जीवन के दो मूल शब्द
- अपमान और सम्मान (insult & respect)
मान शब्द मन के करीब
लगता है, जो शब्द मन को क्षुद्र बनाएं वे अपमान लगते हैं और जो शब्द आपको समानता
का अनुभव कराएं वे मन को अच्छे लगते हैं। दूसरों को छोटा सिद्ध करने के लिए हम
दिनभर में न जाने कितने शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसके विपरीत दूसरों को अपने
समान मानते हुए उन्हें आदर सूचक शब्दों से पुकारते भी हैं। दुनिया में रोटी, कपड़ा
और मकान के भी पूर्व कहीं इन दो शब्दों का जमावड़ा है। वह बात अलग है कि रोटी की
आवश्यकता से एकबार अपनी क्षुद्रता के शब्दों को व्यक्ति पी लेता है लेकिन उस
अपमान या insult का
जहर उसके अन्दर संचित होता रहता है और वह कहीं न कहीं विद्रोह के रूप में प्रकट
होता है। दुनिया में मनुष्य से मनुष्य का रिश्ता इन दो शब्दों पर ही टिका है। जहाँ
भी सम्मान है अर्थात व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपने समान समझकर उससे अपेक्षित
व्यवहार कर रहा है, वहाँ रिश्ते बनते है, सुदृढ़ बनते हैं लेकिन जहाँ व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति को क्षुद समझ रहा है, उसकी उपेक्षा कर रहा है, वहाँ रिश्ते टूट
जाते हैं। दुनिया के सम्पूर्ण देशों की, समस्त समाजों की और परिपूर्ण परिवारों
के रिश्तों का, ये शब्द ही आधार हैं। जो देश हमें अपने समान समझता है, उससे रिश्ते
बन जाते हैं और जो हमें छोटा समझता है, उससे रिश्ते टूट जाते हैं। जो समाज दूसरे
समाज को समान समझता है, वे रिश्ते बंध जाते हैं, शेष छोटा समझने वाले रिश्ते टूट
जाते हैं। जिन परिवारों में आपसी रिश्तों में समानता रहती है वे रिश्ते पुष्ट
होते हैं और जहाँ भेदभाव किया जाता है, वे रिश्ते समाप्त हो जाते हैं।
स्त्री और पुरुष का
रिश्ता प्रकृति ने समान बनाया है, दोनों ही सृष्टि के पूरक। जैसे जल अधिक महत्वपूर्ण
है या वायु, इसकी तुलना नहीं की जा सकती, वैसे ही स्त्री और पुरुष की तुलना नहीं
की जा सकती है। लेकिन सदियों से पुरुष ने कहा कि मैं अधिक योग्य हूँ। परिणाम क्या
हुआ, स्त्री और पुरुष का रिश्ता जो प्रेम के लिए बना था, वह वितृष्णा में बदल
गया। प्रकृति के अनुरूप वे एकसाथ हैं लेकिन समान के स्थान पर क्षुद्र समझने की
भावना के कारण एक दूसरे के प्रति हिंसक हो उठे हैं। इसलिए आज पति और पत्नी
एकदूसरे को समान दर्जा देते हुए सम्मान नहीं करते अपितु छोटा समझने की पहल करते
हुए निरन्तर अपमान करते दिखायी देते हैं। पति कहता है - औरतों में तो अक्ल ही
नहीं होती, तुम्हारी अक्ल तो घुटने में है या चोटी के पीछे है। पत्नी कहती है
कि तुम्हारे अन्दर स्वयं का आनन्द ही नहीं है, तुम मुझसे ही आनन्द प्राप्त
करते हो, तुम भोगवादी जीव मात्र हो आदि आदि। हमने समानता खोजने के स्थान पर
क्षुद्रता खोजना प्रारम्भ कर दिया है। ऐसा कोई पल नहीं जब हम एक दूसरे को दंश
नहीं देते हों। एक अन्य रिश्ता था माता-पिता और संतान का, इसमें क्षुद्रता की
कहीं बात ही नहीं थी। माता-पिता अपनी संतान को अपना ही हिस्सा मानते थे इसलिए
उसके लिए पूर्ण ममता उनके मन में थी, इसी प्रकार संतान भी माता-पिता से उत्पन्न
स्वयं को मानकर उनका सम्मान करता था। लेकिन वर्तमान शिक्षा पद्धति ने संतान और
माता-पिता को समान नहीं रहने दिया। अब संतान माता-पिता को क्षुद्र समझने लगी है
इसलिए सम्मान का स्थान अपमान ने ले लिया है। परिवार के सारे ही रिश्तों में
पति-पत्नी और माता-पिता एवं संतान का रिश्ता ही स्थायी स्वरूप का शेष रहा है।
शेष सारे रिश्ते तो अब यदा-कदा के रह गए हैं। इसलिए इन पर ही चिंतन आवश्यक है।
विदेशों में हो रहे
शूट-आउट, देश में हो रही हिंसक घटनाओं को मैं इन्हीं दो शब्दो की दृष्टि से
देखने का प्रयास कर रही हूँ। विदेश में पति और पत्नी की दुनिया अलग बन गयी है,
इसमें माता-पिता भी दरकिनार कर दिए गए हैं और बच्चे भी उनकी निजता से दूर हैं।
जन्म के साथ ही उनके लिए पृथक कमरे की व्यवस्था है। समाज की अनगिनत असमानताएं
बच्चे का स्वाभाविक विकास नहीं होने देती। अमेरिका में ही जहाँ विश्व के सारे
ही देशों के नागरिक रहते हों, वहाँ समानता कैसे सम्भव है? कभी बच्चा स्वयं को
ब्लेक समझने लगता है, कहीं स्वयं को वाइट समझकर बड़ा बन जाता है, कहीं शिक्षा के
कारण क्षुद्रता उत्पन्न हो जाती है तो कभी अकेलेपन का संत्रास मन को क्षुद्र बना
देता है। माता-पिता भी उसके अपने नहीं होते, कब उसे किस माँ के साथ रहना पड़ेगा या
किस पिता के साथ उसे पता नहीं। ऐसे में हिंसा का ताण्डव मन में उठ ही जाता है और
सारी सुरक्षा को धता बताते हुए शूट-आउट हो ही जाते हैं। देश में स्त्री और पुरुष
की असमानता को इतना अधिक रेखांकित किया है और इतनी दूरियों का निर्माण कर दिया है
कि शक्तिशाली वर्ग हिंसा के माध्यम से छीनने की ओर प्रवृत्त हो गया है। जब समानता
शेष नहीं तो सम्मान का प्रश्न ही नहीं। जब दूसरे को छोटा सिद्ध करना ही उद्देश्य
बन जाए तब अपमान तो पहले खाने में आकर बैठ ही जाता है। संतान और माता-पिता का रिश्ता
भी इसी असमानता के दौर में गुजर रहा है। सम्मान धीरे-धीरे परिवारों से विदा लेता
जा रहा है। अब जब समानता का भाव ही नहीं रहा तो क्षुद्रता का भाव प्रबल हो उठा और
जैसे ही हम दूसरे को छोटा मानते हैं, अपमान बिना प्रयास के स्वत: ही चला आता है।
संतान अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग करे या ना करे, लेकिन छोटेपन का भाव ही
माता-पिता के लिए अपमान समान हो जाता है। भारत में एक कहावत है, शायद दुनिया के
दूसरे देशों में भी हो - जब बेटा, पिता से बड़ा बन जाता है तब पिता स्वयं को सम्मानित
अनुभव करता है। लेकिन आज इस कहावत के अर्थ बदल गए से लगते हैं। हम अब इस रिश्ते
में भी एक-दूसरे पर वार करने लगे हैं। स्त्री और पुरुष का साथ रहना तो प्राकृतिक
मजबूरी है लेकिन माता-पिता और संतान का साथ रहना केवल पारिवारिक आवश्यकता है। पति
और पत्नी के रिश्तों को तोड़कर स्त्री और पुरुष ने अपनी दुनिया बिना रिश्ते के
बनाना प्रारम्भ कर दिया है लेकिन क्या माता-पिता और संतान भी अपनी दुनिया अब अलग
बसाने की ओर निकल पड़े है। पति-पत्नी की तरह यहाँ तो कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी
दिखायी नहीं देती। समाज किसी नए समीकरण की ओर तो हमें चलायमान नहीं कर रहा है?
रिश्तों का कोई नवीन समीकरण शायद मनुष्य के एकान्त को तोड़ने में अग्रसर हो और
उसे समानता की अनुभूति करा दे। उसे फिर से सम्मान के शब्दों को सुनने का अवसर
प्राप्त हो जाए और अपमान के शब्दों से निजात मिल जाए! शायद, शायद और शायद!