इस ब्लाग जगत के जाने माने ब्लागर श्री अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की अभी एक पोस्ट आयी थी – शिक्षा और ईमानदारी।
मेरी टिप्पणी निम्न थी -
ajit gupta said...
सच तो यह है कि कुछ बेइमानों ने सारे भारत को बदनाम कर रखा है। वे ही प्रचारित करते हैं कि बिना बेईमानी कुछ नहीं होता। यह सत्य भी है लेकिन इतना सत्य भी नहीं है। मुझे स्मरण नहीं कि मैंने अपने जीवन में कभी बेईमानी से समझौता किया हो। आज यदि ईमानदारी प्रदर्शित होने लग जाए तो तस्वीर का उजला पक्ष सामने आएगा।
श्री अनुराग शर्मा जी ने मुझे लिखा है कि मैं इसे उदाहरण सहित बताऊँ कि कैसे बेईमानी से लड़ा जा सकता है?
आज यह पोस्ट इसी विषय पर है। जीवन जीने के दो मार्ग है, एक मार्ग है जिस पर सभी लोग चलना चाहते हैं और वो है अभिजात्य वर्ग वाला मार्ग।
1 अर्थात् मेरा बच्चा नामी गिरामी स्कूल में पढ़े, जिस विषय से समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती हो बच्चों को वही विषय में शिक्षा दिलायी जाए।
2 सरकारी नौकरी में मुझे इस शहर में ही नौकरी करनी है, ऐसी प्रतिबद्धता हो।
3 मुझे यथाशीघ्र प्रमोशन मिलें।
4 मेरे पास भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हो।
लगभग एक आम भारतीय इन्हीं विषयों पर चिन्ता करता है। लेकिन इसके विपरीत एक मार्ग और है, वो है कि -
1 मेरा बच्चा ऐसे स्कूल में पढ़े जहाँ ज्ञान मिलता हो। चाहे वह स्कूल सरकारी या छोटे स्कूलों में शामिल क्यों ना हो।
2 यदि सरकारी नौकरी करनी है तो कहीं भी नौकरी हो, उसे सहज स्वीकार करना।
3 प्रमोशन आपकी योग्यता के अनुसार होगा, उसके लिए छोटे मार्ग नहीं अपनाएंगे।
4 मेरे पास जितनी भी समृद्धि है वह भी प्रभु की कृपा से बहुत है।
अब जो पहले मार्ग को अपनाता है वह अपने बच्चों की शिक्षा के लिए ऐसे स्कूल का चयन करता है जहाँ उसे या तो सिफारिशी पत्र का सहारा चाहिए या फिर डोनेशन का। जब मेरा बेटा तीन वर्ष का हुआ तब उसके लिए स्कूल चयन की बात आयी। मेरी प्रतिबद्धता भारतीय शिक्षा प्रणाली के प्रति है और मैं चाहती रही हूँ कि बच्चों पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं पड़े जिससे उसकी चिन्तनधारा किसी एक वर्ग के लिए प्रभावित होती हो। ऐसे स्कूल शहर में मिलने दुर्लभ थे। लेकिन मुझे झूठी प्रतिष्ठा का कोई लालच नहीं था। मैंने उन्हीं दिनों अपना घर भी बदला था तो सारे ही स्कूल कुछ दूरी पर हो गए थे। मेरा मानना है कि बच्चे का घर के पास वाले स्कूल में ही पढ़ाना चाहिए। मैंने देखा एक स्कूल का बोर्ड मेरी कॉलोनी में ही लगा है। अभी खुलने की तैयारी में है, बेहद छोटा सा। संचालक कौन है, मालूम पड़ा कि जाने माने शिक्षाविद इसे चलाएंगे। मैंने मेरे बेटे का तुरन्त प्रवेश करा दिया और मेरा बेटा उस स्कूल का प्रथम छात्र था। आज वह स्कूल उदयपुर के श्रेष्ठ स्कूलों में गिना जाता है।
मुझे मेरे साथियों ने बहुत कहा कि आप केवल 20 छात्रों की संख्या वाली कक्षा में बच्चे को पढ़ा रहे हैं, इसका कैसे मूल्यांकन होगा? मेरा एक ही उत्तर होता था कि मुझे इसे केवल इंसान बनाना है कोई मशीन नहीं बनाना है। इसके बाद जब उच्च कक्षाओं में बच्चों को जाने का अवसर मिला तो मैंने केन्द्रीय विद्यालय को चुना। जहाँ के अध्यापक तक कहने लगे कि अरे आप इतने अच्छे स्कूल से निकालकर बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों पढ़ाना चाह रहे हैं? मैंने उनसे यही कहा कि अब ये उच्च कक्षा में आ गए हैं इन्हें श्रेष्ठ और योग्य अध्यापक चाहिए, क्या आपसे अधिक योग्य अध्यापक अन्य स्कूलों में हैं? आप सच मानिए मेरे बेटे ने बिना किसी ट्यूशन और कोचिंग के इंजीनियरिंग एन्ट्रेस टेस्ट पास किया था। मेरी बेटी भी मेरिट में थी। जहाँ हमारे साथियों ने अपनी बच्चों की पढ़ाई पर न जाने कितने पैसे फूंके थे, मैंने उनके सामने बहुत कम पैसा खर्च किया था।
बेटी ने इंजीनियर और डॉक्टर बनने से मना कर दिया, मैंने कभी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। उसे कहा कि जो तुम्हें करना हो वह करो। उसने फिर एमबीए किया।
हम अक्सर सिफारिश और रिश्वत का सहारा अपनी नौकरी के लिए करते हैं। मनचाही जगह पोस्टिंग हो। मैंने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। मैंने कहा कि यदि मुझे राजस्थान के सुदूर गाँव में भी नौकरी करनी पड़ी तो करूंगी लेकिन कभी भी सिफारिश का सहारा नहीं लूंगी। परिणाम निकला कि कुछ दिनों बाद ही मुझे उदयपुर महाविद्यालय में लेक्चरशिप मिल गयी, जो एक मात्र आयुर्वेद कॉलेज था इसकारण कहीं भी स्थानान्तरण का अवसर नहीं था।
प्रत्येक व्यक्ति प्रमोशन के लिए अनुचित मार्ग अपनाता है। मैंने कहा कि मेरी तो एक ही चाहत थी कि मुझे कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी मिले बस वो भगवान ने पूरी कर दी अब कुछ नहीं चाहिए। मुझे वैसे भी बीस वर्ष के बाद सामाजिक कार्य और लेखन के लिए नौकरी छोड़नी थी तो किसी प्रमोशन की वैसे भी इच्छा नहीं थी। इसलिए हमेशा बिंदास रहे और सभी लोग इज्जत की निगाह से देखते रहे। लेकिन जो अपना स्वाभिमान बनाकर चलता है उसका भगवान भी ध्यान रखता है। मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृति ली और उसके बाद भी मुझे प्रोफेसर पद पर प्रमोशन मिला।
ऐसे ही मेरे पास भी गाडी हो बंगला हो कभी सोचा भी नहीं। बस एक ही बात का चिन्तन था कि मैं अपने परिवार की जिम्मेदारियों को सहर्ष पूरा करूं। मैंने ना केवल पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा किया अपितु आज भगवान की दया से सभी कुछ है मेरे पास। बस मुझे इतना ही चाहिए, ज्यादा तो मुझे हिसाब करना भी नहीं आता।
पोस्ट लम्बी हो जाएगी इसलिए इसे यहीं विराम देती हूँ। अभी जीवन के ऐसे बहुत से प्रकरण हैं जिन्हें हमने सादगी के साथ ही जीया। अगली कड़ी में उन्हें भी लिखने का प्रयास करूंगी। हाँ अन्त में एक बात और कि मैंने अपनी इस पोस्ट में जगह जगह लिखा है कि मैंने यह किया, असल में बच्चों की सारी चिन्ताएं मेरी ही हैं, मेरे पति हमेशा से ही मुझसे सहमत रहते हैं।