Saturday, April 30, 2011

गर्मी की एक सुबह, उदयपुर में फतेहसागर के किनारे - अजित गुप्‍ता

आइए गर्मी में सुहाने पलों को जी लें। जैसे आपके जीवन में सुबह की एक प्‍याली चाय तरोताजगी भर देती है और सारा दिन काम के लिए स्‍फूर्ति देती है, बस ऐसे ही भोर की ठण्‍डी पुरवाई आपको सारा दिन तरोताजा रखने में सक्षम है। कैसे? अरे मेरे अनुभव का लाभ ले। बस सुबह 5 बजे निद्रा देवी को बाय-बाय कह दें और आनन-फानन में अपने नित्‍य के कार्यों को सम्‍पादित करके पैरों में जूते डालिए और निकल पड़िए सूनी सड़क को गुलजार करने। उदयपुर का नाम तो आपने सुना ही होगा, हमारा छोटा सा शहर है। इस शहर में एक बहुत बड़ी झील है, नाम है फतेहसागर। मेरे घर से एकदम नजदीक। बस हम सुबह फतेहसागर की राह पकड़ लेते हैं। अभी भोर हो रही होती है, पुरवाई चल रही होती है और वातावरण में कहीं से नीम बौराने की गंध भर जाती है तो कहीं से अमलतास के फूलों से लदे वृक्षों के फूल रास्‍ते में झरते हुए मिल जाते हैं। कभी आपने अमलतास जब फूलता है तब उसकी झटा का आनन्‍द लिया है? शायद लिया हो।  
अमलताश को फूलते हुए देखने का आनन्‍द ही अनूठा है। ना पत्तियां शेष रहती हैं और ना ही लम्‍बी फलियां। बस रहते हैं तो पीले रंग के झूमरनुमा फूल। शायद ड्रांइगरूम में लटकने वाले झूमरों की डिजायन यही की कल्‍पना का फल होगा? आज सुबह अचानक ही मेरी दृष्टि अमलताश के पेड़ पर पड़ गयी। पूरी तरह फूलों से लदा था। पास ही नीम भी बौरा रहा था और उसकी मंजरियों की भीनी-भीनी खुशबू मन को आल्‍हादित कर रही थी। इनके साथ ही आक में भी डोडेनुमा फल आ गया था। अब कुछ ही दिनों में उसमें से रूई निकलकर वातावरण में फैल जाएगी। बचपन में कुछ दिन हनुमानगढ़ रहने का अवसर मिला था, वो इलाका रेगिस्‍तानी इलाका है और वहाँ आक खूब होता है। हम बच्‍चे खूब रूइ एकत्र करते थे, मखमल सी रेशमी रूई। खैर अभी तो सुबह की सैर को चलें।
फतेहसागर का बहुत बड़ा घेरा है, हम उसके पिछवाड़े वाले भाग की सड़क पर जाते हैं। वहाँ लोगों का आवागमन कुछ कम होता है। लेकिन पक्षियों का कलरव खूब होता है। झुण्‍ड के झुण्‍ड पक्षी एक पेड़ से उड़कर दूसरे पेड़ पर जाते हुए किलोल करते हैं। अभी तो माइग्रेटिंग बर्डस का आना भी शुरू हो गया है तो जहाँ पर थोड़ा भी पानी कम हो गया है और पानी में छोटी सी धरती दिखायी देने लगती है बस वहाँ पक्षियों का शोर सुनायी देता है। लेकिन इनका समय तय है, आप यदि पाँच मिनट पहले आ गए तो आकाश में कम पक्षी मिलेंगे और देर से आए तब भी। बस निश्चित समय जाइए और पक्षियों का आनन्‍द उठाइए। अभी हम पक्षियों का आनन्‍द ही उठा रहे होते हैं कि नेहरू गार्डन के पीछे से थाली के आकार का लाल सुर्ख सूरज निकल आता है। नेहरू गार्डन क्‍या है? अभी बताती हूँ, फतेहसागर के बीच में एक पार्क बनाया गया है जहाँ नाव से जाया जाता है बस सूरज वहीं से इठलाता हुआ निकल आता है ठीक 6 बजे। आज आकाश में कुछ बादल थे, तो ये नटखट बादल महा शक्तिशाली सूरज को कभी बीच से काट देते थे तो कभी पूरा ही ढक लेते थे। बस उसकी किरणों को नहीं रोक पा रहे थे। सफेद-सफेद बादलों से छनकर लाल-लाल किरणे देखने का आनन्‍द ही कुछ और है। तभी किसी पेड़ पर बैठी कोयल कुहक उठी, साथ में चिड़ियों ने भी अपना स्‍वर मिला दिया। मन करता है कि यह सुबह बहुत लम्‍बी हो जाए लेकिन सूरज की गति को भला कौन रोक सका है? वो तो अपनी मंथर गति से आगे बढ़ने लगता है और हमारे कदम भी तेज हो जाते हैं। एक खुशनुमा सुबह को जी लेने के बाद, सारा दिन उसकी ताजगी में ही गुजर जाता है। तो कल आप भी सुबह का आनन्‍द लें और निकल पड़े गर्मी से लड़ने के लिए सारे दिन की खुराक लेने। बड़े शहरों वाले कहेंगे कि अजी हमारे यहाँ ऐसा फतेहसागर नहीं है। लेकिन पार्क तो हैं? उदयपुर में इतने पार्क और झीलों का साथ है कि कहीं भी रहिए आपको सुबह का आनन्‍द उठाने का पूरा मौका मिलेगा।   
अमलताश का वह पेड़ जिसने पोस्‍ट लिखा दी। 
पक्षियों को कैमरे में कैद करना कठिन है
लेकिन ये पकड़ आ ही गए। 


नेहरू गार्डन से सूर्योदय। 

Sunday, April 24, 2011

बिटिया के बिना मन सूना जैसे मन की ईमेल को स्‍पेम में डाल दिया हो – अजित गुप्‍ता



फोन की घण्‍टी बज उठी, जैसे ही मैने हैलो बोलकर कहा कि हाँ बोलो बेटा, कैसी हो? उसी क्षण दो आँखों ने मेरा पीछा किया, दो कानों ने मेरी बातों पर अपना मन गड़ा दिया। मैं अपनी बेटी से बात कर रही थी और एक चेहरा मुझे निहार रहा था। मन में उथल-पुथल थी शायद। मेरे फोन बन्‍द करते ही मेरी मित्र ने पूछा कि बिटिया से बात कर रही थीं ना? हाँ, मैंने सहजता से कहा। उनका अगला प्रश्‍न चौंकाने वाला था। पूछ रही थीं कि आप बिटिया से मन की सारी ही बाते कर लेती होंगी? मैं उनके चेहरे को देख रही थी। बिटिया से तो मन की बाते होती ही हैं, आज ऐसा प्रश्‍न क्‍यों? उनकी भाव-भंगिमा देखकर लग रहा था जैसे किसी डायबिटीज के रोगी के सामने मिठाई रखी हो और वह उसे खा नहीं सके, बस मायूसी से उस मिठाई को देखता ही रहे। या यूँ कहूँ कि आप किसी को मेल करना चाहे और वह आपकी मेल को स्‍पेम में डाल ले। वे अपने आप से ही बातें करने लगी, कह रही थी कि बेटी से बात करना कितना सुखद होता है! मन की सारी बाते हो जाती है। मिसेज सिन्‍हा को भी रोज देखती हूँ, कई घण्‍टे वे बेटियों से बातें करती हैं। कितना खुश लगती हैं। मेरी देवरानी भी कितनी खुश रहती है, वो भी रोज ही अपनी बेटी से बातें करती हैं।
एक माँ जिसके बेटे तो हैं, बहुएं भी हैं लेकिन बेटी नहीं है, उसका दुख आज छलक पड़ा था। दुख का यह पैमाना मेरे लिए अन्‍जाना था। अपने मन की बात किसी से ना कर सकें तो मन में घुटन होती है लेकिन बेटी से इस घुटन का रिश्‍ता है यह कभी सोचा ही नहीं था। घर में कोई छोटी-मोटी बात हो, बेटे ने कुछ कह दिया हो, या बहु की बात समझ नहीं आ रही हो तो एक सहारा बेटी ही तो है, जिसे अपने मन की बात कहकर हल्‍का हुआ जा सकता है। लेकिन जिसके बेटी नहीं हैं वह क्‍या करे? आज मुझे मेरी मित्र की आँखों में अनायास ही उस पीड़ा के दर्शन हो गये। अपने में मस्‍त, साधन-सुविधाओं से सम्‍पन्‍न, लेकिन बेटी नहीं। बेटी ना होने का दर्द इस प्रकार प्रकट होगा, मुझे कल्‍पना नहीं थी। लोग तो बेटे की माँ से ईर्ष्‍या करते हैं, यहाँ आज बेटी की माँ से ईर्ष्‍या हो गयी। एक ठण्‍डी आह के साथ निकल आया दिल का दर्द कि काश मेरे भी बेटी होती!
कहावत है कि बेटी माँ का दर्द जानती है, उसे बाँटती भी है। इसके विपरीत बहुत कम बेटे होते हैं जो माँ के दर्द को समझते हैं या साझीदार बनते हैं। उनके पास शायद समय भी नहीं होता कि वे माँ की पूरी रामायण सुन लें। अभी रिश्‍तेदारी में एक विवाह सम्‍पन्‍न हुआ, बेटे से बात हुई तो बोला कि कैसी रही शादी? कुछ एकाध प्रश्‍न पूछकर बात समाप्‍त हो गयी। मैंने अपनी तरफ से ही कई बाते बताई लेकिन उसने प्रश्‍न दर प्रश्‍न नहीं किए। इसके विपरीत बेटी ने आगे होकर पूछा कि क्‍या-क्‍या हुआ शादी में? जहाँ-जहाँ भी बातों के चटखारों की उम्‍मीद थी, उन सभी बातों के लिए भी पूछा। बेटे को मैं बता रही थी और बेटी मुझसे पूछ रही थी, बस इतना ही अन्‍तर था। आस-पड़ोस की रोज-मर्रा की बातों से बेटी वाकिफ होना चाहती है, बेटा बेपरवाह सा सुन लेता है लेकिन उन बातों में रमता नहीं है। बस यही अन्‍तर है, बेटा और बेटी में। आप शायद इस बात का प्रतिवाद करें लेकिन यह तो सच है कि मन तक बेटियां ही पहुंचती हैं। मेरी मित्र की आँखों में मुझे जो दर्द दिखायी दिया, उस कारण मेरा भी नजरियां बदल गया है। अब मुझे बेटे वाली माँएं बेबस सी दिखायी देने लगी हैं। कहाँ जाएं अपने मन का दर्द बाँटने? एक उम्र आती है जब बेटा बड़ा हो जाता है और वह माँ का पल्‍लू छोड़कर अन्‍य जगह अपनी खुशियां तलाशता है। उस समय माँ एकदम अकेली हो जाती है और तब उसे अपने मन को बाँटने के लिए एक बिटिया की आवश्‍यकता होती है। बहु भी आपकी बेटी बन सकती है, लेकिन आप कितना भी प्रयास कर लें आपके मन की गहराइयों तक उसकी पहुंच नहीं हो सकती। मेरी मित्र का कहना था कि एक डर सा बना रहता है कि किस बात का क्‍या अर्थ निकाल लिया जाएगा लेकिन बिटिया के सामने यह डर नहीं होता। चाहे आप बेटी से कितना ही लड़ ले लेकिन यह आश्‍वासन हमेशा रहता है कि गलत अर्थ नहीं निकाला जाएगा। इस बारे में अनेक विचार हो सकते हैं, लेकिन मैने जो अनुभव किया, पूरी ईमानदारी के साथ आपसे सांझा किया। प्रभु का आभार भी माना कि मुझे एक बिटिया दी हैं, जिससे रोज एक घण्‍टा बात करके अपने मन को हल्‍का कर लेती हूँ, हँस लेती हूँ। इसलिए यदि आपके बेटी नहीं है तो मानिए आपके जीवन में आनन्‍द की वर्षा शायद कम हो और आप भी किसी माँ को बेटी से बात करते देख एक हूक सी अपने मन के अन्‍दर महसूस करते हों। आप इस बारे में क्‍या सोचते हैं? मन की गहराइयों तक बेटी की पहुंच होती है या बेटे की भी होती है?


Tuesday, April 12, 2011

नयी पीढ़ी उवाच – आप नहीं समझोगे, वास्‍तव में हम नहीं समझ सकते – अजित गुप्‍ता



भारतीय रेल मानो संवाद का खजाना। कितनी कहानियां, कितने यथार्थों से यहाँ  आमना सामना होता है। कितने मुखर स्‍वर सुनाई देते हैं? बस आप एक मुद्दा छोड़ दीजिए, कानों में ईयर-फोन लगाया व्‍यक्ति भी बोल उठेंगा। कोई डर नहीं, कोई चिन्‍ता नहीं कि मेरी बात से कोई नाराज होगा या बहस किस दिशा में जाएगी? क्‍योंकि सभी को कुछ घण्‍टों में ही बिछड़ जाना है। कभी बहस के ऊँचे स्‍वर भी सुनायी दे जाते हैं लेकिन छोटे से सफर में भला बहस को कितनी लम्‍बाई मिल सकेगी? खैर मैं अपनी बात कह रही थी अभी 9 अप्रेल को दिल्‍ली जाने के लिए रेल सेवा का उपयोग कर रही थी, साथ में दो साथी भी थे। एक जगह रहने के बाद भी बातचीत का सिलसिला रेल यात्रा में ही पूरा होता है। साथी के बेटे के बारे में बात निकली और पूछा कि कब शादी कर रहे हो? बात आगे बढ़ी और इस बात पर आकर ठहर गयी कि बच्‍चे कहते हैं कि आप कुछ नहीं समझते हो। पहले माता-पिता कहते थे कि तुम कुछ नहीं समझते हो और अब बच्‍चे कहते हैं कि आप लोग कुछ नहीं समझते हैं और आपको हम समझा भी नहीं सकते हैं।
इस युग की पीड़ा वास्‍तव में समझ भी नहीं आती है। वे एक दूसरे को जानने के लिए लिविंग रिलेशनशिप को आवश्‍यक मानते हैं और हम इसे पाप की संज्ञा देते हैं। बात कई मोड़ों से होकर गुजर रही थी, तभी मैंने कहा कि वास्‍तव में बड़ी अजीब सी स्थिति बन गयी है। क्‍योंकि मैंने अभी कुछ दिन पहले ही टीवी पर आ रही एक फिल्‍म को देखा था। उसके पहले उस फिल्‍म के चर्चे सुने थे तो सोचा कि जब टीवी पर आ ही रही है तो देख लिया जाए। नाम था बैण्‍ड बाजा बारात। खैर फिल्‍म शुरू हुई और  एक दृश्‍य ने हमारे दिमाग की घण्‍टी को बजा दिया। सब कुछ इतना स्‍वाभाविक? लड़की कितनी सहजता से साथ लड़के के साथ शारीरिक सम्‍बंध स्‍थापित कर लेती है और सुबह होते के साथ ही भूल जाती है। लड़का तो उहापोह में है लेकिन लड़की ने जैसे रात में किसी के साथ डिनर किया हो बस। अरे डिनर करते हैं तब भी कोई चर्चा होती है लेकिन उतनी चर्चा भी नहीं। हम तो सकते में आ गए कि क्‍या वास्‍तव में इतना परिवर्तन आ गया है?
खैर जब हम इस फिल्‍म की चर्चा कर रहे थे तब हमारे साथी ने भी कहा कि मैंने भी देखी थी यह फिल्‍म। तभी पास में बैठा सहयात्री मुखर हो उठा, इतनी देर से तो वह अपने कम्‍प्‍यूटर पर मग्‍न था। एकदम से बोल उठा तो हमें भी लगा कि अरे हम अपनी बातों में कितना मशगूल थे और यह भी नहीं जान पाए कि दूसरा भी कोई इसे सुन रहा है। लेकिन वह जो बोला उसे सुनकर एक अविश्‍वसनीय सत्‍य हमारे सामने पसर गया और आज की पोस्‍ट लिखने को मजबूर कर गया। मैं कल याने 11 अप्रेल को ही दिल्‍ली से लौट आयी थी और कल से ही मेरे दिमाग में उस सहयात्री की बात घुमड़ रही है। कभी लगता है कि पोस्‍ट पर नहीं लिखू, फिर लगने लगा कि लिख ही दूं। बेकार में मन में पड़ें रखने से तो अच्‍छा है कि शेयर कर लिया जाए।
उन सज्‍जन ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले मैं रेल में यात्रा कर रहा था। मुझे एसी का टिकट नहीं मिला तो मैं स्‍लीपर में था। वहाँ दो युगल भी यात्रा कर रहे थे। वे दोनों अपर बर्थ पर आराम से प्रोपर सेक्‍स कर रहे थे। मैंने यह शब्‍द उसी का लिखा है। शब्‍दों को छिपाया नहीं है, क्‍योंकि हम सब परिपक्‍व हैं और जिस बात को मैं इंगित कर रही हूँ उसमें छिपाव होना भी नहीं चाहिए। उसने कहा कि सारे अन्‍य यात्री मुँह फाड़े उन्‍हें देख रहे थे और बोल रहे थे कि पिक्‍चर चल रही है। मैं यह नहीं कहना चाह रही कि कितना पतन हो गया है, क्‍योंकि हो सकता है कुछ लोग इसे उत्‍थान माने। लेकिन हमारी पीढी के लिए आश्‍चर्यजनक और आपत्तिजनक भी है। क्‍या अन्‍य यात्रियों को उन्‍हें रोकना नहीं चाहिए था? या यह घटना ही झूठ का पुलिंदा है? कुछ समझ नहीं आ रहा है, तो आप लोगों से शेयर कर ली। बस इस बात को समझने का प्रयास कर रही हूँ कि वास्‍तव में हम कुछ नहीं समझ सकते। आखिर हम अपनी सोच से कितना आगे बढ़े? कितनी कल्‍पना करें, कि कितना परिवर्तन और होगा? क्‍या मनुष्‍य सामाजिक प्राणी से केवल प्राणी-मात्र रह जाएगा? क्‍या हमारे बच्‍चों की पीड़ा जायज नहीं है कि उन्‍हें भी ऐसे वातावरण को जीना पड़ता है और उसे आत्‍मसात भी करना पड़ता है। एक तरफ उनके पारिवारिक संस्‍कार हैं और दूसरी तरफ उनकी पीढी है जो सारी ही वर्जनाएं तोड़ देना चाहती है, अ‍ाखिर वे किस का साथ दें? तभी वे बात बात में कहते हैं कि आप नहीं समझोगे। आखिर हम समझ भी कैसे सकते हैं?   

Tuesday, April 5, 2011

मत सुनिए निराशा के स्वर - अजित गुप्‍ता



इन्टरनेट पर एक अंग्रेजी लघुकथा पढ़ने को मिली। नन्हें मेढ़कों की दौड़ आयोजित की गयी, एक बहुत ही ऊँची चट्टान पर मेढ़कों को पहुँचना था। चढ़ाई एकदम खड़ी थी। चारों तरफ से आवाजें आ रही थी कि यह असम्भव है, इतनी ऊँची चढ़ाई इन मेढ़कों की बस की नहीं है।दौड़ प्रारम्भ हुई, हताशा भरी आवाजें निरन्तर आती रही। देखते ही देखते कुछ मेढ़क बेहोश होकर गिरने लगे। लेकिन फिर भी कुछ मेढ़क अभी तक दौड़ में बने हुए थे। आवाजें अभी भी आ रही थीं, कि इनके बस का नहीं है, कोई भी चट्टान पर चढ़ नहीं सकता।’ ‘ये पिद्दी से मेढ़क क्या कर पाएंगे?’ धीरे-धीरे और मेढ़क बेहोश होकर गिरने लगे, निराशा भरे स्वर और बढ़े। लेकिन सबके आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि एक मेढ़क चट्टान पर चढ़ने में सफल हो गया है। सबने उसकी सफलता का रहस्य जानना चाहा तो मालूम पड़ा कि वह बहरा है। हताशा भरी आवाजें उसने सुनी ही नहीं। वह तो अपने कर्म की धुन पर आगे ही बढ़ता रहा, बढ़ता रहा।
हम भी चारों तरफ ऐसे ही शोर से घिरे हैं, ‘यह कुछ नहीं कर सकता’, ‘इसे कुछ नहीं आता’, आदि, आदि। हम प्रतिपल ऐसे ही वाक्य सुन रहे हैं, निराश हो रहे हैं और अक्सर प्रतिक्रिया भी कर रहे हैं। हमारा समय इसी निराशा और प्रतिक्रिया की उधेड़-बुन में ही निकल जाता है। उधेड़-बुन का अर्थ आप समझते है न? महिलाएं अधिक समझती हैं, क्योंकि वे स्वेटर बुनती हैं। किसी स्वेटर को बुनना और फिर उधेड़ देना, यही है उधेड़-बुन। हम बस यही कर रहे हैं। एक कदम आगे बढ़ाते हैं और फिर लोगों की फब्तियों के डर से वापस पीछे लौट जाते हैं या फिर पत्थर उठाकर दो कदम पीछे करते हुए उस भागते हुए व्यक्ति को मारने दौड़ते हैं। हमारी मंजिल कहीं पीछे छूट जाती है। मेढ़क इसलिए सफल हुआ कि वह बहरा था, उसने निराशा भरे शब्दों का श्रवण ही नहीं किया। उसे अपना लक्ष्य दिखायी दे रहा था और मौन साधना के साथ वह आगे बढ़ रहा था। हम समझते हैं कि हमारे कार्य में लोग हमारी सहायता करेंगे, हम यहीं धोखा खा जाते हैं। हम सब की सहायता से आगे बढ़ना चाहते हैं, और जब सहायता प्राप्त नहीं होती तब निराश हो जाते हैं। यह जीवन एक संघर्ष है, यदि आपको आगे बढ़ना है तो निराशा के स्वर सुनने बन्द कर दो। अपने कानों में रूई ठूँस लो। ये स्वर ही आपके आत्मविश्वास को डगमगा देते हैं। जब सुनाई देता है कि चट्टान बहुत ऊँची है तब हम भी उसे देखने लगते हैं और हमारा आत्मविश्वास टूट जाता है।
जब हम कार्य की विशालता को देखते हैं, मार्ग की दुरूहता को देखते हैं और स्वयं को अकेला पाते हैं तब हिम्मत टूट जाती है। लेकिन फिर भी कार्य करने का जुनून हमें कार्य करने को बाध्य करता है। तभी निराशा के स्वर हमें सुनायी देते हैं और हम कार्य से पीछे हट जाते हैं। लोग यही चाहते हैं कि यदि वे सफल नहीं हुए तो आप भी सफल नहीं हो। आँखों पर पट्टी बाँध लीजिए और काम की लम्बाई मत देखिए, काम करना प्रारम्भ कर दीजिए। आप देखेंगे कि नियत समय से भी कम समय में आपने कार्य को पूरा कर लिया है। अपना समय प्रतिक्रिया करने में भी बर्बाद मत करिए। प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में परम्परा रही है कि हम साधना के लिए एकान्त स्थान का चयन करते हैं। जिससे निराशा के स्वर हमारा व्यवधान न बन सकें। लेकिन जैसे ही विश्वामित्र की साधना से इन्द्र का सिंहासन डोलने लगता है वैसे ही वे मेनका को धरती पर भेज देंते हैं। कभी ऋषियों की तपस्या भंग करने राक्षस आ जाते हैं। लेकिन जो तपस्वी सारे बाहरी आक्रमणों को सुनते ही नहीं, देखते ही नहीं, वे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और महावीर बन जाते हैं।
आचार्य चाणक्य नन्द साम्राज्य का पतन चाहते हैं, वे भारत के राजाओं का एकीकरण चाहते हैं। लेकिन सभी आपस में लड़ रहे हैं, उनका एकीकरण असम्भव दिखायी देता है। सभी गणराज्यों के अधिपतियों का दम्भ उन्हें एक नहीं होने देता। चाणक्य को चारों ओर से निराशा के स्वर सुनायी देते हैं, लेकिन वे उन स्वरों को सुनते नहीं, उन पर प्रतिक्रिया नहीं करते। उनका लक्ष्य केवल मात्र एकीकरण बन जाता है। वे सफल होते हैं। इसके विपरीत सिकन्दर विश्व विजय करने निकलता है, भारत में छिट-पुट विजय के बाद उसके सैनिक हताशा का शिकार हो जाते हैं और वे सिकन्दर को बाध्य कर देते हैं कि हम यह दुरूह कार्य अब और नहीं कर सकते। सिकन्दर को लौटना पड़ता है और इसी निराशा में वह रास्ते में ही अपने प्राण त्याग देता है। हनुमान के सामने विशाल समुद्र खड़ा है, वे साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, इसे लाँघने का। उन्हें स्वर सुनाई देते हैं कि हनुमान तुममें शक्ति है, तुम अपनी शक्ति को विस्मृत कर बैठे हो, लगाओ छलाँग और पार कर लो इस समुद्र को। हनुमान लंका पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। श्रीराम नल और नील की सहायता से समुद्र पर पुल बना लेते हैं। पाँच पाण्डव, कौरवों की विशाल सेना को परास्त कर देते हैं।
सारी ही शक्ति हमारे समक्ष चारों ओर से आती हुई आवाजों की है। निराशा भरे स्वर हमें हतोत्साहित करते हैं और आशा भरे स्वर हमें कार्य की प्रेरणा देते हैं। रावण जैसा महाबलि भी इन्हीं निराशा भरे स्वरों का शिकार होता है। उसे प्रतिपल कहा जाता है कि श्रीराम के बल से डर, तू उसका मुकाबला नहीं कर सकता। रावण परास्त हो जाता है। कंस के मन में प्रतिपल डर बिठा दिया गया है कि देवकी का आठवां पुत्र तेरा वध करेगा। वह शक्तिहीन होता जाता है, प्रतिदिन केवल प्रतिक्रिया ही करता रहता है और एक दिन परास्त हो जाता है।
राम और कृष्ण क्यूँ भगवान बन जाते हैं? उन्हें प्रारम्भ से ही अवतार बताया जाता है, उनके कानों में प्रतिक्षण एक ही आवाज गूँजती है कि तुम भगवान हो, तुम समर्थ हो, तुम्हारा आगमन पापियों के नाश के लिए हुआ है। वे सफलता प्राप्त करते हैं। भारत के कथानकों में प्रारम्भ से ही सत्ता का संघर्ष बताया गया है। सत्ता अर्थात् इन्द्र का वैभवशाली, भोगवादी सिंहासन। किसी भी ऋषि की तपस्या से इन्द्र का विचलित होना, उसे अपना सिंहासन डोलता सा प्रतीत होना, सत्ता के भोग से विलग होने का डर बन जाता है। एक तरफ ऋषि का त्याग है तो दूसरी तरफ भोग है, भोगवाद हमेशा से ही त्याग से डर जाता है। त्यागी पुरुष ही ज्ञान की प्राप्ति करने में सक्षम बनते हैं और ज्ञान प्राप्त होने पर जनता ज्ञान की ओर दौड़ती है। जनता चाहती है कि ज्ञानी पुरुष के हाथ में सत्ता रहे इसी कारण भोगवादी ज्ञानी पुरुषों से डरने लगते हैं। यही असुरक्षा बोध ज्ञान के मार्ग में रोड़े अटकाता है। कोई भी व्यक्ति जब कर्म को अपना लक्ष्य बना लेता है तब उसके मार्ग में ऐसे ही रोड़े आने लगते हैं। चारों तरफ से उसपर आक्रमण होने लगते हैं। उसमें हीनता-बोध उत्पत्ति के सारे ही प्रयास किये जाते हैं। आक्रमण का एकमात्र आधार हीनता बोध का जागरण मात्र ही होता है। अतः ऐसे बिन्दु पर आक्रमण करो जिससे उसका व्यक्तित्व बौना दिखायी दे, उसके प्रति आदर कम हो जाए और वह हीनता-बोध का शिकार होकर असफल हो जाए।
लेकिन कर्मठ व्यक्ति ऐसे निराशा भरे व्यंग्य बाणों से आहत होने के स्थान पर दृढ़ता के साथ स्वयं को स्थापित कर  लेते हैं। कालिदास को मूर्ख कहा जाता है, पत्नी उन्हें तिरस्कृत कर देती है। तिरस्कार के कतिपय वाक्यों के बाद वे ऐसे शब्दों को सुनना बन्द कर देते हैं और साधनारत हो जाते हैं। परिणाम कालजयी रचनाकार कालिदास। तुलसी भी पत्नी के तिरस्कार से साधनारत होते हैं और वे बन जाते हैं सभी के हृदय-सम्राट। हमारे शास्त्रों में ऐसे हजारों उदाहरण भरे पड़े हैं, जब शब्दों की मार से कोई परास्त हुआ है और कोई विजयी। श्रीराम रावण विजय कर अयोध्या आते हैं, एक धोबी के शब्द सुनते हैं और सीता को वनवास दे देते हैं। राम का मानसिक बल आधा रह जाता है। यदि वे इन निरर्थक शब्दों को नहीं सुनते, उन पर ध्यान नहीं देते तो वे सीता के साथ मिलकर कितने श्रेष्ठ कार्य करते? रावण विजय के बाद उनके नाम कौन सी विजय अंकित है? वे राजसूय यज्ञ कराते हैं और दो बालक उनके घोड़े को पकड़ लेते हैं! अतः निराशा और हताशा के शब्दों को मत सुनो, आपके कार्य में व्यवधान उपस्थित होता है। केवल अपने लक्ष्य पर निगाह स्थिर रखो, आपको आपका साध्य अवश्य मिलेगा। आप केवल क्रिया करें, प्रतिक्रिया नहीं। प्रतिक्रिया दूसरों के लिए छोड़ दें। प्रतिक्रिया करने वाले व्यक्ति क्रिया करना भूल जाते हैं और उनका जीवन उद्देश्यहीन बन जाता है। जब हम क्रियाशील बनते हैं तब हमारे सामने एक उद्देश्य होता है और उसे पूर्ण करने के लिए एक लक्ष्य भी। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि इस सृष्टि को समृद्ध करे। हम प्रारम्भ से ही मानते आए हैं कि इस सृष्टि पर दो प्रकार की शक्तियां हैं, एक सुर और दूसरी असुर। एक विकास चाहती है और दूसरी विनाश। एक त्याग को महत्व देती है और दूसरी भोग को। एक चाहती है कि इस सृष्टि के समस्त चर और अचर पदार्थों का रक्षण हो, दूसरी चाहती है कि केवल मेरा ही रक्षण हो। अतः जब आप बहुजन-हिताय और बहुजन-सुखाय कार्य करते हैं तब ये ही आसुरी शक्तियां जो केवल स्वयं का ही हित चाहती हैं वे आपके कार्य में बाधक बन जाती है। आपको हीनता-बोध की ओर प्रवृत्त करने के लिए हताशा से भरे स्वरों को प्रतिपल गुँजायमान करती हैं। वे चाहती हैं कि आप निराशा से घिर जाएं और कार्य करना बन्द कर दें। जब आप अपना लक्ष्य भूल जाएँगे, अपना उद्देश्य भूल जाएँगे तब उनका हित सध जाएगा। इसलिए मत सुनिए निराशा के स्वर, मत लाइए हीनता-बोध। अर्जुन की तरह केवल चिड़िया की आँख पर ही दृष्टि गड़ाए रखिए, आपका निशाना अचूक होगा।
सदियों से महिलाओं को ऐसे ही हीनता-बोध का पाठ पढ़ाया जा रहा है। वे स्वयं मान बैठी हैं कि हम पुरुष के मुकाबले शक्तिहीन हैं। मुझे कहा जाता है कि आप महिला होते हुए भी इतना प्रवास कर लेती हैं! मैं कहती हूँ कि तभी तो कर लेती हूँ। हम तो सारे परिवार का बोझ अपने कंधों पर उठाकर जीवन का सफर पूर्ण करती हैं तो फिर इन छुट-पुट प्रवासों की क्या बिसात है? महिला तो धरती है, सारे ही अंकुरण उसके उदर से प्रस्फुटित होते हैं। विशाल वृक्ष उसके वक्ष से ही स्नेह-पान करते हैं। लेकिन उसके अन्दर आग का भी विशाल भण्डार होता है जिसे वह सहिष्णुता के जल के नीचे दबाकर रखती है। यदि यह जल कम हो जाएगा तब फिर अग्नि का भण्डार धधक उठेगा, तब महाप्रलय होगी। अतः संसार को इन आसुरी शक्तियों से बचाना है। हमें हताशा के शब्दों से निजात पाना है और हीनताबोध को स्थान नहीं देना है। तभी हम श्रेष्ठ भारत की कल्पना कर सकेंगे।