आज किसी भी घर में दस्तक दीजिए, एक साफ-सुथरा सा बैठक खाना एकान्त में उदास सा बैठा हुआ मिलेगा। उसके सोफे को पता नहीं कि उस पर कितने दिन पहले कोई बैठा था और ना ही कालीन को पता होगा कि आखिरी पैर किसके यहाँ पड़े थे। बस नौकर ही रोज झाड़-पोछकर कमरे को बुहार देता है और दो जोड़ी बूढ़ी आँखे अपने साफ-सुथरे से करीने से सजे ड्राइंग रूम को देखकर कभी खुश हो लेते हैं और कभी दुखी।
बरामदे में एक झूला लगा है, कभी-कभी कोई चिड़िया आकर चीं-चीं कर जाती है तब घर की मालकिन बड़े ही अरमानों से घर का दरवाजा खोलकर देख लेती है कि शायद कोई आया हो। बस यही है आज अधिकांश घरों की दास्तान।
एक वृद्ध आदमी से एक दिन किसी ने पूछ लिया कि क्यों मियां घर में सब खैरियत से तो हैं। बस इतना पूछना था कि मियांजी भड़क गए। बोले कि क्या मतलब है तुम्हारा खैरियत से? पोते-पोती वाला आदमी हूँ, भरा-पूरा कुनबा है तो कभी कोई बीमार तो कभी कोई। क्या अकेला हूँ जो खैरियत पूछ रहे हो? परिवार वाला हूँ तो खैरियत कैसी?
परिवार में रहते हुए बच्चों की धमाचौकड़ी से कितना तो गुस्सा आता है लेकिन जब ये नहीं होते तब क्या घर, घर रह जाता है। एक लघुकथा पढिये और अपनी टिप्पणी दीजिए।
घर
कमला ने आज अपनी सहेलियों को चाय पर आमंत्रित किया है। दिन में उसकी सभी अभिन्न सहेलियां समय पर ही घर आयी थीं लेकिन कमला का बैठक-खाना तितर-बितर देखकर उन्हें अजीब सा लगा।
अरे कमला ने अपना घर कैसा फैला रखा हैं? दोनों ही अकेले रहते हैं फिर भी इतना फैलावड़ा? सुमित्रा ने ताना कसा।
हो सकता है कि आज नौकरानी नहीं आयी हो, कुमुद बोली।
अरे क्या हुआ तो? जब हमें बुलाया है तो सफाई भी करनी ही चाहिए थी।
इतने में ही कमला इठलाती हुई, खुश-खुश बैठक-खाने में प्रवेश करती है। सभी उसे प्रश्नभरी निगाहों से देखती हैं।
देखो न बच्चों ने कैसा घर फैला दिया है, आज बहुत दिनों बाद इस घर में बच्चों ने उधम मचाया है। कितना अच्छा लग रहा है न यह घर। नहीं तो यह एक मकान ही बना हुआ था, एक होटल जैसा, सब कुछ सजा हुआ। कमला चहकती हुई बोले जा रही थी।
लघुकथा संग्रह - प्रेम का पाठ - अजित गुप्ता
41 comments:
बच्चों के घर में होने से हलचल होती है, हलचल में कहाँ व्यवस्थित रह सकता है घर? सुन्दर लघुकथा।
आपकी लघुकथा तो बहुत कुछ कह गई!
समय समय की बात है ..कभी किसी कूड़े पर बच्चे इतनी डांट खाते हैं ...कभी इसी कूड़े को हम तरसते हैं.
अपना अपना नज़रिया है……………बहुत सुन्दर लघुकथा।
बहुत अच्छी लघु कथाएं हैं...
बच्चे, घर, कहानी. घर-घर की कहानी, जिंदगी का मेला.
सही कहा है --बच्चे घर की रौनक होते हैं ।
लेकिन बच्चे जब तक छोटे हों , आप घर को साफ़ नहीं रख सकते ।
वंदना जी से सहमत हूँ कि अपना अपना नजरिया है ...
शुभकामनायें
यह तो हमारी सोच पर निर्भर करता है ...बहुत कुछ कह गयी आपकी लघु कथा ..शुक्रिया
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बच्चे ही घर की रौनक हैं। बच्चे ही घर की शान । उठा-पटक वाला बिखरा हुआ घर खुशनसीबों का ही होता है।
आभार इस सुन्दर लघु-कथा के लिए।
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मकान और घर में अंतर स्पष्ट..
परिवार से घर बनता है
सही है... घर घर दिखना चाहिए ना कि होटल:)
aaj ke bahut hi jwalant mudde ko laghukatha ke madhayam se aapne uthhaya hai .laghukatha achchhi bhi lagi v sachchi bhi .
बहुत सुन्दर लघु कथा. आज हर घर की यह कहानी है. अकेले घर में रहना बहत सूना लगता है और बच्चे जब आते हैं तो जिंदगी बिलकुल बदल जाती है .. सारी routine बदल जाती है.लेकिन यह कितने दिन के लिए? आखिर में रहना अकेले अपने संसार में ही .बहुत सुन्दर प्रस्तुति..यही जीवन की वास्तविकता है...बहुत भावुक कर दिया आपने. आभार
घर को घर ही लगना चाहिए ....जब बच्चे नहीं होते घर पर तब आहट को भी तरस जाते हैं ...
अच्छी लघु कथा ...
6/10
अच्छी लगी लघु-कथा.
जब अनकहा समझा जाए, तब ही लघु-कथा का सृजन होता है.
घर की जीवंतता को दर्शाती सुन्दर रचना
बहुत अच्छी लगी लघुकथा। हम तो अपने मकान को घर ही बनी रहते हैं।
घर-घर की कहानी। लगभग बनती जा रही है। कहं-कहीं न चाहते हुए भी कैरियर बच्चों को माता-पिता से जुदा कर रहा है तो कहीं धन का अधिकता के कारण मनमुटाव इतना कि कई भाई मिलकर भी माता-पिता को रख नहीं पाते। ये विंडबना दिल्ली में लगभग हर जगह नजर आती है। पर अब हर शहर में दिखाई देने लगी है।
ये शोर शराबा ही तो मकान को घर बनाता है ...
सच कहूँ तो बहुत ज्यादा करीने से जमा हुआ घर मुझे घुटन देता है चाहे .मैं बच्चों पर लाख चिल्लाती रहूँ कि पूरा घर बिखेर रखा है ...:)
बहुत अपनी सी लघु कथा !
bahut badhiyaa laghukatha
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कभी-कभी मन (बाल-मन) करता है कि आपके ब्लॉग पर खूब ऊधम मचाऊँ. और आपकी डांट भी खाऊँ
लेकिन फिर सोचता हूँ कि डांट में कहीं फटकार न पड़ जाये और आपके फोलोअर पीछे न पड़ जाएँ.
इसलिये "क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात." वाले मौलिक अधिकार को मैंने संशोधित कर दिया है.
"डांट बड़न की चाहिए, चाहे छोटी हो बात."
.......... मुझे बड़ों की डांट में हित की वर्षा का आभास होता है. जब भी आपको मेरे ब्लोगिंग क्रिया-कलाप कुछ अनुचित लगें तो टोक देना.
मुझे आपका अनपेक्षित आशीर्वाद दीप-दिवस को मिला था. मन को 'अधिकारपूर्वक आशी' अत्यंत हर्षाता है.
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प्रतुल जी, मुझे शैतान बच्चे ही पसन्द हैं। लेकिन आप तो यहाँ बिना उधम मचाए ही चले गए। मेरा आशीर्वाद सदा आपके साथ है लेकिन पता नहीं क्यों मैं स्वयं को आशीर्वाद देने लायक नहीं समझ पाती।
mujhe kahin padhi do pangtiyan yaad aa gayeen hain......
"aanchal ki salwaton pe bada naaz hai mujhe,
gar se nikal rahi thi to bachcha lipat gaya."
सच कहा है घर घरवालों से होता है..बच्चों से होता है वर्ना ये तो ईंट-गारे की दीवार के अलावा कुछ नहीं....
http://veenakesur.blogspot.com
घर बच्चों से ही होता है..और बच्चों से घर में अव्यवस्था होगी ही, वर्ना घर और होटल में क्या फर्क रह जाएगा. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...आभार .
... saargarbhit laghukathaa ... behatreen !!!
अजित जी ये आपकी लघु कथा नहीं मेरे घर की कथा है | मै कई माँ पिता को जानती हु जो बच्चो को खिलौने नहीं दिलाते या जन्मदिन पर मिले खिलौने उन्हें नहीं देते है कहते है बच्चे बेकार में सारा दिन उन्हें घर में फैला कर घर गन्दा करेंगे | कोई आ जाये तो शर्म आने लगती है | मुझे समझ नहीं आता की उन्होंने घर अपने और अपने बच्चो के लिए बनाया है या मेहमानों के लिए | ऐसे लोगों के बच्चे होते है जो बड़ा होते ही उनसे दूर भाग जाते है तन से भी और मन से भी |
मृदुला जी,
बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां हैं- घर से निकल रही थी, बच्चा लिपट गया। आभार।
बहुत सटीक लघुकथा इस आयाम को प्रस्तुत करने के लिए..बधाई.
आपकी इस सारगर्भित लघुकथा में बीच की पंक्तियां कुछ इस तरह हों तो लघुकथा का प्रवाह बाधित होने से बच जाता है-
इतने में ही कमला ने खुश-खुश बैठक-खाने में प्रवेश किया। सभी उसे प्रश्नभरी निगाहों से देख रही थीं।
बिलकुल दिल को छू लेने वाली लघु-कथा है ये..वो भी कोई घर है...जहाँ बिखरे खिलौने और किताबें ना हो....जिनके बच्चे बाद एहो जाते हैं...वो उन बिखरे घर को कैसे तरसते हैं..जरा उनसे कोई ये व्यथा पूछ कर देखे..
बड़े हो जाते हैं *
आपके सुन्दर अनुभव लघु-कथाओँ में ढल कर सरस और उपयोगी बन गए हैं .धन्यवाद!
सुन्दर भाव। बिखरे सितारे ब्लॉग की एक मर्मस्पर्शी पोस्ट याद आ गयी:
दादी ने एक एक बड़ी ही र्हिदय स्पर्शी याद सुनाई," जब ये तीनो गए हुए थे,तो एक शाम मै और उसके दादा अपने बरामदे में बैठे हुए थे...एकदम उदास...कहीँ मन नही लगता था..ऐसे में दादा बोले...'अबके जब ये लौटेंगे तो मै बच्ची को मैले पैर लेके चद्दर पे चढ़ने के लिए कभी नही रोकूँगा...ऐसी साफ़ सुथरी चादरें लेके क्या करूँ? उसके मिट्टी से सने पैरों के निशाँ वाली एक चद्दर ही हम रख लेते तो कितना अच्छा होता....' और ये बात कहते,कहते उनकी आँखें भर, भर आती रहीँ..."
सही बात है जब बच्चे अपने अपने ठिकानों पर चले जाते हैं तो घर मे एक सूनापन लगता है मन चाहता है कोई शोर करे कोई उधम मचाये। लेकिन आज की दुनिया मे बहुत सी कमलायें ऐसे ही रह रही हैं। अच्छी लघुकथा के लिये बधाई।
घर और मकान में सही फर्क दर्शाया. देखिये तो घर ( घ + र ) कितना छोटा होते हुए भी खुशियों से भरा होता है और मकान ( म + क + अ + न ) इत्ता बड़ा होते हुए भी खाली ...:)
आजकल लोगो के पास पैसा बहुत आ गया है सो मकान जल्दी बन जाते हैं और घर छूट जाते हैं.
सुंदर लघु कथा.
बहुत अच्छी लघु कथाएं
एक खाली और सजे हुए घर का दर्द या तो वह घर समझता है या फिर उस घर में एकाकी जीवन जीते हुए बुजुर्ग. आज के युग में खाली घरों में बसे दर्द को उभारती हुई कहानी.
मन को छू लेने वाली कथा के लिए बधाई.
एक खाली और सजे हुए घर का दर्द या तो वह घर समझता है या फिर उस घर में एकाकी जीवन जीते हुए बुजुर्ग. आज के युग में खाली घरों में बसे दर्द को उभारती हुई कहानी.
मन को छू लेने वाली कथा के लिए बधाई.
bahoot hi achchhi laghukatha. aakhir ghar to bachchhon se hi pura haota hai.
बहुत अच्छा लग रहा कमरा, एक कुशन हमारी तरफ से भी बिगाड़ दीजिये ;)
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