बहुत दिनों से मन की
कलम चली नहीं, मन में चिंतन चलता रहा कि लेखन क्यों? लेखन स्वयं की वेदना के लिये या दूसरों की वेदना को अपनी संवेदना
बनाने के लिये। मेरी वेदना के लेखन का औचित्य ही क्या है लेकिन यदि कोई ऐसी वेदना समाज
की हो या देश की हो तब वह वेदना लेखक की संवेदना बन जाए और उसकी कलम से शब्द बनकर
बह निकले तभी लेखन सार्थक है। कई बार हम अपनी वेदनाओं में घिर जाते हैं, लगता है सारे संसार का दुख हम ही में समा गया है लेकिन जैसे ही समाज
के किसी अन्य सदस्य का दुख दिखायी देता है तब उसके समक्ष हमारा दुख गौण हो जाता है, बस तभी लेखन का औचित्य है। जन्म-मृत्यु, सुख-दुख हमारे जीवन के अंग हैं, लेकिन ऐसे दुख जो
समाज की बेबसी को दर्शाए या समाज के मौन को सार्वजनिक करे तब लेखन का औचित्य बनता
है। मैं अपने आप में उलझी थी इसलिये चुप थी लेकिन जब मैं उलझी थी तो दुनिया तो
चलायमान थी और घटना-दर-घटना भी घटित होती रही। कई परिचितों के घर मृत्यु ने दस्तक
भी दे दी और मैं उस वेदना को अपने अन्दर अनुभव भी करती रही लेकिन साक्षात सांत्वना
देने में असमर्थ रही। कल मृत्यु का प्रचार और वैभव भी देखा, तब ध्यान आया कि मृत्यु तो हमारे यहाँ एक संस्कार है। हम 12 दिन तक
परिवार सहित मृतक का स्मरण करते हैं और उसकी सद्गति के लिये प्रार्थना करते हैं।
लेकिन किसी की मृत्यु भी प्रचार का साधन बन जाए और समाज को वशीकरण मंत्र के आगोश
में लेने का रात-दिन काम किया जाए तो कलम चलने का औचित्य समझ आने लगता है।
जो लोग अपने पैतृक
गाँव से जुड़े हैं और मृत्यु के समय अपनी ही मिट्टी में विलीन होना चाहते हैं, वे वास्तव में मृत्यु को संस्कार के रूप में मानते हैं। अपने वैभव के
प्रदर्शन से दूर, केवल परिवारजनों के साथ मृत्यु संस्कार को साकार
करने वाले लोग समाज को मार्ग दिखाते हैं और तब लेखन का औचित्य मुझे समझ आता है।
मेरे आत्मीय परिसर में ऐसी ही एक मृत्यु हुई, गाँव की मिट्टी में
ही पंच तत्व को विलीन किया गया और पूरे 12 दिन
गाँव में रहकर ही सारे संस्कार किये गये। समाज को एक संदेश गया कि मृत्यु
प्रचार का साधन नहीं है अपितु साधना है, हमारे लिये एक संस्कार
है। कल से मृत्यु का प्रचार भी देखने को मिल रहा है,
भावनाएं भुनाने का प्रयास भी हो रहा है, होड़ सी मची है, लोग पता नहीं क्या-क्या जानना चाहते हैं और लोगों को क्या-क्या बताना
है, इस बात की होड़ लगी है। मृत्यु किसी की भी हो, परिवार के लिये दुखद होती है लेकिन किसी प्रसिद्ध व्यक्तित्व की
मृत्यु समाज के लिये दुखद कम और कौतुहल का साधन अधिक बन जाती है, इसी कौतुहल को मीडिया प्रचार का साधन बना देता है और दुकानदारी सजा देता
है। तब मृत्यु, संस्कार नहीं रह जाती अपितु उसमें भी व्यापार
दिखने लगता है। भारत में मृत्यु एक संस्कार है और इसका स्वरूप बना रहना चाहिये।
सारा देश किसी की मृत्यु से दुखी है तो उन्हें भी सूतक का पालन करना चाहिये और शोक
रखना चाहिये ना कि उस मृत्यु को कौतुहल का विषय बनाकर अपनी दुकानें सजानी चाहिये।
मेरा सभी को नमन।