पीहर से आते हुए मेरी माँ की मुट्ठी में मेरे मामा चंद रूपए रख देते थे। इसे अनमोल खजाना समझ वह फूली नहीं समाती थी। घर आते ही सहजता और गर्व मिश्रित भाव से पिताजी को बता देती कि भाई ने क्या दिया है। पिताजी कुछ क्षण चुप रहते लेकिन दूसरे ही क्षण फरमान जारी कर देते, जितना पैसा है, मुझको दे दो। माँ समझ नहीं पाती कि क्या मुट्ठी भर पैसा भी मुझे अपने पास रखने का अधिकार नहीं? जीत अंत में पिताजी की ही होती। घर में क्लेश न हो यही भाव माँ का बना रहता। तब की एक पीढ़ी गुजर गई, दूसरी पीढ़ी भी गुजरने की तैयारी में है लेकिन मुट्ठी में पैसा रखने की मानसिकता नहीं बदली। हाँ समर्पण की भावना बदल गई परन्तु एक बहस चालू हो गई। पुरुष और स्त्री के अधिकारों की बहस।
सत्ता, समर्पण और डर - आज सत्ता को अपने हाथ में रखने की जद्दो-जेहद परिवारों में नजर आ रही है। मेरे पिता की पीढ़ी में, पिता के हाथ में सत्ता थी और माँ के पास समर्पण भाव। लेकिन तब की ओर गहराई से देखे और सोचे कि क्या यह सहज प्रक्रिया थी? मेरी माँ की पीढ़ी चंद जमात पढ़ी हुई, पति को ही सर्वस्व मानने वाले सदियों के संस्कार, एक जन्म नहीं सात जन्मों का बंधन मानने वाली अर्थात पत्नी का सहज समर्पण। फिर भी चंद रूपए भी उसके हाथ में नहीं रह सकते, यह पिता की पीढ़ी का भाव क्या संकेत देता है? यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मानसिक कमजोरी की निशानी है। वह इस डर से डरा हुआ है कि जो कुछ भी मेरे पास है, वह कहीं खिसक नहीं जाए। यही डर उसे हिंसक बनाता है। आज तक यही डर, पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में सभी को मिलता रहा है। एक तरह नारी का सहज समर्पण फिर भी पुरुष के मन में बसा डर! हमें सोचने पर मजबूर करता है कि यह डर क्यों है?
आज के परिपेक्ष्य में नारी के हाथ में पैसा और सत्ता दोनों ही हैं तो समर्पण का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पुरुष को अपनी सत्ता खिसकती दिखाई दे रही है। ऐसे में हिंसा की अभिवृद्धि भी लाजमी है। जब पूर्ण समर्पण था, पति परमेश्वर था तब भी पुरुष अनजाने भय के कारण हिंसक हो उठता था तो आज साक्षात परिवर्तन को देखते हुए वह कैसे हिंसक नहीं बने? आज स्त्री और पुरुष के अधिकारों की बहस में परिवार कहीं छूट गया है। जब सम्पूर्ण सत्ता हाथ में थी तब भी डर था और आज सत्ता छिनती जा रही है तो यह डर कम होगा या बढ़ेगा? आज का प्रश्न यह है। समाज को देखें तो महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव कम हुआ है, प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, हिंसा बढ़ी है अर्थात पुरुष का डर बढ़ा है। इस बढ़ते डर के साथ क्या हम स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते है? तो क्या हो? क्या महिला पूर्व की भांति समर्पण कर दे? क्या तब यह डर कम हो जाएगा? नहीं! इसका उत्तर सम्पूर्ण समाज को खोजना होगा। पुरुष के इस डर को निकालना होगा। जब तक यह डर उसके मन में घर कर के बैठा रहेगा समाज से हिंसा नहीं थमेंगी। नारी यदि पहले से भी अधिक समर्पण कर दे तो भी पुरुष की हिंसा नहीं थमेगी। हिंसा थमेगी केवल डर के भाव के मन से निकलने पर।
एक प्रश्न यह डर क्यों? दूसरा प्रश्न डर कैसे छूटे?
किसी विद्वान ने कहा था कि व्यक्ति मृत्यु से नहीं जीवन के समाप्त होने से डरता है। अर्थात हमारा सुख छूट जाएगा यह डर व्यक्ति को मृत्यु से डराता है। इसी प्रकार पुरुष अपना आनन्द महिला के साहचर्य में ढूंढता है, बस यही डर का कारण है। मेरा आनन्द समाप्त ना हो जाए उसकी सोच का प्रमुख विषय यही है। इसलिए ही विवाह पद्धति में पत्नी छोटी हो, कम आयु वाली हो तथा कम पढ़ी-लिखी हो आदि बातें प्रमुख रहती हैं। येन-केन-प्रकारेण अपनी मुट्ठी में अपने आनन्द को रखने का जतन। अब प्रश्न है डर कैसे छूटे? क्या पुरुष के चाहने मात्र से उसका डर कम होगा? क्या महिला के अधिकार सम्पन्न होने से पुरुष का डर कम होगा? क्या महिला के समर्पण से डर कम होगा? ये सारे ही समाधान समाज खोज चुका है। लेकिन पुरुष का डर समाप्त नहीं हुआ। तो फिर कैसे दूर होगा डर? शायद इस डर को एक माँ निकाल सकती है। क्योंकि माँ ने ही बच्चे का सृजन किया है उसका संवर्द्धन किया है। पिता की भूमिका भी शिक्षक की रह सकती है। अतः आज अधिकारों की बात ना करते हुए इस डर को निकालने में सहयोग करना चाहिए। विवाह पद्धति इस डर को बहुत कम करती थी लेकिन आज टूटती विवाह पद्धति इस डर को फिर बढ़ा रही है और हिंसा को जन्म दे रही है। इसलिए मेरी माँ की पीढ़ी को देखें तो उस पीढ़ी में कितना डर था या हिंसा थी और आज की पीढ़ी को देखे तो कितना डर है या हिंसा है? निःसंदेह पहले की पीढ़ी में कम हिंसा थी तथा कम डर था। आज यह डर पुरुष से निकलकर महिला तक में समा गया है। पहले कोई तलाक का डर नहीं था आज तो सम्बंध विच्छेद आम बात है। इसलिए विवाह पद्धति के सुदृढी़करण की आवश्यकता है। आप कह सकते है कि पहले महिलाओं पर अत्याचार अधिक थे लेकिन केवल कह देने से मान्यता नहीं मिलती। साक्षात अपने परिवारों में झांकना होगा कि सच क्या था? जहाँ डर अधिक हावी था वहीं अत्याचार था। जहाँ आनन्द के अतिरेक की चाहत थी वहीं अत्याचार था, जहाँ आनन्द को घर के बाहर भी खोजा जा रहा था वहीं अत्याचार था। सात्विक पुरुष ने कभी अत्याचार नहीं किया। अतः सभी को एक तराजू में तौल देने से समाज सुदृढ़ नहीं होता। अतः विवाह पद्धति को सुदृढ़ करना पहली और व्यभिचार को कम करना दूसरी आवश्यकता है।
व्यभिचार का भाव जन्मजात ही होता है अतः संस्कार ही इस अवगुण को कम कर सकते हैं। ऐसी पीढ़ी को मानसिक रोगी की तरह देखना चाहिए और सम्पूर्ण परिवार व समाज को उत्तरदायित्व लेना चाहिए कि वे ऐसे नवयुवकों को संस्कारित करे। उनका उपाय खोजें। दूरदर्शन पर घर बैठे ही सुलभ हो रहे नारी देह प्रदर्शन, व्यभिचारी पुरुष का व्यभिचार बढ़ाने में योगदान कर रहे हैं। परिणाम बलात्कार के रूप में सामने हैं। अतः संयमित आनन्द की ओर पुरुष को ले जाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। आज आनन्द को बढ़ावा देना हमारी प्राथमिकता बनती जा रही है। सिनेमा, दूरदर्शन, फैशन शो आदि अनेक उपक्रम केवल आनन्द के लिए ही हैं। अतः आनन्द की खोज की जगह कार्य की खोज होनी चाहिए। व्यक्ति श्रम में आनन्द ढूंढे, पठन-पाठन में आनन्द ढूंढे, खेल में आनन्द ढूंढे, अपने परिवार में आनन्द ढूंढे। अतः अकेले होते जा रहे व्यक्ति को परिवार की आवश्यकता है। जब वह विभिन्न रिश्तों की महक जानेगा तभी दैहिक आनन्द को प्राप्त करने की भूख कम होगी। अतः तीसरी आवयकता है परिवार। यदि परिवार और विवाह पद्धति को हमने सुदृढ़ कर लिया तो पुरुष का डर निकलेगा उसका व्यभिचारी मन संस्कारित होगा और वह निर्माण की और प्रवृत्त होगा।
10 comments:
आपका विमर्श अधिक तार्किक और निष्पक्ष लगा।
aapka naree vimarsh aur purush vimars dono padha.aap ne satya dikhaya hai aur bhiruta ko unkera hai.
aap ke vicharon ke saath main apne aap ko sampoornata se khada paa raha hoon .
maa blog pe 'mata tereejai ho1 ' sune achcha lagega.
do follow का विजेट लगाने के लीये मै पोस्टींग करने वाला हूं
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ये रहा बढीया ट्रिक
bhai se jyada bharosa ya bharose se jyada bhai salta hai purush ko kahna muskil hai.kahni aur karni ka badhta fasla dono ke beech sheet youdh rach raha hai.purush ki trasadi use aadhunika aur parampara poshi ek saath chahiye.Yahi rach raha hai sambandho ka dwait.iti.
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saty hee hai--purush vimarsh --kee baat. teen vikalp jo dr. smt.ajit gupta ne sujhaaye hain--
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-vivaah bandhan kee sudradtaa
-parivaar
-aanand ke sthaan par ,samyamit aanand, kaary ke saath-saath aanand.
shaastron kaa kathan hai ki-manoranjan ko kabhee dhandhe kaa jariyaa naheen banaana chaahiye.--bahut sundar--badhaaee sweekaar karen.
aapka likha bahut kasautee bhra hai .
kya bakwaas likha hai.
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