लुंज-पुंज से लेकर
छूट और लूट की दुकान
आज एक पुरानी कथा
सुनाती हूँ, शायद पहले भी कभी सुनायी होगी। राजा वेन को
उन्हीं के सभासदों ने मार डाला, अराजकता फैली तो
वेन के पुत्र – पृथु ने भागकर अपनी जान बचाई। पृथु ने पहली बार धरती पर हल का
प्रयोग कर खेती प्रारम्भ की, कहते हैं कि पृथु
के नाम पर ही पृथ्वी नाम पड़ा। लेकिन कहानी का सार यह है कि राजा वेन का राज्य अब
राजा विहीन हो गया था, प्रजा को समझ नहीं आ रहा था कि राज कैसे चलाएं।
आखिर सभी ने पृथु को खोजने का विचार किया। पृथु के मिलने पर उसे राजा बनाया और कहा
कि बिना राजा के प्रजा भीड़ होती है, इसलिये राजा का
होना जरूरी है। लेकिन आज प्रश्न उठ रहा है कि राजा कैसा? अनुशासन प्रिय या फिर लुंज-पुंज? परिवार में जब माता
या पिता कठोरता और अनुशासन के साथ परिवार का निर्माण करते हैं तो निर्माण की अवधि
में कोई खुश नहीं रहता, लेकिन बाद में सब कहते नहीं अघाते कि हमारा
अनुशासन के कारण निर्माण हुआ है। युवाओं को उच्छृंखलता रास आती है, लेकिन माता-पिता अनुशासन में रखकर उनका निर्माण करते हैं, ऐसे ही जनता की स्थिति होती है। जनता नैतिक-अनैतिक सारे ही काम करना
चाहती है लेकिन देश-हित और जनता का हित किस में है यह अनुशासन प्रिय नेता तय करते
हैं। जब भी किसी को लाभ प्राप्त नहीं होता है तो नाराजी प्रकट करता है और लोकतंत्र
की दुहाई देता है। उसे लोकतंत्र का अर्थ लुंज-पुंज व्यवस्था में दिखायी देता है, जहाँ अनुशासनहीन समाज का निर्माण हो और भीड़तंत्र के द्वारा शासन में
भागीदारी हो। परिवार से लेकर देश के लोकतंत्र में केवल उसी शासक की चाहना होती है
जो लुंज-पुंज हो, जो व्यक्ति को सारी छूट दे सके।
जितनी छूट और जितनी
लूट इस देश में है, उतनी शायद ही किसी देश में हो, जनता की आदत छूट और लूट का उपभोग करने की पड़ी है, जरा सा अनुशासन आते ही लोकतंत्र की दुहाई दी जाने लगती है। एक पुराना
वित्त-मंत्री लोकतंत्र की दुहाई दे रहा है क्योंकि उसे लूट और छूट का फायदा नहीं मिल
रहा है। वे समझ बैठे हैं कि एक अनुशासन में देश को रखने की पहल करना लोकतंत्र नहीं
हो सकता। इसलिये अब वे अनुशासन से परे लुंज-पुंज व्यवस्था के समर्थन में खड़े हो
गये हैं, दूसरी तरफ सारे ही वे लोग भी जो शासन को ले-देकर
चलाना चाहते हैं वे भी साथ में जुटने लगे हैं। देश ने लुंज-पुंज शासन बहुत देखा है, जो आजतक ले-देकर चल रहा था। जिसने भी भीड़तंत्र का शोर मचाया, उसको टुकड़ा डाल दिया गया। देश रसातल में पहुंच गया लेकिन भीड़तंत्र
आकाश छूने लगा। जनता को समझ आने लगा था कि बिना अनुशासन के राज नहीं हो सकता
इसलिये वे पृथु की तरह अपने राजा को खोजने निकल पड़े और मोदी को खोजकर सिंहासन पर
बैठा दिया। लेकिन अब सत्ते-पे-सत्ता फिल्म जैसे हालात हो गये हैं। घर में आयी भाभी
घर को घर बनाना चाहती है और उच्छृंखलता में जीवन व्यतीत कर रहे सारे भाई अनुशासन
में बंधना नहीं चाहते। देश भी आज इसी उधेड़-बुन में लगा है। चारों ओर लोकतंत्र की
दुहाई दी जा रही है, बेईमान व्यापारी कह रहा है कि मुझे बेईमानी की
छूट मिले, खुद को मर्द समझने वाले लोग कह रहे हैं कि हमें
बलात्कार और तलाक की सुविधा मिले, राजनेता कह रहे हैं
कि परिवार सहित सारे ही पद हमें मिलें, न्यायाधीश तक कहने
लगे हैं कि बड़े मुनाफा वाले केस हमें मिलें, वकील कह रहे हैं कि
हम जैसा चाहे फैसला वैसा हो, समाज का हर वर्ग कह
रहा है कि हमें भी आरक्षण मिले। एक-एक व्यक्ति इस छूट और लूट का भागीदार होना
चाहता है और कह रहा है कि लोकतंत्र खतरे में आ गया है। व्यक्ति को सारी ही छूट
खुलेआम मिलने को ही वे लोकतंत्र कह रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं कि लोकतंत्र में भी
तंत्र जुड़ा है, कोई ना कोई अनुशासन तो रखना ही होगा नहीं तो यह
देश लूट का देश बन जाएगा। अब तय जनता को ही करना है कि उसे अनुशासन में रहकर खुद
का और देश का निर्माण करना है या फिर लुंज-पुंज व्यवस्था के तहत छूट और लूट की
दुकान सजाए रखनी है। हम इस दुनिया में केवल अकेले देश नहीं है जो कैसा भी विकल्प
चुन लेंगे, आज सैकड़ों देश हमारी ताक में बैठे हैं कि कब
यहाँ पुरानी लुंज-पुंज व्यवस्था लागू हो और हम देश को ही हड़प लें। वैसे भी जब
बेईमान लोग धमकाने लगें तो समझ लो कि देश कहाँ खड़ा है! चुनाव आपका है – लुंज-पुंज
से लेकर छूट और लूट की दुकान या फिर अनुशासन से निकली सम्मान की दुकान।