अब जमींदारी नहीं रही, रतजगे नहीं होते।
जमींदारों की हवेलियाँ होटलों में तब्दील हो गयी हैं। क्या दिन थे वे? हवेली में
सुबह से ही चहल-पहल हो जाती, जमींदार भी चौकड़ी जमाने के लिये शतरंज बिछा देते।
उनकी हवेली पर ही सारे सेठ-साहूकार एकत्र
होते। जहाँ जमींदार शतरंज की बाजी से शह और मात का खेल खेलते वहीं छोटे जमींदार
तीतर-बटेर को लड़ा देते। जनानी ड्योढ़ी में भी चहल-पहल रहती। सुबह से ही
इत्र-फुलेल से लेकर सोने के गहनों का जिक्र हो जाता। नगर में किस घर में सास की चल
रही है या बहु बाजी मार रही है, सुबह से चर्चा का बाजार गर्म रहता। कभी कोई किसी
की शिकायत ले आता तो कभी कोई किसी को हवेली से ही धकिया देता। एकाध हवेली में तो
यह भी हुआ कि तीतर-बटेर की लड़ाई लड़ते-लड़ते जमींदार ही आजीज आ गया और उसने हवेली
के दरवाजे ही बन्द कर दिये। लोग जाएं तो कहाँ जाएं? कोई मन्दिर में जाकर बैठ गया
तो कोई किसी दूसरी हवेली पर।
जमींदारों पर असली संकट तो तब आया जब जमींदारी
ही खत्म हो गयी। नगर में क्रान्ति का बिगुल बज गया। एक समाज सुधारक आंधी की तरह
आया और सभी को कहा कि आओ मेरे साथ आओ। अब युवा क्रान्ति के साथ जाने लगे और
जमींदार से जुड़े लोग जमींदारी के फायदे बताने लगे लेकिन नुकसान तो हवेली का हो
गया। धीरे-धीरे हवेली में सूनापन पसर गया। सभी किसी ने बताया कि अब छोटे फ्लेटों
में भी नये-नये खेल होते हैं, वहाँ सोसायटी बनी होती हैं और आप जैसा चाहो वैसा खेल
खेल सकते हो। बस फिर क्या था, लोग दौड़ पड़े। अब हवेली में बड़े-बूढ़े ही रह गये।
एक दिन फ्लेट वालों ने कहा कि भाई चलो एक बार हवेली देख आएं। जहाँ नाल गड़ी हो,
भला वहां की याद किसे नहीं आती, लोग तैयार हो गये, सभी ने कहा कि चलो एक तारीख को
चलते हैं। अब एक तारीख को हवेली गुलजार होने वाली है, वापस से शतरंज को मोहरे अपनी
बिसात पर बैठेंगे। तीतर-बटेर भी लड़ाए जाएंगे। नाच-गाना भी सारी रात चलेगा। हवेली
के रंग रोगन के लिये विशेषज्ञों को भेज दिया गया है। हवेली के रास्ते में किसी ने
अपनी दुकान तो नहीं लगा दी, इसके मौका-मुआयना के लिये भी टीम भेज दी गयी है।
जमींदार को भी ढूंढा जा रहा है। जनानी ड्योढ़ी में क्या खास होगा, इसकी भी
फुसफुसाहट है। मर्दों के बीच मल्ल युद्ध होगा या नहीं, कानाफूसी हो रही है। नये
युवा जिन्होंने कभी हवेली का रतजगा नहीं देखा, वे भी ललचा रहे हैं। सारे ही बड़े-बूढ़े
कह रहे हैं कि हवेली को चमका दो, फीका कर दो फ्लेट और सोसायटी का चलन। देखते हैं
कि हवेली में कितना मन लगता है, क्योंकि आज तक तो यही कहानी है कि जो एक बार गाँव
से गया वह वापस नहीं आया, बस शादी-ब्याह के मौके पर ही आना होता है। अपने गाँव में
देखें कौन कितने दिन टिकता है, हमने तो
खूंटे गाड़ ही रखे थे। अपने झोपड़े में रोज दिया जला देते थे। अब सुन रहे हैं कि
हवेली पर रतजगा है तो हम भी खुश होकर गा रहे हैं – सुना है तेरी महफिल में रतजगा
है।
#हिन्दी_ब्लागिंग
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