Wednesday, October 27, 2010

किसान को जितनी चिन्‍ता फसल की है उतनी ही अपनी संतान की भी है, कितना संवेदनशील है हमारा किसान लेकिन हम? - अजित गुप्‍ता

अभी सुबह ही भोपाल से लौटी हूँ। राष्‍ट्रीय नारी साहित्‍यकार सम्‍मेलन के एक सत्र में मुख्‍य वक्‍ता के रूप में मुझे भागीदारी निभानी थी। सम्‍मेलन सफलता पूर्वक सम्‍पन्‍न हुआ। इसके समाचार और कभी दूंगी लेकिन आज जिस पोस्‍ट को लिखने का मन कर रहा है वो कुछ अलग ही बात है। भोपाल से उदयपुर के लिए सीधी रेल नहीं है। रात को 2.30 बजे  रेल से चित्तौड़ पहुंची और फिर रात को 4 बजे चित्तौड़ से उदयपुर के लिए रेल मिलती है जो सुबह 6 बजे उदयपुर पहुंचा देती है। इस कारण रात को नींद पूरी नहीं हो पाती। अभी सर बहुत भारी हो रहा है लेकिन मन में एक बात दस्‍तक दे रही है तो सोचा कि आप सभी से सांझा कर ली जाए। कई बार हम सभी का मन पता नहीं किसी भी बात पर संवेदनशील हो जाता है या छोटी सी बात भी बड़ी बन जाती है। तभी पता लगता है हमें स्‍वयं के मन का कि यह किन विषयों पर जागरूक हो पाता है।
रात को 2.30 बजे गाडी चित्तौड़ स्‍टेशन पर पहुंच गयी थी। मैंने कुली से कहा कि वेटिंग रूम में ले चलो, लेकिन उसने बताया कि वेटिंग रूम दूर है और दूसरी गाड़ी यही पर लगेगी। इसलिए आप यही बेंच पर बैठ जाएं तो अच्‍छा रहेगा। मुझे उसकी बात समझ आ गयी। मौसम भी ठण्‍डा और सुहावना था तो खुले में बैठने का मन बना लिया। बेंच पर पहले से ही तीन व्‍यक्ति बैठे थे, वेशभूषा से किसान लग रहे थे। मैं भी उन्‍हीं के बीच जाकर बैठ गयी। वे लोग भी उसी गाडी से उतरे थे। कुछ ही देर में मेरे पास बैठे व्‍यक्ति ने पूछा कि भोपाल में मावठे की बरसात हुई क्‍या?
मैंने कहा कि मैं भोपाल से आ रही हूँ  लेकिन वहाँ रहती नहीं, लेकिन सुना था कि अभी चार दिन पहले बरसात हुई है। लेकिन अभी से मावठ कहाँ शुरू हो गया?
किसान ने कहा कि नहीं मावठे की बरसात शुरू हो गयी और कल ही रतलाम में हुई है।
उसके चेहरे पर और आवाज में खुशी छायी हुई थी। मैंने पूछा कि क्‍या आप किसान हैं? तो उसने कहा कि हाँ।
किसान के मन में आधी रात को भी बरसात की खुशी थी। फसल की चिन्‍ता किसान के चेहरे पर हमेशा बनी रहती है। बारिश आ गयी तो सबकुछ मिल जाता है और बारिश नहीं आयी तो बेचारगी के सिवाय कुछ नहीं रहता। मैंने उससे पूछा कि उदयपुर कैसे जा रहे हो? तो उसने मेरे पास बैठी युवती की और इशारा किया कि यह मेरी बेटी है इसका दिमाग थोड़ा फिर गया है इसलिए उदयपुर जाकर दिखाना है। युवती विवाहित ही लग रही थी। मैने ज्‍यादा पूछताछ तो नहीं की लेकिन एक मन में संतोष जरूर हुआ कि एक पिता को अपनी पुत्री की कितनी चिन्‍ता है जो इतनी दूर उसके ईलाज के लिए आया है। रात भर द्वितीय श्रेणी एसी में भी करवटे ही बदली थी क्‍योंकि एक घटना बार बार मन को झिझोड़ रही थी। एक सम्‍भ्रान्‍त घर की घटना थी, माता-पिता ने अपनी पढ़ी-लिखी गर्भवती पुत्री को यह कहकर घर से निकाल दिया था कि तुम मेरा वंश तो बढ़ाओगी नहीं तो हम तुम्‍हारी क्‍यों सेवा करें? इसी गम में वह अपने पुत्र को जीवित नहीं रख पायी थी। उच्‍च रक्‍तचाप के कारण गर्भ में ही पुत्र मृत हो गया था। क्‍योंकि अपने ही माता-पिता का कथन लेकर अकेली ही दर्द को झेल रही थी।
हम पूर्व में कहते थे कि हमारे रिश्‍तों में दरार आर्थिक विपन्‍नता के कारण है, यदि हम सम्‍पन्‍न हो जाएंगे तो हम रिश्‍तों की कद्र करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर कहने लगे कि शिक्षा के कारण हममें संवेदनशीलता नहीं है, शिक्षित होते ही हम समझदार हो जाएंगे। लेकिन तब भी हम संवेदनशील नहीं बने। अपितु पैसे और शिक्षा के कारण हम अपनी पुत्री से भी हिसाब करने लगे। रात में न जाने कितने परिवार मेरे आँखों के सामने घूम गए, ऐसे उदाहरण तो हमारे समाज का हिस्‍सा नहीं थे फिर क्‍या अब ये दिन भी देखने पड़ेंगे?
एक किसान मावठ की बरसात से खुश है, नवीन फसल की योजना बना रहा है और अपने परिवार के प्रेम को भी निभा रहा है। पूरी रात बिगाड़कर अपनी बेटी की चिकित्‍सा कराने दूर शहर आता है, शायद डॉक्‍टर अस्‍पताल में भर्ती होने को भी कहे तो उसके लिए भी तैयार होकर आया है। और हमारे सम्‍भ्रान्‍त परिवार घर में भी पैसे का जोड़-भाग कर रहे हैं। कहाँ जा रहा है हमारा समाज? मेरी इस पोस्‍ट पर आपकी प्रतिक्रिया होगी कि यह कैसी घटना है? लेकिन एकदम सच्‍ची है, बहुत ही संक्षिप्‍त बात लिखी है, विस्‍तार देकर किसी की निजता को नहीं छीनना चाह रही हूँ। लेकिन दुआ कर रही हूँ कि भगवान हम सभी को उस किसान जैसा मन ही दे दे जिससे छोटी-छोटी खुशियों में हम जी सकें और अपने परिवार के कर्तव्‍यों को पूरा कर सकें। 

Sunday, October 17, 2010

ब्‍लागिंग में आना और कार्यशाला में पहचाना एक-दूसरे को – अजित गुप्‍ता

एक दूसरे को समझने की ललक मनुष्‍य में हमेशा ही रहती है, बल्कि कभी-कभी तो अन्‍दर तक झांकने की चाहत जन्‍म ले लेती है। लेखन ऐसा क्षेत्र है जहाँ हम लेखक के विचारों से आत्‍मसात होते हैं तो यह लालसा भी जन्‍म लेने लगती है कि इसका व्‍यक्तित्‍व कैसा होगा? आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व नेट पर हिन्‍दी कविता संग्रह नामक एक समूह से परिचय आया, लेकिन ज्‍यादा लम्‍बा साथ नहीं रह पाया। इसके बाद हिन्‍दी भारत समूह के साथ कविता वाचक्‍नवी जी से परिचय हुआ, मात्र परिचय ही। ब्‍लाग के बारे में मेरी तब तक कोई विशेष जानकारी नहीं थी। आज से लगभग 3 वर्ष पूर्व मेरे पास एक फोन आया, नम्‍बर अमेरिका का था और अपरिचित था। सामने से एक मधुर आवाज सुनायी दी और उन्‍होंने कहा कि आपका मधुमती में सम्‍पादकीय पढ़ा और मैं आपकी हो गयी। सामने फोन पर मृदुल कीर्ति जी थी। उसके बाद उनसे बात का सिलसिला चल पड़ा और उन्‍होंने हिन्‍दयुग्‍म के पोडकास्‍ट कवि सम्‍मेलन के बारे में बताया। पोडकास्‍ट सुनते हुए एक दिन अकस्‍मात ही एक बटन दब गया और सामने था कि अपना ब्‍लाग बनाएं। जैसे-जैसे निर्देश थे मैं करती चले गयी और एक ब्‍लाग तैयार था। लेकिन पोस्‍ट कैसे लिखते हैं और कैसे लोग इसे पढ़ते हैं, कुछ पता नहीं था। कविता जी से बात हुई, उन्‍होंने बताया कि इसे चिठ्ठा जगत और चिठ्ठा चर्चा के साथ इस प्रकार जोड़ लें। मैंने उनके निर्देशानुसार अपना ब्‍लाग जोड़ लिया। जोड़ते ही टिप्‍पणियां आ गयी और हम हो गए एकदम खुश। धीरे-धीरे पोस्‍ट लिखने का और टिप्‍पणी करने का सिलसिला आगे बढ़ा। लेकिन किसी को भी प्रत्‍यक्ष रूप से नहीं जानने का मलाल मन में रहता था। कविता जी से कई बार फोन पर बात भी हुई और उनके बारे में जिज्ञासा ने जन्‍म भी लिया।
अचानक ही वर्धा में ब्‍लागिंग की कार्यशाला में जाने का अवसर मिल गया और तब लगा कि चलो कुछ लोगों से परिचय होगा। सिद्धार्थ जी से भी हिन्‍दी भारत समूह के कारण परिचय हुआ था। वे भी बड़े अधिकारी हैं इतना ही मुझे पता था। जब तय हो गया कि वर्धा जाना ही है तो एक दिन सिद्धार्थ जी से पूछ लिया कि कौन-कौन आ रहे हैं? मुझे तब तक मालूम हो चुका था कि इन दिनों कविता जी भारत में हैं। तो मेरी उत्‍सुकता उनके बारे में ही अधिक थी। सिद्धार्थ जी से पूछा तो उन्‍होंने कहा कि वे तो एक सप्‍ताह पहले ही आ जाएंगी। साथ में उन्‍होंने बताया कि श्री ॠषभ देव जी भी आएंगे। ॠषभ जी को मैं ब्‍लाग पर पढ़ती रही हूँ और उनके लेखन की गम्‍भीरता से भी वाकिफ हूँ। एक और नाम बताया गया वो नाम था अनिता कुमार जी का। यह नाम मेरे लिए अपरिचित था तो मैं तत्‍काल ही उनके ब्‍लाग पर गयी तो वहाँ कुछ भजन लगे हुए थे। एक छवि बन गयी।
अब हम वर्धा में फादर कामिल बुल्‍के छात्रावास के सामने थे और हमारे सामने थे सिद्धार्थ जी। सिद्धार्थ जी को एक सलाह कि वे अपने ब्‍लाग पर तुरन्‍त ही अपना फोटो बदलें। इतने सुदर्शन व्‍यक्तित्‍व के धनी का ऐसा फोटो? किस से खिचवा लिया जी? हम चाहे कैसे भी हो, लेकिन फोटो तो अच्‍छा ही लगाते हैं। लेकिन अभी तो कई आश्‍चर्य हमारे सामने आने शेष थे। सामने से जय कुमार जी आ गए, वही जी ओनेस्‍टी वाले। सारी कार्यशाला में इतना बतियाते रहे कि लगा कि कोई शैतान बच्‍चा कक्षा में आ गया है। भाई हमने तो आपकी और ही छवि बना रखी थी। दिमाग पर इतनी जल्‍दी-जल्‍दी झटके लग रहे थे कि सामने ही अनिता कुमार जी दिखायी दे गयी। बोली कि मैं अनिता कुमार। अब बताओ क्‍या व्‍यक्तित्‍व है, एकदम धांसू सा और ब्‍लाग पर लगा रही हैं भजन? हमारे दिमाग की तो ऐसी तैसी हो गयी ना।
लेकिन हमें तो मिलने की उत्‍सुकता थी सर्वाधिक कविता जी से, तो सामने ही कुर्सी पर बैठी थी, हमने झट से उन्‍हें पहचान लिया। भाई उनके बालो का एक स्‍टाइल जो है। बहुत ही आत्‍मीयता से मिलन हुआ और खुशी जब ज्‍यादा हो गयी तब मालूम हुआ कि हम एक ही कक्ष में रहने वाले हैं। कविता जी पूरे समय जिस तरह चहचहाती रहीं उससे लग ही नहीं रहा था कि मेरे कल्‍पना की कविता जी हैं। मेरा संकोच एकदम से फुर्र हो गया। कुछ देर बाद ॠषभ देव जी से भी सामना हो गया और मैंने अपना आगे बढ़कर परिचय कराया तो वे बड़ी सहजता से बोले कि मैं तो आपको जानता हूँ। दो दिन तक कई बार उनके साथ बैठना हुआ और लगा कि ब्‍लाग से निकलकर कोई दूसरा ही व्‍यक्तित्‍व सामने आ गया है। या उस परिसर का ही ऐसा कमाल होगा कि सभी लोग अपनी गम्‍भीरता को बिसरा चुके थे। बहुत ही आत्‍मीयता और बहुत ही सहजता।
अब बात सुनिए सुरेश चिपनूलकर जी की, अरे क्‍या छवि बना रखी है? खैर अब शायद उन्‍होंने ब्‍लाग की फोटो तो बदली कर दी है, ऐसा कहीं पढ़ा था। मजेदार बात तो यह है कि वे स्‍वयं फोटोग्राफर है और ऐसी फोटो? उन्‍हें शायद पहले देख लिया होता तो उनके गम्‍भीर आलेखों पर इतनी गम्‍भीरता से विश्‍वास ही नहीं किया होता। कहने का तात्‍पर्य है कि एकदम युवा, सुदर्शन और हँसते रहना वाला व्‍यक्तित्‍व। बात चली है तो अनूप शुक्‍ल जी की हो ही जाए। मेरा उनसे परिचय नहीं था, लेकिन वहाँ देखकर मुझे वे एक जिन्‍दादिल इंसान लगे। प्रवीण पण्‍ड्या जी के लिए बताया गया कि वे कल आएंगे। खैर वे आए और फिर दिमाग की बत्ती लप-झप करने लगी। इतने युवा? लेकिन कठिनाई यह है कि उनका लेखन इतना परिपक्‍व है कि उन्‍हें तुम से सम्‍बोधित करने का साहस नहीं हो रहा।
मुझे लगता था कि ब्‍लाग जगत में युवा कम हैं लेकिन यह क्‍या? यहाँ तो जिसे देखो वो ही युवा है, ऐसा लगा कि मैं ही सबसे अधिक बुजुर्ग हूँ। एक और दिलचस्‍प व्‍यक्तित्‍व यशवन्‍त। रात को आलोक धन्‍वा जी कहीं घूमकर आए थे उनके साथ यशवन्‍त भी थे। आलोक जी बड़े प्‍यार से कहने लगे कि तुम कुछ खाना खा लो। यशवन्‍त बोले कि नहीं मुझे नहीं खाना। स्‍नेहिल पिता की तरह ही वे फिर बोले कि अरे तुमने कुछ नहीं खाया है, जाकर कुछ तो ले लो। लेकिन यह क्‍या, यशवन्‍त जी उठे और सीधे ही आलोक जी के चरणों में ढोक लगा दी, कि मुझे नहीं खाना। कुछ देर बाद ही यशवन्‍त गाने के मूड में थे और अपनी धुन में राग छेड़ रहे थे। मुझे लगा कि इस नवयुवक के अन्‍दर जितना तेज है उसे अभी मार्ग नहीं मिल रहा है उद्घाटित करने का। निश्चित रूप से यह एक क्रान्ति लाएगा। फिर भी मुझे मलाल रहा कि मैं काश उसे और समझ पाती।
इसी कड़ी में एक और नाम है संजय बेंगाणी जी का। वे बोले कि मेरा बेटा मुझसे लम्‍बा निकल चुका है। भाई क्‍या बात है? इतनी सी उम्र अभी लग रही है और ये तो इतने बड़े बेटे की भी बात कर रहे हैं? ऐसे ही युवा हस्‍ताक्षरों में विवेक सिंह, हर्षवर्द्धन जी और गायत्री थे। बस थोड़ा-थोड़ा ही परिचय आया। संजीत त्रिपाठी और डॉ. महेश सिन्‍हा जी तो स्‍टेशन से ही साथ थे तो पहला परिचय उन्‍हीं से आया। अविनाश वाचस्‍पति जी रविन्‍द्र प्रभात जी अपने काम की धुन वाले व्‍यक्ति लगे। और हाँ जाकिर अली रजनीश और शैलेष भारतवासी की बात को कैसे भूल सकती हूँ, जाकिर अली जी के ब्‍लाग को तो मैं साँप की छवि से ही जानती थी और शैलेष तो हिन्‍दयुग्‍म के कारण पूर्व परिचित थे। दोनों ही एकदम शान्‍त स्‍वभाव के लग रहे थे, लेकिन जो शान्‍त दिखते हैं उनमें उर्जा बहुत होती है। प्रियंकर पालीवाल जी और अशोक मिश्र जी से पहला परिचय था तो अभी उनके बारे में लिखने में असमर्थ हूँ। अब बात करें रचना त्रिपाठी की। मैं तो एक ही बात कहूंगी कि ऐसी पत्‍नी सभी को मिल जाए तो इस देश में न जाने कितने सिद्धार्थ सिद्ध हो जाएं। समय बहुत कम था, इसलिए अभी जानना और समझना बहुत शेष है। यह तो आगाज भर था, लेकिन अब ब्‍लाग पढ़ते समय अलग ही भाव आने लगे हैं। इसलिए जितने भी सक्रिय ब्‍लागर हैं उनसे और मिल लें तब देखिए ब्‍लागिंग का आनन्‍द और ही कुछ होगा। मैंने आप सबके बारे में जाना हो सकता है कि मेरे बारे में भी कोई राय बनी होगी? तो सुनो साथियों, राय कैसी भी बना लेना बस स्‍नेह बनाए रखना। हम इस ब्‍लाग जगत में नए विचारों से अवगत होने आए हैं तो आप लोगों से मिलकर अच्‍छा लग रहा है और नवीन विचार भी जान रहे हैं। 

Thursday, October 14, 2010

ब्‍लोगिंग की कार्यशाला – अभी छाछ को बिलौना बाकी है – अजित गुप्‍ता

वर्धा का नाम आते ही महात्‍मा गाँधी और विनोबा भावे का स्‍मरण होने लगता है। यह पावन भूमि दोनों ही महापुरुषों की कर्मभूमि रही है। इसी कारण महात्‍मा गाँधी अन्‍तरराष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय वर्धा में ब्‍लोगिंग पर कार्यशाला का निमंत्रण एक सुखद बात थी। साहित्‍य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्‍मेलन, सेमिनार और कार्यशालाएं नित्‍य प्रति होती हैं लेकिन ब्‍लागिंग के क्षेत्र में विधिवत कार्यशालाओं का प्रारम्‍भ करने का श्रेय श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को जाता है। अभी हम जैसे कई लोग जो ब्‍लागिंग के क्षेत्र से नए जुड़े हैं, समझ नहीं पाए हैं, ब्‍लागिंग और ब्‍लागर की मानसिकता। कभी एक परिवार सा लगने लगता है तो कभी एकदम ही आभासी दुनिया मात्र। मेरे जैसा व्‍यक्ति जो नदी में डूबकर नहीं चलता बल्कि किनारे ही अपनी धुन में चलता है, के लिए एक नवीन अनुभव था।
वर्धा पहुंचने पर त्रिपाठी जी ने विश्‍वविद्यालय के बारे में बताया कि यह लगभग 300 एकड़ क्षेत्रफल में विस्‍तार लिए है और इसकी खूबसूरती इसकी पांच पहाडियों में हैं। वर्धा बेहद खूबसूरत और सादगी भरा शहर लगा। गाँधी जी की कुटिया देखना ऐसा अनुभव था जैसे हम भी उस ऐतिहासिक युग का हिस्‍सा बन गए हों। मैं जब रेल से वर्धा जा रही थी तो बजाज कम्‍पनी का एक पूर्व अधिकारी मेरे साथ ही यात्रा कर रहे थे, उन्‍होंने मुझे बताया कि किस प्रकार बजाज परिवार आज भी वर्ष में एक बार वर्धा जाते हैं और उसी सादगी के साथ रहते हुए सारी योजनाओं पर विचार होता है। विनोबा जी की पावन स्‍थली जो पवनार नदी के किनारे बसी है, एक अभूतपूर्व आनन्‍द देती है। हमने इन दोनों महापुरुषों को नहीं देखा लेकिन वहाँ जाने पर इतिहास को अपने साथ खड़े हुए पाया। मुझे वर्धा में सबसे अधिक खुशी तब हुई जब मैंने गाँधीजी के निजि सचिव महादेव भाई के नाम पर बना एक भवन देखा। गाँधीजी के बारे में पढ़ते हुए महादेव भाई सर्वाधिक प्रभावित करते रहे हैं,  लेकिन देश उनके कृतित्‍व का स्‍मरण नहीं करता। यहाँ आने पर उन्‍हें नमन करने का मन हो आया।
जैसा मैंने लिखा है कि ब्‍लागिंग का क्षेत्र अभी नवीन है और इसकी नब्‍ज कहाँ से संचालित है इसका किसी को इल्‍म नहीं है, ना ही यह समझ है कि आखिर हम लिख क्‍या रहे हैं? सब बस अपनी समझ और अपनी धुन में लिखे जा रहे हैं। यहाँ बात आचार-संहिता की करनी थी, लेकिन सभी ने किसी भी व्‍यावहारिक या सैद्धान्तिक प्रतिबन्‍धों को नकार दिया। लेकिन हमारे नकारने से तो दुनिया चलती नहीं कि हमने कह दिया कि बिल्‍ली मुझे नहीं देख रही और हम कबूतर की तरह आँख बन्‍द कर बैठ जाएंगे। बिल्‍ली तो आ चुकी है, सायबर कानून भी बन चुके हैं और हम मनमानी के दौर से कहीं दूर जिम्‍मेदारी के दौर तक आ प‍हुंचे हैं। वो बात अलग है कि हमें अभी पता ही नहीं कि कानून का शिकंजा हम पर कस चुका है। बस अभी सुविधा यह है कि हमारी पुलिस इस कानून के बारे में ज्‍यादा कुछ जानती नहीं। श्री पवन दुग्‍गल जी ने सायबर कानूनों के बारे में बताया तो पुलिस की कार्यवाही के बारे में कुछ मजेदार तथ्‍य भी बताए। यहाँ तो घटनाओं का उल्‍लेख कर रही हूँ जो दुग्‍गल जी ने बतायी थी -
1-  अश्‍लीलता को परोस रही एक दुकान पर छापा मारा गया और वहाँ से 17 कम्‍प्‍यूटर बरामद किए गए। पुलिस वाले इसे अपनी बहुत बड़ी जीत मान रहे थे। लेकिन उन्‍हें धक्‍का जब लगा कि न्‍यायालय ने जब उनसे कम्‍प्‍यूटर मांगा। असल में वे सब मोनीटर उठा लाए थे और सीपीयू वहीं छोड़ आए थे।
2- इसी प्रकार एक जगह से पुलिस ने कुछ सीडी बरामद की। अब देखिए हमारी पुलिस। उन्‍होंने बड़े प्रेम से छेद करके उन सीडियों को फाइल कर दिया।
हमारी पुलिस अभी अज्ञानी है लेकिन कुछ ही दिनों में उसे भी कम्‍प्‍यूटर का ज्ञान हो जाएगा तब इस ब्‍लाग जगत पर प्रसारित अश्‍लीलता को कानून से नहीं बंचा पाएंगे।
कार्यशाला पर कई दृष्टिकोणों से लिखा गया, इसलिए उन सारी बातों को दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। मुझे दुख रहा कि मैं समापन सत्र में वहाँ उपस्थित नहीं रह पायी। मुझे नागपुर में एक अन्‍य कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी थी। लेकिन फिर भी वहाँ आए सभी लोगों को जानने और समझने का अवसर मिला। ब्‍लागिंग का मिजाज क्‍या है, कुछ-कुछ समझ भी पायी। यहाँ कुछ लोगों के लिए अवश्‍य लिखने का मन हो रहा है, लेकिन पोस्‍ट लम्‍बी ना हो जाए उसका डर है। लेकिन अभी तो पहली बार मिले हैं, इस सफर में न जाने कितनी बार आमने-सामने होंगे तब शायद हम जैसे अपनी धुन में चलने वाले लोग भी यहाँ के रंग-ढंगों से परिचित हो जाएं।
अन्‍त में धन्‍यवाद देना चाहती हूँ त्रिपाठी जी का, जिनके सौहार्द के कारण मेरी नवीन पुस्‍तक प्रेम का पाठ लघु कथा संग्रह का वहाँ विमोचन हो सका। जिन लोगों ने मुझे प्रभावित किया मैं उनके बारे में एक अलग पोस्‍ट लिखने का प्रयास करूंगी क्‍योंकि वह एक अलग अनुभव है। बस अन्‍त में यही कहना चाहूंगी कि ऐसे आयोजन प्रारम्‍भ हैं हमें भी अपने स्‍तर पर अकादमियों, विश्‍वविद्यालयों आदि के संसाधनों के माध्‍यम से इस पहल को निरन्‍तर रखना चाहिए जिससे हमारा लेखन सार्थक दिशा में कदम रख सके। साहित्यिक संस्‍थाओं के समान ही ब्‍लागिंग की संस्‍थाएं बनाकर इन आयोजनों को करने की पहल करनी चाहिए। अभी छाछ को बिलौना बाकी है, बस बिलोते रहिए, मक्‍खन निकल आएगा और तब छाछ भी अमृतमयी बन जाएगी और मक्‍खन भी। आपने यहाँ तक पढ़ लिया, आपका आभार।   

Friday, October 1, 2010

गाँव में भी अभिजात्‍य बनने का शौक और खुलना प्राइवेट स्‍कूल का




आप सभी ने ग्रामीण परिसर के विद्यालय देखे होंगे। सरकारी विद्यालय - खेलने को बड़ा सा मैदान, बड़ी सारी बिल्डिंग और ढेर सारे अध्‍यापकगण। सारे ही अध्‍यापक शिक्षित व निपुण। बिना भेदभाव के ग्रामीण अंचल के सभी बच्‍चे वहाँ पढ़ने आते हुए। शहरों में भी ऐसे ही विद्यालय हैं। शहरों में पहले मिशनरीज ने और फिर अन्‍य व्‍यवसायियों ने प्राइवेट स्‍कूल खोलने शुरू किए। स्‍वयं को अभिजात्‍य वर्ग का बताने के लिए हम सभी ने अपने बच्‍चों को इन स्‍कूलों में पढ़ाया। शायद ये स्‍कूल शहर की जरूरतें भी पूरा कर रहे हों, क्‍योंकि हमारी जनसंख्‍या को देखते हुए सरकारी स्‍कूल आज भी पर्याप्‍त नहीं है। आप सोचिए कि अभी तक भारत में 55 प्रतिशत लोग ही शिक्षित हैं तथा इनके लिए भी सरकारी और गैर सरकारी प्रयास पूरे नहीं है तो जब 100 प्रतिशत शिक्षा हो जाएगी तब कितने विद्यालयों की आवश्‍यकता रहेगी? इसलिए शहरी क्षेत्र में ये गैर सरकारी विद्यालय यदि शिक्षा प्रदान भी कर रहे हैं तो हमारे समाज में अभिजात्‍य और गरीबी की इतनी बड़ी खाई नहीं खिंच पाती है क्‍योंकि यहाँ पहले से ही ऐसी खाइयां हैं। लेकिन अभी तक ग्रामीण अंचल में ऐसी खाइयां बहुत ही कम है। बस कहीं-कहीं दलित समाज की उपेक्षा अवश्‍य होती है।
मेरा इस आलेख के माध्‍यम से यह कहना है कि गैर सरकारी विद्यालय या प्राइवेट स्‍कूल आज अभिजात्‍य वर्ग की पहचान बनते जा रहे हैं। यह पहचान शहरी सीमा तक तो समझ आती है लेकिन यह पहचान या यह खाई गाँव में भी बन जाए तो प्रश्‍न शोचनीय है। कल मुझे एक गाँव में जाना था, एक कार्यक्रम के निमित्त चार विद्यालयों में। मैं यह भी बता दूं कि कुछ लेखकीय शौक से ज्‍यादा मुझे सामाजिक कार्यों में रुचि है और समाज और देश की उन्‍नति के लिए बीस वर्षों से कार्य भी कर रही हूँ। इसके लिए अपनी नौकरी को भी छोड़ा है। बस एक ही इच्‍छा है कि कैसे भी अपना देश संस्‍कारित और उन्‍नत बने। खैर मैं विद्यालयों के बारे में लिख रही थी तो उनमें से तीन सरकारी थे और एक गैर सरकारी। सरकारी तीनों ही विद्यालय साधन सम्‍पन्‍न थे जैसा मैंने ऊपर की पंक्तियों में लिखा है लेकिन प्राइवेट स्‍कूल एक पुराने मकान में ही संचालित था। व़हाँ बेहतर सुविधा देता हुआ प्राइवेट स्‍कूल नहीं था। तब क्‍यों वहाँ प्राइवेट स्‍कूल सफल हो रहा है? मुझे लगता है कि यह अभिजात्‍य की बीमारी हमारे ग्रामीण अंचल तक भी जा पहुंची है और एक ही परिवार और मोहल्‍ले के बच्‍चे अभिजात्‍य की सोच में बंट गए हैं। परिणामत: अभिभावको पर अतिरिक्‍त आर्थिक बोझ। यह मानसिकता कहीं न कहीं हीन भावना और उच्‍च भावना को जन्‍म देती है और हम बच्‍चे का विकास समुचित प्रकार से नहीं कर पाते।
मुझे अपना बचपन ध्‍यान आता है जब हम सब सरकारी विद्यालयों में पढ़ते थे और कभी भी हीन भावना क्‍या होती है दिमाग में आती ही नहीं थी। सारा समाज ही एक था लेकिन जैसे-जैसे प्राइवेट स्‍कूल खुलते गए वैसे-वैसे समाज बँटता चला गया। अब यह प्रक्रिया ग्रामीण अंचलों तक भी जा पहुंची है तो मन में प्रश्‍न जरूर खड़े होते हैं कि यह ठीक है या गलत? शिक्षा प्रणाली को लेकर बहुत सारे मतभेद हैं लेकिन मुझे लगता है कि अभी ग्रामीण अंचलों में अभिजात्‍य मानसिकता का निर्माण होना ठीक नहीं है। हो सकता है कि आपके विचार मुझ से पृथक हों लेकिन मैं सभी के विचारों का स्‍वागत करती हूँ। बस सीधा सा प्रश्‍न यही है कि क्‍या भारत के गाँवों में प्राइवेट स्‍कूल खुलने चाहिए या नहीं? बस एक निवेदन और है कि प्रश्‍न को गाँवों की जाति व्‍यवस्‍था या भारत की दयनीय स्थिति से मत जोडि़एगा। नहीं तो वही होगा कि आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। मेरा और आपका उद्देश्‍य भारत का निर्माण है, इसलिए आपकी राय मेरे लिए मायने रखती है।