Thursday, December 29, 2011

तो विदा 2011, क्‍या करें तुझे सर्दी में ही विदा करना पड़ रहा है!



बहुत दिनों से कोई पोस्‍ट नहीं लिखी गयी और इस साल ने भी अपने बोरिये-बिस्‍तर बाँध लिए। सोचा कि जाते-जाते साल में उसकी पेटी में एक कागज अपना भी और रख दिया जाए। टाइप करते हुए हाथ ठण्‍डे पड़ रहे हैं, उन्‍हें बार-बार सहलाना पड़ता है। इन दिनों बाहर बहुत रहना हुआ इस कारण कुछ नहीं लिखा गया और फिर अब ठण्‍ड ने अपना असर दिखा दिया है। आप सभी लोग भी श्री राज भाटिया जी के बुलावे पर साँपला जा आए। गन्‍ने खूब खाए गये, पिकनिक का सा अहसास हो रहा था, फोटो देखकर। गन्‍नों की मिठास हम तक भी पहुंच गयी है। जब आप लोग साँपला में मिलन कर रहे थे तब मैं भी चण्‍डीगढ़ में ही थी। बर्फ जमा देने वाली ठण्‍ड का मुकाबला कर के आ रही हूँ।
2011 अपनी अन्तिम घड़िया गिन रहा है। 2012 ने अपने नए कपड़े सिलवा लिए हैं। सारी दुनिया इस नए साल का स्‍वागत करने के‍ लिए होटलों में जुट गयी है। परिवार से दूर, होटल की छाँव में। नए साल का स्‍वागत करने के लिए स्‍वयं को खुमारी में डुबोने का भी पूरा प्रबंध कर लिया गया है। ऐसा लग रहा है जैसे हमने अपने घर के दरवाजे खोल दिए हों और खुद सुध-बुध खोकर कहीं लुढ़क गए हों। कह रहे हों, कि भाई आना है तो आ जाओ, हम तुम्‍हारे स्‍वागत में होश खो बैठे हैं। बेचारा नया साल आपके घर पर दस्‍तक दे रहा है और उसे पता लगा कि अरे सारे ही परिवारजन तो होटल में हैं। तो यह परिवार का नया साल नहीं है क्‍या? नहीं जी यह तो बाजार का नया साल है, इसलिए बाजार में ही मनेगा। अभी एक संत का प्रवचन सुना, वे कह रहे थे कि रात को 12 बजे हम कहते है कि बधाई हो, नये साल की। फिर सो जाते हैं, तभी रात को एक बजे किसी का फोन आ जाता है तो उससे गुस्‍से में कहते हैं कि आधी रात को क्‍यों फोन कर रहा है? बर्फ गिर रही है, सर्दी की मार पड़ रही है, सारी दुनिया अपने खोल में सिमटी है और हम कह रहे हैं कि नया साल आ गया!
बचपन में एक दिन आता था, जब चारों तरफ फूल खिले होते थे, मन चहक रहा होता था। प्रकृति ने मानो नए वस्‍त्र धारण किये हो। सुबह-सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही मिश्री और नीम की कोपल प्रसाद रूप में मिल जाती थी और कहा जाता था कि नया साल आ गया है। परिवार में ही मिठाई बनती थी और सारे ही परिवारजन एकत्र होकर नये साल की खुशियां मनाते थे। होटल नहीं थे, बाजार नहीं थे बस था तो परिवार था, अपना समाज था। मदहोशी नहीं थी, थी तो जागरूकता थी। प्रकृति को परिवर्तन का जरिया मानते थे। प्रकृति के अनुरूप ही तिथियों का निर्धारण करते थे। तब शायद हम शिक्षित नहीं थे, आज है। मुझे लगता है कि तब हम ज्ञानवान थे लेकिन आज नहीं हैं। क्‍या शिक्षित होने से केवल एक ही सोच पर चला जाता है? क्‍या अपना विवेक प्रयोग में नहीं लिया जाता? क्‍या अब परिवारों का स्‍थान होटल ले लेंगे? हम ऐसा कार्य क्‍यों नहीं कर पाते जिसमें अपना विवेक जागृत रहे। क्‍यों हम प्रत्‍येक कार्य में मदहोशी ही चाहते हैं। क्‍यों ह‍म अपने होश खो देना चाहते हैं? क्‍या जीवन में इतनी निराशा है? क्‍या जीवन में इतनी कटुता है? जो सबकुछ भुला देना चाहते हैं। खुशियां जागृत अवस्‍था में मनायी जाती हैं या मदहोशी में? ऐसे कई प्रश्‍न हैं जो मुझे परेशान करते हैं, आप के पास इनके उत्तर होंगे? तारीख के अनुसार यह मेरी इस वर्ष की अन्तिम पोस्‍ट हैं लेकिन नव-वर्ष के अनुसार अभी मार्च तक और पोस्‍ट आएंगी। जब प्रकृति गुनगुनाएगी तब हम भी गुनगुनाएंगे कि नव वर्ष आप सभी के लिए नव-प्रेरणा लेकर आए। अभी तो प्रकृति सिकुड़ी हुई है तो हम कैसे कहें कि नव-वर्ष मुबारक। खैर आप धुंध में लिपटे, बिस्‍तरों में दुबके होकर, होटल में नाच-गान के साथ ही जबरन नयेपन को आमंत्रण देंगे तो हम भी कह देंगे कि आपका जीवन ऐसे ही संघर्षों में बीते जैसे आज प्रकृति संघर्ष कर रही है। तो विदा 2011, क्‍या करें तुझे सर्दी में ही विदा करना पड़ रहा है। भारत का ज्ञान आज साथ होता तो तुझे हम बसन्‍त में विदा करते और 2012 को भी बसन्‍त में ही अपने घर भोर की बेला में घर ले आते। लेकिन अब तो क्‍या करें?   

Wednesday, December 7, 2011

मन को जानना सबसे बड़ी साधना है, क्‍या आप यह कर पाए?


दुनिया को जानने का दम्‍भ रखने वाले हम, क्‍या स्‍वयं को भी जान पाते हैं? कभी आत्‍मा को जानने का प्रयास तो कभी परमात्‍मा को खोजने का प्रयास, कभी सृष्टि को समझने का प्रयास तो कभी मानवीय जगत को परखने का प्रयास करते हुए म‍हर्षि भी कभी बोध तो कभी ज्ञान तो कभी केवल ज्ञान प्राप्‍त करने के क्रम में जीवन समर्पित कर देते हैं। लेकिन फिर भी स्‍वयं को परखने का कार्य अधूरा ही रह जाता है। हम आध्‍यात्‍म की बात करते हैं अर्थात् अपनी आत्‍मा को पहचानने की बात। लेकिन हमारे मन में किसकी चाहत है, हम क्‍या करना चाहते हैं शायद कभी समझ ही नहीं पाते। शरीर तो जैसे तैसे सध जाता है, कभी गरीबी में और कभी अमीरी में भी स्‍वयं को ढाल ही लेता है लेकिन यह जो मन है वह कभी सधता नहीं है। क्‍यों नहीं सध पाता? क्‍यों‍कि इसका हमें बोध ही नहीं है, बस भागता है, कभी इधर तो कभी उधर। हम बस सागर में गोते खा रहे हैं। मन को साधने के लिए प्रत्‍येक रिश्‍ते में बस मित्रता ही ढूंढते हैं। कहते हैं कि माँ हो तो मित्रवत, पिता हो तो मित्रवत, भाई बहन सभी मित्रवत होने चाहिए और मित्र? जब मित्र तलाशते हैं तो उनके अन्‍दर अपने मन को ढूंढते हैं। न जाने कौन सी ध्‍वनी तरंगे मन से निकल आती हैं और मन को मन से राहत मिल जाती है। मित्र बन जाते हैं। लगता है हमें सब कुछ मिल गया। लेकिन बोध की प्‍यास नहीं बुझती। मित्र तो मिल गया लेकिन अपने मन सा सारा ही कच्‍चा चिठ्ठा उड़ेलने का साहस तो अभी नहीं आया ना? बहुत कुछ भर रखा है मन ने, ना जाने कितने कलुष, कितने राग और कितने द्वेष। एक मित्र कहता है कि मुझे रिक्‍त होने दो तो दूसरा कहता है कि नाहक ही मुझे मत भरो। इस रिक्‍त होने और भरने की प्रक्रिया में मित्रता कहीं पीछे छूट जाती है। तब आपका बोध वहीं रह जाता है। जब तक मन रिक्‍त नहीं होगा तब तक बोध नहीं आ पाएंगा, ज्ञान नहीं आ पाएंगा।
स्‍वयं की जानने की प्रक्रिया वास्‍तव में बड़ी पेचीदा है, हम स्‍वयं के बारे में न जाने कितने श्रेष्‍ठ विचार रखते हैं लेकिन दुनिया हमारे बारे में एकदम विपरीत विचार रखती है। तब क्‍या करें? हमें हमारी एक भूल बहुत छोटी सी दिखायी देती है लेकिन दुनिया को वही भूल चावल का एक दाना समझ आता है। लेकिन मित्र की आँखों मे सत्‍यता होती है। हम सब चाहत रखते हैं मित्र की, लेकिन सच्‍चाई यह है कि हम मित्र तो चाहते हैं केवल स्‍वयं को रिक्‍त करने के लिए लेकिन सच्‍चाई को जानने से डरते हैं। जैसे अकस्‍मात मुसीबत आने पर आपके मुँह से आपकी मातृभाषा में ही शब्‍द निकलते हैं वैसे ही आपके अन्‍दर का छिपा हुआ गुण भी संकट के समय बाहर निकल आता है। हम स्‍वयं को निर्भीक समझते हैं लेकिन सामने सर्प आ जाने पर ही आपके साहस को पता लगता है। ऐसे ही हम समझते हैं कि हम बहुत ही विनम्र हैं लेकिन जब एक दुर्जन व्‍यक्ति आपके समक्ष हो तब आपकी परीक्षा होती है। ऐसे ही कितने बोध हैं जो नित्‍य प्रति आपको आपसे परिचय कराते हैं लेकिन हम उन्‍हें नजर अंदाज कर देते हैं। हम प्रतिदिन लोगों से सर्टिफिकेट लेने के फेर में रहते हैं। बस कोई हमारी तारीफ कर दे। इसलिए कभी मुझे लगता है कि हम चाहे सारी दुनिया की समझ रखते हों लेकिन यदि स्‍वयं के बारे में अन्‍जान हैं तो हमेशा धोखा ही खाते हैं। जीवन में कभी सुख और शान्ति का अनुभव नहीं करते।
स्‍वयं को पहचाने बिना कुछ लोग अपना कार्य क्षेत्र चुन लेते हैं। ऐसे कितने ही लोग हैं जो लेखन को अपना विषय चुनते हैं लेकिन उनके अन्‍दर लेखन के तत्‍व नहीं हैं। बस धोखा खाते हैं और असफलता का दंश भोगते हैं। कुछ सामाजिक कार्य करने का दम्‍भ रखते हैं और किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर जब उसके टूटे प्‍याले से चाय पीनी पड़ती है तब? कुछ राजनीति में जाने की चाहत रखते हैं और जब चारों दिशाओं से प्रहार होते हैं तब आपका मन भाग खड़ा होता है। इसलिए मन की पहचान या उसका बोध करना भी एक साधना है। ले जाओ इस मन को जीवन के हर प्रसंग में, तब देखो कि वह कहाँ खुश होता है? मत डालो उस पर कोई भी बंधन। मत आडम्‍बर रचकर स्‍वयं को गुमराह करो, कि हम ऐसे हैं या वैसे हैं। हम जैसे भी हैं उस सच को सामने आने दो। जिस दिन सच सामने आ जाएगा आप जो चाहते हैं वैसे ही बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इसलिए मित्रों स्‍वयं को जानने का प्रारम्‍भ करो तो दुनिया को भी जान जाओगे नहीं तो केवल अपनी ही नजर से दुनिया को देखते रहोंगे और फिर कहोगे कि यह दुनिया मेरे काम की नहीं। आप जैसे लाखों लोग इस दुनिया में हैं लेकिन हम नहीं खोज पा रहे हैं उन्‍हें। क्‍योंकि उस खोज का हमें ही पता नहीं। केवल आदर्श में जीना चाह रहे हैं। जो दुनिया ने आदर्श बनाए हैं बस उन्‍हें ही अपने अन्‍दर का सच समझ बैठे हैं। नहीं यह आपके अन्‍दर का सच नहीं है, आपके अन्‍दर का सच तो आपको ही खोजना है। साँप जहरीला है इसका उसे बोध है, इसलिए वह केवल दुश्‍मन पर आक्रमण करता है, कोयल मीठा बोलती है इसलिए वह बसन्‍त के आगमन पर ही कुहकती है। हम मनुष्‍य स्‍वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं लेकिन दुनिया के सारे ही जीवों से अधिक अज्ञानी है। सभी को स्‍वयं का ज्ञान है बस नहीं है तो हमें ही नहीं है। हमारे अन्‍दर भी विष है, हमारे अन्‍दर भी अमृत है। लेकिन प्रयोग नहीं आता। कभी सज्‍जन को विष दे देते हैं और कभी दुर्जन को अमृत। यह प्रयोग इसलिए नहीं आता कि हम स्‍वयं को नहीं जानते हैं और जो स्‍वयं को नहीं जानता है वह भला दूसरों को कैसे जान सकता है? मुझे कौन हानि देगा और कौन लाभ, यह तभी सम्‍भव होगा जब हम स्‍वयं के मन को जानेंगे। हम केवल प्रतिक्रिया करते हैं। दूसरे की क्रिया पर प्रतिक्रिया। केवल क्रिया करके देखिए, करने दीजिए दूसरों को प्रतिक्रिया। दुनिया अच्‍छी ही लगने लगेगी। मन में आवेग आता है, हम श्रेष्‍ठ बनने के चक्‍कर में उसे दबा लेते हैं तब स्‍वस्‍थ क्रिया नहीं होती तो उस आवेग जैसा ही प्रसंग उपस्थित होने पर प्रतिक्रिया स्‍वत: बाहर आ जाती है। प्रतिक्रिया तब ही अपना वजूद स्‍थापित करती है जब आप क्रिया नहीं कर पाते। इसलिए जैसा आपका मन है वैसी ही क्रिया करिए। धीरे-धीरे स्‍वत: ही आपको आपका मन समझ आने लगेगा। अच्‍छी है या बुरी है इस पर मत जाइए, बुरी है तब भी आपकी ही है, तो उसे बाहर आने दीजिए। हमने अपने अन्‍दर बहुत कुछ समेट रखा है, उसके कारण हमारा सत्‍य कहीं छिप गया है। इसलिए स्‍वयं के बोध के लिए अंधेरों के बादल छटने जरूरी हैं। बोध होने पर ही प्रकाश होगा और प्रकाश से ही हम दुनिया को प्रकाशित कर पाएंगे। इसलिए दुनिया को जानने से पहले स्‍वयं को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रशस्‍त करता है। स्‍वयं को स्‍वीकारने से ही मन में दूसरे ज्ञान के लिए स्‍थान बन पाएगा। इसलिए आध्‍यात्‍म की पहली सीढ़ी है स्‍वयं को पहचानो। अपने गुण को पहचानो, अपने स्‍वार्थ को पहचानो, अपनी विलासिता को पहचानो और अपने वैराग्‍य को पहचानो। बस धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कल्‍पना साकार हो जाएगी।