इन्टरनेट पर एक अंग्रेजी लघुकथा पढ़ने को मिली। नन्हें मेढ़कों की दौड़ आयोजित की गयी, एक बहुत ही ऊँची चट्टान पर मेढ़कों को पहुँचना था। चढ़ाई एकदम खड़ी थी। चारों तरफ से आवाजें आ रही थी कि ‘यह असम्भव है, इतनी ऊँची चढ़ाई इन मेढ़कों की बस की नहीं है।’ दौड़ प्रारम्भ हुई, हताशा भरी आवाजें निरन्तर आती रही। देखते ही देखते कुछ मेढ़क बेहोश होकर गिरने लगे। लेकिन फिर भी कुछ मेढ़क अभी तक दौड़ में बने हुए थे। आवाजें अभी भी आ रही थीं, कि ‘इनके बस का नहीं है, कोई भी चट्टान पर चढ़ नहीं सकता।’ ‘ये पिद्दी से मेढ़क क्या कर पाएंगे?’ धीरे-धीरे और मेढ़क बेहोश होकर गिरने लगे, निराशा भरे स्वर और बढ़े। लेकिन सबके आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि एक मेढ़क चट्टान पर चढ़ने में सफल हो गया है। सबने उसकी सफलता का रहस्य जानना चाहा तो मालूम पड़ा कि वह बहरा है। हताशा भरी आवाजें उसने सुनी ही नहीं। वह तो अपने कर्म की धुन पर आगे ही बढ़ता रहा, बढ़ता रहा।
हम भी चारों तरफ ऐसे ही शोर से घिरे हैं, ‘यह कुछ नहीं कर सकता’, ‘इसे कुछ नहीं आता’, आदि, आदि। हम प्रतिपल ऐसे ही वाक्य सुन रहे हैं, निराश हो रहे हैं और अक्सर प्रतिक्रिया भी कर रहे हैं। हमारा समय इसी निराशा और प्रतिक्रिया की उधेड़-बुन में ही निकल जाता है। उधेड़-बुन का अर्थ आप समझते है न? महिलाएं अधिक समझती हैं, क्योंकि वे स्वेटर बुनती हैं। किसी स्वेटर को बुनना और फिर उधेड़ देना, यही है उधेड़-बुन। हम बस यही कर रहे हैं। एक कदम आगे बढ़ाते हैं और फिर लोगों की फब्तियों के डर से वापस पीछे लौट जाते हैं या फिर पत्थर उठाकर दो कदम पीछे करते हुए उस भागते हुए व्यक्ति को मारने दौड़ते हैं। हमारी मंजिल कहीं पीछे छूट जाती है। मेढ़क इसलिए सफल हुआ कि वह बहरा था, उसने निराशा भरे शब्दों का श्रवण ही नहीं किया। उसे अपना लक्ष्य दिखायी दे रहा था और मौन साधना के साथ वह आगे बढ़ रहा था। हम समझते हैं कि हमारे कार्य में लोग हमारी सहायता करेंगे, हम यहीं धोखा खा जाते हैं। हम सब की सहायता से आगे बढ़ना चाहते हैं, और जब सहायता प्राप्त नहीं होती तब निराश हो जाते हैं। यह जीवन एक संघर्ष है, यदि आपको आगे बढ़ना है तो निराशा के स्वर सुनने बन्द कर दो। अपने कानों में रूई ठूँस लो। ये स्वर ही आपके आत्मविश्वास को डगमगा देते हैं। जब सुनाई देता है कि चट्टान बहुत ऊँची है तब हम भी उसे देखने लगते हैं और हमारा आत्मविश्वास टूट जाता है।
जब हम कार्य की विशालता को देखते हैं, मार्ग की दुरूहता को देखते हैं और स्वयं को अकेला पाते हैं तब हिम्मत टूट जाती है। लेकिन फिर भी कार्य करने का जुनून हमें कार्य करने को बाध्य करता है। तभी निराशा के स्वर हमें सुनायी देते हैं और हम कार्य से पीछे हट जाते हैं। लोग यही चाहते हैं कि यदि वे सफल नहीं हुए तो आप भी सफल नहीं हो। आँखों पर पट्टी बाँध लीजिए और काम की लम्बाई मत देखिए, काम करना प्रारम्भ कर दीजिए। आप देखेंगे कि नियत समय से भी कम समय में आपने कार्य को पूरा कर लिया है। अपना समय प्रतिक्रिया करने में भी बर्बाद मत करिए। प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में परम्परा रही है कि हम साधना के लिए एकान्त स्थान का चयन करते हैं। जिससे निराशा के स्वर हमारा व्यवधान न बन सकें। लेकिन जैसे ही विश्वामित्र की साधना से इन्द्र का सिंहासन डोलने लगता है वैसे ही वे मेनका को धरती पर भेज देंते हैं। कभी ऋषियों की तपस्या भंग करने राक्षस आ जाते हैं। लेकिन जो तपस्वी सारे बाहरी आक्रमणों को सुनते ही नहीं, देखते ही नहीं, वे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और महावीर बन जाते हैं।
आचार्य चाणक्य नन्द साम्राज्य का पतन चाहते हैं, वे भारत के राजाओं का एकीकरण चाहते हैं। लेकिन सभी आपस में लड़ रहे हैं, उनका एकीकरण असम्भव दिखायी देता है। सभी गणराज्यों के अधिपतियों का दम्भ उन्हें एक नहीं होने देता। चाणक्य को चारों ओर से निराशा के स्वर सुनायी देते हैं, लेकिन वे उन स्वरों को सुनते नहीं, उन पर प्रतिक्रिया नहीं करते। उनका लक्ष्य केवल मात्र एकीकरण बन जाता है। वे सफल होते हैं। इसके विपरीत सिकन्दर विश्व विजय करने निकलता है, भारत में छिट-पुट विजय के बाद उसके सैनिक हताशा का शिकार हो जाते हैं और वे सिकन्दर को बाध्य कर देते हैं कि हम यह दुरूह कार्य अब और नहीं कर सकते। सिकन्दर को लौटना पड़ता है और इसी निराशा में वह रास्ते में ही अपने प्राण त्याग देता है। हनुमान के सामने विशाल समुद्र खड़ा है, वे साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, इसे लाँघने का। उन्हें स्वर सुनाई देते हैं कि हनुमान तुममें शक्ति है, तुम अपनी शक्ति को विस्मृत कर बैठे हो, लगाओ छलाँग और पार कर लो इस समुद्र को। हनुमान लंका पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। श्रीराम नल और नील की सहायता से समुद्र पर पुल बना लेते हैं। पाँच पाण्डव, कौरवों की विशाल सेना को परास्त कर देते हैं।
सारी ही शक्ति हमारे समक्ष चारों ओर से आती हुई आवाजों की है। निराशा भरे स्वर हमें हतोत्साहित करते हैं और आशा भरे स्वर हमें कार्य की प्रेरणा देते हैं। रावण जैसा महाबलि भी इन्हीं निराशा भरे स्वरों का शिकार होता है। उसे प्रतिपल कहा जाता है कि श्रीराम के बल से डर, तू उसका मुकाबला नहीं कर सकता। रावण परास्त हो जाता है। कंस के मन में प्रतिपल डर बिठा दिया गया है कि देवकी का आठवां पुत्र तेरा वध करेगा। वह शक्तिहीन होता जाता है, प्रतिदिन केवल प्रतिक्रिया ही करता रहता है और एक दिन परास्त हो जाता है।
राम और कृष्ण क्यूँ भगवान बन जाते हैं? उन्हें प्रारम्भ से ही अवतार बताया जाता है, उनके कानों में प्रतिक्षण एक ही आवाज गूँजती है कि तुम भगवान हो, तुम समर्थ हो, तुम्हारा आगमन पापियों के नाश के लिए हुआ है। वे सफलता प्राप्त करते हैं। भारत के कथानकों में प्रारम्भ से ही सत्ता का संघर्ष बताया गया है। सत्ता अर्थात् इन्द्र का वैभवशाली, भोगवादी सिंहासन। किसी भी ऋषि की तपस्या से इन्द्र का विचलित होना, उसे अपना सिंहासन डोलता सा प्रतीत होना, सत्ता के भोग से विलग होने का डर बन जाता है। एक तरफ ऋषि का त्याग है तो दूसरी तरफ भोग है, भोगवाद हमेशा से ही त्याग से डर जाता है। त्यागी पुरुष ही ज्ञान की प्राप्ति करने में सक्षम बनते हैं और ज्ञान प्राप्त होने पर जनता ज्ञान की ओर दौड़ती है। जनता चाहती है कि ज्ञानी पुरुष के हाथ में सत्ता रहे इसी कारण भोगवादी ज्ञानी पुरुषों से डरने लगते हैं। यही असुरक्षा बोध ज्ञान के मार्ग में रोड़े अटकाता है। कोई भी व्यक्ति जब कर्म को अपना लक्ष्य बना लेता है तब उसके मार्ग में ऐसे ही रोड़े आने लगते हैं। चारों तरफ से उसपर आक्रमण होने लगते हैं। उसमें हीनता-बोध उत्पत्ति के सारे ही प्रयास किये जाते हैं। आक्रमण का एकमात्र आधार हीनता बोध का जागरण मात्र ही होता है। अतः ऐसे बिन्दु पर आक्रमण करो जिससे उसका व्यक्तित्व बौना दिखायी दे, उसके प्रति आदर कम हो जाए और वह हीनता-बोध का शिकार होकर असफल हो जाए।
लेकिन कर्मठ व्यक्ति ऐसे निराशा भरे व्यंग्य बाणों से आहत होने के स्थान पर दृढ़ता के साथ स्वयं को स्थापित कर लेते हैं। कालिदास को मूर्ख कहा जाता है, पत्नी उन्हें तिरस्कृत कर देती है। तिरस्कार के कतिपय वाक्यों के बाद वे ऐसे शब्दों को सुनना बन्द कर देते हैं और साधनारत हो जाते हैं। परिणाम कालजयी रचनाकार कालिदास। तुलसी भी पत्नी के तिरस्कार से साधनारत होते हैं और वे बन जाते हैं सभी के हृदय-सम्राट। हमारे शास्त्रों में ऐसे हजारों उदाहरण भरे पड़े हैं, जब शब्दों की मार से कोई परास्त हुआ है और कोई विजयी। श्रीराम रावण विजय कर अयोध्या आते हैं, एक धोबी के शब्द सुनते हैं और सीता को वनवास दे देते हैं। राम का मानसिक बल आधा रह जाता है। यदि वे इन निरर्थक शब्दों को नहीं सुनते, उन पर ध्यान नहीं देते तो वे सीता के साथ मिलकर कितने श्रेष्ठ कार्य करते? रावण विजय के बाद उनके नाम कौन सी विजय अंकित है? वे राजसूय यज्ञ कराते हैं और दो बालक उनके घोड़े को पकड़ लेते हैं! अतः निराशा और हताशा के शब्दों को मत सुनो, आपके कार्य में व्यवधान उपस्थित होता है। केवल अपने लक्ष्य पर निगाह स्थिर रखो, आपको आपका साध्य अवश्य मिलेगा। आप केवल क्रिया करें, प्रतिक्रिया नहीं। प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ दें। प्रतिक्रिया करने वाले व्यक्ति क्रिया करना भूल जाते हैं और उनका जीवन उद्देश्यहीन बन जाता है। जब हम क्रियाशील बनते हैं तब हमारे सामने एक उद्देश्य होता है और उसे पूर्ण करने के लिए एक लक्ष्य भी। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि इस सृष्टि को समृद्ध करे। हम प्रारम्भ से ही मानते आए हैं कि इस सृष्टि पर दो प्रकार की शक्तियां हैं, एक सुर और दूसरी असुर। एक विकास चाहती है और दूसरी विनाश। एक त्याग को महत्व देती है और दूसरी भोग को। एक चाहती है कि इस सृष्टि के समस्त चर और अचर पदार्थों का रक्षण हो, दूसरी चाहती है कि केवल मेरा ही रक्षण हो। अतः जब आप बहुजन-हिताय और बहुजन-सुखाय कार्य करते हैं तब ये ही आसुरी शक्तियां जो केवल स्वयं का ही हित चाहती हैं वे आपके कार्य में बाधक बन जाती है। आपको हीनता-बोध की ओर प्रवृत्त करने के लिए हताशा से भरे स्वरों को प्रतिपल गुँजायमान करती हैं। वे चाहती हैं कि आप निराशा से घिर जाएं और कार्य करना बन्द कर दें। जब आप अपना लक्ष्य भूल जाएँगे, अपना उद्देश्य भूल जाएँगे तब उनका हित सध जाएगा। इसलिए मत सुनिए निराशा के स्वर, मत लाइए हीनता-बोध। अर्जुन की तरह केवल चिड़िया की आँख पर ही दृष्टि गड़ाए रखिए, आपका निशाना अचूक होगा।
सदियों से महिलाओं को ऐसे ही हीनता-बोध का पाठ पढ़ाया जा रहा है। वे स्वयं मान बैठी हैं कि हम पुरुष के मुकाबले शक्तिहीन हैं। मुझे कहा जाता है कि आप महिला होते हुए भी इतना प्रवास कर लेती हैं! मैं कहती हूँ कि तभी तो कर लेती हूँ। हम तो सारे परिवार का बोझ अपने कंधों पर उठाकर जीवन का सफर पूर्ण करती हैं तो फिर इन छुट-पुट प्रवासों की क्या बिसात है? महिला तो धरती है, सारे ही अंकुरण उसके उदर से प्रस्फुटित होते हैं। विशाल वृक्ष उसके वक्ष से ही स्नेह-पान करते हैं। लेकिन उसके अन्दर आग का भी विशाल भण्डार होता है जिसे वह सहिष्णुता के जल के नीचे दबाकर रखती है। यदि यह जल कम हो जाएगा तब फिर अग्नि का भण्डार धधक उठेगा, तब महाप्रलय होगी। अतः संसार को इन आसुरी शक्तियों से बचाना है। हमें हताशा के शब्दों से निजात पाना है और हीनताबोध को स्थान नहीं देना है। तभी हम श्रेष्ठ भारत की कल्पना कर सकेंगे।