता है, लेकिन बुनियाद ख़त्म नहीं होती...

जय हिंद...

vandana gupta said...

वक्त के साथ सब बदलता है।

डॉ टी एस दराल said...

अजित जी , उम्र का तकाज़ा भी है और वक्त का भी ।
नई पीढ़ी के बच्चे रात १२ बजे तक डी जे का आनंद उठाते हैं और हम सोचते हैं , क्यों शोर मचा रखा है ।
वक्त के साथ साथ मनाने के तरीके भी बदले हैं ।
लेकिन शोर और प्रदूषण से तो कोफ़्त ही होती है ।

Sunil Kumar said...

अब वह दीवाली तो इतिहास बन गयी है | अब मनाते कम निभाते ज्यादा है |अच्छा आलेख आभार

mridula pradhan said...

न जाने क्‍या छूट गया? पहले थोड़ा ही था लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है।kitna sahi vyora diya hai apne....hum bhi yahi dekhte hain aur yahi sochte hain......

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

समय यूं ही बदलता चला आया है...

संगीता पुरी said...

बदलाव तो प्रकृति का नियम है .. पर पिछले पच्‍चीस वर्षों में समय तेज भागा है .. पता नहीं क्‍या दुष्‍परिणाम लेकर आएगा ??

Pallavi saxena said...

सतीश जी की बात से सहमत हूँ, परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता समय के साथ सब को बदलना ही पड़ता है चाहे हँस कर या दुखी होकर, मगर आपका अनुभव पढ़कर बहुत अच्छा लगा ऐसा लग रहा था जैसे आँखों के सामने एक-एक द्रश्य किसी पूरानी हिन्दी फिल्म की तरह चल रहा हो। जो शुरू से आखिर तक पढ़ने में पाठक को बांधे रखता है ...

shikha varshney said...

अजीत जी ! वक्त के साथ स्वरुप बदलता ही है.आज आप कह रही हैं ,बीते कल में आपके बड़े भी यही कहते होंगे.और आने वाले कल में हमारे बच्चे भी यही कहेंगे.

मनोज कुमार said...

दीपावली क्या हर त्योहार का रंग अब फींका होता जा रहा है। एकाकी से से हम एकांगी होते जा रहे हैं, सामाजिक स्वरूप तो त्योहारों का विदा होता ही जा रहा है और परंपरा को हम आधुनिकता, विकास और प्रदूषण के नाम पर त्यागते जा रहे हैं।

अनुपमा पाठक said...

बदलते समय के साथ सबकुछ बदलता है पर इस बदलाव के बीच भी हृदय में पल रही श्रद्धा बनी रहे!

SKT said...

जिंदगी है तो आनंद है, आनंद के स्रोत समय के साथ जरूर बदलते रहते है। यह सही है कि लोगों के रहन सहन में अब वो सादगी नहीं रही जो पहले हुआ करती थी।

प्रेम सरोवर said...

आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेर नए पोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

प्रतिभा सक्सेना said...

वह सहज सुन्दर जीवन सदा को बीत गया .
शोर मचता हैं मँहगाई है और बर्बादी कितनी . हमारी एक पेंसिल रबर महीनों चलती थी और अब देख लीजिये एक-एक के पास हर चीज़ का ढेर ,कॉपी-पेन,कलर सब .ऊपर से दिखावे और शौकीनी पर कोई कंट्रोल नहीं .
और मुझे तो दीवाली पर अपने पूज्य श्वसुर जी की बहुत याद आती है,उन्हीं ने ख़ुद बैठ कर मुझे फ़्लश खेलना सिखाया था -दीवाली पर तीन दिन ख़ूब जमता था घर में बहुत सारे लोग थे न ! ,

kshama said...

Waaqayee bahut badhiya laga aapkaa sansmarnatmak aalekh!Mujhe apna bachpan yaad aa gaya.

G.N.SHAW said...

अच्छी यादें आ ही गयी ! आज - कल की न कहें तो ही अच्छा है !वो स्वर्ण युग अब आने वाले नहीं है ! मेरे ब्लॉग का अब नया लिंक -
बालाजी के लिए --www.gorakhnathbalaji.blogspot.com

डॉ. मोनिका शर्मा said...

अच्छा लगा पढ़कर ...त्योंहारों के ये आज और कल के रंग देखे जिए हैं.... वक्त के साथ सच में बहुत कुछ बदला है.....

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

शत-प्रतिशत सहमति
इक वो भी दीवाली थी इक ये भी दीवाली है
उजड़ा हुआ गुलशन है,रोता हुआ माली है.

Smart Indian said...

बहुत सजीव चित्रण किया आपने। सचमुच समय के साथ बहुत कुछ बदला है लेकिन जैसे संतोष के बिना मन प्रसन्न नहीं होता वैसे ही आंतरिक उल्लस के बिना उत्सव भी बेमानी है।

वाणी गीत said...

पहले सुविधाएँ और साधन कम थे , मगर मन में उत्साह भरपूर था ...पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के लिए आजकल बच्चे या बड़े आतिशबाजी नहीं करना चाह्ते , मगर सच यह है कि छोटे बच्चों को मिठाई से ज्यादा चाव पटाखों का होता है , शायद इसलिए भी यह उत्साह आजकल कम लगता है ...

संजय @ मो सम कौन... said...

" पहले थोड़ा ही था लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है।"
ये वो सच है जो जीवन के हर क्षेत्र में लागू हो चुका है। धन हो या भौतिक सुख सुविधाये या फ़िर रिश्ते, मात्रा बढ़ गई है लेकिन आनन्द कम हो गया है।

Unknown said...

वो सादगी के दिन की दिवाली थी और ये दिखावे तथा आडम्बर वाले दिनों की। सादगी की दीवाली में भारतीय संस्कार परिलक्षित होते थे और आडम्बर की दिवाली में अहंकार दृष्टिगत होता है।

पहली वाली दिवाली को आज के बहुत से लोग समझ तो पाएँगे ही नहीं, उल्टे उसका मखौल भी उड़ाएँगे।

Atul Shrivastava said...

सही है।
मौजूदा समय में त्‍यौहारें औपचारिकता का निर्वहन बन कर रह गई हैं।
हां, बच्‍चों में उत्‍साह बराबर बना रहता है और बच्‍चों के कारण ही बडों को भी त्‍यौहार में कुछ मस्तियां करनी पडती है वरना औपचारिक रूप से त्‍यौहार मना लिया गया बस.....

rashmi ravija said...

समय परिवर्तनशील है...और उसी के अनुसार रस्मो-रिवाजों में भी परिवर्तन आता जा रहा है...
गुजरा वक़्त हमेशा ही एक कचोट दे जाता है...
और हम मिस करने लगते हैं...उन यादों को

Kailash Sharma said...

पुरानी यादें फिर ताजा कर दीं...अब त्योहारों में प्यार की वह ऊष्णता कहाँ है..बहुत सारगर्भित आलेख..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

अब न वो त्योहार न उस त्योहार की बातें बाकी। सब कुछ एक फ़ार्मेलिटी हो गई है॥

प्रेम सरोवर said...

आपका पोस्ट अच्छा लगने के साथ-साथ सराहनीय भी है । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

अजित गुप्ता का कोना said...

मैंने इस पोस्‍ट पर दीवाली के अपने अनुभव लिखे थे, मुझे लग रहा था कि आप सभी भी अपने अनुभव बताएंगे। यह तो सत्‍य है कि हर युग के साथ त्‍योहार का स्‍वरूप बदलता है, लेकिन रिश्‍तों की उष्‍णता हमेशा ही लुभाती है। इसलिए आप लोग भी अपने अनुभव बताएं कि आप कैसे दीवाली मनाते थे।

ऋता शेखर 'मधु' said...

यादें धरोहर के रूप में हमारे मन में रहती हैं|कभी-कभी उनपर दृष्टि डाल लेने से मन को बहुत शांति मिलती है...बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट|

Asha Lata Saxena said...
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Asha Lata Saxena said...

अच्छा लेख |बधाई | बहुत समय से अपने ब्लॉग पर आपकी प्रतीक्षा रहती है |
आशा

Sadhana Vaid said...

यह विशेषता बचपन की है जो हर काल, हर परस्थिति एवं हर परिवेश में उल्लास, उत्साह और खुशियों से छलकता रहता है ! आज के बच्चों से पूछिए उन्हें हर उसी त्यौहार हर उत्सव में कितना आनंद आता है जिसे हम फीका, खोखला या बेरंग मान कर उदास हो जाते हैं ! स्मृतियों को जगाती इस खूबसूरत पोस्ट के लिये आपको बधाई !

Asha Joglekar said...

यादों की यही विशेषता है कि वे चाहें सुखद हों या दुखद हमेशा आनंद ही देती हैं ।
परिवर्तन ही जीवन है । यहां इस देश में इतना ज्यादा सामान फेंका जाता है कि उस तुलना में तो हम काफी चीजें पुन्हा पुन्हा व्यवहार में लाते रहते हैं । तौलिया फटा तो रसोई के कपडे, वे गंदे हुए तो पोछे और जब वह जर्जर हो जाता है तभी फिकता है । हर बार पेपर टॉवेल तो नही वापरते हम । आशा है आपकी दीपावली मंगलमय रही होगी ।

चंदन said...

सोच समझ कर खर्च करने कि आदत अब लगभग नही रही... और पहले जैसे मजबूत और टिकाऊ समान भी नही रहे.... अब तो सिर्फ देखा देखि है भागम भाग है.... कचरे का अम्बार लगाओ... अपना घर साफ़ रखो और सड़क पे ढेर लगाओ... हमें उत्सव भी उत्साह से मनाना चाहिए.. और वो मन में घर में और समाज में भी दिखना चाहिए!

आपके लेख को पढकर बहुत कुछ सिखने को मिला!

अभिषेक मिश्र said...

स्मृतियाँ हमारी भी ऐसी ही हैं. अब व्यक्ति केन्द्रित समाज में सामाजिकता कम होती जा रही है.

आशा बिष्ट said...

मधुर स्मृतियों से भरा जीवंत आलेख ....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

समय के साथ बदलता परिवेश,
अब सभी त्योहारों मात्र ओपचारिकता ही रह गई है
सुंदर आलेख पसंद आया....
मेरे नए पोस्ट "माँ की यादे"में स्वागत है....

BS Pabla said...

"परिवर्तन प्रकृति का नियम है"

अब यही सोच कर मन शांत कर लेते हैं

ghughutibasuti said...

हम तो अब भी मस्त दीपावली मनाते हैं बिल्कुल अलग ढंग से. हर नई जगह जाकर इस त्यौहार को नया रूप देते गए.
घुघूतीबासूती

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