समाचार पत्र में हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयोगी पेज- होता है- पेज चार। समाचार पत्र आते ही मुख्य पृष्ठ से भी अधिक उसे वरीयता मिलती है। क्यों? इसलिए कि उसमें शोक-संदेश होते हैं। कल ऐसे ही एक शोक-संदेश पर निगाह पड़ी, कुछ अटपटा सा लगा। बहुत देर तक मन में चिन्तन चलता रहा कि ऐसा लिखना कितना तार्किक है? किसी महिला का शोक-संदेश था और महिला की फोटो के नीचे लिखा था – अवतरण दिनांक ---- और निर्वाण दिनांक -----। अवतरण और निर्वाण शब्दों का प्रयोग हम ऐसे महापुरुषों के लिए करते हैं जिनको हम कहते हैं कि ये साक्षात ईश्वर के अवतार हैं। इसलिए इनका धरती पर अवतरण हुआ और मृत्यु के स्थान पर निर्वाण अर्थात मोक्ष की कल्पना करते हैं। भारत भूमि में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्हें हम भगवान का अवतार मानते हैं। पृथ्वी पर भगवान के रूप में साक्षात अनुभूति के लिए महापुरुषों के रूप में अवतरण होता है, ऐसी मान्यता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्येक परिवार के लिए माँ का रूप भगवान के समान होता है और इसी कारण अवतरण एवं निर्वाण शब्द का प्रयोग किया गया होगा। इसी संदर्भ में एक अन्य प्रसंग भी ध्यान में आता है। क्रिकेट के खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को पत्रकार भगवान कहते हैं और क्रिकेट के भगवान सचिन ऐसी उपाधि देते है। इसी प्रकार कई बार अमिताभ बच्चन को भी उनके प्रशंसक भगवान की उपाधि देते हैं। दक्षिणी प्रांतों के कई अभिनेताओं के तो मन्दिर भी हैं और बकायदा उनकी पूजा भी होती है। भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि हम सब प्राणी भगवान का ही अंश हैं। लेकिन भगवान नहीं है। भगवान सृष्टि का निर्माता है, सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन उसी के अनुरूप होता है। सृष्टि के सम्पूर्ण तत्वों का वह नियन्ता है। मनुष्य के सुख-दुख भी भगवान द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। जब व्यक्ति थक जाता है, हार जाता है, दुख में डूब जाता है, तब उसके पास भगवान के समक्ष प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई आशा शेष नहीं रहती। यह भी अकाट्य सत्य है कि लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, उनके दुख दूर होते हैं। उनके मन में नवीन आशा का संचार होता है।
बच्चों के लिए माता, भगवान का रूप हो सकती है लेकिन समाज के लिए नहीं। यदि हमने सभी को यह उपाधि देना प्रारम्भ कर दिया तो भगवान का स्वरूप ही विकृत हो जाएगा। आप कल्पना कीजिए, एक बच्चे को भूख लगी है, वह माँ से भोजन प्राप्त करता है। लेकिन यदि उसके प्राणों की रक्षा की बात है तब उसे माँ के स्थान पर भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी। इस उदाहरण में तो केवल कुछ शब्दों का ही उल्लेख है। अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार पढ़कर तो आश्चर्य की सीमा ही नहीं रही। समाचार था – एक पुरुष ने संन्यास धारण किया और संन्यासी बनते ही उसने प्राण त्याग दिए। पहले तो मैं इसका अर्थ नहीं समझी, लेकिन फिर समझ आया कि संन्यासी बनकर मृत्यु की कामना करना भी समाज में उत्पन्न हो गया है। अन्त समय में संन्यासी बनने की ईच्छा व्यक्त करना और फिर संन्यासियों की तरह दाह-संस्कार करना। जैसे हमारे राजनेताओं की ईच्छा रहती है कि हम तिरंगे में ही श्मशान जाएं वैसे ही संन्यासी वेश में मृत्यु की ईच्छा रहती है। यह कृत्य भी क्या संन्यासियों की तपस्या को धूमिल करने वाला नहीं है?
क्या कोई भी खिलाड़ी अपने खेल में उत्कृष्टता के लिए सचिन से प्रार्थना करता है? या अन्य सामान्य व्यक्ति अपने सुख-दुख के लिए सचिन से प्रार्थना करता है। वे सब भी प्रभु के दरबार में जाते हैं। किसी अभिनेता का प्रदर्शन अच्छा हो इसके लिए अमिताभ बच्चन आशीर्वाद दे सकते हैं? कह सकते हैं कि वत्स तथास्तु। तब हम क्यों एक सामान्य व्यक्ति की तुलना भगवान से करने लगते हैं? एक मनोरंजन करने वाला व्यक्ति कैसे भगवान की उपाधि पा सकता है? गुरु नानक, दयानन्द सरस्वती, शिरड़ी बाबा आदि जिन्होंने समाज के लिए अवर्णनीय कार्य किए उन्हें हम भगवान की तरह पूजते हैं। लेकिन जो केवल मनोरंजन जगत के व्यक्ति हैं उन्हें भी हम भगवान के समकक्ष स्थापित कर दें तो क्या यह उस ईश्वर का अपमान नहीं है जिसे हम सृष्टि का रचयिता कहते हैं? इसलिए समाज को और पत्रकार जगत को गरिमा बनाकर रखनी चाहिए। सामान्य व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना मुझे तो उचित कृत्य नहीं लगता, हो सकता है मेरा कथन सही नहीं हो। इस संदर्भ में आप सभी की मान्यताएं कुछ और हो। इसलिए मैंने यह विषय उठाया है कि मैं भी समाज में फैल रही इस मनोवृत्ति का कारण जान सकूं और स्वयं में सुधार कर सकूं। आप सभी के विचार आमन्त्रित हैं।