Saturday, January 31, 2009

सोने का पिंजर....अमेरिका और मैं

पढ़े हिन्‍दयुग्‍म.कॉम के बैठक अध्‍याय के अन्‍तर्गत सोने का पिंजर की तीसरी कडी।

Wednesday, January 21, 2009

जो औरत है, वो बेचारी कैसे?

अर्चना अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त एक सॉफ्‍टवेयर कंपनी में ऊँचे पद पर है। उसका एक पाँव देश में, तो दूसरा विदेश में रहता है। वह एक ऐसी युवती है, जो बेहतरीन खाना बनाती है, जिसने सिलाई-बुनाई जैसे लड़कियों वाले काम भी अत्‍यंत कुशलता से किए हैं और इंजीनियरिंग की उपाधि विश्‍वविद्यालय में अव्‍वल रहकर प्राप्‍त की है।
सही समय पर विवाह किया और एक बेटी की माँ बनने के बाद उसके केरियर ने गति पकड़ी। अब जब भी अर्चना को विदेश जाना पड़ता है, अविनाश बेचारगी से रिश्‍तेदार महिलाओं को ताकता है। कभी खुद अविनाश की माँ, कभी अर्चना की माँ या फिर कोई बुआ, मौसी अर्चना की कही जाने वाली गृहस्‍थी और बेटी को सम्‍भालती हैं, जो कि वास्‍तव में अविनाश की भी है, पर अविनाश न तो गृहस्‍थी संभालने में समर्थ है और न ही बेटी संभालने में। तुर्रा यह कि “बेचारा अविनाश” घर संभाले, बेटी सम्‍भाले या नौकरी करे? जबकि अर्चना जब देश में होती है, तो वह इन तीनों के साथ अविनाश को भी सम्‍भालती है। उसकी सहायता के लिए न उसकी सास रुकती है, न माँ, न बुआ और न ही मौसी। अर्चना के आते ही सब अपने-अपने घर लौट जाती हैं क्‍योंकि अर्चना कोई “बेचारी” थोड़े ही है। वह तो औरत है।
मधुरिमा – 21 जनवरी 2009

Tuesday, January 20, 2009

ओबामा के मायने

अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द शायद इतना गहरा नहीं होता जितनी गहरी वह टीस होती है, जब हमें हर क्षण यह अनुभव कराया जाता हो कि तुम पराए हो। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व भारत से लाखों लोग विदेशी धरती को आबाद करने के लिए दुनिया के विभिन्न कोनों में गए थे। उनकी मेहनत से दलदली भूमि में भी गन्ने की फसलें लहलहाने लगीं थीं। आज वे सारे ही देश सम्पन्न देशों की श्रेणी में हैं। लेकिन उन धरती के बाशिन्दों ने उन्हें अपनेपन की उष्मा कभी प्रदान नहीं की। भारत अनेक राज्यों का समूह है, विश्व के सारे ही राष्ट्र अनेक राज्यों के समूह से निर्मित होते हैं। लेकिन भारत में और अन्य राष्ट्रों में शायद एक मूल अन्तर है। भौगोलिक दृष्टि से किसी भी राष्ट्र का राज्यों में विभक्त होना पृथक बात है लेकिन भाषा, खान-पान आदि की पृथकता अलग बात है। ये अन्तर एक होने में अड़चने डालते हैं। जब दुनिया में किसी देश की सीमाएँ नहीं थी तभी से भारतवंशी व्यापार के लिए, घुम्मकड़ता के लिए दुनिया के कोनों में जाते रहे हैं। इतिहास तो यह भी कहता है कि भारतीय मेक्सिको तक गए थे। यही कारण है कि जब दुनिया सीमाओं में बँटी, तब भी भारतीय व्यक्ति अपने कदमों पर लगाम नहीं लगा सके। शायद भारतीय मन असुरक्षा-भाव से ग्रसित नहीं हैं, यही कारण है कि वे अकेले ही दुनिया के किसी भी कोने में बसने के लिए निकल पड़ते हैं। इसीलिए भारतीयों में पराएपन के भाव की पीड़ा मन के अन्दर तक बसी है। वे कभी विदेश में और कभी अपने ही देश में इस पीड़ा को भुगतते हैं। इसलिए ओबामा की जीत उनके लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।
हम भारतीय जब सम्पूर्ण सृष्टि को एक कुटुम्ब मानते हैं तब भला एक भारतीय अपने ही देश भारत में प्रांतों की सीमाओं में कैसे सिमटकर रह सकता है? कभी राजस्थान में रेगिस्तान का फैलाव अधिक होने के कारण यहाँ विकास की सम्भावनाएँ नगण्य थीं। तभी से यहाँ का व्यापारी भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी रोजगार और व्यापार की सम्भावनाएँ तलाशने के लिए निकल पड़ा। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ पर राजस्थान का निवासी नहीं हो। ऐसे ही भारत के आसपास के देशों में भी राजस्थानी बहुलता से गए। राजस्थान की तरह ही सम्पूर्ण देश की जनसंख्या भारत के महानगरों में रोजगार की तलाश में गयी। कभी कलकत्ता उद्योग नगरी थी तो सभी का गंतव्य कलकत्ता था। मुम्बई फिल्मी नगरी थी तो आम भारतीयों के सपने वहीं पूर्ण होते थे। पूर्वांचल में भी व्यापार की प्रचुर सम्भावनाएं थीं तो भारतीय वहाँ भी गए।
अमेरिका में जब यूरोप का साम्राज्य स्थापित हुआ तब उसके नवनिर्माण की बात भी आई। दक्षिण-अफ्रीका से बहुलता से गुलामों के रूप में वहाँ के वासियों को अमेरिका लाया गया। उन लोगों ने रात-दिन एक कर अमेरिका का निर्माण किया। जैसे भारतीयों ने फिजी, मोरिशस आदि देशों का निर्माण किया था। घनघोर जंगल, दलदली भूमि को स्वर्ग बनाने का कार्य यदि किसी ने भी इस दुनिया में किया है तो इन्हीं मेहनतकश मजदूरों ने किया है। लेकिन कभी धर्म के नाम पर, कभी त्वचा के रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर या फिर कभी बाहरी बताकर जब हम मनुष्य में अन्तर करते हैं तब वेदना का उदय होता है। यही वेदना जब एकीकृत होती है तब उसमें से एक क्रांति का सूत्रपात होता है। कभी यह क्रांति प्रत्यक्ष होती है और कभी इस क्रांति का मूल हमारे मन में होता है। यह घर हमारा भी है, इसी सूत्र को थामे करोड़ों दिलों ने ओबामा को देश का प्रथम नागरिक बना दिया। ओबामा के स्थापित होते ही वे करोड़ों लोग जो बाहरी होने की पीड़ा झेलते आए थे, वे सभी भी इस पीड़ा से मुक्त हो गए। अमेरिका में आकर यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया, अफ्रीका आदि देशों से बसे करोड़ों बाशिन्दे इस पीड़ा को कहीं न कहीं मन में बसाए थे कि वे बाहरी हैं। उन्हें कभी न कभी इस पीड़ा से गुजरना पड़ा है। गौरी चमड़ी बाहरी रूप से एक दिखायी देती है लेकिन अश्‍वेत और एशिया मूल के लोग एकाकार नहीं हो पाते। इसलिए इन सभी ने एक स्वर में यह माना कि हम सब एक हैं। अब अमेरिका हमारा देश है। ओबामा की जीत के मायने यह भी नहीं है कि सभी ने इस सत्य को स्वीकार किया है लेकिन सत्य प्रतिष्ठापित हो गया है। घनीभूत वेदना पिघलने लगी है। फिर ओबामा सभी का प्रतीक बनकर आए थे।
ओबामा की जीत मानवता की जीत दिखायी देने लगी है। जिन यूरोपियन्स ने करोड़ों मेहनसकश इंसानों को गिरमिटिया बनाया और कभी भी समानता का दर्जा नहीं दिया। जिन यूरोपियन्स ने महिलाओं को समानता प्रदान नहीं की, उन्हीं यूरोपियन्स ने अमेरिका में अपने पापों को धो लिया। अमेरिका में ही यह क्यों सम्भव हुआ? शायद इसलिए कि अमेरिका की धरती पर ही यूरोपियन्स को पराए होने की वेदना का अनुभव हुआ। वे भी इस वेदना के भागीदार बने। आज अमेरिका के मूल निवासी रेड-इण्डियन तो वहाँ केवल बीस प्रतिशत हैं, शेष तो यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, मेक्सिको आदि के निवासी ही हैं। जब एक भारतीय से यूरोपियन कहता है कि तुम अमेरिकी नहीं हो तब वह भी प्रश्न करता है कि तुम अमेरिकी कैसे हो? तुमने तो यहाँ अत्याचार किए थे, लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया था। मैं तो यहाँ के नवनिर्माण का भागीदार हूँ, अतः बताओ कि कौन श्रेष्ठ है? तुम तो लाखों अफ्रिकन्स को गुलाम बनाकर यहाँ लाए थे! तुमने उन्हें इंसान कब समझा? तुमने तो उन्हें 1962 के बाद मताधिकार दिया। इसी वेदना के चलते ओबामा की जीत हुई। उन सभी ने स्वीकार किया कि हम सब अमेरिकी हैं। अमेरिका में अब रंग-भेद के आधार पर राष्ट्रीयता की अनुभूति नहीं होगी। लेकिन वहाँ के मूल निवासियों की वेदना शायद इससे और बढ़ जाए! वे वहाँ अल्पमत में थे और उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती थी। दुनिया में यह संदेश गया है कि अमेरिका की धरती सबके लिए है। किसी भी शान्त और सहिष्णु कौम का शायद यही हश्र होता हो!
अमेरिका का एक उज्ज्वल पक्ष और भी है। वहाँ बसे समस्त नागरिकों ने स्वयं को अमेरिकी कहने में गर्व का अनुभव किया। वहाँ तो उन्हें अमेरिकी नहीं कहने से ही वेदना उपजी थी। भारत में ऐसा नहीं है। हम स्वयं को भारतीय होने पर गर्व नहीं करते। हमारी पहचान क्षेत्रीयता के आधार पर विभक्त होती जा रही है। क्यों नहीं हमें भारत कहने में गर्व की अनुभूति होती? क्यों हम इण्डिया कहकर अपनी पहचान छिपाने का प्रयास करते हैं?
ओबामा की जीत हमारी हीनभावना को परे धकेलती है, हम में गौरव की अनुभूति जगाती है। जब ओबामा की जीत विदेशी धरती पर बसे करोड़ों भारतीयों के मन में सपने जगा सकती है तब हम भारतीयों के मन में भी क्षेत्रीयता का दर्द भी मिटा सकती है। ओबामा ने प्रयास किया, वह सफल हुआ। हम भी प्रयास करें, सफल होंगे। सम्पूर्ण भारत हम भारतवासियों का है, यहाँ के कण-कण से अपनत्व की महक आनी चाहिए। हम भारत के किसी भी कोने में जाकर बसें, हमें वहाँ पराएपन की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। चाहे वो कश्मीर हो, पूर्वांचल हो या फिर महाराष्ट्र। किसी भी व्यक्ति के मन में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर पूर्वांचल तक, प्रत्येक प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना जगना चाहिए। ओबामा की जीत का उत्सव इसलिए नहीं मनाना है कि वह बेहतर राष्ट्रपति सिद्ध होगा अपितु इसलिए मनाना है कि अब कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को पराया नहीं कह सकेगा। कोई भी इंसान छोटा-बड़ा नहीं बताया जाएगा। किसी भी देश, प्रदेश या संस्था पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का कब्जा ही नहीं बताया जाएगा। भारत देश हम सबका है, हमारे पूर्वजों ने इसका निर्माण किया है। अब किसी भी कारण से कहीं भी अवरोध खड़े नहीं किए जाएँगे। मैंने भारत की भूमि पर जन्म लिया है, सम्पूर्ण भारत मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि है। मैं भारत का हूँ और भारत मेरा है। ओबामा के बहाने इसी भावना को पुष्ट करने की आवश्यकता है। हमारे लिए ओबामा के मायने यही हैं।

Wednesday, January 14, 2009

लघु कथा

प्रेम का पाठ

सरस्वती अकेली बैठी है, उसकी आँखों में आँसू हैं। कभी धुंधली होती रोशनी से अपने बुढ़ापे को देख रही है, कभी जंग लगते अपने घुटनों को हाथों से सहला रही है। अपने आप से प्रश्न कर रही है कि ‘मैंने जीवन में प्रेम का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया लेकिन आज मैं अकेली क्यूँ हूँ, मेरा सहारा यह छड़ी क्यों बन गयी है?’ वह सूने रास्ते को देख रही थी, जहाँ से शायद उसके बुढ़ापे का सहारा चला आए और उसकी छड़ी को हवा में उछाल दे और बोले, ‘माँ मैं तेरी छड़ी हूँ, इसकी तुझे जरूरत नहीं पड़ेगी’। लेकिन दूर तक कोई नहीं है, लेकिन एक परछाई उसकी ओर बढ़ रही है। परछाई पास आती है, वह एक इंसान में बदल जाती है।
वह इंसान उससे पूछता है कि ‘तुम्हारे द्वारा प्रेम बाँटने का कारण?’
क्योंकि बचपन से ही प्रेम के अभाव की कसक मन में थी।
तुम्हें किसके प्रेम का अभाव था, उसने फिर प्रश्न किया।
सरस्वती ने कहा कि पिता के प्रेम का, पति के प्रेम का।
तुमने अपनी संतान को इसी प्रेम के अभाव का पाठ पढ़ाया?
हाँ पढ़ाया। सरस्वती ने कहा।
तब वे अच्छे पिता बनेंगे और अच्छे पति बनेंगे। वे अच्छे पुत्र कैसे बन सकते हैं? जिसका अभाव तुमने जाना नहीं, उसे तुम कैसे पढ़ा सकती थीं?

Monday, January 12, 2009

पूछती है इन्दर की माँ

पूछती है इन्दर की माँ

मेरे पास का एक गाँव
वहाँ रहने वाली एक माँ
खोए बेटे इन्दर की माँ!
जब भी वहाँ जाती हूँ
मेरे बेटे का सुराग मिला?
पूछती है इन्दर की माँ।

निरूत्तर करते हुए उसके प्रश्नों से
लगता है जैसे मेरे मुँह पर
मौन का ताला पड़ गया है
कैसे कहूँ कि तेरा बेटा भी
सत्य, ज्ञान और लाजवंती की तरह
शहर की भेंट चढ़ गया है।

गाँव से निकलकर पहले
ज्ञान शहर चला गया था
चश्मा चढ़ाए विज्ञान बनकर
गाँव को भूल गया था
ज्ञान की माँ सुरसति भी
उसे गाँव-गाँव ढूँढ रही थी
ज्ञान का तो बदला रूप
मुझे मिल भी गया था
सत्य तो वहाँ से भी ना जाने
कहाँ गुम हो गया था
लाजवंती को खोजने का काम
थाने से भी हट गया था।

यह शहर नहीं
एक भीड़ का है समुन्दर
सत्य, ज्ञान, लाजवंती
और आज तेरा इन्दर
इसमें समाहित हो गए हैं
कहीं खो गए हैं
इन्द्र बनकर भूल गया है
तुझे तेरा इन्दर।

अब गाँव में कहाँ है स्वर्ग
तो कैसे रहे तेरा इन्दर?
शहर की खोखली चकाचौंध में
कहाँ ढूँढू तेरा इन्दर?

आज भी तेरे पास भोला,
गवरी और कलावती रहते हैं
उन्हें ही सहेज ले वे भी
शहर चले गए तो क्या होगा?
क्या पता कभी तेरा भोला
ही सत्य को ले आए
क्या पता कभी गवरी ही
लाजवंती को ढूँढ लाए
क्या पता कभी कलावती ही
ज्ञान को लौटा लाए
जब ये सारे के सारे
गाँव को वापस आ जाएंगे
तो सच कहूँ तेरा इन्दर भी
जरूर लौट आएगा
जरूर लौट आएगा।

Thursday, January 8, 2009

अपने देश में तुम आना

विदेश में बसे भारतीयों के लिए

पीर गंध की जगने पर
हूक उठे तब तुम आना
मन के डगमग होने पर
अपने देश में तुम आना।

सन्नाटा पसरे मन में
दस्तक कोई दे न सके
चींचीं चिड़िया की सुनने
अपने देश में तुम आना।

घर के गलियारे सूने
ना ही गाड़ी की पींपीं
याद जगे कोलाहल की
अपने देश में तुम आना।

शोख रंगों की चाहत हो
फीके रंग से मन धापे
रंगबिरंगी चूंदड़ पाने
अपने देश में तुम आना।

सौंधी मिट्टी, मीठी रोटी
अपना गन्ना, खट्टी इमली
मांगे जीभ तुम्हारी जब
अपने देश में तुम आना।

बेगानापन खल जाए
याद सताए अपनों की
सबकुछ छोड़ छाड़कर तब
अपने देश में तुम आना।

कोई सैनिक दिख जाए
मौल पूछना धरती का
मिट्टी का कर्ज चुकाने तब
अपने देश में तुम आना।

वीराना पसरे घर में
दिख जाए बूढ़ी आँखें
अपनी ठोर ढूंढने तब
अपने देश में तुम आना।

Monday, January 5, 2009

पाती

पाती
परदेस बसे बेटे ने
स्याही की खुशबू से लिपटी
माँ के हाथों की पाती माँगी
अँगुली के पोरों से बाँध कलम को
शब्दों से झरती ममता को
छूने की मंशा चाही।

इंतजार की बेसब्री हो
रोज डाक पर निगाह रहे
दफ्तर से आने पर
एक लिफाफा पड़ा मिले
उद्वेग लिए हाथों से खोलूँ
खत की खुशबू से मन को भर लूँ
घुल-मिलकर बनते शब्दों से
अपने रिश्ते को छूने की इच्छा जागी।

मेरे कमरे की टेबल की
बंद दराज से स्याही लेना
जो बचपन में तुमने पेन दिया था
उस से पाती को रंगना
जहाँ छूट गया मेरा बचपन
उस कमरे में खत को लिखना
यहाँ बनाकर उन यादों का कमरा
छूट गए घर में रहने की चाहत जागी!

Sunday, January 4, 2009

शब्‍द जो मकरंद बने

शब्‍द जो मकरंद बने पुस्‍तक से एक कविता
वसीयत
मेरे अन्दर जितने शब्द बसे हैं
कुछ तो बाँटे पर कुछ शेष रहे हैं
जीवन की इस ढलती संध्या में
मेरी इस पूँजी पर किसका नाम लिखा है?

गठजोड़े में बँधकर
जब घर में नाजुक पैर पड़ेंगे
उस दिन मेरी मुट्ठी में
देने को क्या शेष बचेगा?
उसकी आँखों में सपने दूंगी या
दौलत की कुंजी उसके हाथ धरूँगी?
जब हाथ बढ़ेंगे मेरे पैरों तक
कुछ शब्द लबों पर आएंगे
उनको ही माथे पर अंकित कर दूँ?
या उसके हाथों को पूँजी से भर दूँ?
क्या मेरी इस पूँजी पर उसका नाम लिखा है?

इक दिन ऐसा भी आएगा
सब कुछ देने को मन कर जाएगा
जाती बिटिया की झोली में
क्या-क्या मैं भर दूंगी?
हीरे पन्ने माणक या
इन शब्दों में भीगी दुनिया?
उसकी मुट्ठी में चुपके से रख दूंगी
एक पिटारी प्यारे से शब्दों की
उन शब्दों से शायद मिल जाए
मन को जीतने की कुंजी!
शेष बची पूँजी पर क्या
बिटिया का नाम लिखा है?

मैं क्या देकर जाऊँगी?
यह सोच उभर कर आता है
किसे वसीयत कह दूँ मैं
यह भी मन जान ना पाता है?
कागज पर धन दौलत का जोड़ लिखूँ?
या केवल मन के शब्दों का मौल लिखूँ?
कौन वसीयत कहलाएगी
प्रश्न समझ नहीं आता है?
धन दौलत से तौली जाऊँगी
या मेरे शब्दों को मौल मिलेगा?
शब्दों की पूँजी पर बोलो
किसका नाम लिखा है?

मेरी दौलत को जब कूंता जाएगा
कुछ शब्द निकल कर आएंगे
इन शब्दों का यदि मौल करांेगे
मेरी पूँजी तो इससे ही आंकी जाएगी
मेरी वसीयत में धन दौलत का नाम नहीं
जो भी है बस मेरे अक्षर है
इन पर ना जाने किन-किन का नाम लिखा है?

दौलत तो रीति हो जाएगी
शब्दों से ही संसार बसेगा
मेरे शब्द विरासत में तुम देना
आने वाली हर पीढ़ी को
ये शब्द मधुरता लाएंगे
अपनों का भाव बताएंगे
गंगा में दौलत को अर्पित कर देना
पर इन शब्दों को जाने देना, उड़ने देना
दूर जहाँ तक जाएं ये
पीढ़ी दर पीढ़ी बसने देना
मेरे इन शब्दों में शायद
हर पीढ़ी का नाम लिखा है।

सोने का पिंजर

सोने का पिंजर – अमेरिका और मैं
अजित गुप्‍ता

अपनी बात

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका को देखने से अधिक उसे समझने की चाह थी। मेरे घर से, मेरे परिवार से, मेरे आस-पड़ोस से, मेरे इष्ट-मित्रों के बच्चे वहाँ रह रहे थे। उनकी अमेरिका के प्रति ललक और भारत के प्रति दुराव देखकर मन में एक पीड़ा होती थी और एक जिज्ञासा का भाव भी जागृत होता था कि आखिर ऐसा क्या है अमेरिका में? क्यों बच्चे उसे दिखाना चाहते हैं? क्यों वे अपना जीवन भारत के जीवन से श्रेष्ठ मान रहे हैं? ऐसा क्या कारण है जिसके कारण वे सब कुछ भूल गए हैं! उनका माँ के प्रति प्रेम का झरना किसने सुखा दिया? वे कैसे अपना कर्तव्य भूल गए?
ऐसा क्या है अमेरिका में जो प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को वहीं पढ़ाना चाहते हैं? एक बार हमारे एक मित्र घर आए, उनका बेटा अमेरिका में पढ़ने जा रहा था, वे कितना खुश थे। मेरा बेटा भी वहीं पढ़ रहा था लेकिन मैं तो कृष्ण की भूमि की हूँ और बिना आसक्ति के कर्म करने में विश्वास रखती हूँ। बेटे ने कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ तो हमने कहा कि जरूर पढ़ो। जितना पढ़ोंगे उतने ही प्रबुद्ध बनोगे। तब न तो गर्व था कि बेटा अमेरिका जा रहा है और न ही दुख। लेकिन जब मैंने हमारे मित्र की आसक्ति देखी तब मैं पहली बार आश्चर्य चकित रह गयी। इतना मोह अमेरिका से? आखिर किसलिए? लेकिन उनका मोह था, उन्हें गर्व हो रहा था। मेरे ऐसे और भी मित्र हैं जिन्होंने अपने बच्चे की जिद को सर्वोपरि मानते हुए लाखों रूपयों का बैंक से कर्ज लिया और आज वे दुखी हैं। घर नीलाम होने की नौबत आ गयी है।
मैंने ऐसी कई बूढ़ी आँखें भी देखी हैं जो लगातार इंतजार करती रहती हैं, बस इंतजार। मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छः माह अमेरिका और छः माह भारत में रहने को मजबूर हैं। वे अपना दर्द किसी को नहीं बताते, केवल एक भ्रम उन सभी ने भारत में निर्मित किया है। लेकिन सत्य सात तालों से भी निकलकर बाहर आ ही जाता है। बातों ही बातों में माँ बता ही देती है कि बहुत ही कष्टकारी जीवन है वहाँ का। कितने ही आश्चर्य निकलकर बाहर आते रहे हैं उनकी बातों से। शुरू-शुरू में तो लगता था कि एकाध का अनुभव है लेकिन जब देखा और जाना तो सबकुछ सत्य नजर आया। अनुभव सभी के एक से थे। सारे ही भारतीय परिवारों की एक ही व्यथा और एक ही अनुभव।
भारतीय भोजन दुनिया में निराला है। हमारे यहाँ की सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। हमारी अपनी एक संस्कृति है। लेकिन अमेरिका का भोजन भारत से एकदम अलग है। उनकी सभ्यता अभी दो सौ वर्ष पुरानी है। उनके पास संस्कृति के नाम पर प्रकृति है। भारतीय माँ वहाँ जाती है, देखती है कि रोटी नहीं है। बेटा भी उसके हाथ की बनायी रोटी पर टूट पड़ता है और कहता है कि माँ कुछ परांठे बनाकर रख जाओ।
अरे कितने बनाकर रख जाऊँ? माँ आश्चर्य से पूछती है।
तुम जितने बना सको। मेरे पास तो यह फ्रिज है, इसमें दो-तीन महिने भी खाना खराब नहीं होता।
बेचारी माँ जुट जाती है, पराठें बनाने में। दो सो, ढाई सौ, जितने भी बन सकते हैं बनाती है।
ऐसे जीवन की कल्पना भारत में नहीं है। सभी कुछ ताजा और गर्म चाहिए। सुबह का शाम भी हम नहीं खाते।
ऐसे ही ढेर सारे प्रश्न और जिज्ञासाएं मेरे मन में थी। उन सारे ही भ्रमों को मैं तोड़ना चाहती थी। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ कि सारे ही मेरे भ्रम सत्य में बदल गए और मेरी लेखनी स्वतः ही लिखती चले गयी। मैंने राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती में चार किश्तों में अपने अनुभव लिखे। लोगों के पत्र आने लगे। सभी का आग्रह इतना बलवती था कि मुझे पुस्तक लिखने पर मजबूर कर दिया। मेरे वे अनुभव भारत की अनेक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। मुझे किसी ने भी नहीं कहा कि तुमने यह गलत लिखा है। मैं किसी भी देश की निन्दा नहीं करना चाहती। लेकिन मैं अपने देश का गौरव भी बनाए रखना चाहती हूँ।
मैं उस हीन-भावना से भारतीयों को उबारना चाहती हूँ, जो हीन-भावना उनके बच्चों के कारण उनके मन में घर कर गयी है। अमेरिका निःसंदेह सुंदर और विकसित देश है। वह हमारे लिए प्रेरणा तो बन सकता है लेकिन हमारा घर नहीं। हम भी हमारे देश को ऐसे ही विकसित करें। हम सब मिलकर हमारे भारत को पुनः पुण्य भूमि बनाए। अमेरिका ने स्वतंत्रता की जो परिभाषा दी है हम भी उसे माने और कहें कि हम भी हमारा उत्तरदायित्व पूर्ण करके ही अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। हमारी पीढ़ी यह स्वीकार करे कि जब तक हम अपना उत्तरदायित्व अपने देश के प्रति, अपने समाज के प्रति और अपने परिवार के प्रति पूर्ण नहीं कर लेते तब तक हम परतंत्र मानसिकता के साथ ही समझोता करते रहेंगे, अतः हमें अपने सुखों के साथ अपने कर्तव्यों को भी पूर्ण करना है।
मुझे विश्वास है कि बहुत ही शीघ्र भारत विकास के सर्वोच्च मापदण्डों को पूर्ण करेगा। इसकी झलक दिल्ली सहित कई महानगरों में देखने को मिल भी रही है। भारतीय अमेरिका से लौट भी रहे हैं। वे अपने देश का निर्माण करने के लिए आगे भी आ रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस दिन सभी भारतीय अपने देश को एक सुसंस्कृत देश बना देंगे तब अप्रवासी भारतीय भी पुनः भारत में अपनी भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे। क्योंकि आज उनके पास ही हमारी संस्कृति पोषित हो रही है। हम तो इसे नष्ट करने पर उतारू हो गए हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि मैं मेरे पाठकों की ईच्छा को मूर्त रूप देने में सफल हुई हूँ। अब आपको निर्णय करना है कि क्या वास्तव में मैं आपके दिलों में अपनी जगह बना पायी? क्या मैं अपने देश के साथ न्याय कर पायी?
यहाँ मैं उन पत्रों का उल्लेख करने लगूँ तो यह काफी लम्बी सूची होगी। मैं उन सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे प्रेम दिया और आशीर्वाद दिया। मैं उन सभी पत्रिकाओं का भी धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मेरे निबन्धों को धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर मुझे पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।
अन्त में मैं धन्यवाद उन नौजवानों को देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अमेरिका को और वहाँ बसे भारतीयों की मानसिकता को समझने में सहयोग किया। यह पुस्तक मेरे पौत्र ‘चुन्नू’ के उस असीम प्रेम का उपहार है जिसने मुझे अमेरिका जाने पर मजबूर किया। अतः उसे ही उपहार स्वरूप भेंट।
अजित गुप्ता