श्रीमती अजित गुप्ता प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास) हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।
Monday, September 21, 2009
एक जनजातीय गाँव
उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा एक गाँव – अलसीगढ़। आज यहाँ गवरी का समापन है। रक्षाबंधन के बाद से पूरे सवा महिने तक चलने वाला पर्व है गवरी। इसमें महाभारत की पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर जानजातीय लोग स्वांग भरकर नाटिका प्रस्तुत करते हैं। इस अवधि में गवरी में भाग लेने वाले व्यक्ति घर से बाहर रहते हैं और किसी भी व्यसन को हाथ नहीं लगाते हैं।
सौभाग्य से हम गवरी के समापन वाले दिन 13 सितम्बर को इनके बीच जा पहुँचे। गवरी के पात्रों की तस्वीर तो नहीं ले पायी लेकिन गाँव की खूबसूरती आपको दिखाने का अवसर मैंने केमरे में कैद कर लिया था। यहाँ का जीवन बहुत ही सादगी और सीधा है। इसपर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे, अभी चित्रों को देखिए और प्रकृति के मध्य बसे इस जनजातीय गाँव का आनन्द लीजिए।
अजित गुप्ता
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9 comments:
बढ़िया यही है इंटरनेट का चमत्कार !!! गांव ग्लोबल हो रहा है
अलसीगढ़ के इस पर्व के चित्र सुन्दर लगे. आलेख बहुत ही सक्षिप्त हो गया. आभार
बहुत अच्छी जानकारी है...
नयनाभिराम चित्र हैं...वाह.
नीरज
ganv ke chitr dekhkar vhan jane ki icha prabl ho gai vaise varnn aur hota to aur achha hota
abhar
गांव और संस्कॄति से जोड्ने के लिये धन्यवाद।चित्रण उम्दा ्है। बधाई।
सुन्दर चित्रों के माध्यम से आदिवासी समुदाय के पर्व की बेहतरीन जानकारी देने के लिए बधाई!
अपनी पोस्ट पर पहली बार चित्र लगाए थे, वे किस रूप में आएंगे इसी को परखन के लिए आलेख पूरा नहीं लिखा। अब अगली किस्त में जनजातीय गाँव के बारे में लिखूंगी। आप सभी ने स्नेह दिया इसके लिए आभार।
दो साल तक रहने के बाद जब उदयपुर छोड़ रहा था तो जानता था कि यह शहर आसानी से नहीं छूटेगा। आज तीन साल होने को आए और उदयपुर छूटा नहीं है.. कभी न कभी सामने आता रहता है। आज आपके ब्लॉग को देखकर पुरानी यादें ताजा हो गई। अलसीगढ़ की संकरी सड़क याद आ गई। बहुत शुक्रिया डॉ. अजित।
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