Wednesday, June 30, 2010

अब मैं वापस भारत जा रही हूँ जहाँ मेरा एक नाम और एक परिचय है

America  में रहते हुए दो माह बीत चले हैं और अब दो दिन बाद वापसी है। मन बहुत चंचल हो रहा है, अपने देश की जमीन को छूने के लिए। उस हवा को अपने अन्दर भर लेने को, जिस हवा से मेरा निर्माण हुआ था। आपका जन्मनस्थ‍ल क्यों आपको पुकारता है? जब भारत में थी तब भी अपने जन्मस्थल की स्मृति खुशबू के झोंके के समान लगती थी और आज जब अमेरिका में हूँ तो अपने देश के प्रति ऐसा ही लगाव अनुभव कर रही हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ छूट गया था। क्या छूट गया था? यहाँ क्या नहीं है? बच्चे तो यहीं हैं। फिर किसे ढूंढ रहा है मन? अभी दो दिन पहले एक और माँ से मिलना हुआ। थोड़ी देर की बातचीत के बाद उन्हों ने मेरा नाम पूछा, मैं क्षण भर के लिए अचकचा गयी। मेरा नाम? लेकिन दूसरे ही पल याद आ गया मुझे मेरा नाम। और फिर जब उन्होंने मुझे मेरे नाम से बुलाया तो भारत याद आ गया, जहाँ मेरा अपना एक नाम था, लोग मुझे भी इसी नाम से पुकारते थे। मेरा एक परिचय था, उस परिचय के सहारे काफी कुछ बाते भी की जा सकती थी। लेकिन यहाँ का परिचय बस केवल माँ। कोई पूछता है कि आपका मन लग रहा है, कोई कहता है कि मन्दिर वगैरह चले जाया करिए। मतलब अब आप समाज के‍ लिए उपयोगी नहीं रह गए हैं, अपना मन लगाने के लिए मन्दिर का सहारा लीजिए। यहाँ आकर आपकी उपयोगिता समाप्त। इसलिए भारत याद आ रहा है, क्योंकि वहाँ अभी तक आप उपयोगी हैं। समाज को आपकी आवश्यकता है। सुनीताजी ने मेरा नाम क्या पुकारा, मेरा वजूद ही मेरे सामने आ खड़ा हुआ और मैं उस दिन काफी चहकती रही। हाँ आप बिल्कुल सही समझे हैं कि जिन्होंने मेरा नाम पूछा था वो सुनीता जी ही थी और एक विदुषी महिला भी । मैं इतना खो गयी थी कि मैंने तत्काल उनका नाम भी नहीं पूछा, शायद मैं उन्हें इस अहसास की खुशी जल्दी नहीं दे पायी थी। जब दूसरे दिन हम साथ में घूमने गए तब कहीं जाकर मैंने उनका नाम पूछा और तब मालूम पड़ा था कि हम हम-उम्र भी हैं।

एक बार महफूज की एक पोस्ट आयी थी नाम के बारे में। कुछ लोग लिख रहे थे कि नाम में क्या रखा है? लेकिन यहाँ रहते हुए आप जान पाएंगे कि नाम में क्या रखा है? जब आपका नाम खो जाए तब पता लगेगा कि नाम में क्या रखा है? आज मन कर रहा है कि अपनी किताब पर छपे अपने नाम को अपने हाथों से सँवार लूं। यही है जिसने मुझे सुखी किया है, इसी ने मुझे एक पहचान दी है। माँ होना भी बहुत बड़ी शान है लेकिन माँ का अर्थ क्या है? जिसके पास एक आँचल हो, जिस आँचल में बैठकर बच्चे सुख पाते हों। जिस गोद में बैठकर बच्चे उठने का नाम नहीं लेते हों, बस तभी तक है इस माँ नाम के मायने। लेकिन यहाँ मुझे इस नाम की गरिमा कम ही दिखायी दी। यहाँ तो ऐसा लगता है कि जब किसी का परिचय माँ कहकर कराया जाता है तब समझो कि वह अब फालतू हो गया है। उसका साथ में कोई परिचय नहीं है। पता नहीं मेरी इस बात से कितने लोग सहमत होंगे या नहीं, मैं नहीं जानती। लेकिन मुझे जैसा लगा वैसा ही लिखा है। इसलिए अब भारत की याद आ रही है, जहाँ मेरा एक परिचय था, जहाँ के जीवन को आज भी मेरी जरूरत है। इसलिए इस स्वर्ग जैसी धरती को छोड़ते हुए मुझे दुख नहीं हो रहा है अपितु मन उछल रहा है। अब अगली पोस्ट मेरी भारत से ही आएगी। मैं 4 july को भारत पहुंच जाऊँगी और तब लिखूंगी नयी पोस्ट।

Thursday, June 24, 2010

क्या आपका बच्चा potty trained है?

अमेरिका में रहते हुए एक दिन library जाना हो गया। पुस्तकों की एक रेक में दो तीन पुस्तकें बच्चों की पोटी ट्रेनिंग पर ही थी। बड़ा अजीब सा लगा कि इस विषय पर भी पुस्तक लिखी जा सकती है क्या? अभी प्रपोत्र 3 वर्ष का हुआ है तो उसके लिए स्कूल तलाश रहे थे, तब यह प्रश्न मोटे-मोटे अक्षरों में लिखित में पूछा गया था कि क्या आपका बच्चा potty trained है? क्या किसी भारतीय ने इस प्रश्न का सामना किया है? आप स्कूल में अपने बच्चे को भर्ती कराने गए हो और वहाँ यह पूछा गया हो कि क्या आपका बच्चा पोटी ट्रेन्ड है? हमारे जमाने में तो डिस्पोजल डायपर का भी चलन नहीं हुआ था। बस ऐसे diaper आ गए थे जिससे आप सुरक्षित रह सकते है। हम उन्हीं का प्रयोग करते थे लेकिन वे भी जब, जब कहीं बाहर जाना हो। मैं नौकरी करती थी और सुबह 8 बजे ही नौकरी पर जाना होता था। इससे पूर्व बच्चों के सारे ही नित्यकर्मो को निपटाना भी होता था। जब तक बच्चे छोटे थे तब तक सुबह उठते ही उन्हें पोटी करा दी जाती थी और जैसे ही छ:- सात महिने के होने लगे उनके लिए एक छोटी पोटी ले आए थे। क्यों कि पहले अधिकतर भारतीय प्रकार के ही शौचालय हुआ करते थे। बच्चे बहुत ही शीघ्र पोटी जाना सीख गए थे। सब कुछ खेल ही खेल में हो गया था। किसी किताब की तो कभी कल्पना ही नहीं थी कि इसके लिए भी किताब पढ़नी पड़ेगी? लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है, बच्चों की पोटी माता-पिता का सरदर्द बनी हुई है। पैदा होने के साथ ही बच्चा डायपर का आदी होता है, अजी बच्चा क्या माता-पिता। बच्चें ने पोटी की है और कितने देर पहले की है, इसकी चिन्ता ही नहीं होती बस दो-चार घण्टे बाद ही डायपर अक्सर बदला जाता है। माता-पिता को भी सरलता लगती है कि कुछ नहीं करना पड़ता। बच्चा बड़ा होता रहता है और डायपर नहीं छूटता। आखिर तीन साल बाद स्कूल जाने का नम्बर आ जाता है तब लगता है कि स्कूल में क्या करेगा? फिर किताब पढ़-पढ़कर सीखा जाता है या फिर स्कूर वाले के ही माथे डाल दिया जाता है कि भाई तू ही सिखा दे। ज्यादा पैसे ही तो लेगा ले लेना। हमने तो बिगाड़ दिया अब तू सुधार ले। घर-घर की यह समस्या को कौन हल करे? या तो बेचारा लेखक किताब लिखे या फिर टीचर शिक्षित करे। इस समस्या के लिए दोषी कौन? बच्चा कई घण्टों तक मैल का बोझ लादे घूमता रहता है, उसके लिए किसे दोष दें? कहाँ जाती है स्वच्छ‍ता की बात? आप कहेंगे कि बेचारे माता-पिता के पास समय ही नहीं कि वे आदत सिखाए। सच है कि उन्हें अपने ऐशोआराम से फुर्सत ही नहीं। फिर परिवार भी नहीं, कि कोई नानी या दादी, बुआ या मौसी ही देख ले बच्चों को। लेकिन इसके परे मुझे लगता है कि आदत नहीं डालने का भी फैशन है, यदि बच्चा सुधरा हुआ है तो कोई अच्छी बात नहीं लगती, यहाँ के भारतीयों को। सारे ही बच्चे एक जैसी आदतों से ग्रसित दिखायी देते हैं। डायपर के रहते अब तो यहाँ की देसी माँ यह भी नहीं कह सकेंगी कि बेटा मैंने तुझे सूखे में सुलाया था और मैं गीले में सोयी थी। वैसे बच्चों को अपने पास सुलाने का भी रिवाज ही नहीं है, शायद मोह नहीं पड़ना चाहिए। कुछ लोग इसे अनुशासन कहेंगे लेकिन भाई हम भारतीयों को तो यह अनुशासन से अधिक निर्ममता दिखायी देती है। या फिर केवल अपना ही युवावस्था का मौज-शौक। क्योंकि अनुशासन का क ख ग भी ज्ञात नहीं होता यहाँ के अधिकांश देसी बच्चों को। लेकिन यह बात अभी नहीं, अभी तो केवल पोटी ट्रेनिंग की ही बात पर कायम रहते हैं। हमारे यहाँ आदतों के लिए कहा गया है कि बच्चे को अभिमन्यु् की तरह माँ की कोख से ही संस्कारित करना प्रारम्भ करो लेकिन यहाँ तो पाँच-पाँच साल के बच्चें भी पोटी ट्रेन्ड नहीं हैं। एक मूलभूत शिक्षा जो जन्म के साथ ही देना शुरू हो जाती है यदि हम शिक्षित होकर भी इसे नहीं दे पाते हैं तो बाकि संस्कांरों की तो बात ही क्या करें?

Saturday, June 19, 2010

मन बेचारा छिप गया है, शरीर तो रोमांच के चाबुकों से हरकत में रहता है

अमेरिका में पिछले डेढ़ महिने से हूँ, इसके पहले भी आना हुआ था। यहाँ आने पर न जाने क्यों मुझे तन और मन में संघर्ष सा दिखायी देता है। हो सकता है कि मेरा सोच ही सही नहीं हो, या मेरा नजरियां ही आत्मकेन्द्रित हो। इसलिए ही यह पोस्ट लिख रही हूँ कि मैं समझ सकूं कि अधिकांश लोग कैसे सोचते हैं? अभी कुछ दिन पूर्व las vegas और disney land जाना हुआ था, सारा दिन तरह-तरह की राइड्स की सैर करने में ही निकल जाता था। खौफनाक, हैरतअंगेज करने वाली राइड्स। बचपन में जब झूले में बैठते थे तब रोमांच होता था, जैसे ही नीचे उतरे समाप्तर। फिर रोमांच पाने के लिए लाइन में लग जाते थे लेकिन झूले से उतरते ही रोमांच समाप्त। ऐसा ही रोमांच यहाँ मिलता है। शारीरिक रोमांच। लेकिन आज जब वहाँ के बारे मे लिखने बैठी हूँ तो शरीर का रोमांच कहीं नहीं है और मन को टटोलने का प्रयास कर रही हूँ कि उसमें कोई रोमांच है क्या? मन तो प्यासा ही बना रहा। आखिर इस मन की प्यास कैसे बुझती है? मैं फोन उठा लेती हूँ और कभी भारत में और कभी यहीं अमेरिका में बाते कर लेती हूँ, तृप्ति सी मिल जाती है। समीरजी ने किस अपनत्व से बात की थी, अदाजी की हँसी कितने अन्दर तक उतर गयी, लावण्या जी का मधुर व्यवहार दिल को छू गया, अनुराग जी से बात करके कुछ स्वयं को जान लिया, राम त्यागी जी से बात करके लगा कि कैसे परदेस में सब अपने से लगते हैं। निर्मलाजी से तो साक्षात दो-तीन बार मिलना ही हो गया। सभी की बातचीत मन में जैसे चिपक सी जाती है और मेरी झोली भर जाती है। मुझे न जाने कितने व्यक्तित्‍व दिखाई देने लगते हैं? कुछ क्षणों की बातचीत से लगने लगता है कि हम इन सबको जानते हैं। इनका मन हमारे सामने आ खड़ा होता है एक खुली किताब की तरह। मैं अपनी समानताएं ढूंढ लेती हूँ और फिर मित्रता का सूत्रपात हो जाता है।

लेकिन हैरतअंगेज, रोमांचकारी स्थानों को देखने के बाद मन का कोई कोना क्यों नहीं भरता? यदि ये सारे ही रोमांचकारी स्थान किसी इतिहास से जोड़ दिए जाए तो क्या यादें अमिट नहीं हो जाएंगी? तभी तो महलों की अपनी कोई कहानी होती है और उसी के सहारे वे महल हमारे दिमाग में बस जाते हैं। इसलिए मुझे यहाँ तन और मन में संघर्ष दिखायी देता है। हमारी युवापीढी ने शायद तन को इतना केन्द्रित कर लिया है कि वे केवल रोमांच से ही उसे चाबुक लगाते रहते हैं और अपने मन को पीछे धकेलते रहते हैं। कहते तो यही है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और उसका मन तो सामाजिक बातचीत में ही आनन्द पाता है। लेकिन जब व्यक्ति समाज से विरक्त हो जाए और उसकी बातचीत का केन्द्र केवल ये रोमांचकारी वस्तुएं ही हों तब? मैं एक फोन से अपने मित्रों का व्यक्तित्व समझ पाती हूँ लेकिन साथ रह रहे अपने बच्चों के मन को नहीं पढ़ पाती। क्यों कि उनकी बातों के केन्द्र में बस यही सब कुछ है। जब इस पीढ़ी के चार लोग एकत्र होते हैं तो वे नौकरी, कार या घूमने की बात से आगे ही नहीं बढ़ते। कुछ देर तो मैं साथ रहती हूँ फिर अपना कहीं और मुकाम ढूंढने चल पड़ती हूँ। भारत में तो मैं देखती थी कि कम से कम युवापीढ़ी लड़के या लड़कियों की ही बाते करके अपने मन को खुश कर लेते थे लेकिन यहाँ तो ये बाते भी नहीं होती। बस एक यांत्रिकता सी लगती है, कमाओ और खर्चा करो।

यहाँ भारत से आए आध्यात्मिक गुरुओं की भी बहुतायत है, सभी के आश्रम भी बने हुए हैं। आप कहेंगे कि फिर ये सब कैसे चल रहे हैं? ये सब इसीलिए चल रहे हैं शायद। जब तक शरीर रोमांच के चाबुक से चलता है तब तक ही चलता है लेकिन एक दिन मन धक्का देकर बाहर निकल ही आता है। फिर प्यास जगती है स्वेयं से बाते करने की, अपनी मन की इच्छांओं को जानने की। आसपास तो कोई नहीं तो फिर गुरुओं की शरण में आकर ही सामाजिक चिंतन होने लगता है और मन को कहीं चैन मिलने लगता है। भारत में भी इसलिए ही गुरुओं और शिष्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। मन की बात कब करें, किस से करें? वहाँ मौंज-शौक नहीं है लेकिन जीवन की आपाधापी है। सुबह चार बजे से ही घोडा जीन कसकर तैयार हुआ शरीर रात ग्या्रह बारह बजे तक भी कसा ही रहता है। इसी कारण एक उम्र आते-आते गुरुओं की शरण। लेकिन वहाँ व्यक्ति मन को समय देता ही है, उसकी बाते आज भी बचपन, परिवार, समाज केन्द्रित होती ही हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में लिखा है कि ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है आपके विचार कुछ भिन्न हो लेकिन मैं यहाँ सभी के विचारों का स्वागत करूंगी क्योंकि मुझे दुनिया को समझने की इच्छा है ना कि अपनी सोच को दुनिया पर थोपने की।

Tuesday, June 15, 2010

America के Varsona park में मनायी birthday और देखा duck festival


कल मेरे बेटे के मित्र ( voltak) के पुत्र का जन्मदिन था। इमेल से निमंत्रण मिला कि जन्मदिन पर आना है। सेनोजे (san jose) से आधा घण्टे की दूरी पर वर्सोना पार्क है, जहाँ एक झील है और बच्चों के खेलने के लिए बहुत सारे उपकरण भी। रविवार होने के कारण यहाँ मेला लगा हुआ था। पार्किंग मिलेगी या नहीं इसकी चिन्ता थी लेकिन पार्किंग का गेट खुला था और हमने 6 डॉलर पेमेन्‍ट करने के साथ ही पूछ भी लिया कि भाई पार्किंग नहीं मिलेगी तब क्या करेंगे? छिपा हुआ भाव था कि पैसे वापस मिलेंगे या नहीं? लेकिन गेटकीपर ने कहा कि यदि पार्किंग उपलब्ध नहीं होती तो हम गेट ही बन्द कर देते। चलिए हम पार्किंग-लोट की ओर बढ़ने लगे तभी एक व्यक्ति ने इशारा करके बताया कि मैं अपनी गाड़ी हटा रहा हूँ तो हम खुश हुए कि इतनी जल्दी पार्किंग मिल गयी। तभी वहाँ पुलिस वर्दी में खड़ी महिला दिखायी दी और बेटे ने बताया कि यह पास की जगह पार्किंग के लिए नहीं है और यहाँ जो गाडी खड़ी है उस पर आज 80 डॉलर की पेनेल्टी लग जाएगी।

चलिए हम तो बर्थडे सेलेब्रेट करने आए थे और कहाँ पार्किंग की रामायण में उलझ गए। कई बार फोन करने के बाद और कई देर तक भटकने के बाद बेटे का मित्र मिला। मित्र पोलेण्ड का है और उसके दो बच्चे हैं एक तीन साल का जिसकी बर्थ डे थी और दूसरा पाँच साल का। पत्नी से अलगाव हो चुका है और बच्चे नैनी के सहारे पल रहे हैं तो उस बेचारे का सारा पैसा ही नैनी में खर्च हो जाता है। लेकिन आज उसकी एक्स वाइफ भी आयी थी। वहाँ पार्क में कुछ बेंचों का सेट रखा हुआ था जिन्हें लोगों ने समय पर आकर रोक लिया था। आज गर्मी भी बहुत थी और बस धूप से बचाव का एकमात्र सहारा कहीं कहीं लगे हुए पेड़ ही थे। वाल्टेहक अपने साथ खाने को स्ट्राबेरी, चेरीज, तरबूज, ब्रेड, ज्यूस आदि लेकर आया था। साथ में एक ऑवन भी था। मुझे पता था कि खाने में ये ही सब होगा तो मैं घर से खाना खाकर निकली थी।

पार्क में झील से एक नहर भी निकाली गयी थी जो नदी के स्वरूप की थी। आपने हरिद्वार में दीप विसर्जन तो अवश्यक ही देखा होगा। कि कैसे शाम के समय हजारों लोग गंगा के किनारे खड़े हो जाते हैं और दीप विसर्जन करते हैं। कल्पना कीजिए कि इसे व्यावसायिक बना दिया जाए कि सारे ही दीपक एक जगह से बेचे जाएंगे और उनका विसर्जन एक साथ होगा और जो भी दीपक अपने गंतव्य तक पहले पहुंचेगा उसे भारी भरकम इनाम दिया जाएगा और यह चैरिटी का पैसा किसी अच्छे काम में लगाया जाएगा। खैर यह अलग विषय है, तो हरकी पेडी की तरह ही वहाँ का नजारा था, नहर के किनारे सैकड़ों लोग आ डटे थे और वे इंतजार कर रहे थे बतखों का। यहाँ दीपक की जगह छोटी-छोटी बतखे प्लास्टिक की बनी हुई थी उन पर नम्बर लगे थे। एक बतख की कीमत 5 डॉलर थी और उन्हें एक साथ ही नहर में छोड़ दिया गया। गंतव्य स्थल तक जो duck पहले पहुंचेगी उसे ढाई हजार डॉलर का इनाम था, दूसरा इनाम कुछ कम था और ऐसे कुल दस इनाम थे। मेरे सामने ही एक लड़की खड़ी थी जिसने सर पर ताज पहन रखा था। मुझे लगा कि कोई मिस अमेरिका जैसी शख्सियत तो नहीं है लेकिन वह एक लड़के के साथ खड़ी थी तो सोचा कि यदि कोई हस्ती होती तो भीड़-भाड़ होती। बाद में घर पर आकर कम्‍प्‍यूटर  पर देखने पर मालूम पड़ा कि वह मिस सांता क्लारा ( Santa clara – city) थी और आज की मुख्यिअतिथि। उसके साथ में एक फुटबाल प्लेयर था। हमारे यहाँ तो ऐसे नहीं होता किसी सेलेब्रिटी के साथ, हम तो उसे घेरकर रखते हैं।

अरे मैं फिर डक फेस्टिवल में उलझ गयी। इतना होने के बाद बर्थडे भी सेलिब्रेट कर ही लें। हम कुछ मिलाकर 10 से 15 लोग थे। पीटर के हाथ में एक छोटा सा केक था, उसमें तीन मोमबत्तियां लगी थी। उसकी पूर्व पत्नी ने बच्चे को गोद में उठा रखा था और बस बिना शोर-शराबे के केक कट गया और बच्चे ने दोनों हाथों में केक लेकर खाना शुरू कर दिया। फोटो पर निगाह दौड़ा लीजिए और देख लीजिए बर्थ डे ब्वाय की ड्रेस। फिर याद कीजिए हमारे यहाँ की तड़क-भड़क। मजेदार बात तो यह है कि अमेरिका में बसे हुए लोग भी जब भारत आकर बच्चे की बर्थडे मनाते हैं तब ऐसा दिखाते हैं जैसे पता नहीं कितनी भव्यता से अमेरिका में बर्थडे मनती हो। घरवालों के प्रति एक असंतुष्टि का सा व्यवहार बना रहता है जिससे अन्य किशोर वय के बच्चे समझते हैं कि इन देसी दादा-दादी के कारण आज पता नहीं हमें किन-किन चीजों से वंचित होना पड़ा और वे लालायित हो जाते है अपना जीवन अमेरिका में बसाने को। पोस्टी बड़ी होने के डर से बहुत छोटे में ही अपनी बात लिख रही हूँ।

Thursday, June 10, 2010

बताओ भारतीयों ( Indians) तुम्हारे पास क्या है? मेरे पास ----- है।

अमेरिका में प्रत्येक भारतीय की जुबान पर एक ही बात रहती है कि भारत में क्या है? यहाँ कितना चुस्त प्रशासन है, पुलिस कितनी रौबदार है, सड़कों का जाल बिछा है, साफ-सफाई इतनी कि चेहरे पर कभी गर्द जमे ही नहीं। भारत नहीं बोलकर हमेशा कहेंगे इण्डिया में क्या है? भ्रष्टाचार, खूनखराबा, गन्दगी, भीड़भाड़ आदि आदि। कभी लगता है कि स्वर्ग और नरक की जब कल्पना की होगी तो जितने भी अच्छे गुण एक देश में होने चाहिए वे सब गुण स्‍वर्ग के हिस्से आ गए होंगे और आगे जाकर अमेरिका में तब्दील हो गए होंगे। और जब नरक की बात आयी तब सारे ही अवगुण भारत के हिस्से आ गए। इसलिए हम दो शब्दों में ही अमेरिका और भारत की व्यावख्या कर लेते हैं। स्वर्ग याने अमेरिका और नरक याने इण्डिया।


जब मेरे पास भी बारबार इसी भाव के प्रश्‍न आते हैं तो मुझे दीवार वाला डायलाग बरबस याद आ जाता है। जब अमिताभ बच्चन शशी कपूर से पूछता है कि बताओ तुम्हारे पास क्या है? मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, धन-दौलत सब कुछ है। तब शशी कपूर धीरे से कहता है कि मेरे पास माँ है। लेकिन मैं कभी यह नहीं कहती कि मेरे पास भारत माता है या वो जीती जागती माँ है जिन्हें तुम भारत में छोड़ आए हो, अपने हिस्से का नरक भुगतने को। भारत की माँ अपने देश को नरक नहीं कहती और ना ही मानती है लेकिन जो तुम उसे नारकीय यातना देकर गए हो वो वही भुगतने को अभिशप्त है। इसलिए माँ की बात करना तो अब बेमानी सा हो गया है। मुझे एक लघुकथा और याद आ रही है जब एक डाकू लाचार और बीमार बनकर एक साधु से उसके घोड़े पर बैठकर जाने की मांग करता है और वह साधु उस डाकू को बीमार समझकर घोड़े पर बैठा लेता है तो वह डाकू साधु को धक्का मारकर घोड़ा ले जाता है। उस पर साधु डाकू से कहता है कि इस घटना का जिक्र कही मत करना, वरना लोग लाचार और बीमार आदमी पर विश्वास करना छोड़ देंगे। तो ऐसे ही आज की माँ भी कभी शिकायत नहीं करती, वह कहती है कि यदि हमने शिकायत की तो आगे जाकर कोई भी स्त्री माँ बनना पसन्द नहीं करेंगी।

खैर बात थी उत्तर की। मैं जवाब ढूंढती हुई घूम रही थी और जवाब नहीं मिलता तो आसमान पर निगाहे चले जाती हैं कि हे भगवान तू ही कुछ सहायता कर। जब ऊपर की ओर देखा तो पेड़ दिखायी दिए। आदत के अनुसार आँखे ढूंढने लगी अपना नीम का पेड़, पीपल का पेड़, अमलताश और सेमल का पेड़। लेकिन कहीं भी अपने औषधीय गुणों वाले वृक्ष दिखायी नहीं दिए। बरसों पहले की जिज्ञासा आज सामने आ खड़ी हुई कि ये अमेरिका वाले भारत के नीम और हल्दी के पीछे क्यों पड़े हैं। उनके पास भी तो होंगे, फिर हमारा नीम ही क्यों पेटेंट कराना है? क्या धरती के सारे ही नीम इन्हें चाहिए। लगा था कि सामन्तशाही मानसिकता में यही होता है कि सब कुछ हमारे पास ही होना चाहिए। लेकिन यह पता नहीं था कि उनके पास है ही नहीं तो हमारा देखकर हमसे छीनना चाह रहे हैं। तो आज मेरे पास इस प्रश्‍न का उत्तर है कि बोलो भारतीयों तुम्हारे पास क्या है? हमारे पास वैभव है, भौतिक संसाधन हैं, स्वच्छता है, तकनीक है और तुम्हारे पास? तब मेरे जैसा कोई भारतीय धीरे से कहता है कि मेरे पास नीम है। मेरे पास सारी प्राकृतिक वनौषधियां हैं।

Friday, June 4, 2010

लॉस वेगास Las Vegas में प्ले - पाप की नगरी में कला और तकनीक का अद्भुत संगम



हम अपनी सीट पर बैठ चुके थे, एकदम पहली कतार में। लेकिन बैठने के बाद लगा कि सिनेमा हॉल की तरह यहाँ सामने एक ऊँची सी दीवार है और मंच कहीं दिखायी नहीं दे रहा था। दीवार के सामने से रह-रहकर आवाज के साथ आग के गोले निकल रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे जंगल में बम फूट रहे हों। हॉल में चारों तरफ राकेट के आकार की लम्बीह बिल्डिंग बनी हुई थीं। समझ नहीं आ रहा था कि रंगमंचीय शो है तो मंच कहाँ है? उन राकेटनुमा बिल्डिंगों में से कोई ना कोई मनुष्याककृति निकलकर आ रही थी तो हमें लगा कि बेकार ही हमने पहली कतार में सीट ली और इतने पैसे दिए। हमें तो यह प्लेी गर्दन घुमा-घुमाकर ही देखना पड़ेगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं किस प्ले की बात कर रही हूँ? अजी हम अभी अमेरिका में हैं और वहाँ लॉस वेगास देखने गए थे। एक बड़े से होटल में बेटे ने कमरा आरक्षित कराया था नाम था एमजीएम होटल। उसी होटल में प्रतिदिन प्ले होता है तो बेटे का आग्रह था कि आपको अवश्य देखना चाहिए। टिकट के लिए लाइन में लगे तो मालूम पड़ा कि टिकट समाप्तत है बस ओने कोने में दो सीट मिल सकती हैं। अब दो जने प्ले देखने वाले हों तो अलग-अलग बैठकर तो प्ले नहीं देखा जा सकता है ना? लेकिन बेटे ने धैर्य नहीं खोया, उसने कमरे में आकर फिर टिकटों की जानकारी ली तो मालूम पड़ा कि पहली रो में ही दो सीटे हैं लेकिन पहली रो? अरे बाप रे वो तो बजट बिगाड़ देगी। 170 डॉलर की एक टिकट। तभी फोन के दूसरी तरफ से राहत की घोषणा हुई कि इसी होटल में ठहरे हुए यात्रियों के लिए 60 प्रतिशत की कटौती है तो एक टिकट हो गयी लगभग 100 डॉलर की। लेकिन जब हॉल में मंच ही नदारद था तो 100 डॉलर का औचित्य समझ नहीं आ रहा था।

हमने विचार किया कि इस बम के गोलों को देखा जाए कि ये कहाँ से आ रहे हैं? अभी हमने विचार ही किया था कि मूर्त रूप और किसी ने दे दिया। लेकिन वह सफल नहीं हो सका। वहाँ सर्कस की तरह दो-तीन जोकरनुमा आदमी घूम रह थे और उन्होंसने उसे वापस बैठा दिया। अब तो केवल शो शुरू होने का ही इंतजार था। इतने में ही कुछ और व्‍यक्ति चारों तरफ से कूदकर आने लगे तब तो पक्का यकीन हो गया कि यह प्ले तो दर्शकों के बीच ही खेला जाएगा। लेकिन कुछ पलों के बाद ही बम वर्षा बन्दा हो गयी और वहाँ से एक स्टेतज निकल आयी। राजा-रानी का दरबार सजा था, नृत्ये हो रहे थे। एक बात तो आम है कि राजा का दरबार सजा हो तो नृत्य तो अनिवार्य है। तभी लगता है कि हर आदमी राजा क्यों बनना चाहता है? खैर छोड़िए इस रामायण को, प्ले पर ही आती हूँ नहीं तो पोस्ट बेहद लम्बी हो जाएगी। नाच-गाना हो गया और अभी राजा प्रसन्नब होकर ईनाम वगैरह देने की सोच ही रहा होगा कि एकदम से जलजला आ गया। हॉल के चारो ओर बनी बिल्ड़िंगों से तीरों की बरसात होने लगी और सभी जगह आदिवासी लोग दिखायी देने लगे। तीर राजा और रानी को भी लगे और वे वहीं धराशाही हो गए। सभी तरफ भगदड़ मच गयी तभी स्टेज गायब हुई और एक नाव पानी में डोलती हुई दिखायी दी। समुद्री डाकुओं ने राजकुमार-राजकुमारी को उठा लिया।

पूरा प्ले तो नहीं बता रही, यदि अभी बता दिया तो आप क्या देखेंगे? बस इतना कहना चाहती हूँ कि वह स्टेलज कभी समुद्र का किनारा बन जाती, कभी नाव, कभी जंगल तो कभी कुछ और। आधुनिक तकनीक का मंचीय प्रदर्शन में इतना सुन्दिर प्रयोग कभी कल्पाना में भी नहीं देखा था। अब समझ आ रहा था आगे की प्रथम रो का कमाल। पूरे दो घण्टे के लाइव शो में पलक झपकने की भी फुर्सत नहीं मिली। कब कहाँ से तीर चल जाते और कब कहाँ से तलवार। सभी कुछ अपने आसपास हो रहा था। अन्ती में राजकुमार और राजकुमारी का प्रेम आदिवासी कबिले के राजकुमार और राजकुमारी से हो जाता है और सुखद अन्तज हो जाता है। पूरे प्ले में डॉयलाग नहीं थे। बस साउण्ड इफेक्ट था। इस प्ले का नाम था “का”। वेगास का यह प्रसिद्ध शो है और कई वर्षों से इसके अनवरत दो शो प्रतिदिन होते हैं। रंगमंचीय प्ले तो आपने बहुत देखे होंगे लेकिन तकनीक का ऐसा प्रयोग यहाँ पर ही देखा जा सकता है। आपके लिए मैं फोटो नहीं लगा सकती क्योंेकि शो में केमरा नहीं ले जा सकते थे। बस लॉस वेगास का टि्रप बनाइए और देखिए इस अद्भुत नजारे को। वैसे यह सिन-सिटी अर्थात पाप की नगरी कहलाती है लेकिन इस नगरी में भी कला की तो इस रूप में पूजा हो ही रही है। भई हमें तो बस यह प्ले ही रोमांचित कर गया और बाकि किसी पाप को हाथ भी नहीं लगाया। समझ गए ना आप, अर्थात बिल्कुल पवित्र ही बनकर रहे। आज यही तक, कल और कुछ।

Thursday, June 3, 2010

चेरी पीकिंग – cherry picking अमेरिका में चेरियों के खेत में चेरियां तोड़ों और जी भरकर खाओ


चेरियां आप सभी ने खायी होगी। लेकिन लाल सुर्ख दिल के आकार की बड़ी-बड़ी चेरी, भारत में हम जैसे राजस्थाभनियों को बहुत कम देखने को मिलती हैं। भारत में या तो शादी के शाही भोज के पुलाव में दिखायी दे जाती है या फिर कभी-कभार दिल्लीो जैसे शहर में। वो भी इतनी छोटी की लगता है बेर खा रहे हैं। 2007 में विश्वभ हिन्दील सम्मे लन में भाग लेने न्यूगयार्क आना हुआ था। भोजन व्य वस्थाे कुछ रास नहीं आयी थी। होटल और सम्मेंलन स्थवल के मध्य एक फलों की दुकान दिख गयी थी और वहां चेरी सहित कई फल थे। बस उन्हेंि ही खाकर तृप्ति मिली थी और फिर तो पूरे अमेरिका के प्रवास में खूब चेरियां खायी गयी। वो जुलाई और अगस्त का महिना था जब चेरी अपने जाने के दिन गिन रही होती हैं लेकिन इस बार मैं अमेरिका जब आयी हूं तब चेरियों के आगमन का सर्वत्र स्वागगत हो रहा है। मुझे मालूम पड़ा कि यहां चेरी-पीकिंग की व्य्वस्था रहती है। इसका प्रारम्भन बस इसी शनिवार को हुआ था। आप नहीं समझ पा रहे हैं ना कि मैं क्याी कहना चाह रही हूं। असल में यहां चेरियों के बड़े-बड़े खेत हैं और उन सभी खेतों पर जाकर आप पेट और मन भरकर चेरियां फोकट में खा सकते हैं। है ना भारतीयों के लिए मजेदार बात। बस खेत पर जाइए और जी भरकर चेरियां खाइए। साथ में लानी हो तो स्व यं ही तोडि़यें और खरीदकर ले आइए। तो हम भी सोमवार को जा पहुंचे ऐसे ही एक खेत में, जहां ढेर सारी चेरियां थी, खूब छक कर खायी गयी और साथ में लायी भी गयी। कई खेतों में चेरियों के अलावा आड़ू, आलूबुखारा आदि भी थे। हम सबने इतनी चेरियां खायी कि लग रहा है अब पूरे सीजन मन नहीं करेगा।

अमेरिका आने के बाद यह मेरी पहली पोस्टन है, मजेदार और लाजवाब चेरियों से ही शुरू करती हूं अपनी बात। जिस खेत में हम गए थे वहां चेरियों के अलावा आडू, आलूबुखारा आदि भी थे, लेकिन हम शायद देरी से पहुं चे थे इसलिए वहां कच्चे ही शेष बचे थे। खेतों में एशियन्सर की भरमार थी, जिधर भी सर घुमाओ या तो भारतीय थे या फिर चाइनीज। लग रहा था कि फोकट की चीज हमें ही ज्या दा रास आती है। अमेरिकन्सज का नजरिया भी ज्याजदा कुछ समझ नहीं आया, शायद मजदूरी महंगी है इसकारण ही सब के लिए खोल रखे हैं खेत। नहीं तो अपने खेत को ऐसे सार्वजनिक कैसे कोई करेगा। चेरी का पेड़ सात-आठ फीट का होता है, आप आसानी से चेरियां तोड़ सकते हैं। लेकिन यदि आपको पेड़ के उपरी हिस्सेख की चेरियां तोड़नी हैं तब आपके लिए सीडि़यों की व्यतवस्था भी है। केलिफोर्निया के बे-एरिया में खेतों की भरमार हैं। इतने बड़े-बड़े खेत हैं कि गंगानगर या पंजाब की याद आ जाती है। सड़क किनारे ही खेत हैं, सारे ही फलों के पेड़ एकदम कतारबद्ध, एक इंच भी ना इधर ना उधर। अभी चेरी पीकिंग का समय है इसलिए कुछ लोग फलों को बेचते हुए दिख जाएंगे नहीं तो खेतों में कोई मनुष्यक दिखायी नहीं देता। मुझे याद आ रहा है भारत, वहां आप किसी के खेत में घुस जाइए, पहले तो लगेगा कि यहां कोई नहीं है लेकिन जैसे ही आपका हाथ आम तोड़ने को बढ़ता है फटाक देने से कोई व्य क्ति आ धमकता है। लेकिन यहां ऐसे नहीं है। हमने तो जी भरकर चेरियां खायी हैं और आपके लिए बस फोटो ही लगा पा रहे हैं।