अभी सुबह ही भोपाल से लौटी हूँ। राष्ट्रीय नारी साहित्यकार सम्मेलन के एक सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में मुझे भागीदारी निभानी थी। सम्मेलन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। इसके समाचार और कभी दूंगी लेकिन आज जिस पोस्ट को लिखने का मन कर रहा है वो कुछ अलग ही बात है। भोपाल से उदयपुर के लिए सीधी रेल नहीं है। रात को 2.30 बजे रेल से चित्तौड़ पहुंची और फिर रात को 4 बजे चित्तौड़ से उदयपुर के लिए रेल मिलती है जो सुबह 6 बजे उदयपुर पहुंचा देती है। इस कारण रात को नींद पूरी नहीं हो पाती। अभी सर बहुत भारी हो रहा है लेकिन मन में एक बात दस्तक दे रही है तो सोचा कि आप सभी से सांझा कर ली जाए। कई बार हम सभी का मन पता नहीं किसी भी बात पर संवेदनशील हो जाता है या छोटी सी बात भी बड़ी बन जाती है। तभी पता लगता है हमें स्वयं के मन का कि यह किन विषयों पर जागरूक हो पाता है।
रात को 2.30 बजे गाडी चित्तौड़ स्टेशन पर पहुंच गयी थी। मैंने कुली से कहा कि वेटिंग रूम में ले चलो, लेकिन उसने बताया कि वेटिंग रूम दूर है और दूसरी गाड़ी यही पर लगेगी। इसलिए आप यही बेंच पर बैठ जाएं तो अच्छा रहेगा। मुझे उसकी बात समझ आ गयी। मौसम भी ठण्डा और सुहावना था तो खुले में बैठने का मन बना लिया। बेंच पर पहले से ही तीन व्यक्ति बैठे थे, वेशभूषा से किसान लग रहे थे। मैं भी उन्हीं के बीच जाकर बैठ गयी। वे लोग भी उसी गाडी से उतरे थे। कुछ ही देर में मेरे पास बैठे व्यक्ति ने पूछा कि भोपाल में मावठे की बरसात हुई क्या?
मैंने कहा कि मैं भोपाल से आ रही हूँ लेकिन वहाँ रहती नहीं, लेकिन सुना था कि अभी चार दिन पहले बरसात हुई है। लेकिन अभी से मावठ कहाँ शुरू हो गया?
किसान ने कहा कि नहीं मावठे की बरसात शुरू हो गयी और कल ही रतलाम में हुई है।
उसके चेहरे पर और आवाज में खुशी छायी हुई थी। मैंने पूछा कि क्या आप किसान हैं? तो उसने कहा कि हाँ।
किसान के मन में आधी रात को भी बरसात की खुशी थी। फसल की चिन्ता किसान के चेहरे पर हमेशा बनी रहती है। बारिश आ गयी तो सबकुछ मिल जाता है और बारिश नहीं आयी तो बेचारगी के सिवाय कुछ नहीं रहता। मैंने उससे पूछा कि उदयपुर कैसे जा रहे हो? तो उसने मेरे पास बैठी युवती की और इशारा किया कि यह मेरी बेटी है इसका दिमाग थोड़ा फिर गया है इसलिए उदयपुर जाकर दिखाना है। युवती विवाहित ही लग रही थी। मैने ज्यादा पूछताछ तो नहीं की लेकिन एक मन में संतोष जरूर हुआ कि एक पिता को अपनी पुत्री की कितनी चिन्ता है जो इतनी दूर उसके ईलाज के लिए आया है। रात भर द्वितीय श्रेणी एसी में भी करवटे ही बदली थी क्योंकि एक घटना बार बार मन को झिझोड़ रही थी। एक सम्भ्रान्त घर की घटना थी, माता-पिता ने अपनी पढ़ी-लिखी गर्भवती पुत्री को यह कहकर घर से निकाल दिया था कि तुम मेरा वंश तो बढ़ाओगी नहीं तो हम तुम्हारी क्यों सेवा करें? इसी गम में वह अपने पुत्र को जीवित नहीं रख पायी थी। उच्च रक्तचाप के कारण गर्भ में ही पुत्र मृत हो गया था। क्योंकि अपने ही माता-पिता का कथन लेकर अकेली ही दर्द को झेल रही थी।
हम पूर्व में कहते थे कि हमारे रिश्तों में दरार आर्थिक विपन्नता के कारण है, यदि हम सम्पन्न हो जाएंगे तो हम रिश्तों की कद्र करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर कहने लगे कि शिक्षा के कारण हममें संवेदनशीलता नहीं है, शिक्षित होते ही हम समझदार हो जाएंगे। लेकिन तब भी हम संवेदनशील नहीं बने। अपितु पैसे और शिक्षा के कारण हम अपनी पुत्री से भी हिसाब करने लगे। रात में न जाने कितने परिवार मेरे आँखों के सामने घूम गए, ऐसे उदाहरण तो हमारे समाज का हिस्सा नहीं थे फिर क्या अब ये दिन भी देखने पड़ेंगे?
एक किसान मावठ की बरसात से खुश है, नवीन फसल की योजना बना रहा है और अपने परिवार के प्रेम को भी निभा रहा है। पूरी रात बिगाड़कर अपनी बेटी की चिकित्सा कराने दूर शहर आता है, शायद डॉक्टर अस्पताल में भर्ती होने को भी कहे तो उसके लिए भी तैयार होकर आया है। और हमारे सम्भ्रान्त परिवार घर में भी पैसे का जोड़-भाग कर रहे हैं। कहाँ जा रहा है हमारा समाज? मेरी इस पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया होगी कि यह कैसी घटना है? लेकिन एकदम सच्ची है, बहुत ही संक्षिप्त बात लिखी है, विस्तार देकर किसी की निजता को नहीं छीनना चाह रही हूँ। लेकिन दुआ कर रही हूँ कि भगवान हम सभी को उस किसान जैसा मन ही दे दे जिससे छोटी-छोटी खुशियों में हम जी सकें और अपने परिवार के कर्तव्यों को पूरा कर सकें।
39 comments:
भगवान हम सभी को उस किसान जैसा मन ही दे दे जिससे छोटी-छोटी खुशियों में हम जी सकें और अपने परिवार के कर्तव्यों को पूरा कर सकें।
बिल्कुल सही कह रही हैं आप .. विकास के इस अंधी दौड में हर रिश्ते की संवेदनशीलता समाप्त हुई है .. जब हम अपनी जिम्मेदारी से ही मुख मोड लें तो ऐसे विकास का क्या फायदा ??
अजित जी सही कहा । शिक्षित होने और संवेदनशील होने में कोई सम्बन्ध नहीं है । आज शिक्षा के साथ हम अपनी संवेदनाएं खोते जा रहे हैं ।
अजित जी दराल जी की बात से सहमत हूं कि संवेदनशील होने और शिक्षित होने के बीच कोई संबंध नजर नहीं आता है। उलटा कई बार ऐसा लगता है कि शिक्षा हमारी संवदेनशीलता को कुंद कर देती है। आपने भोपाल यात्रा के अपने सहज संस्मरण जिस तरह से व्यक्त किए वे बहुत अच्छे लगे।
यह संयोग ही है कि संभवत: आप जिस कार्यक्रम में गईं थीं,उसमें बड़ौदा की कवियत्री क्रांति यवतिकर भी आईं थीं। वे मेरी पत्नी नीमा यानी निर्मला वर्मा की कॉलेज के जमाने की मित्र हैं। वे दोनों एक ही कॉलेज में अध्यापिका थीं। कार्यक्रम के दौरान नीमा क्रांति से मिलने भी गईं थीं।
राजेश जी क्रांति जी से मैं परिचित हूँ, वे कार्यक्रम में आयी थी। उन्होंने एक सत्र का संचालन भी किया था।
सम्भ्रान्त परिवार मेरे देखे वो होता है जिसमें प्रेम और संवेदना है, एक दूसरे के लिये समय है और जिन्दगी में उडती खुशियों की तितलियों को पकडना जानता है। ना कि अपने कर्त्त्वयों से भागना।
प्रणाम
ठीक कहा है अजीत जी!देखा जाये तो शिक्षित हो कहाँ रहे हैं हम ?डिग्री बटोर रहे हैं बस.इससे तो अनपढ ही रहते.
माननीय अजित गुप्ता जी,
विकास की इस अंधी दौड नें हमें स्वार्थी बना दिया है, इसिलिये वे सम्वेदनाएं हमें छू कर निकल लेती है।
आभार,आपने संवेदनाओं पर पुनः चिंतन का अवसर उपलब्ध करवाया।
5.5/10
मौलिक/मननीय/सार्थक पोस्ट
संवेदना का सम्बन्ध अमीरी-गरीबी, शिक्षा-अशिक्षा से नहीं होता. इसका सम्बन्ध हमारे संस्कार से जुड़ा है.
संतान से बड़ा कौन होता है ?
शुभकामनायें !
Bada sadma pahuncha,wo beti ko ghar se nikal dene wali baat se..kitna afsos!Kisaan kee samvedansheelta bahut achhee lagee...kaash! Log in baaton ko samajhe!
शिक्षित परिवार में आज आपसी संवेदना कहाँ रही है. पैसे की भाग दौड में आपसी संबंधों की महत्ता खोती जा रही है.
यह आवश्यक नहीं कि जो शिक्षित है वह संवेदनशील होगा ही, एक अशिक्षित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है।
जेसे जेसे हम शिक्षित होते जा रहे हे वेसे वेसे हमारी संवेदनाये मर रही हेओर हम झूठी शान ओर दिखावे के पीछे भागना शुरु कर देते हे, उस लडकी का किस्सा सुन कर तो हेरान हुं इतने पत्थर दिल भी लोग होते हे, काश हम सब किसान से ही होते.
धन्यवाद इस सुंदर विचार भरी पोस्ट के लिये
मुझे खुशी है कि मैं उसी किसान परिवार से सम्बद्ध हूं।
मुझे खुशी है कि मैं उसी किसान परिवार से सम्बद्ध हूं।
सही कहा है आज शिक्षा के साथ हम अपनी संवेदनाएं खोते जा रहे हैं
दुनिया भरी पड़ी है भाँति-भाँति के लोगों से ..हाँ एक बार से इनकार नही किया जा सकता की पैसे कमाने के बाद ज़्यादातर के विचार में परिवर्तन तो होता ही है..एक बढ़िया और सोचनीय संस्मरण..
सभ्रांत कौन ?
हम शिष्ट है ........ पर
सवेदनशीलता अशिष्टता से आती है.......
“दीपक बाबा की बक बक”
प्यार आजकल........ Love Today.
संवेदनाओं का ना तो शिक्षा से सम्बन्ध है न पैसे से ...अगर गरीब इंसान पैसे लाचार हो कर भी मानवीय संवेदनाएं रखता है तो वो गरीब नहीं , गरीब तो वे है जिनके पास पैसा है लेकिन संवेदनशीलता नहीं !!
ईश्वर इस गरीबी से हमारे समाज को बाचाए...
किसान जिन संघर्षों से अपना जीवन ज्ञापन करता है वह हम सबके लिये एक करारा तमाचा है। गाँव में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधायें होनी चाहिये, अभी तो कुछ भी नहीं है।
किसान जिन संघर्षों से अपना जीवन ज्ञापन करता है वह हम सबके लिये एक करारा तमाचा है। गाँव में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधायें होनी चाहिये, अभी तो कुछ भी नहीं है।
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अफ़सोस होता है यह जानकार जब माँ बाप भी अपनी औलाद के साथ ह्रदय विहीन होकर क्रूरता से पेश आते हैं। इश्वर करे सभी के दिल उस किसान जैसे ही करुणा और प्रेम से ओत-प्रोत हों।
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शायद शिक्षा कभी कभी अहम को हावी कर देती है जिससे संवेदनाएं मर सी जाती हैं , अभाव प्रेम और भावनाओं को जिन्दा रखता है !
ये बात सही है कि किसान के लिए बारिश उसके जीवन का स्पंदन है !
शिखा जी ने सही कहा है। हम अपने बच्चों को वो संस्कार नही दे पा रहे जो इन्सानियत सिखाते है। बहुत सार्थक आलेख है। शुभकामनायें।
@अजित जी,
वो किसान इनसान है...
हम रोबोट हैं...
धड़कने वाले दिल रोबोटों के नहीं सिर्फ इनसानों के पास होते हैं...
जय हिंद...
विचारणीय बात कही है ....सच में आज हम जितना शिक्षा के माध्यम से उन्नति कर रहे हैं उतने ही स्वार्थी होते जा रहे हैं ....
bahot achcha lekh hai.
मेरी यही दुआ है कि आपकी दुआ में असर आ जाए।
bahut achha
savedansheel rachna
badhai sweekaren
@ उस्ताद जी, आप सभी की पोस्ट पर नम्बर देते हैं मुझे बड़ा अच्छा लगता है। बचपन के दिन याद आ जाते हैं। कोशिश करूंगी कि कभी फेल नहीं हो पाऊँ। आभार।
काश कि हमारी शिक्षा हमें सफ़ल इंसान बनने के साथ साथ एक बेहतर इंसान बनने में भी मदद करे ताकि हमारे मन भी उन्हीं गरीब किसानों सा ( संवेदनशील ) हो जाए. हमारे समाज की विसंगतियों और अंतर्विरोधों की संवेदनशील प्रस्तुति. एक सार्थक और सशक्त रचना. आभार.
सादर
डोरोथी.
shayad hamara samaj us hi disha me badh raha hai jahah mata-pita bachchon ko aur santan mata-pita ko vo sneh v samman nahi de pa rahe jiske lie bhartiy sanskriti vishv-prasidh hai.hamare kisanon ko to ''backward ''kahkar unki khili tak udane me aise log peechhe nahi hai par aapsi rishte hi saras n ho to manav kahlane ka adhikar bhi hume nahi hai.
अजीत जी, हमारे देश में सही मायने में शिक्षा शायद ही कहीं है ... जिसे हम शिक्षा कहते हैं वो डिग्री हासिल करने का एक उपाय मात्र है ...
उससे इंसान पढ़ लिख तो जाता है पर शिक्षित नहीं बन पाता है ... यही कारण है कि तथाकथित शिक्षित घरों में भी दकियानुसी और रुढिवादी विचार पनपते हैं ...
अजित जी,
पता नहीं कितने पोस्ट मैने इसी विषय पर लिखे हैं कि पढ़े-लिखे, संपन्न लोग भी कितने असंवेदनशील होते हैं....खासकर विवाहित पुत्रियों के प्रति. वरना दहेज़ की वेदी पर इतनी बलियां होती क्या?
मैं भी बहुत उलझन में रहती हूँ...आखिर ऐसा क्या होगा कि लोगों का प्रेम-भाव बना रहेगा. अपनी बेटियों के प्रति असंवेदनशील नहीं रहेंगे .
बहुत गहरे विचारों से ओतप्रोत पोस्ट , किसान के मन को कौन समझ सकता है , किसान हमेशा विशुद प्रकृति प्रेमी होता है , प्रकृति की जितनी कीमत किसान समझता है , उतनी कोई नहीं ....किसान के जीवन मैं मेहनत और संवेदनशीलता का अद्भुत समन्वय होता है
सुंदर पोस्ट
मेरी यही दुआ है कि आपकी दुआ में असर आ जाए।
kaash aaj ke bhuatikvaad se ghira insaan samvedansheel ho paata!!
Bahut achhi prastuti... aabhar
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