Tuesday, June 16, 2020

पीपल की जड़ें

हमारी सामाजिक मान्यताएँ पीपल के पेड़ के समान होती हैं, पेड़ चाहे सूख गया हो लेकिन उसकी जड़ें बहुत गहराई तक फैली होती हैं। वे किसी हवेली के पुराने खण्डहर में से भी फूट जाती हैं। छोटे शहर की मानसिकता सामाजिक ताने-बाने में गुथी रहती हैं, हम कई बार महानगरों में पहुँचकर वहाँ की चाल से चलने लगते हैं लेकिन हमारी मान्यताओं वाले पीपल के पेड़ की जड़ हवेली के खण्डहर में से फूट जाती हैं।
हमारे समाज में विवाह सात जन्मों का बन्धन है लेकिन जब कोई विवाह को ही नकारता हुआ, खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों की तर्ज पर लिविंग रिलेशन में रहने लगे तब वह पीपल की जड़ न जाने कहाँ-कहाँ से फूट पड़ती है। मानसिकता साथ नहीं देती और तू तेरे रास्ते और मैं मेरे, कहकर अलग हो जाते है।
मानसिक बैलेंस को बनाकर रखना एक चुनौती है। जैसे ही अनैतिक कदम पड़े और हमारी मान्यताएँ हमें आगाह करने लगती हैं, हम नहीं मानते और कब संतुलन गड़बड़ हो जाता है, पता ही नहीं चलता। जहां भी सामाजिक मान्यताओं के पेड़ सुदृढ़ हैं और उन्हीं के वारिस पेड़ को काटने का प्रयास करते हैं तब पेड़ की जड़ हवेली से भी फूटने लगती है। विशाल हवेली जर्जर होने लगती है। मानसिक संतुलन अवसाद की स्थिति में आ जाता है।
बॉलीवुड ऐसी जगह है जहाँ सामाजिक मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ा दी गयी हैं। कहते हैं कि कलाकार नैतिक होता है इसलिये फक्कड़ होता है लेकिन जब कलाकार अनैतिकता के दलदल में धंस जाये तो कलाकार कहाँ रह जाता है! वह केवल सौदागर बन जाता है। एक तरफ उसकी मर्यादाएँ खड़ी होती हैं तो दूसरी तरफ बाज़ार! जिसके पेड़ की जड़ें जितनी गहरी और विस्तृत होती हैं वही जड़ें कहीं से भी फूट पड़ती हैं!
कलाकार और बाजार, में से एक को चुनना होगा। नैतिकता और अनैतिकता में से एक के साथ चलना होगा। सामाजिक मान्यताओं और खुलेपन में से किसी एक के दायरे में रहना होगा। नहीं तो फिर मानसिक अवसाद और स्वयं को समाप्त करने का संकल्प सामने होगा। कब पीपल के पेड़ की जड़ें हमारे अन्दर से फूट पड़ेंगी और हम बेजान हो जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा।
#sushantsingh

रोटी

अभी कुछ साल पहले की बात है, मैं अमेरिका में थी, भोजन बना रही थी। तभी बेटे का मित्र आ गया, मैंने भोजन के लिये उसे भी बैठा दिया। वह बोला कि मैं केवल एक रोटी खाऊंगा। खैर मैंने उस दिन मिस्सी रोटी बनायी थी, तो दोनों को परोस दी। मैं मिस्सी रोटी कुछ मोटी ही बनाती हूँ और मिट्टी के तवे पर बनाना पसन्द करती हूँ। भारत से जाते समय मिट्टी का तवा मैं लेकर गया थी। अब रोटी सिकती जा रही थी और दोनों प्रेम से खाते जा रहे थे। एक रोटी खाने की बात पीछे छूट गयी थी। मैंने दोबारा आटा लगा लिया था
रोटी का स्वाद केवल भारतीय जानते हैं, बाजरे की रोटी, मिस्सी रोटी, ज्वार की रोटी, मक्की की रोटी आदि आदि। थाली में चार कटोरी लगाकर षडरस भोजन भी हम ही जानते हैं। गर्म रोटी पर चम्मच भर घी लगाना भी हम ही जानते हैं। चूल्हे के पास बैठकर गर्म खाना भी हम ही जानते हैं। रोटी का स्वाद एक तरफ और सारी दुनिया के भोजन का स्वाद दूसरी तरफ! कहीं कोई मुकाबला नहीं। जिसने गर्म रोटी खा ली वह ब्रेड नहीं खा पाता! बस शौक से या मजबूरी से खा लेता है।
रोटी में पूरा अन्न होता है जबकि ब्रेड में अन्न का अन्दरूनी भाग! मैदा और सूजी गैंहूं के छिलके उतारकर बनायी जाती है। सारे पोषक तत्व छिलके में होते हैं और हम अपने शरीर रूपी घर में शक्तिहीन व्यक्तियों को भर लेते हैं। जब दुश्मन से लड़ने का समय आता है तब ये चारों खाने चित्त हो जाते हैं। छोटा सा कीटाणु भी हमें आँख दिखाने लगता है और हम बीमार पड़ जाते हैं। हमने स्वयं को शहतूत के फल जैसा नाजुक बना लिया है।
हमने अभी देखा कि ६ फीट से ऊंचे विदेशी जवान, देखते ही देखते कोरोना की भेंट चढ़ गये और भारतीय ८० साल के बुजुर्ग बच गये। विदेशी शहतूत बन गये हैं और हम भारतीय मोटी खाल वाले तरबूज।
हमारा शरीर सैनिक छावनी है, हर पल युद्ध होता है। जिसमें लड़ने की जितनी क्षमता होती है वह जीत जाता है नहीं तो विषाणु के क़ब्ज़े में आ जाता है। जब हम मैदा और सूजी ही खाते है तो हमारे अन्दर का सैनिक शहतूत की तरह कमजोर हो जाता है लेकिन जब रोटी खाते हैं तब हमारा सैनिक तरबूज की तरह ताकतवर हो जाता है। अब हमें तय करना है कि हमें शहतूत बनना है या तरबूत! रोटी खानी है या पिजा-बर्गर-ब्रेड! कोरोना के कारण सब घर पर हैं और भारतीय रसोई में खूब रोटी बन रही है। सारे ही बच्चे रोटी चाव से खा रहे हैं। यही मौका है सिखा दीजिये उन्हें रोटी खाना। रोटी की सौंधी सुगन्ध और ताजा घी कैसे मन को तृप्त करता है, इसका आभास करा दीजिये। कोरोना जैसे विषाणु कभी हिम्मत नही करेंगे हमारे शरीर की छावनी में दस्तक देने की! बस अपने भोजन में रोटी को जगह दीजिये।

Friday, June 12, 2020

घाव है तो हँसिये

मुँह का एक छाला होता है, जिसे मेडीकल भाषा में Aphthous ulcer कहते है। मैंने इस छाले को बहुत झेला है। कारण ढूंढा तो पता लगा कि मानसिक तनाव से होता है। अब जिसने संघर्षों से ही भाग्य को गुदवाया हो, वह तनाव तो झेलेगा ही! लेकिन मुझे जैसे ही समझ आया कि यह छाला तनाव के कारण है मैंने वैसे ही हँसने के बहाने ढूँढ लिये। एक बार यह छाला हो जाए तो इसके घाव को भरने में दो सप्ताह तक लग जाए और दर्द इतना की हालत पतली कर दे।
मैंने प्रयोग किया हँसने का, अन्दर से हँसने का। बस चुटकी बजाते ही दर्द दूर। मैंने छाले से पीछा छुड़ा लिया था। लेकिन फिर भी कभी-कभी चोर रास्ते से मुझे पकड़ ही लेता है। खाना खाते समय दाँत के नीचे मुँह के अन्दर का कोई भी हिस्सा आ जाए तो समझो कि यह एपथस अल्सर बनकर ही रहेगा। अभी दो-चार दिन पहले ऐसा ही हुआ और कल तक घाव बन गया। दर्द शुरू। कोरोना ने तनाव दे रखा था, हँसने का बहाना ही नहीं था लेकिन कुछ फ़ेसबुक से, कुछ बातों से हँसने के बहाने ढूँढ ही लिये। बस फिर क्या था, लगभग आधे दिन कोशिश रही कि हंसते रहें और सफलता हाथ लग गयी। आज दर्द से छुट्टी!
अब सोचो जब हँसने से एक घाव भरता है तो अन्दर के कितने घाव भी भरते ही होंगे। लेकिन हंसना दिखावे का नहीं होना चाहिये, अन्दर तक के हार्मोन सक्रिय होने चाहिये। इसलिये गुनगुनाते रहिये, हंसते रहिये। अन्दर से खुश रहिये। कैसे भी घाव हों, भर ही जाएँगे।

Thursday, June 4, 2020

शाबाश अमेरिकी पुलिस

अमेरिकी पुलिस का एक चित्र कल वायरल हो रहा था- घुटने पर बैठकर क्षमायाचना करते हुए। यह चित्र पुलिस का धैर्य और समन्वय प्रदर्शित करता है। सत्ता का मद और शक्ति का प्रदर्शन कभी भी शान्ति स्थापित नहीं कर सकता। श्रेष्ठ शासक हमेशा धैर्यवान होता है, वह प्रत्येक परिस्थिति में समन्वय बैठाकर चलता है। कल पुलिस का अधिकारी बोल रहा था कि आप देश से प्यार करने वाले लोग हैं, सभी से प्यार करने वाले लोग हैं, शान्ति पूर्वक प्रदर्शन करना आपका अधिकार है लेकिन दंगे करना आप भी पसन्द नहीं करेंगे।
मुझे मोदीजी याद आ गये, हमेशा सकारात्मक बोलने वाले, दूसरों को श्रेय देने वाले और कठिन परिस्थिति में भी धैर्य नहीं खोने वाले। असल में हम अपने स्वभाव के अनुरूप सरकार से व्यवहार चाहते हैं। हमारा स्वभाव है कि हम बच्चे को थप्पड़ मारकर सुधारना चाहते हैं तो सभी से यहा उम्मीद रखते हैं। यदि हम बच्चे को प्यार से समझाना चाहते हैं तो सरकारों से भी प्यार की भाषा की उम्मीद रखते है। सत्ताधीश अपने स्वभाव के अनुरूप चलता है और विजय प्राप्त करता है। उन्हें धैर्य का मार्ग ही अपनाना होता है लेकिन जनता चाहती है कि सत्ता शक्ति का प्रदर्शन करे। बस हम हमारे प्रिय नेता की भी आलोचना करने लगते हैं। जनता के पास केवल एक पक्ष होता है लेकिन सरकार के पास अनेक पक्ष होते हैं और सभी को ध्यान में रखते हुए स्थिति को क़ाबू करना होता है। मुझे अमेरिकी पुलिस का व्यवहार बहुत अच्छा लगा कि वे अपने ही लोगों के सामने झुके और हिंसा को रोक लिया। नहीं तो वे गोलीबारी भी कर सकते थे और फिर नफ़रत का खेल हमेशा के लिये स्थाई हो जाता। ट्रम्प भी इसी धैर्य के लिये मोदी का प्रशंसक है और वह प्रत्येक प्लेटफ़ॉर्म पर मोदी का साथ चाहता है। शाबाश अमेरिकी पुलिस।

नफ़रत सौंप रहे हैं हम

अमेरिका में नफ़रत का बाज़ार गर्म है। रंगभेद की नफ़रत को न जाने कौन-कौन सी ताक़तें हवा दे रही हैं! एक सिपाही आम नागरिक को पैर तले कुचल देता है और आम नागरिक अमेरिका में आग लगा देता है। यह दो रंगों के बीच बोयी गयी नफ़रत है जो सैंकड़ों सालों से पनप रही है। हम गौर वर्ण है तो काले को हेय मानेंगे और काले हैं तो संगठित होकर आक्रमण करेंगे! यह नफ़रत हमारे अन्दर बस गयी है। यहाँ तक की स्त्री- पुरुष के बीच भी युगल भाव के स्थान पर नफ़रत ने जगह बना ली है। रिश्तों का प्रेम कहीं छिप गया है। हम पीढ़ी दर पीढ़ी रिश्तों को दूसरी पीढ़ी को सौंपते जाते हैं लेकिन अब नफ़रत सौंप रहे हैं। कहाँ हमने वसुधैव कुटुम्बकम् की कल्पना की थी और कहाँ अब एक पीढ़ी तक ही परिवार सिमट गया है। बस दूसरी पीढ़ी को तो हम नफ़रत देकर जा रहे है। हम ही श्रेष्ठ हैं यह अहंकार हमें दूसरे को सम्मान और प्रेम देने ही नहीं देता, फिर प्रेम के अभाव में ग़ुस्सा और नफ़रत पनपने लगती है।
अमेरिका में जो हो रहा है, वह सारी दुनिया का सत्य है। किसी दूसरे की नफ़रत भी अपनी बन जाती है और फिर सभी अपनी-अपनी नफ़रतों से घिरने लगते हैं। कहीं ज्वालामुखी फूट पड़ता है तो कहीं भूकंप के झटके महसूस किये जाते हैं। अकेले व्यक्ति से लेकर देशों तक की नफ़रत आज देखी जा सकती है, व्यक्ति बस मौक़े की तलाश में है कि कब मौक़ा मिले और मैं आग लगा दूँ। भारत भी ज्वालामुखी के ढेर पर बैठा है, बस एक चिंगारी की देर है। अमेरिका की आग भारत की ओर कब मुँह मोड़ लेगी कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि यहाँ तो हर व्यक्ति में आग है। हम इंच-इंच बँटे हुए हैं तो इंच-इंच बिखरने को तैयार हैं। एक तरफ़ कोरोना हमें निगल रहा है तो दूसरी तरफ़ हमारी नफ़रत हमें कोरोना का ग्रास बनाने को उकसा रही है। समय हमें देख रहा है और हम समय को देख रहे हैं। बस इन्तज़ार ही शेष है।