एक वाकया याद आ रहा है। मेरे विवाह का अवसर था और मेरे पिताजी एक युवा डॉक्टर बराती से बहस कर रहे थे।
पिताजी – मैं कहता हूँ कि बड़े लोग ज्यादा बदमिजाज होते हैं, छोटों के मुकाबले।
डॉक्टर – नहीं, नहीं, आप यह क्या कह रहे हैं? बड़े तो बड़े हैं।
कुछ देर ऐसी ही बहस चलती रही। फिर अचानक ही पिताजी गरजे और गरजकर बोले कि “मैं कह रहा हूँ ना कि बड़े लोग बदमिजाज होते हैं”
एक मिनट का मौन छा गया, डॉक्टर चुप हो गया। फिर धीरे से पिताजी बोले कि मैंने क्या कहा था? अब समझ आया?।
कल से ही यह घटना मुझे बारबार याद आ रही है। भारत में बड़ों को बहुत सम्मान दिया जाता है इसलिए वे अपना अधिकार समझ लेते हैं छोटों को टोकाटोकी करने का। जहाँ भी गड़बड़ी देखी नहीं कि फटाक से टोक देंगे कि नहीं ऐसा मत करो। आज के दस पंद्रह वर्ष तक तो यह टोकाटोकी और बड़ों की बात मानने की परम्परा जायज थी लेकिन आज बदल गयी है।
दुनिया के ऐसे देश जिनसे नवीन पीढ़ी अनुप्राणित होती हैं वहाँ छोट-बड़े की परम्परा नहीं है। ऑफिस में 60 वर्ष के बॉस को भी नवयुवा कर्मचारी नाम लेकर ही पुकारता है। सभी की बात एक समान ही सुनी जाती है और वहाँ के बड़े, युवाओं की किसी भी बात पर टांग नहीं अड़ाते हैं। यही परम्परा आज भारत में भी आ गयी है। जब मेरी बेटी फोन पर अपने बॉस से बात कर रही थी और उसे नाम लेकर बुला रही थी तब मैं सन्न रह गयी थी। घर में भी यह अन्तर स्पष्ट दिखायी देता है। आज की युवा पीढ़ी से जब बात करते हैं तो वे बराबर की बहस करते हुए आपकी बात को खारिज कर देते हैं। उनकी मानसिकता में कहीं नहीं है कि आपकी बात मानेंगे। बल्कि हमेशा यही दृष्टिगोचर होता है कि वे आपकी बात कभी नहीं मानेंगे।
मैंने इस विषय पर कल बहुत मनन किया। मुझे लगा कि हम दोहरी जिन्दगी जी रहे हैं। एक तरफ अपने संस्कारों से लड़ रहे हैं जो हमारे अन्दर कूट-कूटकर भरे हैं और दूसरी तरफ उस पीढ़ी को अनावश्यक परेशान कर रहे हैं जिसने छोटे और बड़े का भेद मिटा दिया है। हमें अब विदेशी जीवन शैली का अध्ययन करना चाहिए और उसे ही अपने जीवन का अंग बना लेना चाहिए। यदि सुखी रहना है तो। पुराने जमाने में भी भारत में ॠषि-मुनियों ने यही कहा था कि पचास वर्ष के बाद वानप्रस्थी बन जाना चाहिए। अर्थात समाज की सेवा करो और परिवार में सारे अधिकार युवा पीढ़ी को दे दो। 75 वर्ष बाद तो संन्यास लेकर एकदम ही मोह माया छोड़ दो।
यहाँ ब्लाग जगत में हम जैसे लोग भी आ जुटे हैं। अपने बड़े होने का नाजायज फायदा उठाते रहते हैं और लोगों को टोकाटोकी कर देते हैं। किसी की भी रचना पर टिप्पणी कर देते हैं कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। इसे ऐसे सुधार लो उसे वैसे सुधार लो। कहने का तात्पर्य यह है कि हम जैसे लोग अपनी राय का टोकरा लेकर ही बैठे रहते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी हस्तक्षेप कर देते हैं कि ऐसा मत करो, वैसा करो। जब सामने वाला पूछता है कि आप कौन? तब ध्यान आता है कि अरे काहे को पुरातनपंथी सोच को घुसाएं जा रहे हैं? इसलिए मित्रों फालतू की टोकाटोकी नहीं, सब स्वतंत्र हैं। अपने परिवार में सुखी रहना है तो अपने काम से काम रखो। पचास की आयु के बाद युवा पीढ़ी को स्वतंत्रता दो और अपना अधिकतर समय घर के बाहर निकालो। वे क्या पहनते हैं, क्या खाते-पीते हैं, ये उनका मामला है, तुम्हें इससे कोई लेना देना नहीं रखना चाहिए।
मैं तो मानती हूँ कि आज की पीढ़ी फिर भी बहुत शरीफ है जो आपको तमीज से उत्तर दे रही है। कल को ऐसा बोले कि रे बुढें/बुढियाओं अपना काम करो, हम क्या कर रहे हैं और क्या लिख रहे हैं इसपर हमें सीख मत दो। आदि आदि। इसलिए आज पचास के पार लोगों को अपनी हद में रहना सीखना चाहिए। उन्हें युवापीढ़ी के साथ रहना है तो उनके तौर तरीके सीखने ही होंगे नहीं तो उन्हें उपहास का पात्र बनकर किसी कूड़े के ढेर में डाल दिया जाएंगा। तो मित्रों मैं तो अब सीखने में लगी हूँ। आपका क्या ख्याल है, सीखेंगे या अपना अड़ियल रवैया जारी रखेंगे?
43 comments:
sahi kaha aapne...yahi hota hai...nice
बहुत पते की बात कही है ...हम भी सीख ही रहे हैं ;):)
bahut sahi kaha aapne
मैडम,
हमें तो ऐसी टोकाटाकी अच्छी लगती है(करना भी और सुनना भी) और आप में तो फ़िर बड़प्पन है कि अपने से छोटों को भी अगर टोकती हैं तो साथ में ’अन्यथा न लें’ टाईप का डिस्कलेमर लगा लेती हैं। हम तो मौका मिलते ही छोटे-बड़े, वरिष्ठ-कनिष्ठ, दिल्ली-छत्तीसगढ़ आदि क्राईटेरिया का ध्यान न रखते हुये बदमिजाजी कर आते हैं। कई बार सही समझ लिये जाते हैं, कई बार गलत भी।
सच ये है कि वाह-वाही सुनने के हम सब आदी हैं, ऐसे में यदि कोई पढ़कर अपना पक्ष रखना चाहे और उसका मत कुछ अलग है प्राय: उसे विलेन मान लिया जाता है। ट्रीटमेंट का तरीका जरूर अलग हो सकता है।
हम तो हर लिहाज से मध्यम वर्ग से हैं, यहाँ तक कि उम्र के हिसाब से भी। तो फ़िलहाल तो दसेक साल तक कहीं-कहीं टोकाटाकी करेंगे फ़िर आपका फ़ार्मूला अपना लेंगे। है न दीर्घकालीन योजना - सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं। हा हा हा।
आपका लेखन इसलिये पसंद आता है कि आप ’माथा देखकर तिलक लगाना’ वाली कहावत में यकीन नहीं करती। जो बात आपको सही लगती है, वह कहती हैं। और सिर्क सुझाती हैं, थोपती नहीं।
अजित जी , आहत महसूस न करें ।
इंसान के हाथ की पांचों उंगलियाँ भी बराबर नहीं होती ।
फिर सब की सोच एक जैसी कैसे हो सकती है ।
हर दस साल बाद आदमी विशेष की भी सोच बदल जाती है ।
फिर भी बड़ों का कहना , समझाना अपनी जगह सही है ।
अजित जी, आपकी इस पोस्ट में दो मुद्दे एक साथ आ गए हैं।
पहला है कि अपने से बड़ों का सम्मान करना या उनकी राय या बात सुनना। यह केवल युवा पीढ़ी का मसला नहीं है। आप जिस चलन की बात कर रही हैं वह कारपोरेट संस्कृति की देन है। वहां सबको पहले नाम से पुकारा जाता है। नाम के साथ जी भी उपयोग नहीं किया जाता। मैं जिस संस्थान में अब कार्यरत हूं वहां यही परिपाटी है। पर यह देखकर भी सुखद लगता है कि मैं स्वयं औरों को उनके नाम के साथ जी लगाकर ही संबोधित करता हूं,और उसे अन्यथा नहीं लेते हैं। प्रत्युत्तर में मुझे भी नाम के साथ जी लगाकर ही पुकारा जाता है। खैर इस परिपाटी या तरीके के पीछे अपने तर्क हैं।
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दूसरा मुद्दा है यहां ब्लाग में लेखन के बारे में राय देना या सुझाव देना। मेरा मानना है कि यहां बड़े-छोटे का प्रश्न नहीं है। और न ही यह इस बात से तय होता है कि आप कितने बड़े लिक्खाड़ हैं। यह शायद इस बात से तय होता है कि आप जो राय या सुझाव दे रहे हैं उसमें तर्क क्या है,उसका औचित्य क्या है। और फिर यह तो सामने वाले पर निर्भर करता है कि वह आपके सुझाव को माने या न माने।
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मैं ऐसे कई ब्लागर मित्र हैं जो मेरे सुझाव पर अमल करते हैं। अगर मैं उनकी किसी रचना पर प्रतिक्रिया न दूं तो वे मेल करके आग्रह करते हैं।
कई ब्लागर रचना पोस्ट करने से पहले ही चाहते हैं कि मैं अपने सुझाव उन्हें दूं। बहरहाल यह आपसी समझ की बात है।
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माफ करें, हम तो अपनी राय की टोकरी लेकर घूमते ही रहेंगे और बांटेंगे भी। अगर पसंद न तो अपने ब्लाग के पिछवाड़े फेंक दीजिए। उसमें भी मुझे उम्मीद है एक दिन बीज अंकुरित हो जाएगा।
हम तो पालथी मार कर क्लास में बैठे हैं अजित मैम, कह तो सही रही हो :-((
सोचने को मजबूर करता लेख ...
प्रणाम !
आपका दृष्टिकोण सदैव ध्यातव्य पक्ष को उजागर करता है. टोका टाकी का लाभ उठाना सबको नहीं आता, जिसने सीखा, अपनाया उसे फायदा ही फायदा.
दीदीश्री,
ऐसा लगता है कि कल श्री खुशदीपजी के ब्लाग पर दी जाने वाली आपकी सलाह और पश्चात् उस पर चले वाद-विवाद ने आपको कुछ ज्यादा ही विचलित कर दिया है, जो शायद सही भी हो सकता है । जहाँ तक परिवार की बात की जावे तो मैं भी आपके बताये सुझाव पर चलने की भरसक कोशिश करता हूँ किन्तु फिर भी कई बार चाहे-अनचाहे बोलना ही पडता है । बाद में फिर परिणाम चाहे जो हो ।
कब आदर देना है और कब सत्य बोल देना है, यही सबसे कठिन है, मध्यमार्गी युवाओं के लिये।
बहुत सटीक सलाह..खुश रहने के लिए यह सीखना ज़रूरी है.
कल के आपके कमेन्ट में कोई बुराई नहीं थी और ना ही मुझे आपकी बात कहीं से टोका-टाकी वाली लगी. सहजता से जैसा आपको महसूस हुआ आपने कहा. इसमे मुझे तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया की आपको क्षमा प्रार्थी होना पड़े फिर भी आपने खेद व्यक्त किया ये आपका बड़प्पन है लेकिन इससे ऐसी कोई परिपाटी ना बने की कोई व्यक्ति आपने मन की बात को मन में ही दबा कर रहे. मन में कोई भी शंका हो सामने आनी ही चाहिए तभी तो उसका समाधान होगा. इस विषय में राजेश उत्साही जी की बात से मैं पूर्णतः सहमत हूँ. मुझे उनके जैसे लोग पसंद हैं.
हाँ एक बात मैं यहाँ कहना चाहूँगा की मैंने कई बार यह महसूस किया है की जो लोग मद्यपान नहीं करते या मांसाहारी नहीं है या प्याज लहुसन का प्रयोग नहीं करते जाने क्यों उन लोगों का दृष्टिकोण दूसरों के प्रति (दूसरों से मेरा मतलब है वे लोग जो इन चीजों का प्रयोग करते हैं) "holier than thou " वाला होता है जो मैं समझता हूँ की नहीं होना चाहिए.
अजित जी बडो की टोका टोकी हमेशा अच्छी लगती हे, उस मे अपना पन होता हे, अब कुछ लोग इसे बुरा समझे तो यह उन की सोच हे, मै इस पश्चमी समान मे रहता हुं, यहां भी अलग अलग माप दंड हे, गांव के इलाको मै आज भी बडो की इज्जत की जाती हे, ओर बडे डांट भी देते हे, मेरे बच्चो के सभी दोस्त जर्मन हे लेकिन सभी इज्जत से बुलाते हे, ओर आंखे झुका कर बात करते हे, लेकिन शहरो मे हालात बहुत खराब हे, हम कही भी रहे, चाहे अपने देश मै या विदेश मै जब तक हम अपनी सभ्यता को साथ मे ले कर रहे गे सुखी रहेगे, ओर जिस दिन हम अपने संस्कार भुल जायेगे उसी दिन से हम दुखी रहना शुरु कर देगे, इस लिये मै तो यही कहुंगा कि बडे लोगो की बातो मे दम हे, ओर हमे उन के तजुर्बे से सीख लेनी चाहिये, उन की बात सुननी चाहिये,उन की इज्जत करनी चाहिये, उम्र मै बडा आदमी कभी बदमिजाज नही होता.कई बार मै अपने बच्चो को किसी काम के प्रति रोकता हुं, उन्हे उस समय शायद बुरा लगता हे, लेकिन जब वो समय निकल जाता हे तो बच्चे हेरान होते हे कि हमारे बाप ने हमे इस काम से रोका था, अगर करते तो हम यह फ़ल भी भुगतते, धन्यवाद
अजित जी , अच्छी सलाह है ..विचारणीय पोस्ट.
फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
आप की बात सही हैं अजित जी लेकिन आप ने खुशदीप की पोस्ट पर कमेन्ट में कहा हें की आप विरोध मै अकेली पड़ जाएगी कारन सिर्फ इतना हैं की आप जब दूसरे गलत बात का विरोध करते हैं तो उसको उनकी निज की समस्या मानती हैं और कभी साथ नहीं खड़ी होती । मैने नारी ब्लॉग पर इस मदिरा पान की बात को रखा था । मदिरा पान केवल रात मे ही नहीं राज भाटिया के यहाँ अपितु तिलियर लेक की बार मे भी तीन लोगो ने किया था और साथ मे मदिरा पान करने के बाद गाडी भी चलाई थी । लोग ब्लॉगर मीट मे मिलकर यही सब करना चाहते हैं तो कल को बार डांसर भी बुलवाए जायेगे सो जाने से पहले प्रोग्राम जानना उचित हैं ।
सीखते रहना चाहिए अंत तक
चाहे अंत ही क्यों न आए
मैं तो इसी धारा वाला हूं
http://yogindermoudgil.blogspot.com/2010/12/blog-post.html
सच कहा है किसी ने कि ,
तुम बच जाओगे दुनिया में हर किसी से यकीनन,
मगर किसी दिन खुद , खुद की पकड में आ ही जाओगे ..
कल एक पोस्ट ने जिसका कि इस पूरे प्रकरण से कोई लेना देना नहीं था पर लिखत पढते उसकी परिणति यहां तक आ पहुंची हैं कि साथी ब्लॉगर कहती हैं
"लोग ब्लॉगर मीट मे मिलकर यही सब करना चाहते हैं तो कल को बार डांसर भी बुलवाए जायेगे सो जाने से पहले प्रोग्राम जानना उचित हैं ।"
अफ़सोस सिर्फ़ अफ़सोस , मैं इस पूरे मामले में खुद को कहीं भी डिफ़ेंड नहीं कर रहा हूं क्योंकि मुझे जरूरत भी नहीं है ..मगर सिर्फ़ इतना जरूर पूछना चाहूंगा कि आखिर उन बैठकों में शामिल अन्य लोगों का भी कोई कसूर हो तो सजा सुना ही दी जाए उनकी भी । और हां रचना जी , यदि मैं ठीक हूं तो शायद आप भी कम से कम दो बैठक में तो शिरकत कर ही चुकी हैं ...इसके बावजूद भी ..
शायद आज फ़िर से ज्यादा कह गया हूं
अरे हां एक बात कल से ही कहने का मन हो रहा था बार बार ,
मेरी मां जब तक जीवित थीं , उन्हें खुशी थी इस बात की कि आज भी मैं उन्हीं की सुनता हूं ..पिताजी की बात भी कभी टाली हो ..मुझे याद नहीं पडता ...इसलिए मैंने तो अब तक बखूबी मानी है बात और आगे भी मानता ही रहूंगा ।
आदरणीय अजित जी
नमस्कार !
...........बहुत सटीक सलाह..
bhayi hame to bado ko sunNa bhi bahuuuuuut acchha lagta hai lekin kahin koi sanshay hota hai to tark karne me koi burayi to nahi honi chahiye. kyuki aaj ki generation aankhe moond ke to har baat nahi maanne wali. tab chhoto ki jigyaasao ko to bado ko apne gyan se shant karna chaahiye aur bado ko isme chhoto ki bad-tamizi nahi samajhni chaahiye.
baki me Rajesh ji se sahmat hun aur satish ji ki tarah paalthi maar kar class me baithi hun...lekin han muh pe ungli nahi rakh sakti :):):)
बहुत सही आलेख। हम भी ५० के आसपास ही हैं। तो जब घर में सुनने को तैयार नहीं बच्चे, तो बाहर तो बस ये है कि ...
चाहकर इसलिए सच कह नहीं पाया
सच कहा जिससे भी, सच को सह नहीं पाया
धूल में तिनका मिला है बस इसी कारण
दूर तक वह संग हवा के बह नहीं पाया।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विलायत क़ानून की पढाई के लिए
बहुत अच्छी सलाह...
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आदरणीय अजित गुप्ता जी,
आप आहत लग रही हैं आज... कारण मुझे पता नहीं है... अत: कुछ कहूँगा नहीं।
"आज के दस पंद्रह वर्ष तक तो यह टोकाटोकी और बड़ों की बात मानने की परम्परा जायज थी लेकिन आज बदल गयी है। दुनिया के ऐसे देश जिनसे नवीन पीढ़ी अनुप्राणित होती हैं वहाँ छोटे-बड़े की परम्परा नहीं है।"
आपका यह आकलन सही है... हिन्दुस्तान में हम लोग अक्सर सीधी बात नहीं कहते, घुमाफिरा कर सोचते-बातें करते हैं, लिहाज के चलते बहुत सी उन बातों को भी मान लेते हैं जिन से वास्तव में सहमत नहीं हैं (कुछ टिप्पणियों में भी यह स्वर ध्वनित हो रहा है)... जबकि आज के विश्व में Thinking Linear है और Communication Direct व At your Face... हमारी युवा पीढ़ी उसी का पालन करती है, कुछ असहज तो करता है यह... पर एक दिन यही चरित्रगत विशेषता हमें आगे भी ले जायेगी...
"हाँ एक बात मैं यहाँ कहना चाहूँगा की मैंने कई बार यह महसूस किया है की जो लोग मद्यपान नहीं करते या मांसाहारी नहीं है या प्याज लहुसन का प्रयोग नहीं करते जाने क्यों उन लोगों का दृष्टिकोण दूसरों के प्रति (दूसरों से मेरा मतलब है वे लोग जो इन चीजों का प्रयोग करते हैं) "holier than thou " वाला होता है जो मैं समझता हूँ कि नहीं होना चाहिए..."
प्रिय V40 दीप पान्डेय से अक्षरश: सहमत हूँ यहाँ पर...
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अजित जी ,
बड़ों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है जीवन में, जिसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। युवा पीढ़ी के पास जो भी है वो बड़ों से ही सीखकर मिला है । कुछ बन जाने के बाद , बड़ों द्वारा मिले हुए ज्ञान और आशीर्वाद को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
नई और पुरानी पीढ़ी में कुछ अंतर अवश्य रहता है लेकिन भारतीय संस्कार हमें बड़ों का सम्मान करना ही सिखाते हैं। क्षमाशीलता की अपेक्षा हम बड़ों से ही कर सकते हैं।
जाने अनजाने कभी मुझसे कोई गलती हुई हो तो करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।
आपके स्नेह एवं आशीर्वाद की आकांक्षी ,
दिव्या।
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अजित जी,
आज सुबह से निज़ी ज़रूरी कार्य में व्यस्त था...इसलिए टिप्पणी देने देर से आया हूं...टिप्पणी में बस एक ही बात...
हम उन किताबों को काबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को ख़ब्ती समझते हैं...
जय हिंद...
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बड़ों का डाँट-डपट करना और अनुशासन बनाए रखना हमारे भीतर उछलते पशु को काबू में रखता है.
शांत मन से विचारने पर उसकी ज़रुरत आज भी महसूस होती है.
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बच्चों और बड़ों की उम्र के गप के अनुसार टोका टाकी करना और विरोध करना दोनों ही कई पीढ़ियों से चलते आये हैं ...मुझे पूरे सन्दर्भ का तो पता नहीं की आप अभी किस विशेष बात से आहत हुई हैं मगर ये सच है की भारतीय समाज भयंकर बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है ...
आजकल के बच्चे झट से कह देते हैं हमारी जिंदगी , हमारी मर्जी ...पहले कुछ कहा करते नहीं थे ,तो कम से कम चुप रह जाते थे ...फर्क तो है ज़माने का ...इस पीढ़ी के साथ इनके जैसा मन रखकर सोचना पड़ेगा ...
बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ उनके मन के अनुसार जवाब ना मिले तो बुरा मान जाते हैं , ऐसे ही कुछ लोग यहाँ भी हैं ...उनसे जरा सी भी नाइत्तफाकी दिखाए तो उन्हें बर्दाश्त नहीं होता !
ajay ji
maene kehaa haen कल को बार डांसर भी बुलवाए जायेगे सो जाने से पहले प्रोग्राम जानना उचित हैं ।
yanni jab ham kahin jaaye to program pataa karkae jaaye
mae dilli meet mae gayee the 2007 mae jab wo barista sae maithili ji kae yahaan shift hui mae nahin gayee kyuki kisi anjaan kae ghar nahin jaa saktee
aap seedhi baat ko seedhi tarah lae
apna protection karna kehaa galat haen aur agar yae punch liyaa jaaye kyaa program haen to kyaa galtii haen
अजित जी
इस बात से सहमत हु की अब बड़ो की बात उतनी नहीं सुनी जाती जितनी की पहले सुनी जाती थी | बात चाहे घर की हो या बाहर की, किन्तु कहने का असर प्रत्यक्ष दिखाई पड़े या ना पड़े वो दूसरो के दिमाग में पहुच तो जाती ही है और उसका थोडा ही सही असर दिखता है | अगर ब्लॉग जगत की बात करे तो मेरा मानना है की यदि जो भी बात आप को गलत लगती है आप को बिल्कुल निडर हो कर सभ्य भाषा में कह देना चाहिए बिना ये सोचे की कौन उसके बारे में क्या सोचेगा | आप को लगेगा की कुछ लोग उसको सम्मानित तरीके से मान रहे है कुछ समझने के लिए तैयार नहीं है और कुछ तो आप पर ही आरोप लगाने को तैयार है उनकी परवाह ना करे वो भले सामने ऐसी हरकत कर रहे है पर सही बात क्या है वो भी अच्छे से समझते है | ये सब होने के बाद भी आप ने जिस बात के लिए टोका टाकी की है वो गलती कोई भी दुबारा नहीं करेगा |
कई बार ये भी होता है की हम अनजाने में कोई गलत बात लिखते जाते है या कुछ ऐसा लिख देते है जिससे दूसरो की भावनाओ को चोट लग जाती है यदि कोई हमें टोकेगा नहीं हमें बताएगा नहीं की हम गलत कर रहे है तो हमें पता कैसे चलेगा ,इसलिए टोका टाकी तो जरुरी है टाकी उसे पता तो चले की वो गलत लिख रहा है | यदि हम अपनी बात कहेंगे नहीं तो दूसरे उसे सुनेगे कैसे |
सुझाव सुझाव है, अच्छा लगे तो अपनाऒ न लगे तो अपना रस्ता नापते जाओ ! एक बात जरूर है बड़े इस लिए हमेशा ठीक नहीं कि वो बड़े हैं, और छोटे इस लिए गलत नहीं कि वो छोते हैं ! आलोचना स्वास्थ्यवर्धक हो ! बाकि ब्लोग खुला है तो सब चलेगा जब तक कि गाली न लगे !
सुझाव सुझाव है, अच्छा लगे तो अपनाऒ न लगे तो अपना रस्ता नापते जाओ ! एक बात जरूर है बड़े इस लिए हमेशा ठीक नहीं कि वो बड़े हैं, और छोटे इस लिए गलत नहीं कि वो छोते हैं ! आलोचना स्वास्थ्यवर्धक हो ! बाकि ब्लोग खुला है तो सब चलेगा जब तक कि गाली न लगे !
यह जरूरी नहीं के बड़े ही राय दें :-) मुझे तो हिन्दी चिट्ठाजगत में अपने से कम उम्र से कम लोगों से ही राय मिलती है। जिससे मुझे अक्सर अपनी गलती पता चलती है या फिर एक दूसरा नज़रिया किसके बारे में मैं सोच भी नहीं सका था।
मेरे विचार से किसी को राय देना गलत है या नहीं यह देने वाले की मंशा पर निर्भर करता है।
कुछ समय पहले, मैं हमने जानी है रिश्तों में रमती खुशबू नामक श्रृंखला अपने उन्मुक्त चिट्ठे पर लिखने की सोच रहा था। इसकी भूमिका के तौर पर अपने चिट्ठे पर एक शायरी लगा रखी थी। मेरी एक चिट्ठी में ब्रह्मराक्षस नामक चिट्ठाकार बन्धु ने उसके बजने के बारे में अपनी राय यहां दी।
जब तक उन्होंने अपनी राय नहीं दी तब तक उनकी मुश्किल समझ में नहीं आयी थी। उनकी टिप्पणी के बाद मैंने उस शायरी का बजाना बन्द किया और उनसे माफी मांगते हुऐ एक चिट्ठी हमें आसान लगने वाली बात, अक्सर किसी और को मुश्किल लगती है नाम से लिखी। यदि वे टिप्पणी न करते तब तक मुझे पता नहीं चलता।
कभी कभी विचार स्पष्ट रूप से कहने में चूक हो जाती है। मेरी चिट्ठियों के साथ भी ऐसा हो जाता है। यह टिप्पणी के कारण ही उसे दूर किया जा सका। जैसा कि यहां हुआ।
आप सभी के विचार पढ़ रही हूँ, सारे ही सुझाव मनन योग्य हैं। लेकिन हमारी पीढ़ी संक्रान्ति काल से गुजर रही है और भविष्य में आधुनिक सोच वाली पीढ़ी के साथ ही रहना है तब मुझे लगता है कि अभी से आदतें सुधार ली जाएं तो अच्छा ही होगा। वे भी खुश और हम भी सूखी। आप सभी का आभार।
कई बार टिप्पणी देते हुये बहुत सोचना पड़ता है | जितना पोस्ट लिखते हुये नही सोचना पड़ता है |और लिखे बगैर काम भी नही चलता है केवल बहुत बढ़िया या nice जैसी रस्म अदायगी भी हर बलोग पर नही की जा सकती है | आपके द्वारा लिखी गई पोस्ट का रूख इस पर आई हुयी टिप्पणीयों ने बदल दिया है बात कहा से चली थी और कहा पहूच गई | यह भी हिन्दी बलोग जगत की एक त्रासदी कह सकते है जंहा मूल पोस्ट पर टिप्पणियां कम और टिप्पणियों पर टिप्पणियां ज्यादा की जाती है | एक पाठक पोस्ट को भूल जाता है औ केवल उस प आई हुयी टिप्पणियों को ज्यादा गहनता से देखता है | उसको हाईलाईट करके पूरी पोस्ट लिख डालता है |मुझे दुख होता है जब पोस्ट के मूल विषय को लोग इधर उधर की घटनाओ से जोड़ते है | आपकी बात बहुत सारगर्भित है | धन्यवाद |
आपकी बातों से यदि कुछ लोग भी सीख ले लें, तो भी अच्छा हो।
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अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
हमलोग भी ज्यादा पीछे नहीं हैं...अजित जी ,सारी मुसीबत इसी पीढ़ी की है...क्यूंकि इसने सर झुका कर बड़ों की सारी बात मानी है..(नापसंद होते हुए भी )
और इसकी बात सुनने को कोई तैयार नहीं :(
अच्चा लगा आलेख.बधाई.
bahut achchi seekh di hain aap.dhanywad.
कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं। इतने लोग इनती बातें। पर हां कुछ सही है कि चीजें बदल रही हैं। लोग अगर नाम के साथ जी लगा रहे हैं तो जरुरी नहीं कि वो आपकी बात मानेंगे ही। मेरे साथ भी ऐसा होता है ऑफिस में। पर इतना जरुर है कि अपना विरोध हमेशा रखता हूं सबके सामने। हमारी या हमारे बाद वाली पीढ़ी में इतना जरुर है कि हम बात से असहमत होते हैं तो मानते नहीं। पर हां विचार विर्मश बड़ों से जरुर करते हैं. मैने कई लोगो को नई पीढ़ी में भी देखा है कि ये चलन है। भले ही कुछ दूसरे तरीके से।
हम तो उन्मुक्त जी की बात से सहमत हैं। डबल सहमत हैं।
ऐसा बिल्कुल नहीं है जी
बडे लोग अपनी राय और सलाह देते हैं जो उनके बीते समय और अनुभवों का निचोड होता है। हाँ यह अलग बात है कि हम बच्चे सुनकर अनसुना कर देते हैं।
यहां ब्लॉगजगत में भी टोका टोकी हर कोई हर किसी के लिये नहीं करता है। जहां से बडेपन का मान-सम्मान पाता है, उन्हीं को उनके व्यक्तिगत जीवन में भी दखल दिया जाता है।
वर्ना आजकल तो बच्चे माँ बाप को भी ढंग से बात नहीं कर रहे हैं।
दूसरी बात बडे हमेशा सही हों ऐसा भी नहीं है। अगर मेरी किसी गलती के लिये मेरे बडे मुझे टोकने की बजाय पडोसियों के घर में जाकर बातें कहेंगे तो क्या अच्छा है? हो सकता है उन्होंने मुझे कहने की कोशिश की और मैनें उनकी बात को अनसुना कर दिया तो भी उनकी बात मुझे अपनी गलती को विचारने पर मजबूर कर ही देती है।
प्रणाम
बहुत विचारणीय पोस्ट लिखी है आपने
शुभकामनाएं
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