बड़े-बूढे़ कहते हैं कि कलियुग चल रहा है। लेकिन मुझे लगने लगा है कि हम सतयुग की दहलीज पर खड़े हैं। आपको विश्वास नहीं होता न? कैसे होगा? जब चारों तरफ घनी अँधेरी रात हो, तब कोई खिली-खिली सुबह की बात कैसे कर सकता है? बस हमारे देखने और समझने का यही अन्तर है। जैसे घर और सरकार दोनों में ही नारियों का राज कायम है लेकिन पुरुष अपने आपको ही सरदार मानकर चलते हैं। हम सब जानते हैं कि रात के बाद ही सुबह होती है। इसलिए मैं कहती हूँ कि सतयुग आने वाला है। अभी कलयुग की पराकाष्ठा है इसलिए अंधकार समाप्ति की ओर है। मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे कि हजारों-लाखों वर्षों से मनुष्य इन्द्रिय निग्रह के प्रयास कर रहा है। लेकिन प्रयोग सफल होता नहीं। जिस युग में इन्द्रिय निग्रह नहीं हो सके वह कलियुग और जब हो जाए वही सतयुग। आपको मैं रोड शो के माध्यम से समझाने का प्रयास करती हूँ, क्योंकि आज राजनेता से भी जनता भाषण की मांग नहीं करती, बस उसके रोड-शो से ही खुश हो जाती है तो आप एक दृश्य देखिए, विश्वामित्र तपस्या में लीन हैं, उन्हें लग रहा है कि मैंने ज्ञान प्राप्ति कर ली है और मेरी इन्द्रियां अब मेरे वश में हैं, तभी स्वर्ग से मेनका उतरती है और अपने नृत्य प्रदर्शन से विश्वामित्र की तपस्या भंग कर देती है। वर्षों की तपस्या, एक अप्सरा ने क्षण भर में भंग कर दी! नारी के दो ठुमके भी तपस्वी पुरुष बर्दास्त नहीं कर पाए तो इसका अर्थ हुआ कि उस काल का मनुष्य आत्मबल क्षीण था। राम-राम घोर कलियुग।
काल आगे बढ़ा, ऋषि-मुनियों की तपस्या-परम्परा समाप्त हुई। शायद समाप्त भी इसलिए हुई कि कभी मेनका और कभी उर्वशी, तपस्वियों की तपस्या भंग करने में सफल हो जाती थी। लोगों ने सोचा कि अब गृहस्थ ही रहा जाए। अनावश्यक तपस्या का बोझ, ईमानदारी के भूत की तरह लोगों के मन से उतर गया और एक नए सत्य का आगमन हुआ। गृहस्थी में रहने से स्वतः ही इन्द्रियनिग्रह हो जाता है। पत्नी के साथ लगातार वर्षों तक रहने से व्यक्ति पर सवार कामदेव वैसे ही भाग छूटता है जैसे बिल्ली को देखकर चूहा। उसे चाँद सा मुख - जेठ का सूर्य, बलखाती मनीप्लांट सी जुल्फे - निरीह पेड़ पर चढ़ी अमरबेल सी लगने लगती हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने संन्यास की परम्परा को जीवित रखा और जंगलों के स्थान पर मठों और मंदिरों में जाकर बैठ गए। इसका भी कारण था कि अब तपस्या के लिए वन में तो नहीं जाना था, अपितु घर के जंजाल से मुक्त होकर आनन्द से जीवन व्यतीत करना था। संन्यासी भी कहलाएं और समस्त भौतिक सुख भी उपलब्ध हों! इस कारण उनकी तपस्या में वह कशिश नहीं थी कि कोई अप्सरा उतर कर आए और उनका तप भंग कर सके। क्योंकि मठों और मंदिरों में तो वैसे ही देवदासियां और बाल विधवाएं रहती थी तो उनके तप भंग करने के लिए इंद्रदेव को कोशिश नहीं करनी पड़ती थी। न ही इंद्र का सिंहासन डोलता था, क्योंकि उनसे उसे कोई खतरा जो नहीं था। इन्द्र भी अब बार-बार धरती पर नहीं आता था, क्योंकि यहाँ के इन्द्रों ने राजनीति में दक्षता प्राप्त कर ली थी। खैर, धीरे-धीरे समय के साथ स्वर्ग के द्वार बंद होने लगे अब केवल वन वे ट्रेफिक ही स्वर्ग के लिए था, अर्थात पृथ्वी से लोग जा तो सकते थे लेकिन स्वर्ग से अप्सराएं आ नहीं सकती थी। अतः पृथ्वी से अप्सरा परम्परा का समापन हो गया।
चलचित्र की दुनिया प्रारम्भ हुई। स्वर्ग की अप्सराओं का ठेका समाप्त हुआ और न्यूनतम दरों के टेण्डर के कारण पृथ्वी की अप्सराओं को ही कार्य मिल गया। अब उन्होंने ही नृत्य कर पुरुषों को रिझाने का कार्य प्रारम्भ किया। ऋषियों की परम्परा भी शेष नहीं थी, तो आम व्यक्ति को यह सुविधा उपलब्ध होने लगी। वैसे भी सामन्तशाही समाप्त होकर आम व्यक्ति का राज आ गया था। फिल्मों के माध्यम से यह अपरोक्ष दर्शनीय सुविधा सभी को उपलब्ध करायी गयी। प्रत्यक्ष रूप से एवं स्पर्श के लिए अप्सराएं नायकों के लिए थीं। अप्सरा रूपी नायिका बुरका पहनकर, हाथ में किताबें लेकर, सड़क पर चली जा रही है, सामने से नायक अपने ख्यालों में खोया हुआ, बेसुध-सा चला आ रहा है। परिणाम - टक्कर। किताबें बेतरतीब सी सड़क पर। नायक किताबों को कम और बुरके से झांकती नायिका की आँखों को समेटने में लग जाता है। पहले मेनका को कितना नृत्य करना पड़ा था, तब कहीं जाकर कामदेव उपस्थित हुए थे और अब पलकों के झुकने-मुंदने से ही नायक के दिल में तीर उतर जाता है। तब घोर कलयुग था, राम! राम! लेकिन अब सतयुग आने लगा था। चलचित्र की यात्रा आगे बढ़ी। तंग सलवार सूट से लेकर जीन्स, स्कर्ट तक जा पहुँची। नायक और नायिकाओं के माध्यम से जनता, धीरे-धीरे कमनीयता से अभ्यस्त होने लगी। अब पाकीजा के राजकुमार की तरह केवल पाँव की एड़ी देखकर ही फिदा होना सम्भव नहीं था। अब तो पूरी खुली टांगे भी कामदेव को आमन्त्रित नहीं कर पाती थी।
राजकपूर जैसे शो मैन ने फिल्मी दुनिया में अपने जलवे बिखेरने प्रारम्भ किए और ‘सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्’ से लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली हो गयी’ जैसी धार्मिक नामों वाली फिल्मों में अप्सराओं को उतारने का प्रयास किया गया। दर्शकों की निगाहें अब आँखों और ऐड़ी से आगे बढ़ीं। अब उनकी आँखें अप्सरा के शरीर के और करीब पहुँच चुकी थीं। नारी को जानने और पाने की ललक के वे बहुत करीब पहुँच गए थे। अर्थात ज्ञान प्राप्ति के काफी नजदीक था आम दर्शक। इन्द्रिय भी वश में होने लगी थी। जहाँ राजेन्द्र कुमार, बुरके से झांकती आँखों से ही घायल हो गए थे और राजकुमार साड़ी से बाहर निकलती पैरों की एड़ियों से ही दिल गँवा चुके थे, वहीं अब टोप लेस, बेक लेस, तक का जमाना आ चुका था और नारी शरीर को देखने की आदत बन चुकी थी। फिर इन्द्रियों को वश में करने का नुस्खा फिल्मों से दूरदर्शन ने भी ले लिया। अब तो घर-घर में विश्वामित्र की तपस्याएँ होने लगी। जब भी कामदेव आते, व्यक्ति दूरदर्शन खोलकर उनका स्वागत करते और धीरे-धीरे उनसे पीछा छुड़ाने में अभ्यस्त होते गए।
फिर आया, रीमिक्स का जमाना। इसी जमाने से हुई सतयुग की शुरुआत। रीमिक्स गानों की अप्सराएँ इस तरह से उछल-कूद करती हैं जैसे रावण के दरबार की राक्षसियाँ। बेचारे व्यक्ति के दिल और दिमाग से अप्सराओं का भूत पूरी तरह से उतर गया और उनकी जगह सूर्पणखा ने ले ली। काफी हद तक जनता का इन्द्रिय वशीकरण यज्ञ सफल हुआ। लेकिन फिर भी यदा-कदा कामदेव का बाण चल ही जाता। अभी हाल ही में सूर्पणखा जैसी अप्सरा ने एक गायक कलाकार का तेज भंग करने का प्रयास किया और वह उसमें सफल भी हुई। जैसे ही गायक पर बाणों की बोछार हुई, साक्षात कामदेव उसके होठों पर आकर बिराजमान हो गए। एक जमाने में लक्ष्मणजी ने सूर्पणखा की ऐसी धृष्टता पर नाक काट दी थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल गयी थी। गायक ने तत्काल बाण का प्रत्युत्तर, और भी तीक्ष्ण बाण से दे दिया था। फिर गायक लक्ष्मण भी नहीं था, वैसे वह भी छोटा भाई ही था लेकिन अब कहाँ हैं, राम और लक्ष्मण की परम्परा? सूर्पणखा को ऐसा प्रत्युत्तर नागवार गुजरा और उसने पुलिस रूपी रावण के दरबार में दस्तक दे दी। रावण बोला कि जब लक्ष्मण तुम्हारे बाणों से विचलित नहीं हुआ था और उसने तुम्हारी नाक काट ली थी, तब तुम आहत हुईं थी, लेकिन आज, जब एक बेचारा प्राणी, तुम्हारे बाणों से घायल होकर, तुम्हें बाहुपाश में जकड़कर तुम्हारा विष पी लेता है, तब तुम क्यों विचलित होती हो? सूर्पणखा बोली कि मुझे इससे आपत्ति नहीं, बस आपत्ति है, तो परम्परा के निर्वहन की। विश्वामित्र ने मेनका से विवाह किया था, तो मेरे भी प्रेम निवेदन पर उसे दयालुता के साथ, विवाह का प्रस्ताव रखना चाहिए था। जिसे में मौल-भाव करते हुए स्वीकार करती, या नहीं भी करती। सार्वजनिक रूप से प्रत्युत्तर देने से हम सूर्पणखाओं की परम्परा पर आघात हुआ है। इस सारे वाद-विवाद के कारण और गायक की दुर्दशा देखकर सारे ही दर्शकों ने सबक लिया। उन्हें फिर ज्ञान प्राप्ति हुई कि सूर्पणखा की बात मानो तब भी खतरा है। मनुष्य अपनी इन्द्रियनिग्रह में एक कदम और आगे बढ़ गया।
आज चल-चित्र ही नहीं दूरदर्शन और आम सड़क पर चलती टापलेस, बेकलेस, मिनी स्कर्ट वाली अप्सराएँ आँखों को अभ्यस्त हो चली हैं। अब वे दिन लद गए जब मेनका ने नृत्य किया और विश्वामित्र की तपस्या भंग हो गयी। यह ही कलयुग कहलाता था। सतयुग में कामदेव कम सक्रिय होते हैं, वे अप्सराओं के नर्तन या अल्प वस्त्रों से डगमगाते नहीं हैं। अब तो लगने लगा है कि कामदेव कहीं चरित्र की भांति कथनीय पुराण ही नहीं रह जाए। आज ऐसी अप्सराओं के कारण या सूर्पणखाओं के कारण व्यक्ति के मन का कामदेव शांत हो चला है, अतः सतयुग का आगमन होने लगा है। अब तो तपस्या के लिए जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं, बस दूरदर्शन खोलकर बैठिए और तपस्या कर लीजिए। प्रात-काल रामदेवजी जैसे प्राणायाम के द्वारा शरीर को शुद्ध करा रहे हैं वैसे ही सायंकालीन सभा में मनुष्यों के मन को शुद्ध किया जा रहा है। धीरे-धीरे मनुष्य का मन दृढ़ होने लगा है, बहुत जल्दी विचलित नहीं होता। ऐसे लगने लगा है कि मनुष्य की स्थिरप्रज्ञता बढ़ी है। हम सब चल-चित्र निर्माताओं और दूरदर्शन के कलाकारों के आभारी हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच समता भाव का निर्माण किया। हम इसलिए भी खुश हैं कि हमारे जीते जी, हम सतयुग देखने की ओर बढ़ रहे हैं। मेरी इस ठोस दलील के बाद तो आप मानेंगे न कि सतयुग आ रहा है। जैसे-जैसे हम प्रकृति के करीब पहुँचेंगे, वैसे-वैसे हम सतयुग के करीब पहुँचते जाएंगे। इसलिए इस सूर्पणखा युग को आप धन्यवाद दीजिए और बढ़ जाइए सतयुग की ओर।
हम गुलेलची - व्यंग्य संग्रह - अजित गुप्ता
40 comments:
नजरिया आपका, सचमुच सतयुग.
अब तो सड़क चलते हुए अप्सराओं के इतने रूप देखने को मिलते हैं कि कामदेव को ही नजरें झुका लेनी होती हैं।
वाह मजा आ गया. बहुत सुन्दर व्यंगात्मक आलेख.
यहाँ कोई राम नहीं मिलता , फिर सीता को क्यों ढूँढा जाए ।
नूतन का ज़माना गया नर्तन का ज़माना आया :)
अब तो कलियुग समाप्तप्राय है, सतयुग आ गया।
डॉ टी एस दराल जी ने सही कहा है जब राम और लक्ष्मण नहीं है तो सीता की उम्मीद क्यों की जाये | वैसे शुक्र है अभी भारत में टॉपलेस होने का काम पुरुष ही कर रहे है महिलाए नहीं | सम्भवतः सतयुग आने पर वो भी शुरू हो जाये |
सही कहा। सतयुग की शुरूआत हो गई है। कलयुग तो वह था जब किसी सुर्पनखा के नाक काट दिए जाते थे और उसके बदले उसका भाई युदध कर देता था अब तो देवर(सलमान खान) अपनी भाभी (मलईका अरोरा खान)के साथ ठुमके लगाता है और भाभी भी खुलकर कहती है कि मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए। सतयुग की शुरूआत ही है और यह शुरूआत एक तरह से बिग बास के घर से हो रही है जहां एमएसएस कांड में बदनाम हो चुके अश्मित पटेल की अश्लील तरीके से मालिश करती हुई एक बाला दिखाई देती है जो पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेटर की प्रेमिका है और (ना)पाक में पहले ही बदनाम हो चुकी है।
सच में यह सतयुग की शुरूआत है। आपके नजरिए को सलाम।
सच में
सतयुग आ ही गया है.:)
सही कहा आपने। सतयुग का आगमन होने लगा है। अब तो तपस्या के लिए जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं, बस दूरदर्शन खोलकर बैठिए और तपस्या कर लीजिए। हम तो अब ऐसे ही कर लेते हैं।
कमाल की सोच के साथ इस नज़रिए को साझा किया आपने..... अब मानने का मन है की सतयुग आ ही गया .....
काम देव भी कही मुह छुपा कर भाग गया हे जी आज कल की अप्सराओ को देख कर, लगता हे अब जल्द ही सतयुग आने वाला हे, ओर फ़िर आप की बात गलत केसे हो सकती हे, बहुत सुंदर लगा आप का यह व्यंग, पेट दुखने लगा इसे पढ कर ओर हंस हंस कर, धन्यवाद
चलचित्र की यात्रा आगे बढ़ी। तंग सलवार सूट से लेकर जीन्स, स्कर्ट तक जा पहुँची।
इसका एक फायदा ये हुआ कि मल्लिका शेरावत अब अपना लहंगा चोली मिक्सी में ही धो लेती है...
जय हिंद...
बहुत सुंदर व्यंग, पेट दुखने लगा हंस हंस कर, धन्यवाद
बहुत सुकून मिला यह जान कर की बस सतयुग आया ही समझो ....बढ़िया व्यंग ...
सूर्पणखा युग से सतयुग की ओर बढ़ने की बातों की व्याख्या करता सुंदर व्यंग्य आलेख| बधाई श्रीमती अजीत गुप्ता जी|
satyug dikhne laga aapke samjhane se ....
बहुत ही सार्थक और सटीक आलेख, हमें तो टी.वी. के सामने बैठकर सुबह, दोपहर और शाम तीनों समय सतयुग का आभास होता रहता है.
पुरानी फ़िल्मों मे हीरोइन को पैंट शर्ट में देखकर ही मेनका जैसा आभास होने लगता था आज मुन्नी बदनाम भी ड्राईंग रूम में ठुमके लगा रही होती है और सारा परिवार बैठा होता है और किसी को कुछ नही होता.
जीते जी सतयुग आगया ये तो.
रामराम.
सतयुग आ गया है...!!!
सुन्दर आलेख!
achchha vyang...... chalo achchha hai ki satyug aane vala hai.
सतयुग आया या नहीं आया...लेकिन बडो की बात छोटों को मान लेनी चाहिए...तो आ ही गया होगा.
सुंदर व्यंग्य.
नये और पुराने का अच्छा सम्मिश्रण
आपका व्यंग्य तो धारदार है
धार जो चुभ रही है
कामदार को
काम को
वैसे एक बात बतलायें हम
सतयुग से पहले आ गया है
बटनयुग
जानने के लिए कीजिए प्रतीक्षा
दिसम्बर के आखिरी महीने में जहां गर्मी रहती है वहां सपरिवार घूमने आना चाहता हूं
बहुत सटीक व्यंग !
सचमुच,आसार यही लग रहे हैं कि सतयुग दरवाज़े पर दस्तक देता खड़ा है .
आप सही कह रही हैं अजित जी , सस्तापन भी कितना है !
दिल खुष हुआ, रुह तर हो गयी ! आप्ने तो गज़ब किया !
आदरणीया बहन अजित गुप्ता जी ! अपने ब्लाग के Stat को चेक कर रहा था कि आपका नाम देखा। क्लिक किया और यहाँ पहुँचा।
समाज का सच
पौराणिक दर्पण
छोटे वाक्य
सुंदर शैली
...एक सम्मोहन सा महसूस हुआ पहली बार ,
किसी ब्लाग लेखक के लिए ये शब्द आज तक मैंने यूज़ नहीं किए हैं ।
आप विलक्षण प्रतिभा की मालिक हैं । आपका साहित्य सार्थक और रचनात्मक है ।
आपकी रचनाएं आपके चेहरे की तरह सुंदर और पुष्ट हैं।
अलमुख़्तसर आपकी जितनी तारीफ़ की जाय , कम है । मैं सच में प्रभावित हुआ ।
अव्वल तो मैं समय की तंगी के मद्दे नज़र ब्लाग्स पढ़ता ही कम हूं और कभी पढ़ता भी हूं तो उनमें मौलिकता और सत्प्रेरणा कम ही दिखाई देती है ।
मेरी तारीफ़ मायने रखती है और इसे तो आपकी शान में मेरी तरफ़ से क़सीदा समझा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी लेकिन यह आपका हक़ है । आपका साहित्य उन साहित्यकारों की रचनाओं के साथ रखा जाना चाहिए जिन्हें समाज के मनोविज्ञान का पारखी माना जाता है ।
अब आया हूं तो आपको अपनी एक रचना भी भेंट कर दूं जो कि 'मेरे गीत' ब्लाग पर मैंने आपको एक टिप्पणी में कल पेश की है।
@ बहन अजीत गुप्ता जी ! आपसे नम्रतापूर्वक असहमति जताते हुए कहना चाहूँगा कि पीड़ा में सुख के मजे लूटने वाले बिरले नहीं हैं । माँ के सुख का तो जनम ही जनम देने की पीड़ा से होता है । देखिए
ज्ञानमधुशाला
कैसे कोई समझाएगा पीड़ा का सुख होता क्या
गर सुख होता पीड़ा में तो खुद वो रोता क्या
इजाज़त हो तेरी तो हम कर सकते हैं बयाँ
दुख की हक़ीक़त भी और सुख होता क्या
ख़ारिज में हवादिस हैं दाख़िल में अहसास फ़क़त
वर्ना दुख होता क्या है और सुख होता क्या
सोच के पैमाने बदल मय बदल मयख़ाना बदल
ज्ञानमधु पी के देख कि सच्चा सुख होता क्या
भुला दे जो ख़ुदी को हुक्म की ख़ातिर
क्या परवाह उसे दर्द की दुख होता क्या
आशिक़ झेलता है दुख वस्ल के शौक़ में
बाद वस्ल के याद किसे कि दुख होता क्या
पीड़ा सहकर बच्चे को जनम देती है माँ
माँ से पूछो पीड़ा का सुख होता क्या
"""""""""
ख़ारिज - बाहर, हवादिस - हादसे, दाख़िल में - अंदर
हुक्म - ईशवाणी, ख़ुदी - ख़ुद का वुजूद, वस्ल- मिलन
¤क्या आपके ब्लाग का लिंक मैं अपने किसी ब्लाग पर दे सकता हूँ ?
आप सभी को मेरे इस व्यंग्य ने गुदगुदाया, सभी का आभार।
very cute.
आपके धारदार व्यंग्य के साथ सतयुग का स्वागत करना अच्छा लगा !
साभार ,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
... ab kyaa kahen ... bahut sundar ... rochak !!!
वाह !
एक साहित्यिक व्यंग लेख पढ़ने को मिला.....
@हम सब चल-चित्र निर्माताओं और दूरदर्शन के कलाकारों के आभारी हैं, जिन्होंने स्त्री-पुरुष के बीच समता भाव का निर्माण किया.
इस समता के भाव को नमस्कार.
एक नयी सोच, एक नया नजरिया...वास्तव में सतयुग आ गया है..
बिना लाऊड हुये सब कुछ कह दिया आपने। जैसे भिगोकर मारे जायें तो आवाज नहीं होती लेकिन असर पूरा।
नजरिया बदलते ही आधा खाली गिलास आधा भरा दिखेगा, सिद्ध कर दिया आपने।
एक क्लासिक व्यंग्य से रूबरू करवाने के लिये आभार।
आपका लेखन सार्थक है.साधुवाद एवं शुभकामनाओं सहित.....
क्या सतयुग आ गया है? शायद ये व्यंग उसी की आहट है। हैरानी हुयी कि मुझे आपके ब्लाग पर आये कई दिन हो गये। क्षमा चाहती हूँ। देखती हूँ पिछली पोस्ट । शुभकामनायें।
bhaI vah ... man gaye aapke vyang ko.
halanki mai bhi ab tak yahi sab manata tha par log meri bat nahi sunte they.. magar aap aapka lekh dekh kar pakka bharosa ho gaya ki ab satayug aane hi vala hai.
व्यंग्य पढ़ कर सुखद अनुभूति हुई। बधाई।
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
बहुत बढ़िया सामयिक व्यंग्य वैसे विषय भयंकर है
आप ठीक तो हैं :-))
हाहा..मजा आ गया...बहुत ही मजेदार और सटीक व्यंग्य
पूरी पुस्तक ही पढने का मन हो रहा है
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