बहुत दिनों पूर्व एक कहानी पढ़ी थी, अकस्मात उसका स्मरण हो आया। कहानी कुछ यूँ थी – एक व्यक्ति एक गाँव में जाता है, एक परिवार का अतिथि बनता है। उस परिवार में विवाह योग्य एक लड़की है लेकिन वह बहुत ही कमजोर और बीमार से थी इस कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा है। उस गाँव में एक प्रथा थी कि विवाह के समय लड़का जिस भी लड़की से विवाह करना चाहता था, वह उस लड़की को अपनी सामर्थ्य के अनुसार गाय भेंट में दिया करता था। जितनी गायें दी जाती थी समझो लड़की उतनी ही सुन्दर है। उस असुन्दर लड़की के भविष्य की चिंता करते हुए वह व्यक्ति गाँव से लौट आया। कुछ बरसों बाद वह व्यक्ति पुन; उस गाँव में गया। इस बार वह एक युवक के यहाँ अतिथि था। उस युवक ने कुछ समय पूर्व ही विवाह किया था और अपनी होने वाली पत्नी को 100 गायें भेंट में देकर विवाह किया था। निश्चित ही वह लड़की सुंदरता में सानी नहीं रखती होगी। युवक ने कहा कि मैंने इस गाँव की सबसे सुन्दर लड़की से विवाह किया है। उस व्यक्ति को उसकी पत्नी को देखने की उत्सुकता बढ़ गयी। कुछ ही देर में एक लड़की घर के अन्दर से उस अतिथि के लिए शरबत बनाकर लायी। वास्तव में वह बहुत ही सुन्दर थी। अतिथि ने उसे पास से देखा और देखकर उसे लगा कि इसे मैंने पहले कहीं देखा है। उसकी मुखमुद्रा देखकर उस युवक ने बताया कि यह वही लड़की है जिसे कभी असुन्दर कहा जाता था।
आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ? अतिथि की जिज्ञासी बढ़ चुकी थी। युवक ने कहा कि मैं चाहता था कि मेरी पत्नी इस गाँव की सुन्दरतम लड़की हो इसलिए मैंने इस लड़की को पसन्द किया और उसे 100 गायें भेंट में दी। इस लड़की का आत्मविश्वास लौट आया और आज यह आपके समक्ष खड़ी है।
इसी संदर्भ में एक बात और ध्यान आ रही है कि आप देखते होंगे कि जब युवक और युवतियां शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं तब अक्सर वे सामान्य ही दिखते हैं। बहुत ही कम युवा ऐसे होते हैं जो खूबसूरत दिखते हैं। साधारण परिवार के युवा अक्सर साधारण ही दिखते हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें नौकरी मिलती है, उनके चेहरे पर एक चमक आ जाती है। विवाह के बाद तो यह चमक दुगुनी हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? शिक्षा लेते समय हम परिवार के अधीन होते हैं और हमेशा हमारा आकलन कम ही किया जाता है। 90 प्रतिशत नम्बर आने के बाद भी कहा जाता है कि नहीं और मेहनत करो। हमारे जमाने में परिवार में अविवाहित बच्चों की कोई विशेष कद्र नहीं होती थी, आज अवश्य वे वीआईपी बने हुए हैं। लेकिन आज भी उनके परामर्श को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता इसलिए उनके अन्दर स्वाभिमान जागृत ही नहीं हो पाता है।
लेकिन जब ये ही युवा नौकरी पर जाते हैं और वहाँ बहुत सारे निर्णय स्वयं को करने होते हैं तब उनका आत्म सम्मान जाग उठता है और उनका व्यक्तित्व निखर उठता है। इसी प्रकार विवाह हो जाने के बाद लड़के और लड़की दोनों को ही कोई चाहने वाला मिल जाता है इस कारण उनका व्यक्तित्व निखर जाता है।
एक बात आप सभी ने गौर की होगी कि जब भी परिवार में या मोहल्ले में कोई भी नव-वधु आती है तब उसे बच्चे घेरे रहते हैं। कोई घूंघट के अन्दर झांकने के लिए नीचे झुकता है तो कोई समीपता पाने के लिए एकदम पास आकर बैठता है। हमने भी ऐसा ही किया था और हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ था। नव-वधु की कल्पना हमारे अन्दर बसी हुई है। साड़ी में लिपटी हुई, हाथ चूड़ियों से भरे हुए, माथे पर सिंदूर, गहने और चेहरे पर नवीनता। हमारे देश में एक लड़की का यही रूप बरसों तक रहता है। पुराने जमाने में तो जीवन भर यही रूप रहता था। पूरे घर में नवीनता रहती थी। शायद ही कोई वधु ऐसी हो जो दिखने में कुरूप लगती हो, सभी पहनने-ओढने के बाद सुन्दर ही दिखती थी।
लेकिन अब युग बदल गया है। नयी-वधु की सुन्दरता एक दो दिन से ज्यादा रहती नहीं। उसकी साड़ी, उसकी बिन्दी, चूड़ियां सभी गायब हो जाती है। एक साधारण सी लड़की में बदल जाता है उसका व्यक्तित्व। कई बार तो लगता है कि यह लड़की विवाह के पूर्व ही ज्यादा सलीके से रहती थी। एक बार मैंने एक लड़की से पूछ लिया कि बिन्दी क्यों नहीं लगाती हो? तो कहने लगी कि मैं ही विवाहित क्यों दिखायी दूं जबकि लड़कों के भी तो कोई विवाहित होने का चिन्ह नहीं होता? बात तो उसकी जायज थी लेकिन अविवाहित क्यों दिखना चाहती हैं, इस बात का उत्तर नहीं था। क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है? मुझे इस प्रश्न का उत्तर समझ नहीं आता कि आखिर लड़कियां विवाह के बाद भी अविवाहित ही दिखना क्यों चाहती हैं? वे साधारण सी लड़की क्यों बनी रहना चाहती हैं? मुझे तो पहनी-ओढी वधुएं बहुत अच्छी लगती हैं, जब मेरी बहु और बेटी किसी विवाह समारोह के लिए सजती हैं तो कितनी प्यारी लगती हैं लेकिन आम दिनों में? मैं मानती हूँ कि आजकल नौकरी का दवाब इतना है कि बस जेसे-तैसे काम चला लिया जाता है। लेकिन नौकरी तो हमारे जमाने में भी होती थी, फिर ऐसा क्या हो गया आज? इसका उत्तर मेरे पास नहीं है, शायद आप लोगों के पास हो।
97 comments:
अविवाहित क्यों दिखना चाहती हैं
आज के ज़माने में विवाहित होना कोई "उपाधि , अचीवमेंट " नहीं हैं इस लिये . ये महज एक सामाजिक प्रक्रिया हैं जिसे समाज ने मान्यता दी हुई हैं .
पहले विवाह होना ही लड़की की नियति थी अब नहीं हैं
बहुत बार अविवाहित को मैने मंगल सूत्र , बिछिये और यहाँ तक की सिन्दूर भी लगाए देखा हैं पूछा तो उन्होने कहा ये सब "फैशन " होता हैं
और बहुत से ऑफिस में मैने विवाहितो को पूरे १६ सिंगार के साथ भी देखा
"। क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है? "
बाकी ये सब मिठिया भ्रम हैं और लोगो की व्यक्तिगत सोच हैं जो लड़कियों को एक ही जैसे ढांचे में देखने के आदि हैं वो सोच नहीं बदल सके लड़कियों ने बदल ली हैं और आगे बढ़ रही हैं क्युकी अपनी जिन्दगी जीने का अधिकार अपनी तरह संविधान और न्याय प्रणाली ने उनको दिया हैं
दीदी इस का उतर आज किसी के पास नहीं है
जब हम अपने घर के बेटी को किसी बात के लिए नहीं रोक सकते तो
कैसे उम्मीद करे की अपनी बहू को रोके
जब खुद की बेटी ने कोई विवाहित चिन्ह नहीं अपनाया तो
बहुत कैसे वो सब करेगी ..........आज आपका लेख ...बहुत से प्रश्न उठता है इस समाज के लिए
इसका जबाब तो लड़कियां ही दें तो बेहतर है|
आजकल मैं अपनी शादी के लिए लड़कियों से बात कर रहा हूँ, एक लडकी का कहना था कि "वो सिर्फ मेट्रो में ही रहना चाहती है कभी छोटे शहरों में जायेगी ही नहीं" हा हा हा
ऐसी लड़की तो शादी के बाद साड़ी भी नहीं पहनेगी आप सिन्दूर लगाने की बात कर रहीं हैं
आधुनिकता का एक सतत प्रवाह----
विरले ही बच पाते हैं |
प्रतिदिन, कम से कम
एक व्यक्ति मुझे यह एहसास करता है
कि मैं आयु में बहुत बड़ा हूँ फला आदमी से |
एक दिन तो हद ही हो गई
एक रिटायर्ड मित्र से मेरी तुलना की गई --
कारण साधारण सा है कि मैं बालों को डाई नहीं करता |
जरुरी है क्या ?
सिंदूर न लगाना या छुपा हुआ लगाना --
मात्र फैशन है और कुछ नहीं |
परन्तु निश्चय ही ऐसा करने से
कुछ प्रतिशत ही सही --
उनकी असुरक्षा में इजाफा हो जाता है |
पहनी-ओढी बहुएं हमें बहुत अच्छी लगती हैं जी, अनु जी से सहमत हूँ कि जब हम अपनी बेटियों को नहीं रोक सकते तो बहुओं से आशा करना बेमानी है।
आपकी पोस्ट के माध्यम से हमारा भी ज्ञानरंजन होगा।
आभार
बिन्दी सिन्दूर आदि कई कारणों से नही लगाया जाता जैसे कुछ मानते हैं कि इस से चमडी की बीमारी होती है, कुछ को सादा रहना अच्छा लगता है और फिर ये रिवाज प्राँतिय भी हैं जैसे पंजाब मे सिन्दूर आदि लगाना जरूरी नही समझा जता इस लिये आदत ही नही है। जरूरी नही कि अविवाहित दिखने के लिये ही इनका उपयोग न हो। सादा रहने मे कोई नुक्सान नही। मुझे नही लगता कि बिन्दी सिन्दूर आदि का विवाहेत्तर सम्बन्धों सेकुछ लेना देना है। शुभकामनायें।
मुझे लगता है ये एक परिवर्तन का दौर है .. मान्यताएं, वर्जनाएं बदल रही हैं ... और इस बाद्लाव को मान लेना अच्छा है ... सत्य अभिक्टर छुपता नहीं है ...
चूड़िया,बिन्दी सिन्दूर..ये सब सुहाग की निशानी मानी जाती हैं..आज के बच्चे आधुनिकता के चक्कर में इन सब को आडम्बर मात्र ही समझते है.।विवाह के बाद भी वे इन सब को ढोग मान कर स्वयं को आधुनिक दिखाने की कोशिश में रहते हैं.....शायद..
अजित जी
विवाह के अतिरिक्त कोई सम्बन्ध बनाने के लिए क्या कभी सिंदूर बिंदी चूड़ी बाधक बने है क्या ? मुझे तो नहीं लगता है की जिन्हें सम्बन्ध बनाना होगा वो सोलह सिंगार करके पति के लिए करवाचौथ का व्रत रख कर भी ये कर सकती हूँ विवाह के पहले भी विवाह के बाद भी कर सकती है |
@ क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है? "
पुरे लेख में ये लाईन बड़ी अखर रही है इस लाईन पर मेरी असहमति दर्ज करे |
जब मेरा विवाह हुआ था तो कुछ महीनो बाद जब मैंने ये सब लगाना बंद कर दिया तो पति से एक सवाल किया था " कि मेरा विवाहित लगना जरुरी है या मै मानु की मै विवाहित हूँ " पति को दूसरा विकल्प पसंद आया | एक बार किसी ने पति को टोका की आप की पत्नी सिंदूर क्यों नहीं लगाती तो पति ने जवाब दिया " की जब साढ़े पांच फिट का पूरा सुहाग ही साथ चल रहा है तो दो इंच की निशानी की क्या जरुरत है |" एक समय था जब हम सरदर्द को बर्दास्त कर लेते थे पर आज झट एक दर्दनिवारक खा कर आराम पा लेते है आज कोई भी लड़की बिझिये कि जुभन, खाना बनाते समय गर्म हो जाती चूडियो कि जलन आदि को बर्दास्त नहीं करती, ये सब सिंगार के सामान है और कभी कभी मौके पर ही अच्छे लगते है | महिलाए साडी सूट के साथ मैचिंग चुडिया पहनती है और आज सभी आधुनिक कपडे पहनते है जिनके साथ ये पारम्परिक गहने मैच नहीं होते तो वो उनके साथ मैच होने वाले गहने पहनती है और फिर समय के साथ बदलता फैशन तो है ही | और एक जमात हम जैसे की भी है जिन्हें कभी भी गहने पहनना पसंद नहीं आता है कल मजबूरी थी ससुराल का दबाव था सो लड़किया पहनती थी आज नहीं है तो वो खुद की पसंद का काम करती है |
अंशुमाला जी, मेरा पूरा आलेख इस बात पर केन्द्रित है कि लड़कियां वधु बनने के बाद सुन्दरता भी ओढ़ लेती हैं लेकिन वर्तमान में यह सुन्दरता दिखायी नही देती। इसलिए मेरी जिज्ञासा इतनी सी ही है कि आखिर सुन्दर दिखने में बुराई भी क्या है? चूड़ी बिन्दी को हम केवल सुहाग के चीजे ही क्यों माने? क्या इन्हें सुन्दरता के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। वैसे सभी का अपना नजरिया है, यहाँ सभी के विचार भी आने ही चाहिए और मैं सभी के विचार की कद्र भी करती हूँ। मैं तो केवल इस पोस्ट के बहाने से विचार जानना चाहती हूँ। इसलिए सभी का स्वागत है।
अनु
मैने बहुओं और बेटियों का प्रश्न ही नहीं उठाया। मैंने तो स्वयं लिखा है कि मेरी बहु और बेटी जब सजती हैं तो सुन्दर दिखती हैं बाकि तो ठीक ही है। मैंने तो केवल सुन्दरता पर ही विचार जाने हैं। बंधनों पर नहीं।
is baat ka jabaab dena mushkil hai, har kisi kii ray alag alag ho sakti hai, shayd pati ke alaava use koi shari main nahin dekhna chahta ho, ladkiyon ko lagta ho ki shayad shari main atraction kam hota ho , bajah bahut ho sakti hain,
aapne bahut sahi baat ki , modernisation ka jamana hai
क्या फ़र्क पडता है सबकी अपनी अपनी सोच और नज़रिया होता है………वैसे भी बराबरी का ज़माना है तो ऐसे मे हम क्यो अपनी पसन्द ना पसन्द दूसरो पर थोपें ……………सिर्फ़ वैवाहिक चिन्ह लगाने से ही किसी के बारे मे सही या गलत आकलन नही किया जा सकता ………………आजकल तो विवाहेतर संबंध ज्यादा दिखाई देते है सारे चिन्हो के साथ तो ये चिन्ह कोई गारंटी नही है कि कौन सही है और कौन गलत्…………वैसे भी क्या जरूरत है एक औरत को ही इन सबमे बांधने की ? क्या मर्द ऐसा कर सकेगा और जब वो नही कर सकता तो क्यो हम किसी को इन बंधनो की बेडियो मे जकडें………।ये औरत पर ही छोड देना चाहिये उसे क्या अच्छा लगता है और वो क्या करना चाहती है या कैसी दिखना चाहती है तो ही बेहतर होगा।
@ क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है? "
अजित जी,
आपने बहुत ही कड़वी बात कह दी। और कहनी ही पडती है जब अविवाहित दिखने के पिछे पर्याप्त कारण की अभिव्यक्ति नहीं होती।
और प्रमाणिक उत्तर हो भी तो कैसे जब सबल कारण ही नहीं होता।
यह मात्र और मात्र पुरूष द्वेष की मानसिकता से ही उपजता है। आपने बताया ही है कि जब पुरूष ये चिन्ह धारण नहीं करते तो हम क्यों करें। अतः सुविधा आवश्यकता सभी दोयम है मूल कारण हैं पुरूष को बताना, और द्वेष जाहिर करना। दूसरा कारण है समाज से द्वेष, समाज क्यों इन चिन्हों को महत्व दे रहा है। यदि समाज इसे कहेगा कि यह करना अच्छा है तो ये ले नहीं करती जाओ, इस समाज नें हमेशा अपनी ही चलाई है। इसलिए अब इसकी तो नहीं ही चलने दूंगी।
जिन बातों के पिछे मात्र द्वेष ही कारण हों, प्रमाणिक जवाब नहीं आते।
सुज्ञ जी, आपका विश्लेषण समझ आ रहा है। मुझे भी सारे विचार पढ़कर यही लगा कि हम केवल पुरुष के प्रति द्वेष के कारण ही अपनी सुन्दरता तक को दाव पर लगा रहे हैं। बस इसी भाव से कि जा मैं भी सुन्दर नहीं दिखती, ऐसे ही रहूंगी।
इस कटु टिप्पणी से ही तो सच निकलकर सामने आया है, मुझे वास्तव में समझ नहीं आता था और मैं यही प्रश्न पूछती थी कि आखिर तुम लोगों को परहेज क्या है? क्यों उल्टे सीधे कपड़े पहनकर अपनी शक्ल-सूरत को बिगाड़े रहती हो?
@'पति से एक सवाल किया था " कि मेरा विवाहित लगना जरुरी है या मै मानु की मै विवाहित हूँ " पति को दूसरा विकल्प पसंद आया|'
अंशुमालाजी,
जिस चतुरता से आपनें प्रश्न दागा था, कोई भी पति हो, दूसरा विकल्प ही पसंद करेगा। कहां जाएगा? :))
वैसे रचना जी ने बहुत से कारण गिना दिए हैं, और अन्य लोगों ने भी। यदि विवाहित दिखने के सभी चिन्ह केवल सुंदरता ही बढ़ा रहे होते तो ठीक था। लेकिन वे बहुत कुछ और भी प्रदर्शित करते हैं। जैसे वह स्त्री अब किसी पुरुष की संपत्ति है।
स्त्रियों पर पुरुष की संपत्ति होने का भाव अभी बहुत बहुत गहरा भारतीय समाज में पैठा हुआ है। अधिकांश स्त्रियाँ भी इस से मुक्त नहीं हैं। लेकिन स्त्रियाँ आज इस भाव से स्वतंत्र होना चाहती हैं। जो विवाहित नहीं दिखना चाहती उन में से अधिकांश इसी भाव के कारण।
अजित जी,
मेरी बात को सही संदर्भ से लेने के लिए आभार!!
आपनें हिम्मत दी है तो एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा।
गांव में तालाब पर पानी भरने गई एक महिला तालाब में डूबने लगी। किनारे पर उसका पति और गांव के सरपंच थे जिन्हें तैरना नहीं आता था। अब उसे बचाए तो कैसे? तालाब में उसके निकट ही एक भैंस तैर रही थी, सरपंच ने उसके पति से कहा "यदि आपकी पत्नी भैस की पूंछ पकड ले तो बच सकती है" उस पति नें आवाज लगाई 'उस भैस की पूंछ मत पकडना' सरपंच को आश्चर्य हुआ, पर महिला नें भैस की पूंछ पकड ली। भैस धीरे धीरे बाहर की तरफ आ रही थी कि सरपंच के मुंह से निकल गया 'भैस की पूंछ छोड़ना मत' और उसनें भैस की पूंछ छोड़ दी। पति जानता था, उसे दूसरों की सलाह मानने से घोर नफरत है।
@"लेकिन वे बहुत कुछ और भी प्रदर्शित करते हैं। जैसे वह स्त्री अब किसी पुरुष की संपत्ति है।
स्त्रियों पर पुरुष की संपत्ति होने का भाव अभी बहुत बहुत गहरा भारतीय समाज में पैठा हुआ है।"
दिनेशराय जी,
संपत्ति मानने वाला भाव तो अब भारतीय समाज में नहीं रहा। किन्तु एक एटेचमेंट का भाव अभी भी भारतीय समाज में है। और जोडे में रहने की प्रथा थोडी गहरी उतरी हुई है। जोडे में रहना एक दूसरे का समर्पण भी मांगेगा। और सुन्दरता आदि वे आकर्षण है जो जोडे के रिश्तों को जीवन उर्ज़ा देते है।
व्यक्तिगत सम्पत्ति भले न मानों पर सभी रिश्तों का सार्वजनीकरण और संसाधन सबके लिए वाली विचारधारा का भारतीय संस्कृति में आने में समय लगेगा। कुछ रिश्ते सम्पत्ति नहीं तो निजि तो होते ही है।
सुज्ञ जी, आपका विश्लेषण समझ आ रहा है ||
SAHI KAHA AJIT JI AAPNE KI EK SADHARAN SI DIKHNA VALI LADKI BHI VIVAH KE BAD BAHUT SUNDAR DIKHTI HAI AUR KOI DULHAN AISEE NAHI HOTI JO ACHCHHI N LAGE.PAR AAJ AADHUNIKTA NE IS PAR VAKAI KATHORAGHAT KIYA HAI.BAHUT SARTHAK POST.BAHUT ACHCHHE VICHAR.
मैं जहां हूँ (U.K)यदि वहाँ के वातावरण को ध्यान में रख कर कहूँ तो बस इतना ही कहना उचित लगता है। कि यह आधुनिकता के साथ-साथ बदलती हुई सोच का असर है। यहाँ तो कोई भी किसी भी प्रकार का विवाहित होने का चिन्ह लगाना पसंद नहीं करता,क्यूंकि यदि कोई कुछ एसा करे तो उसे एसा महसूस होने लगता है जैसे वो भीड़ में अकेला नमूना लग रहा है ,और कुछ हद तक समय की माग भी होती है। जैसे आप ने खुद ही कहा है, कि नौकरी आदि में तो लोग "सादा जीवन उच्च विचार" पर चलने का दिखावा करते हैं भले ही विचार उच्च हों या ना हों मगर पहनावे के जरिये खुद को सदा दिखाना ही आज कल का fasion है
bahut badhiya...saarthak baaten kahi hai aapne...shaayed aisaa aadhunikta ke chakkar me ho rahaa hai....aaj ki ladkiyaan vivaah ke maayane shaayed nahi samajh rahee.
अजीत जी, आपने इस प्रश्न को उठाने की साहस किया (!) इसके लिए आप निश्चित ही बधाई की पात्र हैं।
इसका जवाब महिलाएं ही बेहतर दे सकती हैं।
जहां तक मेरा अपना मानना है, मुझे लगता है कि समय के साथ हमारी सामाजिक मान्यताएं भी बदल रही हैं।
अब देखिए ना, बचपन में हम टीकी (शिखा) रखते थे, त्रिपुंड लगाते थे, जेनेऊ पहनते थे, पिता के जीवित रहते मूंछ नहीं मुंडवाते थे, और भी ऐसी कई चीज़ें थीं जो धर्म-समाज की पारंपरिक मान्यता के हिसाब से करते रहते थे। पर आज नहीं करते।
आज इन सब में ढ़ीलापन आ जाने से वो सब कोई ऐब नहीं माना जाता।
ऐसे ही महिलाओं पर भी कई अनावश्यक बंदिशें डाल दी गईं। वह भी धर्म, समाज और परंपरा के नाम पर। जागरूकता आ जाने से उन जकड़नों से, उन पाबंदियों से उन्हें मुक्ति मिल रही है।
हमारी शादी हुई तो श्रीमती जी को गांव में सलवार सुट पहने की छूट हमने दी, लोगों ने कहना शुरु किया ‘नया-नया कनिया लगबे नई करैए छई’ पर हमने उन्हें जिसमें वे सहज हों करने दिया।
इसमें कहीं कोई आधुनिक मानसिकता वाली बात ही नहीं थी। मैथिली बोलती हैं, अंग्रेज़ी का अल्प ज्ञान है, कभी किसी पाश्चात्य रिवाज़ से कोई मतलब नहीं।
सुंदरता तो नारी की सम्पति है उसका प्रयोग करें या न करें किन्तु विवाहेतर पति पत्नी के संबंधो की सुन्दरता बनी रहे .
यानी सीधी सी बात हैं की नारी के लिये सुन्दर दिखाना जरुरी हैं
और नारी आधारित हर विमर्श में यही रिजल्ट होगा की वो सामजिक मर्यादा तोडना चाहती हैं और पुरुष के अधिकार को ख़तम करना चाहती हैं
ये सुन्दरता बड़ी अजीब बात होती हैं क्युकी अगर सुंदरता दिखने वाली हैं तो वो वैसे ही बेकार ही होती हैं
जो लोग सुंदर दिखने को महत्व देते हैं ख़ास कर वो जो महिला हैं केवल और केवल इस लिये ताकि पुरुष को लुभा सके
और विवाहित स्त्री के लिये ये इस लिये जरुरी माना जाता था ताकि उसका पति कहीं और ना देखे
लेकिन पति ने फिर भी देखना बंद नहीं किया इस लिये विवाहित स्त्रियों को समझ आ गया की सुंदर दिखो या न दिखो उस से पति जो एक पुरुष हैं उसके दूसरी औरत को देखने के स्वभाव मै कोई अंतर नहीं आने वाला हैं और उन्होने अपने सिंगार का त्याग कर दिया
अब सोना भी इतना महगा होगया हैं की नकली जेवर पहनने से ना पहनना बेहतर
काफी अच्छा विमर्श हुआ ... असल में विवाहित युवतियां अविवाहित दिखें ऐसा शायद वो सोच कर नहीं करतीं ..बस जो उनको आरामदायक लगता है वो करती हैं ..पहले यह सब परिवार में रहते हुए बड़ों के अनुसार ही रहन सहन होता था .. अब वो सुविधानुसार पहनना ओढना करती हैं .. नौकरी पर जाते हुए बनाव श्रृंगार हर समय नहीं हो पाता ..लेकिन जब किसी विशेष आयोजन के लिए तैयार होती हैं तो वो रोज की सजी धजी बेटी बहुओं से ज्यादा खूबसूरत लगती हैं .. वैसे भी हर चीज़ में बदलाव आता है ..यहाँ भी आ रहा है .. लेकिन इस बात को विवाहेतर सम्बन्ध से नहीं जोड़ना चाहिए ..
अजित जी
मै समझ रही हूँ की आप क्या कहना चाह रही है इसलिए मैंने कहा है की मेरी असहमति सिर्फ उस लाइन पर है | हम सिंगार न करने वालो को और हर समय सुन्दर न दिखने की चेष्टा करने वालो को उसे पढ़ कर ऐसा लग रहा है जैसे हमारे चरित्र पर उंगली उठाई जा रही है , संभव है की आप ने ऐसा सोच कर नहीं लिखा है किन्तु हमें पढ़ कर ऐसा ही लग रहा है |
रही बात सुन्दरता की तो उसके लिए भी कहा है कि समय के साथ फैशन बदल जाता है | जो आप के समय में सुन्दर दिखने की निशानी थी वो आज के समय में पुराना फैशन माना जाता है आज फैशन सुन्दर दिखने की परिभाषा काफी बदल चुकी है हमें अपने पतियों से ये नहीं कहना पड़ता है की हमें आधुनिक कपडे पहनने है वो खुद चाहते है की हम आधुनिक कपडे पहने और आधुनिक दिखे | आप के राजेस्थान में क्या होता है इस का अंदाजा तो मुझे नहीं है पर यहाँ मुंबई में मेरी कई मारवाड़ी सहेलिय है जो ससुराल वालो के कारण आधुनिक कपडे नहीं पहन पाती है किन्तु जब पाति के साथ अकेले घूमने जाती है तो पहले नीचे आधुनिक कपडे पहनती है और ऊपर से रैपरान ( रेडीमेड साड़ी ) पहनती है और गाड़ी में बैठते ही उसे उतार देती है | क्योकि उनके पति चाहते है और वो भी की वो आधुनिक कपडे पहने किन्तु वो दोनों परिवार वालो की इच्छा का अनादर भी नहीं करना चाहते और ऐसा भी नहीं है की ससुराल वाले ये सब समझते नहीं है पर सभी समाज के डर से इस प्रथा को चलने देते है इस प्रथा से दोनों खुश है | अब आप बताइए की एक विवाहित महिला को किस प्रकार की सुन्दरता अपनानी चाहिए जो आज फैशन में उसे और उसके पति को पसंद है या वो जो सालो से चला आ रहा है | आप का और सुज्ञ जी का ये आकलन तो बिलकुल भी गलत है की आज महिलाये केवल पुरुषो के विरोध के लिए ये सब कर रहे है | दुनिया को कोई भी ताकत नहीं है जो महिलाओ को उनके सुन्दर लगने की इच्छा से विमुख कर दे |
सुज्ञ जी
असल में मेरे पति आप से ज्यादा समझदार और मुझसे ज्यादा चतुर है वो समझ गए की मै इन शब्दों के साथ क्या कहना चाह रही हूँ | वो समझ गए की मै क्या कह रही हूँ कि मै मानूगी मै विवाहिता हूँ मेरा व्यवहार दूसरो के साथ एक विवाहित महिला की तरह होगा न की अविवाहित लड़की की तरह दोनों के व्यवहार में क्या फर्क होता है ये तो शायद आप समझते ही होंगे | मेरे सर में सिंदूर हो या न हो पर मै अपना परिचय किसी को श्रीमती अंशुमाला के रूप में दूंगी | एक विवाहित महिला और अविवाहित लड़की की सोच में , विचारो में जमीन आसमान का अंतर होता है और वो अंतर मुझमे अब से दिखेगा एक विवाहित महिला को ये भी पता होता है की किस तरह के पुरुषो से हाथ मिलाना चाहिए और किसे नमस्ते कर टरका देना चाहिए | कहने के लिए बहुत कुछ है किन्तु पोस्ट अजित जी की है और विषय दूसरा तो इसे यही ख़त्म करती हूँ | कभी अपने ब्लॉग पर ये मुद्दा उठईयेगा तो अवश्य आप को अपने पति के समझदारी और चतुरता के कई और प्रमाण दूंगी | मालूम है वो आप को महिलाओ के प्रति इस सोच के साथ समझ नहीं आयेंगे |
Sachchai sabko pasand hoti hai, sab sachche dikhna chahate hain, isliye sab bachche banna aur dikhna chahate hain. Dekha ki na maine bachchoin wali baat?
अंशुमालाजी, मेरा केवल यह भाव था कि पहले एक लड़की बरसों आकर्षक बनी रहती थी। यहाँ तक की बच्चे भी उसे घेरे ही रहते थे लेकिन आज विवाह होते ही दो दिन बाद ही वह इतनी साधारण वेशभूषा में आ जाती है कि नयापन लगता ही नहीं है। वेशभूषा कोई भी हो लेकिन आकर्षण तो बना रहे। यह आकर्षण केवल पति के लिए ही नहीं होता है अपितु पूरे घर के लिए ही होता है। मैं एक बात बताती हूँ, अभी कुछ दिन पहले अमेरिका गयी थी। वहाँ सभी लोग इस प्रकार के कपड़े पहनते हैं जिनमें लड़के भी शामिल हैं, कि देखने में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। तब मेरी बेटे से एक ही फर्माइश होती थी कि चलो डाउन-टाउन चले, वहाँ कुछ सजे-धजे लोग तो देखने को मिलेंगे। मैं बेटे को भी कहती थी कि मेरे साथ चलना है तो ढंग के कपड़े पहनकर चल। मुझे स्वयं को वहाँ इसलिए अच्छा नहीं लगता था कि कभी सजने का अवसर ही नहीं मिलता था। इसलिए इस पोस्ट को आप ध्यान से पढेंगी तो उसमें किसी बंधन की बात है ही नहीं। बस आकर्षक कैसे दिखें इसी बात की सोच है।
इन चिन्हों से विवाहित होने या न होने का कोई लेना देना नहीं है.
इस लेख को पढ़ने के बाद टिप्पणियों में असर दिखायी देने लगा है.
कुछ नारियों में इस लेख ने बौखलाहट पैदा कर दी है. अंतर्मन जो करना पड़ रहा है.
दर्पण दिखाते इस लेख ने स्त्री-मन की परतें खोल देने की चेष्टा की है.
हमें तो ये देखना है कि कौन-कौन आंदोलित होता है इस लेख से.
आज ब्लॉगजगत में भी छँटनी हो जायेगी....... चिर यौवनाओं की, आधुनिकाओं की. :)
फिर से :
आत्ममंथन जो करना पड़ रहा है.
आकर्षण केवल पति के लिए ही नहीं होता है अपितु पूरे घर के लिए ही होता है।
@ सुन्दर बात कही.
..... अब यदि शयनकक्ष में निक्कर में सुविधा है तो इसका मतलब ये नहीं कि सब्जीमंडी भी उसी में जाना चाहिए. कुछ तो अंतर रखना चाहिए अन्दर-बाहर में.
बचपना झलकाने के लिये जरूरी नहीं बच्चों के कपड़े पहन लिये जाएँ.
शरीर पर बोझ कम करने के लिये जरूरी नहीं कि कपड़ों के प्रति अन्याय किया जाये.
शायद मेरी इस कविता से आपको कुछ मिल सके।
सुहाग की निशानियाँ
याद दिलाती रहतीं हैं
नववधू को उसके पति की,
इन निशानियों को उसे हमेशा पहनना पड़ता है
धीरे धीरे वो इन निशानियों की आदी हो जाती है
और उसे ध्यान भी नहीं रहता
कि उसने ये निशानियाँ भी पहनी हुई हैं;
एक दिन अचानक जब उसका सुहाग
परलोक सिधार जाता है
तब उसे वो सारी निशानियाँ उतारनी पड़ती हैं
ताकि उनकी अनुपस्थिति
उसे पति की याद दिलाती रहे
मरते दम तक;
पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है,
वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज,
वाह!
'क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है?'
मान लीजिए कि हम लोग इसी फ़िराक में हैं. मान लीजिए कि परहेज नहीं है . अब? क्या करेंगी? पुरुषों को लुका छिपाकर लपेटकर रखेंगी?
देखिए, न तो मैं न मेरी बेटियां ये चिन्ह पहनती.ना ही क्यों नहीं पहनती का उत्तर देने की आवश्यकता समझती. आपने कभी सुना है, 'मेरी मर्जी'? नहीं तो अब सुन लीजिए.
घुघूती बासूती
आपका प्रश्न उतना मासूम भी न था जितना आप सोच रही हैं. देखिए यदि स्त्री वैसे नहीं रहती जैसे आप व पारम्परिक समाज अपेक्षा करता है तो वह 'क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है?'ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने को अभिशापित हो गई. यह तो स्लट वॉक वाली ही बात हो गई. आपका प्रश्न इस बात का भी उत्तर दे देता है की स्त्रियों को स्लट वॉक क्यों करना पड़ता है.आप यह सब न् पहनने वालियों को स्लट सा ही तो बता रही हैं और आप स्त्री हैं.
घुघूती बासूती
घुघूती बासूती
कभी कभी देरी से आना भी फायदेमंद होता है..आपके लेख और उस पर आई टिप्पणियाँ प्रभावित करती हैं...जहाँ तक मेरी समझ की बात है...सिर्फ इतना कि मुझे अपने लिए अपने आप को आकर्षक रखना है, यह बात सबसे महत्त्वपूर्ण है...
पश्चिमी वेशभूषा के साथ भारतीय साज सजावट जँचती नहीं..भारतीय वेशभूषा के साथ साधन प्रसाधन सबकी अपनी अपनी पसन्द के होते हैं.. दूसरी बात विवाहेत्तर संबंध या दूसरे विवाह के लिए इन सब ताम झाम के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता..
धर्मेन्द्र जी,
आपकी कविता बहुत भावमयी है......... किन्तु इस भाव-प्रवाह में पुरुषों द्वारा धारण किया यज्ञोपवीत आप भूल गये... न जाने कितनी मधुर-स्मृतियों को वह गुप्त-भावेन धारण किये रहता है यह भी भूल गये आप.
मैं अपनी बताता हूँ कि मैंने क्या-क्या धारण किया हुआ है. अन्यों के सन्दर्भ में बताऊंगा उससे आप अनुमान लगा लेना कि जो मित्रों की स्मृतियों को इस पद्धति से संजो सकता है वह पत्नी की स्मृतियों को किस-किससे जोड़कर रखता होगा.
— जब भी (प्रतिदिन) कमर में बेल्ट बांधता हूँ मित्र सञ्जय राजहंस को याद करता हूँ वे कभी अभिन्न थे मेरे.. जो आजकल युक्रेन की यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं.
— जब भी बोगन बलिया के फूलों को देखता हूँ कोलिज जीवन का कोई प्रिय याद हो आता है.
— जब भी एक रुपया गिलिट वाला देखता हूँ भतीजे को याद करता हूँ उसकी बातें करता हूँ.
— जब भी पाँच रुपये के बड़े सिक्के को देखता हूँ भतीजी की याद हो आती है.
इसी तरह के दसियों संकेत मानस में चिह्नित किये हुए हैं. .... फिर पत्नी से तो केवल संकेत ही नहीं 'शब्द', 'रंग' और 'सुगंध' आदि कई प्राकृतिक अलंकारों को जोड़ा हुआ है.
क्या इसी तरह सभी गृहस्थी पुरुष नहीं करते होंगे? अवश्य मन में तरह-तरह के भौतिक और अभौतिक संकेत धारण किये होंगे.
इसलिये सावधान ... फिर से कभी मत कहना
"पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज, वाह" :)
परम्पराएँ टूटें
नई बने---
अफ़सोस नहीं
लेकिन --
रिश्तो को मजबूत करोगे कैसे --
सोने-चाँदी के आभूषण
गिफ्ट देकर और दिलाकर
मालों और रेस्तरा में
घूम-घुमाकर --
दिनभर बड़े ढकोसले करते हैं हम -
हाव-भाव, बोली में परिवर्तन लाकर --
थैंक्स और आभार जता कर
पीकर और चाय पिलाकर --
चलो अगर है नहीं जरुरी मत पहनो --
पर नई बेल्ट, टाई, रुमाल
घडी और अपने पसंद की शर्ट -
मुझे भी मत पहनाओ --
और अपना हुकुम --
न बाबा न ????????????
एक कहावत हम बचपन से सुनते आ रहे हैं-
लिपी-पुती गार और पहनी-ओढी नार.
वाकई सुन्दरता तो सजने संवरने के बाद ही उभरकर दिखती है, किन्तु आधुनिकता की चाह में महानगरीय जीवनशैली में ये अतिरिक्त सजावट गायब होती जा रही है । मेरी निजी सोच तो ये है कि एक बिंदी और न्यूनतम ही सही हाथ में कुछ चूडियां ये तो विवाहिता के अनिवार्य पहनावे में दिखना ही चाहिये वर्ना तो विधवा और सधवा का अन्तर भी फिर कहाँ बाकि रह जाता है.
अजितजी ,आपका आलेख एक चर्चा मंच जैसा लगा.बनाव सिंगार पहरावा सब सुन्दर दिखने की चाह है .लेकिन शायद अब सुन्दरता के मापदंड बदल गए है लेकिन फिर भी जो हमेशा से पारंपरिक पहरावा देखते आ रहे है उनको बिना सिंगार के खटकता है.एक बार में जेंस के साथ बिना बिंदी लगाये गयी तो मेरी वह सहेली जो कभी बिंदी नहीं लगाती ,उसने भी टोक दिया "तू बिंदी लगाया कर"बाकि तो समय के साथ आस्था विश्वास सब बदल रहे है...सार्थक पोस्ट पर सुधि जनों की सार्थक राय का लाभ मिला आभार...
आजकल यह बात आम है की लडकियाँ सुहाग की चीजे नही पहनती ..या पहनना नही चाहती ..पर पहनी ओढ़ी बेटियाँ -बहुऐ अच्छी लगती है और यही हमारी संस्कृति भी है ...मुझे आज भी सजना -संवरना अच्छा लगता है और हर ओरत को लगता हैं मेरा ऐसा मानना हैं
वैसे मेरी समझ से लावण्य बाहर से नहीम् आता। सौन्दर्य आनतरिक होता है। व्यक्ति की प्रसन्नता, उसकी कुशलता और उसका आत्मविश्वास ही उसके मुख पर कान्ति और आभा ला सकता है। कोई बाह्य आभूषण नहीं। आभूषन धारण करना, शृंगार करना यह व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा पर निएभर करता है।
रही बात सिन्दूर और बिन्दी की। तो य्यह सच है कि यह हमाअर्री परम्परा है। परन्तु यदि गौरेअ करें तो देखेंगे कि आजकल इनमें इतनी मिलावट होती है कि कई बार बिन्दी लगाना भारी पड़ताअ है। अब प्राकृतिक गोंद तो बहुत कम ही प्रयोग होता है बिन्दी बनाने में। सिन्दूर उसमें भी बहुत मिलावट है।
रही बात सिन्दूर की तो हमारी परम्परा में लाल सिन्दूर नहीं अपितु पीला, जो कुछ नारंगी होता है उस सिन्दूर का प्रयोग किया जाता है, जो पूजा में प्रयोग होता है। अब बताइये कि सिन्दूर लगने वाली कितनी विवाहितायें ऐसी हैं कि वे पीला सिन्दूर लगाती है? शायद बहुत कम।
सुन्दर दिखने के लिये मानसिक प्रफुल्लता, शान्ति आवश्यक है।
अजीत जी आपकी पोस्ट के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में एक महत्वपूर्ण बात कही गई है। लेकिन उस पर कोई विमर्श हो ही नहीं रहा है। क्योंकि सारे पाठकों का ध्यान आपकी पोस्ट के शीर्षक पर ही अटक जा रहा है।
शायद इस बात को आप भी महसूस कर रही होंगी।
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जहां तक मेरा अनुभव है तो मैंने ऐसा नहीं देखा। उल्टे मैंने देखा है कि विवाह होते ही युवतियां यह जताने का प्रयत्न करती हैं कि वे विवाहित हैं। और उनका यह जताना भी हमारे समाज के कारण ही ज्यादा मुखर होता है।
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आमतौर पर बिन्दी को विवाहित होने के प्रमाण या सूचक के रूप में नहीं देखा जाता। हां सिंदूर अवश्य ही विवाहित ही मांग में भरती हैं। माफ करें, अगर आप उस युवती से कहतीं कि तुम बिन्दी लगाओगी तो ज्यादा सुंदर दिखोगी तो शायद वह आपको यह जवाब नहीं देती।
*
बहरहाल आपकी इस पोस्ट के बहाने बहुत से लोगों के असली विचार पता चले।
*
अपन तो इस मत के हैं कि जिसे जो अच्छा लगे वह पहने,सजे। बस इतनी ही अपेक्षा है कि औरों को असहजता महसूस न हो। अपन खुद भी इस बात का ख्याल रखते हैं।
अजित जी,
सबलोगों ने काफी कुछ कह दिया है....कुछ भी कहना दुहराव ही होगा...
पर सुन्दरता तो देखने वाले की नज़र में होती है.
किसी को साड़ी-बिंदी-सिन्दूर-जेवर में नारी सुन्दर लग सकती है और किसी को..जींस-टॉप-स्कार्फ-हाइ हील-हाइलाईटेड खुले बाल में.
कोई लड़की शादी के बाद इस तरह का सिंगार भी कर सकती है...सुन्दर तो वो तब भी लगती है.
आप देखते होंगे कि जब युवक और युवतियां शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं तब अक्सर वे सामान्य ही दिखते हैं
ये गए जमाने की बातें थीं...आजकल तो युवक युवतियां इतने फैशन परस्त हैं...और दिखते भी स्मार्ट और ख़ूबसूरत है.
बल्कि कई फैशन जिद करके वे कॉलेज के दिनों में ही करते हैं...तर्क ये देते हैं कि..." जॉब में तो सीधा-सादा दिखना होगा...फॉर्मल कपड़े और सिंपल हेयरस्टाईल रखनी होगी.
जमाना बदल रहा है अजित जी...मेरी नानी-दादी हमेशा सर पर पल्लू रखती थीं...सामने कोई बड़ा हो..छोटा हो या उनके अपने पति ही क्यूँ ना हों,सर से पल्लू नहीं हटता था....
जब उस जमाने के लोगो ने सर खोले बिना सर पर पल्लू रखे स्त्रियों को देखा होगा...तो उन्हें भी स्त्रियाँ कम सुन्दर लगी होंगी.
मुद्दा तो आपने वही उठाया है .. जो वर्तमान में दिखाई पड रहा है .. इसी बहाने टिप्पणियो के माध्यम से इतने लोगों की राय जानने का भी मौका मिला .. पहले औरतों के लिए उनकी सुविधा असुविधा का कोई महत्व नहीं था .. भारी भरकम जेवर और घुंघट में भी खुश रहती थी वे .. पर आजकल ये दिखावटीपना पसंद नहीं करती .. इन्हे इनकी रूचि के हिसाब से रहने की छूट मिलनी चाहिए .. आज भी महिलाओं को सुंदर और स्मार्ट बने रहने का शौक नहीं होता .. तो इतने सारे ब्यूटी पार्लर नहीं चल रहे होते .. वास्तव में सुंदरता की परिभाषा बदल गयी है .. पर हमलोगों को नवविवाहिता बेटी बहू को जिस रूप में देखने की आदत पडी है .. हमें वैसा ही अच्छा लगता है .. दो पीढियों के मध्य टकराव तो होगा ही !!
वो सुन्दर नहीं थी...पर सुन्दर लग सकती थी...अगर कोई उस से कहता कि वह सुन्दर है--- खलील जिब्रान
ये पंक्तियाँ भी याद आई थीं...आपकी पोस्ट पढ़ते हुए.
बिन्दी और सिन्दूर न लगाने के कढ कारण हैं। इन दोनो का उच्च कोटि का होना जरूरी है अन्यथा मुश्किल हो सकती है।
बिन्दी में लगा गोंद अक्सर सफेद दाग पैदा कर देता है। उसे छुपाने के लिये बड़ी बिन्दी फिर बड़ा दाग और बड़ी बिन्दी।
सिन्दूर से बहुतों को सर में दर्द हो जाता है। मेरी मां भी इसी कारण नहीं लगाती थीं।
आपका अवलोकन शत प्रतिशत सच है, यह बदलाव आ ही जाता है।
इतना कुछ अमृत मंथन हो गया कि हम क्या बोलें डॉक्टर साहब )
यह लेख समसामयिक है और आपका अवलोकन भी सही है ...... कारण कई हो सकते हैं इसके मुझे आधुनिक होने का आडम्बर ज्यादा लगता है क्योंकि फैशन के नाम पर यह यही सारी चीज़ें पहनने ओढ़ने में कोई गुरेज़ नहीं आज की लड़कियों को भी .....पर परम्परा के नाम पर सब कुछ ओल्ड फैशन सा लगता है उन्हें ........
आजकल सब अटेंशन सीकर बन गए हैं । तभी तो पुरुष भी फेसियल करने लगे हैं ।
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आदरणीय अजित गुप्ता जी,
जो मैं समझ पा रहा हूँ वह यह है, कि आपको साज-श्रंगार से परिपूर्ण पहनी-ओढ़ी ब्याहतायें ज्यादा अच्छी लगती हैं बजाय साधारण वस्त्र पहने व बिना किसी भी प्रकार का मेकअप किये रहने वाली विवाहित महिलाओं के... यहाँ निश्चित तौर पर एक जेनरेशन गैप सा दिख रहा है मुझे तो... आज के दौर की महिलायें यह नहीं चाहती कि उन पर अवसर विशेष पर कुछ खास पहनने ओढ़ने की बाध्यता हो... अगर वह सजती संवरती हैं तो अपनी सुविधा व मर्जी से... कुछ गलत भी नहीं है इसमें... रही बात सिंदूर व बिंदी की... तो एक दौर ऐसा भी तो था जब सारे हिन्दुओं के बाल एक विशेष तौर से बने होते थे व शिखा (चोटी) पीछे लटक रही होती थी, एक विशेष तरह का पहनावा था ताकि दूर से ही कोई जान जाये कि सामने वाला हिन्दू है, अब कोई नहीं करता यह सब... ठीक इसी तरह कुछ हिंदू महिलायें आज विवाहिता सा दिखने की बाध्यता का सजग प्रतिवाद सा कर रही हैं बिंदी व सिंदूर न लगा कर... कुछ गलत भी नहीं इसमें, हर दौर की सोच अलग होती है... परिवर्तन की बयार को कौन रोक सका है आखिर...
"यदि विवाहित दिखने के सभी चिन्ह केवल सुंदरता ही बढ़ा रहे होते तो ठीक था। लेकिन वे बहुत कुछ और भी प्रदर्शित करते हैं। जैसे वह स्त्री अब किसी पुरुष की संपत्ति है। स्त्रियों पर पुरुष की संपत्ति होने का भाव अभी बहुत बहुत गहरा भारतीय समाज में पैठा हुआ है। अधिकांश स्त्रियाँ भी इस से मुक्त नहीं हैं। लेकिन स्त्रियाँ आज इस भाव से स्वतंत्र होना चाहती हैं। जो विवाहित नहीं दिखना चाहती उन में से अधिकांश इसी भाव के कारण।"
आदरणीय द्विवेदी जी सही कह रहे हैं आज की स्त्री अपने को पुरूष की संपत्ति मात्र नहीं समझना चाहती... बिंदी-सिंदूर न लगाना उसका मौन विरोध प्रदर्शन है... कुछ गलत नहीं इसमें भी...
...
आदरणीय अजित जी आपकी बात से सहमत हूँ कि एक विवाहित स्त्री बिंदिया, कुमकुम, रोली के साथ, चूडिया, झुमके आदि पहन कर अधिक सुन्दर दिखती है...
विमर्श अच्छा हो रहा है यहाँ...भाई सुज्ञ जी व भाई प्रतुल जी की टिप्पणियाँ भा गयीं...
प्रतुल जी वह निकर वाला उदाहरण बहुत कमाल कर गया...
बहन मोनिका जी की बात से भी सहमत हूँ कि लड़कियों को इन पारंपरिक परिधानों से कोई परहेज़ नहीं है, ये भी आजकल फैशन में शामिल हैं, किन्तु परंपरा के नाम पर इन्हें पहनना इन्हें गंवारा नहीं हिया...
लडकियां यदि सुन्दर ही दिखना चाहती हैं तो पारंपरिक परिधानों में निश्चित रूप से अधिक सुन्दर दिखेंगी...फैशन के नाम पर शरीर दिखाना जाहिलपना है...
मैं ऐसा कोई पुरुष मानसिकता से ग्रसित हो कर नहीं कह रहा हूँ| मैंने तो खुद भी इनसे दूरी बना रखी है...यहाँ तक की ७-८ वर्ष की आयु के पश्चात निकर पहनना भी छोड़ दिया...तब से लेकर आज तक फुल पैंट में घूम रहा हूँ| ३-४ साल पहले तक बॉक्सिंग खेलता था केवल उसी समय निकर पहनता था...मैं तो पुरुष हूँ, मुझसे तो कोई जवाब भी नहीं मांगेगा...
ऐसा नहीं है की निकर पहनना गलत है...मुझे रास नहीं आया बस...और आजकल तो पौनी पैंट का भी प्रचलन है जिसे कैपरी कहते हैं...लोग कहते हैं की आरामदेह है, पता नहीं मुझे तो कभी ऐसा नहीं लगा...
बहरहाल केवल फैशन के नाम पर कुछ भी उल-जुलूल पहन लेना गलत है...
जहाँ तक लड़कियों का विवाहित दिखने से मूंह छिपाना की बात है तो लड़कियों से ही सवाल कि इसमें तुम्हे शर्म क्यों आती है? क्या विवाहित दिखना कोई पाप है?
अजित जी, मै इतना ग्याणी तो नही, लेकिन इतना समझता हुं, जब मियां बीबी मे प्यार होगा तो दोनो ही एक दुसरे के लिये जीये गे, अब करवा चोथ के वर्त से क्या एक पति की उम्र लम्बी होती हे?, ल्किन इस रस्म मे प्यार हे, बीबी सारा दिन भुखी प्यासी रहती हे, तो पति भी उस दिन छुट्टी ले कर उसी के आसपास रहता हे, ओर कुछ नही यह छोटी छोटी बाते हे, जो प्यार को दर्शाति हे, कईयो के लिये यह एक मुसिबत हे, तो कई इस रिश्ते को पबित्र मानते हे,
अब ये पढाई का असर है या समय का क्या कहे
मुझे तो यह ज्यादातर आरामदेह परिस्थितियों में रहकर काम करने का मामला लगता है। अब ज्यादातर देखा जाता है कि दोनों हाथों में दो तीन चूड़ियां या फिर केवल एक पतले कंगन से भी महिलायें अपने साज श्रृंगार को अभिव्यक्त करती हैं। माथे पर हल्का सा सिंदुर का टीका लगा लेना भी काफी प्रचलन में है। यह एक तरह से परंपराओं का मान रखते हुए आधुनिक सरलता को अपनाने जैसा है।
बाकि तो साज श्रृंगार विरहित होकर नये संबंधों की ओर आतुरता दिखाने वाली बात पूरी तरह से ठीक नहीं लगती । यदि इस तरह की प्रवृत्ति होगी भी तो बहुत छोटे अंश में होगी और वो भी बेहद उच्छृंखल और व्याभिचारी मानसिकता वाले लोगों के बीच ही।
अन्यथा इस तरह से वैवाहिक चिन्हों को न धारण करना किसी भी ऐंगल से दुर्भावना के नजरिये से नहीं देखना चाहिये। ज्यादातर लोग अब इस तरह के ताम झाम से समय बचाते हुए कार्य में सुभीता चाहते हैं।
इसका उत्तर तो हम भला क्या दे पायेंगे मगर चिन्तनपरक बात है....
अगर कोई लडकी विवाहित नही दिखना चाहती तो इसका मतलब ये तो कतई नही हो सकता कि वो अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है.... या फिर उसे विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है....
पहनी-ओढी वधुएं अच्छी लगना या न लगना ...ये किसी के भी ऐसे निजी विचार हो सकते है ..जिन्हें किसी पर भी थोपा नही जा सकता और न ही उन्हें मानने के लिए बाध्य ही किया जा सकता है...
आपने एक लड़की से पूछा कि बिन्दी क्यों नहीं लगाती हो? तो उसने कहां कि मै ही विवाहित क्यों दिखायी दूं जबकि लड़कों के भी तो कोई विवाहित होने का चिन्ह नहीं होता.....इन सब में मुझे जो बात समझ आती है वो ये कि ....आज लडकियाँ उन सभी नियमों को तोडना चाहती है तो कभी समाज ने केवल उनके लिए ही बनाये थे .... और अगर पुरुष वर्चस्ववादी चश्मे से उनको न देखा जाए तो विश्वास मानिए इसमें कुछ भी गलत नही...
आपकी पोस्ट की भावना को मैं समझ सकती हूँ क्योंकि राजस्थान में महिलाएं पहनी ओढ़ी (राजस्थानी सन्दर्भ में ही जाने ) ही रही हैं ...पिछले कुछ वर्षों में जबरदस्त परिवर्तन आया है ..अपनी लोकैलिटी में ही साड़ी क्या सलवार कमीज पहने महिला ही ढूंढते रह जानी पड़ती है ...आप बदलते समय को लेकर थोडा असहज हैं ...
पिछले पूरे एक महीने से हाथों में भयंकर एलर्जी के कारण चूड़ियाँ खोल कर रखनी पड़ी हैं , क्या करें ...आजकल बिंदी ,सिन्दूर में भी इतनी मिलावट होती है की खुजली , सफ़ेद दाग आदि समस्या होती रहती है ...मेरा ख्याल है की यही इन सुहाग चिन्हों का हमेश प्रयोग न कर पाना एक बड़ा कारण रहता होगा ....
विमर्श बहुत ही अच्छा चल रहा है, काफी बाते स्पष्ट भी हो रही हैं। लेकिन मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मैंने चूड़ी बिन्दी या सिंदूर को सुहाग की निशानी के लिए प्रयोग की बात नहीं की है। मैं तो यह कह रही हूँ कि इससे आखिर परहेज क्यों हैं? यह सभी मानते हैं कि बिन्दी और चूड़ी पहनने के बाद सुन्दरता बढ़ जाती है। जब यह प्रश्न पूछा गया तब यह सारी बाते निकलकर आयी और मेरा ज्ञानवर्द्धन हुआ। यहाँ ब्लाग पर एक कठिनाई और है कि हम भारत में रहते हैं और भारतीय संदर्भ में ही सोचते हैं इसलिए वैसा ही लिखते हैं। लेकिन अब यहाँ अन्तरराष्ट्रीय मामला है तो विदेशी वेशभूषा भी शामिल हो जाती है। मुझे किसी भी वेशभूषा से कभी परहेज नहीं रहा। मेरा तो इतना ही कहना था कि एक वधु पुराने जमाने में बरसों आकर्षण का केन्द्र रहती थी लेकिन आज दो दिन बाद भी उसमे नवीनता नहीं रहती है तो उसके पीछे क्या कारण है? मेरे प्रश्न भी इसीलिए थे कि कहीं ऐसी मानसिकता तो नहीं है? इसके पीछे और कोई भावना नहीं है। मैं तो यह प्रश्न मेरी बेटी से भी पूछती हूँ कि बताओ तो सही आखिर परहेज क्या है? लेकिन इतने लम्बे विमर्श के बाद बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है। मै केवल लड़कियों के बारे में ही नहीं सोचती मुझे लड़कों के पहनावे से भी कई प्रश्न आते हैं। सोच रही हूँ अगली पोस्ट पर उनके उत्तर भी पा ही लूं। जैसा प्रतुल जी ने ईशारा भी किया है।
मैं तो यह प्रश्न मेरी बेटी से भी पूछती हूँ कि बताओ तो सही आखिर परहेज क्या है?
i am curious to know her reaction
मेरा तो इतना ही कहना था कि एक वधु पुराने जमाने में बरसों आकर्षण का केन्द्र रहती थी लेकिन आज दो दिन बाद भी उसमे नवीनता नहीं रहती है तो उसके पीछे क्या कारण है?
Simple Woman have started behaving like human beings rather than numb dolls all decked up like saas bhi kabhie bahu type serials
आज ब्लॉगजगत में भी छँटनी हो जायेगी....... चिर यौवनाओं की, आधुनिकाओं की. :)
mr pratul when u talk about woman of blogworld please try to be in limits because woman are not objects of desire
and by the way who gave you the right to classify
did any woman ask you to do so
or are u following the legacy left by british "divide and rule " so this comment is in english
very disappointing comment by pratul and highly distasteful all the more because its on a post written by a woman and yet not objected upon
रचनाजी, मेरी बेटी इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं देती। बस कहती है कि आप भी ना। वैसे बेटी भी और बहु भी शादी और त्योहारों पर खूब सजती हैं। इसलिए ही मैंने यह प्रश्न किया कि इसकी मानसिकता क्या है? आप सभी ने मुझे समझने में सहयोग किया इसके लिए आभार। सभी का दृष्टिकोण एक पक्षीय होता है, लेकिन विमर्श करने पर ही समाज के विभिन्न पहलु उजागर होते हैं। इससे यह भ्रम भी टूटता है कि केवल हम ही जानकार नहीं है, अपितु सारे ही विचारों को जानने पर ही आप जानकार बनते हैं।
बहुत लंबा विमर्श है
पुन: आना पड़ेगा
उड़ती नज़र के बाद
फिलहाल तो रजनीगंधा के एक गीत का अंतरा याद आ रहा
…कितना सुख है बंधन में…
प्रकृति ने मानव शरीर में नारी शरीर को कोमलता और कमनीयता प्रदान की है। यह स्पष्ठ है कि उसके तन पर शृंगार खिलता है। नारी तन शृंगार के अनुकूल है। हम प्रकृति की और नजर करें तो पाएंगे कि पशु-पक्षीयों के जोड़े में से किसी एक को अतिरिक्त सुन्दरता मिली है। मोर जाति में देखेंगे तो पाएंगे कि यहां नर मोर 2 किलो अतिरिक्त सुंदर पंख उठाकर सुन्दर दिखने का प्रयास करता है। यहां सुन्दर दिखनें की सारी जिम्मेदारी नर मोर की है। इसलिए सुन्दर दिखना प्राकृतिक है, मनुष्यों में यह जिम्मेदारी नारी के अधीन है।
सुन्दरता को मोटे तौर पर हम दो भेदों में विभक्त कर सकते है। एक गरीमायुक्त सुंदरता और दूसरी आकर्षण अभिलाषित सुंदरता। गरिमायुक्त सुंदरता मनुष्य को सप्रयास खडी करनी होती है तो आकर्षण अभिलाषित सुंदरता की कामना सहज और प्राकृतिक उद्भव होती है।
जहां तक मैं समझ पाया हूँ, अजित जी गरीमायुक्त सुंदरता की बात कर रही है। उन्होनें कहीं भी दबे-ढके रहनें या सम्पत्ति माने जाने का समर्थन नहीं किया है। उन्होंने बच्चीयों और नव-वधुओं को गरिमा युक्त शृंगार से अरूचि क्यों है, प्रश्न किया है। अगर उसके पिछे अविवाहित दिखने के भाव है तो वे भाव क्यों है?
मैने निष्कर्ष दिया था कि समाज द्वेष, पुरूष द्वेष और प्रतिशोध ही कारण है। आज स्वतंत्रता के प्रलोभन में स्वछंदता को प्रेरित करने वाला भी वही पुरूष-वर्ग ही है। निजता से विमुक्त हो सुन्दरता सर्वभोग्य बने उसमें हित-साधन तो पुरूष-वर्ग का ही है। गरीमा की सीख पर पुरूष जाति से विद्रोह किया जाता है तो स्वछंदता की प्रेरणा पर पुरूष जाति को धिक्कारा क्यों नहीं जाता?
अजित जी,
विमर्श बड़ा बढ़िया जा रहा है।
यहां उपन्यास 'सारा आकाश' का जिक्र करना चाहूँगा जिसके बारे में कहा जाता है कि यह किसी की निजी जिंदगी के बारे में है।
उपन्यास के नवविवाहित जोड़े समर और प्रभा के बीच बोलचाल बंद है। किसी बात को लेकर दोनों में अनबन चल रही है। ऐसे में प्रभा भी अपने पति समर को रिझाने या उसे खुश करने हेतु कुछ विशेष बनाव श्रंगार नहीं करती। जबकि उस समय के चलन के अनुसार नई नवेली दुल्हन को बनाव सिंगार करना चाहिये था। उधर समर भी प्रभा से दूर दूर रहता था। दोनों के बीच अहम का टकराव लंबा चला।
इसी दौरान प्रभा को समय आने पर प्रथा के अनुसार कुछ दिनों के लिये उसके मायके भेज दिया गया।
अब वही समर जो कि प्रभा से कटा कटा रहता था, उससे बोलता नहीं था...अचानक ही उसकी अनुपस्थिति में व्यग्र रहने लगा और इस व्यग्रता का ही असर था कि उसने घर में कोने में पड़ी अपनी नवविवाहिता पत्नी प्रभा के 'हेयर पिन' को ढूँढ निकाला और उसे अपनी किताब में बुकमार्क के तौर पर रखना शुरू किया।
इस घटना को यदि विश्लेषित किया जाय तो इसमें अमूमन वे सारे पहलू समाविष्ट दिखेंगे जोकि इस पोस्ट और टिप्पणियों में रखे गये है, मसलन नवविवाहिता के बनाव श्रंगार की जरूरत, उसके ऐसा न करने से जोड़े के बीच आपसी खटास में बढ़ावा......।
यहां प्रभा के बनाव श्रंगार के प्रति आकर्षित न होने का यह अर्थ नहीं था कि वह किसी दूसरे के प्रति आतुर थी या उसे मौके की तलाश थी....बल्कि यह एक नवविवाहिता का अपने पति के प्रति किसी खीझ और गुस्से का प्रतिफल था जो समय के साथ जड़ जमाता गया। और नतीजतन दोनों के बीच लंबे समय तक अबोला चलता रहा।
बावजूद इन सारी परिस्थितियों के, उसी श्रंगार माध्यम का एक 'हेयर पिन' उनके आपसी प्रेम और लगाव को फिर से जड़ जमाने, आपसी प्रेम को बन्धनकारी जताने में सहायक हुआ।
बाकि तो पाबला जी ने इशारे इशारे में रजनीगन्धा के गीत के जरिये भी बढ़िया बात कही है....बन्धन सदैव दुखकारी हो जरूरी तो नहीं ....स्नेह से पगे कुछ बन्धन सुखकर भी होते हैं :)
आज कल सुन्दर दिखना और सामने वाले को प्रभावित करना ....आधुनिकता का अनुखा चलन सा हो गया है ! एक तरफ जहा लड़किया तरह - तरह के रंगों में ब्यस्त है , वही पुरुष भी काले बालो में ही दिखते है ..बालो को हमेशा काले करते रहते है , आखिर क्यों ? चर्चा बहुत हो चुकी है , पर साज सिंगार किसी बिशेष के लिए ही होती है ....हर दिल को मालूम है ! अगर ऐसा नहीं होता ,तो दुनिया का रंग कुछ और ही होता ! कोई भी सजावट दिखाने के लिए ही होती है ! मै तो सांस्कृतिक विचार का मानव हूँ ,अच्छी संस्कृति को व्यवहार में लाना कोई पाप नहीं !हमारी भारतीय संस्कृति बहुत ही मजी हुई है ! इसे स्वीकार करने में कोई नुकसान नहीं ! वैसे अपनी - अपनी मर्जी ! कोई नंगा नाचे न उससे क्या लेना ! सार्थक पोस्ट और बहुत कुछ कहती हुई !बधाई गुप्ता जी
रचना जी,
रामदेव जी ने जब कहा कि विदेशी बैंकों में ज़मा काला धन वापस लाकर उसे राष्ट्रीय घोषित करना चाहिए.
मुझे बहुत बुरा लगा.... मैंने रामदेव जी को बहुत ऊटपटांग बोला, उन्हें तमाम मामलों में फँसाने की कोशिश की.
रामदेव का चरित्र रामदेव की कथनी-करनी से प्रकट हो रहा था और मेरा चरित्र मेरी कथनी-करनी से.
सिद्धतः, जिसके जैसे विचार होते हैं... वे उसके वक्तव्यों (लेखन) और क्रियाकलापों से प्रकट हो ही जाते हैं.
कहते भी हैं...अतीत का खाया-पिया एक-न-एक दिन जिह्वा पर आ ही जाता है, चाहे हम उसे कितना ही दबाने की कोशिश करें.. प्रकट होकर ही रहता है.
मेरा कोई भी 'नर' या 'पुरुष' या 'मर्द' नामक ब्लॉग नहीं है तब कैसे 'डिवाइड एंड रूल' वाली थ्योरी फौलो करूँ?... पशोपेश में हूँ.
कृपया राह सुझाएँ ....
राष्ट्रीय और घोषित के बीच संपत्ति गायब है कृपया वहाँ 'संपत्ति' जमा समझी जाये.
पूरी दुनिया हैं 'नर' या 'पुरुष' या 'मर्द'की सो ब्लॉग पर एक कोना नहीं चाहिये उसको !!!
अब क्युकी नारी अपने कोने सुरक्षित कर रही हैं तो टंच दे कर एक नारी को चिर यौवनाओं की, और दूसरी को आधुनिकाओं की. :)कह कर दोनों को विभाजित कर दिया
जब हमारे बच्चे हमारे प्रश्नों पर "तुम भी ना " कहना शुरू कर दे समझ ले की उन प्रश्नों पर बहस बेमानी हैं क्युकी नयी पीढ़ी के लिये वो बाते बेमानी हो चुकी जिन पर इतनी लम्बी बहस होती हैं
वैसे नारी आधारित मुद्दों पर ऐसी दो चार पोस्ट आती रहनी चाहिये कम से कम १०० में से ९९ लोग जो आज भी मानते हैं woman is born to please man अपने मन की बात कह सकते हैं
क्या हमने कह दिया, हुए क्यों रुष्ट ज़रा बताओ तो,
ठहरो, सुन लो, बात हमारी, तनक न जाओ आओ तो.
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जितना प्रेम किया करते हैं उतनी ही फटकार सहें.
जो भी दंड करोगे घोषित बस केवल 'स्वीकार' कहें.
रचना जी,
'चिर-यौवनाओं' और 'आधुनिकाओं' के बीच '/' मार्क लगा है जिसका मतलब 'या'/'अथवा' से था न कि 'और' से. दूसरे पक्ष का तो मैंने उल्लेख किया ही नहीं... वह तो बेचारा भारतीय संस्कृति की साड़ी लपेटे छिपकर जीवन जी रहा है.
आपकी पोस्ट को पढ् कर बहुत अच्छा लगा । टिप्पणिया पढ कर एक बात सम्झ मे आ आ रही है,कि कुछ लोग मानसिक रूप से ही विरोधी होते है । आप दिन कहो तो वे रात कहते है आप रात कहो तो वे दिन कहते है । कहने का अर्थ ये है कि वास्तविकता वे भी जानते है फिर भी नकारने कि आदत से लाचार है । मेरे गांव मे एक फैशन चल रहा है जिस लड्की की शादी हो जाती है तो वो अपनी साज सज्जा अपनी कोलेज मे दिखाने के लिये एक बार जरूर जाती है। तमाम गहने वगैरा पहन कर । लेकिन चार दिन बाद मे उन्हे वे सब बोझ लगने लग जाते है । फिर वही सलवार कमीज मे जाना शुरू किया जाता है ।
पहनी-ओढी वधुएं बहुत अच्छी लगती हैं, आपका कहना सही है लेकिन आज के समय में आप की इच्छाओं और अरमानों को कौन समझता है. सब अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं.बहू क्या आज तो इन बातों में बेटी भी कहना नहीं मानती. अपनी मानसिक शान्ति के लिये यही अच्छा है कि अपनी आँखें मूँद ली जायें.आभार
एक विचारणीय पोस्ट जिसपर विशद चर्चा ने कई पहलुओं को सामने ला दिया.
Ma'am mein ek unmarried professional girl hoon,but still apne customs aur traditions ko follow karna hi apni sabse badi responsibility manti hoon.I agree ki aaj kal ki ladkiyaan solah shringaar nahi karti bt still if the girl is family oriented she will carry those very basic symbols of marriage nor over nor less,so it depends ladki family oriented hai ya career oriented.sorry agar mera likha kuch galat ho....but still aapke article ke liye ye kahungi ki har ladki agar ek ek baar jarur padhe aur apni galtiyon ko sudhar le.
प्रणाम !
खूब सूरती केवल गौरं वर्ण ही होती है या मन को बहाने वाले नैन नक्श . जो मन को भाए उसके के लिए सजना सवरना शायाद मायने नहीं रखता . सिर्फ चेहरे में कशिश होनी चाहिए ये मेरा मानना है , मगर इस प्रकार देखा भी है तीखे नैन नक्श भले ही सावली हो सुंदर लगती हो और भले ही गौर वर्ण हो मगर नैन नक्श मन को ना चुभे . सजना सवरना व्यर्थ है . मगर ये सच है कि नारी का पहला शौक होता है .. एक हट कर विषय है मज़ा आया पद कर .
सादर
samaj ko ingit kerti sam samayik rachna ke liye badhai
सुन्दरता परिणय निरपेक्ष होती है
अनुत्तरित्र ही है ये प्रश्न,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सामयिक विषय पर बहुत अच्छा लिखा है आपने।
युग बदलता है तो व्यक्ति की सोच भी बदल जाती है। पिछले 50 वर्षों में हर दशक के बाद लोगों की सोच बदलती रही है। सोच में यह परिवर्तन महिला पुरुष दोनों में हो रहा है। इस परिवर्तन ने समाज का रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार सबको प्रभावित किया है। संभवतः इसी कारण से विवाहित लड़कियां अविवाहित दिखना चाहती हैं।
गम्भीर सवाल।
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जादुई चिकित्सा !
इश्क के जितने थे कीड़े बिलबिला कर आ गये...।
'तुम भी ना'-का मतलब मुझे लगा समय,सोच,प्रथमिकतायें ,जीवन-शैली ,मान्यताएँ,रुचियाँ सब समय के बदलाव के साथ विकसित हो रही हैं .
सबके अपने - ढंग!
@ क्या अवसर मिलते ही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है? "
बहुत ही कड़वी बात है| तो क्या सभी पुरुष - क्योकि वह पत्नी चिन्ह नहीं लगते - इसी फिराक में हैं ? हाँ - माना कि सुन्दर लगती हैं - पर क्या प्रिंसेस डायना चूड़ी बिंदी के बिना सुन्दर ना थीं?यह तो नज़रिए पर है | किसी के लिए यह सब पसंदीदा तो किसी के लिए बोझ है | अब संविधान जब महिला पुरुष को बराबर समझता है - तो क्यों स्त्रियों पर "सुहाग चिन्ह " थोपे जाएँ ? हर एक की अपनी मर्जी है ... |
समय के साथ सजने सँवरने के तरीकों में बदलाव आता रहता है.राजपूतों में बडे बुजुर्ग पहले अपनी ठुकरेस दिखाने के लिए बहुओं को गहनों से लादकर रखते थे बाद में दूसरी जातियों में भी यह दिखावे की प्रवृति आ गई.लेकिन आजकल महिलाएँ और पुरुष सभी आरामदायक परिस्थितियों में रहना पसंद करते है.मुझे डिजाइनर घडियाँ,कैप या वजनी बेल्ट पहनने में आलस आता है चाहे वो कितने ही सुंदर दिखते हों.कपडे,और बालों को लेकर लोग आज भी प्रयोग करते रहते है.ये निजी पसंद नापसंद पर निर्भर करता है.
@क्या अवसर मिलतेही दूसरा विवाह करने की फिराक में है? या विवाह होने के बाद भी विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने में परहेज नहीं है?
आ बात थाँकी चोखी कोनी लागी.यहाँ कई लोगों ने कहा कि आपका मतलब ये नहीं वो रहा होगा लेकिन घुघुती जी की तरह ही ये सब मुझे भी इतना निर्दोष नहीं लगता.रचना जी और अंशुमाला जी ने इस पर काफी कुछ कह ही दिया है.सुज्ञ जी की ये बात सही है कि पुरुषों के एक वर्ग ने महिलाओं की स्वछंदता को ही जागरुकता का पर्याय बनाने की कोशिश की है क्योंकि इससे उसका ही हित सधता है लेकिन इससे नहीं कि ऐसे पुरुषों का विरोध नहीं किया जाता.महिलाएँ ऐसा करती भी है तो उन्हें दौडा दौडा कर नारीवादी और पुरुषविरोधी बना दिया जाता है.महिलाओं का कहना सिर्फ ये है कि उनके लिए क्या सही हैं और क्या गलत ये उन पर ही छोड़ दिया जाए और यदि समाज के सही और गलत नियम लागू ही करने है तो वो दोनों पर समान रूप से लागू हों.
@लेकिन इससे नहीं कि ऐसे पुरुषों का विरोध नहीं किया जाता.
सुधार-लेकिन इससे सहमत नहीं कि ऐसे पुरुषों का विरोध नहीं किया जाता.
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आदरणीय ajit जी ,
बहुत ही सार्थक चर्चा के लिए सर्वप्रथम साधुवाद स्व्वीकर करें .
उपरोक्त सभी tippaniyan बेहद सार्थक , जिसमें आपके प्रश्न का मिला जुला उत्तर निहित है . मैं कोशिश करूंगी अपनी बात यहाँ रख सकूं . हर स्त्री पुरुष के विचार भिन्न होते हैं , इसलिए मैं वही लिखूंगी जो मैं समझती हूँ , मेरे विचार अन्य स्त्रियों पर लागू हों ऐसा जरूरी नहीं है.
सर्वप्रथम , सुन्दरता किसी श्रृंगार की मोहताज नहीं होती. एक सजी धजी स्त्री , prathamdreistaya सुन्दर लग सकती है , लेकिन यह सुन्दरता दीर्घकालिक नहीं होती . व्यक्ति की inner beauty ही ज्यादा मायने रखती है , इसलिए कुछ striyan इन अनावश्यक ताम-झाम में समय व्यर्थ नहीं करतीं. , क्यूंकि वे जानती हैं की उन्हें सीमित समय में बहुत कुछ करना है इसलिए वे इस anaawashyak बनाव श्रींगार को समय बचाने के लिए गैरजरूरी समझती हूँ.
मुझे duniya की सबसे khoobsoorat स्त्री 'डॉ किरण बेदी' लगती हैं . उनकी इमानदारी एवं स्पष्टवादिता ही उनका सबसे बड़ा गहना है. उनका पहनावा एक मनोवैज्ञानिक सोच का parichaayak है , जो उनके व्यक्तित्व , विचार , तथा profession पर खूब फबते हैं. तथा sanskaaron के अनुरूप भी हैं, वही पहनावा सुविधाजनक भी है . उनके छोटे बाल . बिंदी न लगाना तथा चूड़ी न पहनना , किसी भी सूरत में उनकी सुन्दरता को kam नहीं करता. वे विवाहित हैं , और बिना श्रृंगार के भी विवाहित ही लगती हैं .
ab अपनी बात करती हूँ. मैं हर तरह के परिधान pahanti हूँ. साडी भी और jeans भी . awsar , utsav और parivesh के अनुसार परिधान भिन्न होते हैं. और परिधान के अनुरूप श्रृंगार भी बदल जाता है . baahri लोगों का नहीं जानती , लेकिन माता पिता , सास -ससुर bhai-बहन , पति , बच्चों और मित्रों को हर परिधान में sweekarya और सुन्दर ही लगी . श्रृगार को कभी वैवाहिक जीवन की खुशियों में बाधा बनते भी नहीं देखा . पति को साडी में भी मोहक लगती हूँ और jeans में भी. बनाव श्रृगार के साथ भी और अत्यंत सादगी के साथ भी.
जब बहुत फुर्सत में होती हूँ तो नाना प्रकार से सोलह श्रृंगार करने में बहुत आनंद आता है और खुद को दर्पण में देखना भी . लेकिन जब व्यस्तता होती है तो सादगी ही sahaj लगती है.
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मैकाले की शिक्षा पद्दति का साइड इफेक्ट ,,
सुव्यवस्था सूत्रधार मंच-सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..
इस शमा को जलाए रखें।
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main ZEAL ke vichaaro se poori tarah sahmat hoon....unhone lagbhag saaree batein vahi kah di hain jo main kahna chahti thi....charcha bahut achchi lagi......ZEAL ko thanks...
अजित जी,
सुन्दरता के लिए लीपा-पोती ज़रूरी नहीं है...मेरी बेटी कुछ नहीं लगाती लेकिन बहुत सुन्दर दिखती है...
और फिर सुन्दर दिखना ही मापदंड नहीं होना चाहिए...हर इन्सान सुन्दर है, ज़रुरत है उस सुन्दरता को देखने की...
कनाडियन लडकियाँ झूमर बाली नहीं पहनतीं फिर भी बहुत खूबसूरत लगतीं हैं...ये ग़लत धारणा है कि सुन्दरता के लिए इन चीज़ों की ज़रुरत है...कितनी ही फिल्मों में देखा है ग़रीब घर की लड़की जिसने सिर्फ़ एक सादी सी साड़ी पहन रखी है बहुत सुन्दर लग रही है... फिल्मों में यह दिखाने का अर्थ ही है कि सुन्दरता लाली पाउडर, लिपस्टिक झुमके की मोहताज़ नहीं होती ...
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माहेश्वरी जी , क्या सुंदर दिखना महिलाओं का हे काम है । क्या पुरुष नहीं दिख सकते।
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