Wednesday, September 28, 2011

दो प्रश्‍न - लोकार्पण क्‍या हैं? लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है?



अपनी पुस्‍तक का लोकार्पण के अर्थ क्‍या हैं? कोई कठिन प्रश्‍न नहीं हैं, बहुत‍ सरल सा उत्तर है कि अपनी पुस्‍तक को लोगों को समर्पित करना। अर्थात अपने विचारों को पुस्‍तक के माध्‍यम से समाज में प्रस्‍तुत करना। ये विचार अब समाज प्रयोग में ला सकता है। लेकिन कई बार विवाद होता है या यूँ कहूँ कि अक्‍सर विवाद होता है कि मेरे विचार को समाज ने कैसे उद्धृत किया? यदि मेरा विचार था तो उसे मेरे नाम से ही उद्धृत करना चाहिए था। लेकिन समाज का कहना है कि जब आपने इसे लोकार्पित कर ही दिया है या सार्वजनिक कर ही दिया है तो ये विचार सभी के हो गए हैं। यह किसका विचार है उद्धृत करना बहुत अच्‍छी बात है लेकिन यदि कोई नहीं भी करे तो क्‍या यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा? वर्तमान लेखकों या विचारकों के विचारों को हम उद्धृत भी कर देते हैं लेकिन प्राचीन विचारकों को तो हम अक्‍सर भुला ही देते हैं और सीधे ही उस विचार का प्रयोग करते हैं। कितनी लघुकथाएं, बोधकथाएं, मुहावरे, चुटकुले समाज में प्रचलित हैं लेकिन हम उनके लेखकों को नहीं जानते। इसलिए मैं सभी सुधिजनों से जानना चा‍हती हूँ कि क्‍या लोकार्पित विचार आपकी निजि सम्‍पत्ति हैं? क्‍योंकि मुझे किसी विद्वान ने कहा था कि जब तक आपकी पुस्‍तक लोकार्पित नहीं है तभी तक आपकी है, जिस दिन इसका लोकार्पण हो गया यह पुस्‍तक सबकी हो गयी है। जैसे कोई भवन, पुल आदि लोकार्पण के बाद सार्वजनिक हो जाते हैं।
लेखन के बारे में एक और प्रश्‍न है, हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है? क्‍योंकि मेरा मानना है कि शब्‍द ब्रह्म है और इसे नष्‍ट नहीं किया जा सकता है। यह अपना प्रभाव समाज पर अंकित करता ही है। आपके लिखे गए शब्‍द से समाज प्रभावित होता ही है। बोले गए शब्‍द में और लिखे गए शब्‍द में भी अन्‍तर होता है। बोले गए शब्‍द का व्‍याप छोटा होता है लेकिन लिखे गए शब्‍द का व्‍याप भी बड़ा होता है और वह साक्षात सदैव उपस्थित भी रहता है। इसलिए जिसके शब्‍दों या विचारों से समाज को सकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है वह लेखक या विचारक उतना ही महान होता है। जिस लेखन से नकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है उसे समाज तिरस्‍कृत करता है। आज भी हम रामायण और महाभारत से ऊर्जा लेते हैं लेकिन ऐसे लेखक भी आए ही होंगे जिन्‍होंने समाज में नकारात्‍मकता की उत्‍पत्ति की हो, लेकिन वह शायद स्‍थापित नहीं हो पाए। परिष्‍कृत समाज की हमारी कल्‍पना है। मनुष्‍य और प्राणियों में बस इतना ही अन्‍तर है कि मनुष्‍य सदैव परिष्‍कृत या संस्‍कारित होता रहता है जबकि अन्‍य प्राणी प्रकृतिस्‍थ ही रहते हैं। लेखन इसी संस्‍कार की प्रवृत्ति को विस्‍तारित करने के लिए ही है।

साहित्‍य और पत्रकारिता में एक अन्‍तर दिखायी देता है। पत्रकार प्रतिदिन की घटनाओं को समाज के समक्ष प्रस्‍तुत करते हैं, उसमें विचार नहीं होता लेकिन साहित्‍यकार के लिए आवश्‍यक नहीं है कि वह प्रतिदिन साहित्‍य की रचना करे। जब भी श्रेष्‍ठ विचार उसके अन्‍तर्मन में जागृत हों, उन्‍हें विभिन्‍न विधाओं के माध्‍यम से समाज तक विस्‍तार देने का प्रयास करता है। इसलिए साहित्‍यकार प्रतिदिन नवीन रचना नहीं कर पाता। समाज के मध्‍य जाकर प्रचलित विचारों से उसके नवीन विचार जन्‍म लेते हैं और वे उन्‍हें पुन: प्रांजल कर समाज को लौटाता है। इसलिए एक साहित्‍यकार के लिए  लेखन से भी अधिक आवश्‍यक है उसका समाज के साथ एकाकार होना। या फिर भिन्‍न विचारों का पठन, जो समाज में पुस्‍तकरूप में विद्यमान है। इन्‍हीं संस्‍कारित विचारों को हम समाज को देते हैं।
इसलिए आइए हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्‍या आपकी निजि सम्‍पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्‍ध है?

43 comments:

Maheshwari kaneri said...

बहुत सही कहा आपने ..सार्थक और विचारनीय पोस्ट..नव रात्रि की शुभकामनाएँ..

mridula pradhan said...

gambhir vishay hai......chintan karna hi hoga.

रचना said...

लोकार्पण - पुस्तक का मतलब अपनी पुस्तक को लोक को अर्पण करना ये मतलब आज पहली बार ही पढ़ा हैं
लोकार्पण /विमोचन इत्यादि का मतलब सहज रूप से बात इतना होता हैं की नयी किताब बाजार में आगयी हैं और आज ओपचारिक रूप से उसका एलान हो रहा हैं .
लोकार्पण / विमोचन लेखक और प्रकाशक दोनों करते हैं / करवाते हैं और इसका मूल उदेश्य किताब को बेचना होता हैं .
लोकार्पण /विमोचन किसी जानी मानी हस्ती से करवाया जाता हैं जो किताब को बिकवाने में सहायक हो
आज कल लोग पैसा भी लेते हैं किसी किताब के लोकार्पण मे आने के लिये
लोकार्पण के बाद भी किताब मे लिखी हर पंक्ति हर शब्द पर लेखक का कॉपी राईट होता हैं अगर ये किताब में लिखा हो तो
जिस किताब में ऐसा नहीं लिखा होता मान कर चलना चाहिये की लेखक ने पाण्डुलिपि प्रकाशक को बेच दी हैं

लेखन का उदेश्य क्या हैं ये आलोचक नहीं बता सकता हैं , आलोचक महज ये बता सकता हैं की उसको किताब / लेख कितना पसंद आया . पाठक जरुर उदेश्य खोज लेता हैं क्युकी पाठक लिखे को बरतता हैं .

वर्तमान कभी ये निर्धारित नहीं कर सकता की नकारात्मक लेखन हैं क्युकी अगर वर्तमान ये निर्धारण कर सकता तो तुलसी को ब्राह्मण समाज की अवेहेलना ना झेलनी पड़ती . समकक्ष लोगो के अपने उदेश्य जुड़े होते हैं किसी को सकारात्मक या नकारात्मक लेखक कहने के लिये और महाभारत के रचियता को तो समाज ने उनके जनम के कारण शायद अपना कभी माना ही नहीं

साहित्य रचा नहीं जाता
साहित्य रच जाता हैं
रचियता ख़ुद अपनी रचना को
साहित्य साहित्य नहीं चिल्लाता हैं

लेकिन लोकार्पण साहित्यकार बनने का भोपू मात्र होता हैं और इसके जरिये कोंटेक्ट बनते हैं

Pallavi saxena said...

आपने बिलकुल सही कहा है। मैं आपकी बात से सहमत हूँ। कि जब आपने अपने किसी भी विचार को लोकार्पित कर ही दिया है या सार्वजनिक कर ही दिया है तो ये विचार सभी के हो जाते है। यह किसका विचार है यह बताना अच्छी बात है लेकिन यदि आपने किसी कारण वश नहीं भी बताया तो मेरे हिस्साब से यह कोई गैरकानूनी की श्रेणी में नहीं आना चाहिए।
बहुत अच्छा लिखा है,आपने समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है। आपको और आपके सम्पूर्ण परिवार को हम सब कि और से नवरात्र कि हार्दिक शुभकामनायें...
.http://mhare-anubhav.blogspot.com/

shikha varshney said...

आज आपने मेरे अंदर उमडती बहुत सी बातों को यहाँ कह दिया.जिन्हें मैंने कई बार कहना चाहा पर उपयुक्त शब्द नहीं ढूंढ पाई.
बहुत आभार आपका.
बेहद सार्थक पोस्ट.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

अजित जी, लोकार्पण का उद्देश्य पुस्तक को सबसे सामने लेकर आना है. लोकार्पण एक समारोह/घटना है जिसमें पुस्तक का लेखक/प्रकाशक आदि पुस्तक का 'गृहप्रवेश' कराते हैं. कॉपीराईट विधि के अंतर्गत पुस्तकों (और उनमें निहित सामग्री) के प्रकाशनाधिकार लेखक के अवसान के पचास वर्ष के बाद स्वतः पब्लिक डोमेन में आ जाते हैं. लेखक चाहे तो अपने प्रकाशनाधिकार को 'नल एंड वॉइड' कर सकता है. पुस्तकों की तुलना भवनों और पुलों आदि से करना उचित नहीं है.
लेखन के उद्देश्य का प्रश्न जटिल है. यह सबके लिए भिन्न हो सकता है. मेरे लिए लेखन का उद्देश्य सार्थक विचारों का प्रसार और सम्प्रेषण है. कुछ के लिए यह स्वान्तः सुखाय, और कुछ के लिए मात्र मनोरंजन हो सकता है.
और कुछ समय मिलने और टिप्पणियां पढने के बाद लिखूंगा.

प्रवीण पाण्डेय said...

लेखन मन की बात बताता है, लोकार्पण पुस्तक की बात बताता है।

vandana gupta said...

शायद निशांत मिश्र जी ने जवाब दे दिया है और लगता है कि यही अर्थ है ऐसा मेरा ख्याल है। मगर लेखन का उद्देश्य सबके लिये भिन्न ही होता है।

अजय कुमार झा said...

आपकी पोस्ट में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं , पहला पुस्तकों के लोकार्पण का उद्देश्य और लेखन का उद्देश्य ।

लोकार्पण ..का मौजूदा अर्थ तो यही है शायद कि उसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का आधिकारिक आयोजन , फ़िर चाहे इसमें और भी निहितार्थ जुडे हों । रही लेखन के उद्देश्य की बात , तो निशांत जी की बात से सहमत हूं कि , लेखन का उद्देश्य सबके लिए सर्वथा भिन्न है .....कई बार तो शायद बिना उद्देश्य भी

प्रतिभा सक्सेना said...

लेखक का वह लेखन समाज को समर्पित है -लेकिन उसमें विचार और मान्यतायें उस विशेष व्यक्ति की हैं ,उसकी जीवन- स्थितियों को आत्मसात् किये हुये.उसके अतिरिक्त अन्य मान्यतायें और विचार भी हो सकते हैं. पता तो लगे किसने किस परिवेश में,किस आधार पर क्या कहा .बिना व्यक्ति को जाने यह कैसे होगा .
हमारे यहाँ भी वैदिक काल से ,विभिन्न मत और विचार-सारणियाँ नाम से ही चली हैं जिन पर आगे आनेवालों ने खंडन-मंडन किया और वह परंपरा आगे बढ़ी.

kshama said...

इसलिए आइए हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्‍या आपकी निजि सम्‍पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्‍ध है?
Sahi disha me vichar karva rahee hain aap!
Navratree kee anek shubh kamnayen!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

लेखक अपने विचारों को लोकार्पित करता है पढ़ने के लिए..मनन करने के लिए..आलोचना या प्रशंसा करने के लिए न कि लेखक के विचार को अपना बना कर..यह तो मेरे विचार हैं, ऐसा कहकर ..अपने नाम से पुनः लोकार्पित करने के लिए। यह तो चोरी है। चोर का समर्थन नहीं किया जा सकता।

जहां तक अनजाने लेखकों के विचार, ज्ञान लेने-देने का प्रश्न है, उसमें भी एक लेखक ईमानदारी दिखाता है। वह कहता है कि ये भाव मैंने कहीं पढ़े थे..इस विषय में मैने ऐसा महसूस किया।

लोकोक्ति मुहावरे या समाज में प्रचलित कहानियाँ ये सभी लेखक प्रयोग करते हैं लेकिन यह नहीं कहते कि इनका सृजन मैने किया है.

अनजाने में चूक हो जाना अलग बात है। सिर्फ यहीं क्षम्य है। वह भी तब जब ज्ञान होते ही लेखक अपराध स्वीकार करे।

Sushil Bakliwal said...

लोकार्पित होने पर भी मूल विचारों का जनक तो लेखक ही कहलाएगा । रही बात लेखन के उद्धेश्य की तो यकीनन वो सबके अलग-अलग हो सकते हैं । नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ..

सुज्ञ said...

लोकार्पण का उद्देश्य लोगों को पढ़ने हेतू सामग्री अर्पण करना है। न कि विचार ही अर्पण कर देना।

वस्तुतः ज्ञान सर्वभोग्य है। सभी के लिए सहज होना चाहिए, पर आज के युग में विचारको को आजीविका भी चलानी पडती है। अतः काल अनुसार विचारक/लेखक के आय अधिकार सुरक्षित रहने चाहिए।

और अन्तिम निर्णय लेखक का है, वह सद्विचारों का बिना किसी अवदान के लोकहित में प्रसार चाहता है, या उसे पारिश्रमिक भी चाहिए।

Anonymous said...

मूलत: कोई विचार मोलिक नहीं होता , copyright बाजारवाद हैं

डॉ टी एस दराल said...

हमने तो कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं की , इसलिए कुछ नहीं कह सकते । लेकिन लेखन स्वांत : सुखाय करते हैं । परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि एक बार आपका लिखा हुआ जनता के सामने आ गया तो कुछ व्यक्तिगत नहीं रहा । इसलिए लेखन में समाज के प्रति जिम्मेदार होना अत्यंत आवश्यक है ।

Rahul Singh said...

यह तो कुछ-कुछ गंभीर सा सवाल लगता है, शायद हमने कभी सोचा नहीं इस तरह.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

पत्र लैटरबॉक्स में डालते ही पाठक की सम्पत्ति हो जाता है।
--
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की मंगलकामनाएँ!

Arvind Mishra said...

मेरी पहली पुस्तक -कथा संग्रह के पहले संस्करण में एक समर्पण था -त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्येव समर्पये ...
इदं न मम .....
और जहाँ तक रचना की सोद्येश्यता की बात है तुलसी कह गए हैं -
कीरति भनिति भूति भल सोयी सुरसरि सम सबकर हित होई !

ताऊ रामपुरिया said...

हम इस बात पर चिंतन करें कि हमारे लेखन का उद्देश्‍य क्‍या है और जो लेखन लोकार्पित हो गया है वह क्‍या आपकी निजि सम्‍पत्ति है या फिर सभी के उपयोग के लिए उपलब्‍ध है?

लोकार्पण से समझ तो यही आता है कि यह लोक की संपति हुई पर ये किस लिये होता है ये सभी जानते हैं.

रामराम

rashmi ravija said...

एक साहित्‍यकार के लिए लेखन से भी अधिक आवश्‍यक है उसका समाज के साथ एकाकार होना।
यह पते की बात कही..आपने...पूर्णतः सहमत.

लेखन का उद्देश्य तो सबके लिए भिन्न होता है...कोई अपनी आजीविका के लिए लिखता है....कोई प्रसिद्धि पाने के लिए तो कोई स्वान्तः सुखाय.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

लोकार्पण का अर्थ है लोगों को पुस्तक का परिचय कराना न कि उसमें दिए गए विचारों को कोई भी कॉपी कर सकता है। यदि उसमें से कोई उद्धृत करता है तो उसे रचनाकार का नाम तो देना ही होगा।

DR. ANWER JAMAL said...

'लोक को अर्पित करना'
लोकार्पण कहलाता है। लोकार्पण करने से स्वामित्व खत्म नहीं हो जाता। सरकार किसी पुल या सड़क का लोकार्पण करती है तो उसके बाद सरकार का स्वामित्व उस जगह पर से खत्म नहीं हो जाता। जब भी याद किया जाएगा तो यह जरूर कहा जाएगा कि यह पुल या सड क अमुक सरकार के जमाने में बना था और अमुक व्यक्ति ने इसका लोकार्पण किया था।
यही बात विचार और पुस्तक के बारे में है, लोकार्पण के बाद लोग उस विचार को जान सकते हैं, उसे बरत सकते हैं लेकिन उस विचार और पुस्तक का जिक्र जब भी किया जाएगा तो उसके लेखक का जिक्र जरूर किया जाएगा।
हरेक रचनाकार की रचनाधर्मिता अलग अलग होती है।
यह जरूरी नहीं है कि हरेक साहित्यकार रोजाना ही लिखे लेकिन ऐसे साहित्यकार भी हुए हैं जो रोजाना लिखते थे और ऐसे आज भी हैं जो रोजाना लिखते हैं।

शुभकामनायें !

जानिए कि परम धर्म क्या है ?

ZEAL said...

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१-लोकार्पण की परिभाषा डॉ अनवर जमाल द्वारा दी गयी सबसे अच्छी लगी। सहमत हूँ उनसे ।

२- लेखन का उद्देश्य हर व्यक्ति का पृथक पृथक हो सकता है। अन्यों का उद्देश्य नहीं जानती लेकिन मैं क्यूँ लिखती हूँ यह बता सकती हूँ। आस-पास परिवेश में जो भी अनियमितताएं हैं चाहे समाज से जुडी हुयी , चाहे राजनीति से , उनके खिलाफ आवाज़ उठाती हूँ। सत्य को लेखन के माध्यम से सामने रखना उद्देश्य होता है।

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Atul Shrivastava said...

सार्थक पोस्‍ट।
सच कहा आपने, लिखे गए शब्‍द बोले गए शब्‍दों से ज्‍यादा कारगर होते हैं।
लोकार्पण के अर्थ को लेकर भी आपने जो कहा, उससे सहमत।

वाणी गीत said...

लोकार्पण लेखक को पाठक तक पहुँचाने का माध्यम मात्र ही है !

मनोज कुमार said...

विमोचन शब्द भी अच्छा लगता है।
उद्देश्य - लोकमंगल की भावना।

Smart Indian said...

अब साहित्यकार ठहरे शब्दों के जादूगर, कुछ भी कर सकते हैं। मेरे ख्याल से लोकार्पण के नाम से कहा जाने वाला कृत्य कृति का अनावरण कहा जा सकता है। जहाँ तक विचार को समाज द्वारा उद्धृत करने की बात है, साहित्यिक विचार कोई वैज्ञानिक खोज तो हैं नहीं जो अद्वितीय विचार हों, वैसे मिलते जुलते विचार एक साथ (और पहले भी) अनेक लोगों के मन में आ सकते हैं। कहावत यह भी है कि आगे लिखा जाने वाला सारा साहित्य तो वेद व्यास पहले ही लिख चुके हैं। हाल ही में एक काव्य मंच पर रहीम और कबीर के बिल्कुल एक जैसे दोहों के उदाहरण सामने रखे थे। बहुत से लोग अपने कार्य को पब्लिक डोमेन में रखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे बहुत सी वैज्ञानिक खोजों को जनहित में कभी पेटेंट नहीं कराया गया। लेखन के उद्देश्य पर पूर्व टिप्पणीकार पहले ही काफ़ी कुछ कह चुके हैं सो - नो कमेंट्स!

Khushdeep Sehgal said...

आजकल तो पुलों और फ्लाईओवर्स के लोकार्पण के बाद उन पर टोल टैक्स भी लगा दिया जाता है जो सालों-साल लोगों को देना पड़ता है...

लेखन वही जो लिखने और पढ़ने वाले दोनों को सुकून दें...

जय हिंद...

फ़िरदौस ख़ान said...

सार्थक और विचारणीय पोस्ट...

anshumala said...

मुझे तो लगता है विचार तो लेखक के ही रहेंगे वो समाज का नहीं हो सकता है हा किताबो का लोकार्पण करके हम उसे सभी के साथ बाटते भर है वो विचार लोगों के नहीं हो सकते है और लिखने का उद्देश्य तो सभी का अलग अलग होता है मै यहाँ लिख रही हूं ताकि लिखना सिख सकू |

अजित गुप्ता का कोना said...

फेस बुक पर एक टिप्‍पणी आयी है, उसे भी आप सभी के अवलोकनार्थ दे रही हूँ -
Vipul Gupta namaskar madamji, parnam, after reading your post i restrospect and a heartening fact came to my mind, which i must share, madamji, asper my view Writers are one of the pivotal strata of our community becauese by virtue of their writings the writer caary out the most rewardable task of awakening the society inspite of the fcat that most of the times their writings call for some contradictions from the vested interests but the WRITERS do their task honestly without any fear or favour and not for making money worth , besides your query regarding whose property the writing becomes after its publication and inarguration , in my view after that the writing becomes propery of all those who loved to read good books and columns as this feeling inculctaes the habit of reading more and more .

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-652 , चर्चाकार-दिलबाग विर्क

सम्वेदना के स्वर said...

इस बहस से अलग अपनी राय रखने की धृष्टता कर रहा हूँ.. शब्द लोकार्पण हो, अनावरण हो, विमोचन हो या कुछ भी. स्वामित्व लेखक/रचनाकार का हो या पाठक का या चोरी करने वाले का. उद्देश्य क्या है, यह मूल प्रश्न है. यदि आप अपने विचारों को लोकार्पित करना चाहते हैं तो जितने लोग इसको संप्रेषित/प्रचारित/प्रसारित करें उतना ही श्रेस्कर है.यहाँ यह प्रश्न ही नहीं कि मेरा नाम लिया गया अथवा नहीं. हाँ, अगर नाम की चाह हो, और यह कि यह "मेरा/मेरी" रचना है, तब बात और है!
एक बहुत प्रसिद्ध मैनेजमेंट के गुरु हैं जिन्होंने अपनी सारी फाइलें खुली छोड़ रखी हैं नेट पर.. कहते हैं जिसको लेना हो ले ले, ताला लगा दूं तो लोग चोरी करेंगे और करके ही दम लेंगे!!
बाकी तो लोग खुद समझदार हैं!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

लोकार्पण , अनवारण या विमोचन ...पुस्तक को आधिकारिक तौर पर लोगों के समक्ष लाना उद्देश्य होता है ..विचार लोग पढ़ें , समझें सांझा करें ..पर पुस्तक में लिखी बातों पर रचनाकार का ही अधिकार होता है ..
लिखने का उद्देश्य एक ही व्यक्ति के सामने अलग अलग परिस्थिति में भिन्न भिन्न हो सकता है ..

संजय @ मो सम कौन... said...

पहला सवाल तो अपने स्तर से बहुत ऊँचा सवाल है, सो विमर्श देख रहे हैं।
दूसरे सवाल पर अपना मानना ये है कि अलग अलग लोग अलग अलग उद्देश्य से लिख रहे हैं। किसी का उद्देश्य खुद की भड़ास निकालना, किसी का लेखन के जरिये खुद को हाईलाईट करना, किसी का मनोरंजन के लिये लिखना, किसी का उद्देश्य ज्ञान बाँटना और किसी का उद्देश्य अर्थोपार्जन करना आदि आदि हो सकते हैं।

Udan Tashtari said...

विचारणीय पोस्ट....

महेन्‍द्र वर्मा said...

@ जिसके शब्‍दों या विचारों से समाज को सकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है वह लेखक या विचारक उतना ही महान होता है। जिस लेखन से नकारात्‍मक ऊर्जा मिलती है उसे समाज तिरस्‍कृत करता है।

लेखन ऐसा हो कि उससे समाज को सकारात्मक उर्जा ही मिले। आपके विचार बिल्कुल सही हैं।

रचना दीक्षित said...

एक गंभीर विषय पर आपने चर्चा की है. बिना उद्देश्य का लेखन निरर्थक ही है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 03-10 - 2011 को यहाँ भी है

...नयी पुरानी हलचल में ...किस मन से श्रृंगार करूँ मैं

#vpsinghrajput said...

बढ़िया प्रस्तुति ||

बहुत-बहुत बधाई ||

Rohit Singh said...

विचारणीय प्रश्न....मेरा मानना है कि कोई भी विचार जो सार्वजनिक किया जाता है तो वो आपका पूरी तरह से निजी नहीं रह जाता...उसपर समाज का असर होता है..क्योंकि कोई विचार समाज से निकल कर ही आपमें जाता है औऱ फिर कुछ नए अर्थ में सामने वापस आता है.....

अनामिका की सदायें ...... said...

gyanvardhak lekh aur bahut acchhi jaankari mili.

aabhar.