Monday, November 28, 2011

क्‍या भगवान की उपाधि किसी सामान्‍य मनुष्‍य को दी जानी चाहिए?



समाचार पत्र में हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयोगी पेज- होता है- पेज चार। समाचार पत्र आते ही मुख्‍य पृष्‍ठ से भी अधिक उसे वरीयता मिलती है। क्‍यों? इसलिए कि उसमें शोक-संदेश होते हैं। कल ऐसे ही एक शोक-संदेश पर निगाह पड़ी, कुछ अटपटा सा लगा। बहुत देर तक मन में चिन्‍तन चलता रहा कि ऐसा लिखना कितना तार्किक है? किसी महिला का शोक-संदेश था और महिला की फोटो के नीचे लिखा था अवतरण दिनांक ---- और निर्वाण दिनांक -----। अवतरण और निर्वाण शब्‍दों का प्रयोग हम ऐसे महापुरुषों के लिए करते हैं जिनको हम कहते हैं कि ये साक्षात ईश्‍वर के अवतार हैं। इसलिए इनका धरती पर अवतरण हुआ और मृत्‍यु के स्‍थान पर निर्वाण अर्थात मोक्ष की कल्‍पना करते हैं। भारत भूमि में राम, कृष्‍ण, महावीर, बुद्ध आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इन्‍हें हम भगवान का अवतार मानते हैं। पृथ्‍वी पर भगवान के रूप में साक्षात अनुभूति के लिए महापुरुषों के रूप में अवतरण होता है, ऐसी मान्‍यता है।
हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्‍येक परिवार के लिए माँ का रूप भगवान के समान होता है और इसी कारण अवतरण एवं निर्वाण शब्‍द का प्रयोग किया गया होगा। इसी संदर्भ में एक अन्‍य प्रसंग भी ध्‍यान में आता है। क्रिकेट के खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को पत्रकार भगवान कहते हैं और क्रिकेट के भगवान सचिन ऐसी उपाधि देते है। इसी प्रकार कई बार अमिताभ बच्‍चन को भी उनके प्रशंसक भगवान की उपाधि देते हैं। दक्षिणी प्रांतों के कई अभिनेताओं के तो मन्दिर भी हैं और बकायदा उनकी पूजा भी होती है। भारतीय संस्‍कृति में माना जाता है कि हम सब प्राणी भगवान का ही अंश हैं। लेकिन भगवान नहीं है। भगवान सृष्टि का निर्माता है, सम्‍पूर्ण सृष्टि का संचालन उसी के अनुरूप होता है। सृष्टि के सम्‍पूर्ण तत्‍वों का वह नियन्‍ता है। मनुष्‍य के सुख-दुख भी भगवान द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। जब व्‍यक्ति थक जाता है, हार जाता है, दुख में डूब जाता है, तब उसके पास भगवान के समक्ष प्रार्थना करने के अतिरिक्‍त कोई आशा शेष नहीं र‍हती। यह भी अकाट्य सत्‍य है कि लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, उनके दुख दूर होते हैं। उनके मन में नवीन आशा का संचार होता है।
बच्‍चों के लिए माता, भगवान का रूप हो सकती है लेकिन समाज के लिए नहीं। यदि हमने सभी को यह उपाधि देना प्रारम्‍भ कर दिया तो भगवान का स्‍वरूप ही विकृत हो जाएगा। आप कल्‍पना कीजिए, एक बच्‍चे को भूख लगी है, वह माँ से भोजन प्राप्‍त करता है। लेकिन यदि उसके प्राणों की रक्षा की बात है तब उसे माँ के स्‍थान पर भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी। इस उदाहरण में तो केवल कुछ शब्‍दों का ही उल्‍लेख है। अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार पढ़कर तो आश्‍चर्य की सीमा ही नहीं रही। समाचार था एक पुरुष ने संन्‍यास धारण किया और संन्‍यासी बनते ही उसने प्राण त्‍याग दिए। पहले तो मैं इसका अर्थ नहीं समझी, लेकिन फिर समझ आया कि संन्‍यासी बनकर मृत्‍यु की कामना करना भी समाज में उत्‍पन्‍न हो गया है। अन्‍त समय में संन्‍यासी बनने की ईच्‍छा व्‍यक्‍त करना और फिर संन्‍यासियों की तरह दाह-संस्‍कार करना। जैसे हमारे राजनेताओं की ईच्‍छा रहती है कि हम तिरंगे में ही श्‍मशान जाएं वैसे ही संन्‍यासी वेश में मृत्‍यु की ईच्‍छा रहती है। यह कृत्‍य भी क्‍या संन्‍यासियों की तपस्‍या को धूमिल करने वाला नहीं है?
क्‍या कोई भी खिलाड़ी अपने खेल में उत्‍कृष्‍टता के लिए सचिन से प्रार्थना करता है? या अन्‍य सामान्‍य व्‍यक्ति अपने सुख-दुख के लिए सचिन से प्रार्थना करता है। वे सब भी प्रभु के दरबार में जाते हैं। किसी अभिनेता का प्रदर्शन अच्‍छा हो इसके लिए अमिताभ बच्‍चन आशीर्वाद दे सकते हैं? कह सकते हैं कि वत्‍स तथास्‍तु। तब हम क्‍यों एक सामान्‍य व्‍यक्ति की तुलना भगवान से करने लगते हैं? एक मनोरंजन करने वाला व्‍यक्ति कैसे भगवान की उपाधि पा सकता है? गुरु नानक, दयानन्‍द सरस्‍वती, शिरड़ी बाबा आदि जिन्‍होंने समाज के लिए अवर्णनीय कार्य किए उन्‍हें हम भगवान की तरह पूजते हैं। लेकिन जो केवल मनोरंजन जगत के व्‍यक्ति हैं उन्‍हें भी हम भगवान के समकक्ष स्‍थापित कर दें तो क्‍या यह उस ईश्‍वर का अपमान नहीं है जिसे हम सृष्टि का रचयिता कहते हैं? इसलिए समाज को और पत्रकार जगत को गरिमा बनाकर रखनी चाहिए। सामान्‍य व्‍यक्ति को भगवान की उपाधि देना मुझे तो उचित कृत्‍य नहीं लगता, हो सकता है मेरा कथन सही नहीं हो। इस संदर्भ में आप सभी की मान्‍यताएं कुछ और हो। इसलिए मैंने यह विषय उठाया है कि मैं भी समाज में फैल रही इस मनोवृत्ति का कारण जान सकूं और स्‍वयं में सुधार कर सकूं। आप सभी के विचार आमन्त्रित हैं।  

Sunday, November 13, 2011

कौन है हमारा idol ( आदर्श ) व्‍यक्ति?



एक पोस्‍ट मैंने लिखी थी बाघदड़ा नेचर पार्क पर। जहाँ हम पूर्णिमा की रात में एक नेचर पार्क में थे। (पूर्ण चन्‍द्र की रात में जंगल का राग सुनो ) वहाँ बातचीत करते हुए एक प्रश्‍न आया था कि आपका आयडल कौन है? कई लोगों ने उत्तर दिया और किसी ने यह भी कहा कि हम अपने जीवन में कोई आयडल नहीं बना पाए हैं। मेरे मन में एक उत्तर था लेकिन मैंने उस समय कुछ नहीं बोला क्‍योंकि मेरा उत्तर कुछ लम्‍बा था और उस स्‍थान पर कम बोलने को कहा गया था। इसलिए आज अपनी बात कहने के लिए और आप सब की राय जानने के लिए यहाँ लिख रही हूँ।
मेरा आयडल कौन यह प्रश्‍न के उत्तर के लिए मैंने कई व्‍यक्तियों के बारे में चिंतन किया लेकिन उनका एक या अनेक विचार आपके मन में प्रेरणा जगाते हैं लेकिन दूसरे कुछ विचार निराशा का भाव जगाते हैं इसलिए मन ने उन सारे नामों को नकार दिया। मैं दुनिया के कई लोगों से प्रभावित होती हूँ, या यूँ कहना सार्थक होगा कि लोगों के कृतित्‍व या विचार से प्रभावित होती हूँ। उस कृतित्‍व या विचार को अपने अन्‍दर धारण करने का प्रयास करती हूँ। सारे ही विचार या कार्य मैं अपने जीवन में नहीं उतार पाती लेकिन वे विचार मेरे जीवन के आसपास जरूर बने रहते हैं और उन विचारों के अनुकूल ना सही लेकिन प्रतिकूल जाने से अवश्‍य रोकते हैं। शायद आपके साथ भी ऐसा होता हो। कई बार बहुत छोटी सी घटनाएं मन में अंकित हो जाती है, उस घटना में छिपा दर्शन हमारे जीवन का अंग बन जाता है। इसलिए विचारों और कार्यों का समूह मन में दस्‍तक देते हैं और वे ही हमारे आदर्श बनते हैं। जब भी हम किसी एक कृतित्‍व से किसी व्‍यक्ति को आदर्श मान लेते हैं तब वह व्‍यक्ति आवश्‍यक नहीं कि हमेशा आपका आदर्श बना रहे। वर्तमान में अन्‍ना हजारे इसका उदाहरण है। उनके एक कृतित्‍व ने उन्‍हें करोड़ों लोगों का आयडल बना दिया। इसीकारण उनके विरोधी इस छवि को धूमिल करने में लगे हैं। इस कारण कोई एक व्‍यक्ति आयडल ना होकर यदि विचारों को हम आदर्श माने तब उस विचार पर हमारा विश्‍वास बना रहेगा नहीं तो जैसे ही उस व्‍यक्ति का धूमिल चेहरा आपके समक्ष आएगा वह आदर्श विचार भी हवा हो जाएंगे।
आप या मैं किन विचारों से प्रेरित होते हैं? जिन विचारों के साथ वक्‍ता का कृतित्‍व जुड़ा होता है। फिर वह व्‍यक्ति कोई अदना सा है या विशाल व्‍यक्तित्‍व का धनी इससे अन्‍तर नहीं पड़ता है। कई उदाहरण मेरे सामने हैं। उनसे मुझे प्रेरणा मिली। एक बार का वाकया है मैं एक जनजातीय गाँव में गयी। वह गाँव शहरी विकास से कोसो दूर था। प्रकृति के साथ जीना ही वहाँ के व्‍यक्तियों को रास आया हुआ था और वे शायद विकास के स्‍वरूप को देख भी नहीं पाए थे। एक बुजुर्ग व्‍यक्ति एक खाट पर बैठे थे। मैंने प्रश्‍न किया कि बाबा आपको यहाँ क्‍या कमी लगती है? उस व्‍यक्ति ने चारों तरफ देखा और कहा कि यहाँ सब कुछ ही तो है। उसका संतोष मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत बना। अब वह व्‍यक्ति मेरे आयडल नहीं हो सकते लेकिन वह विचार मेरे लिए आदर्श है। हमारे पास सबकुछ है लेकिन मन कहता है कि कुछ नहीं है और उस बुजुर्ग के पास कुछ नहीं था लेकिन वह कह रहा था कि सबकुछ है।
एक और घटना सुनाती हूँ, मेवाड़ में अकाल के दिन थे। पानी की बहुत ही तंगी थी। मैं पानी की तंगी के कारण पेरशान थी और इसी समय मेरी सफाई कर्मचारी ने घण्‍टी बजा दी। पानी की कमी पर उसने कहा कि हमें तो इस कमी से कोई फरक नहीं पड़ता है। क्‍योंकि हम सुबह तालाब पर जाते हैं, वहीं स्‍नान करते हैं, कपड़े धोते हैं और एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। मेरे हाथ वाशबेसन में बहते हुए पानी को अब रोक रहे थे। ऐसे ही मेरा एक नौकर था। सुबह नौ बजे आता था और शाम को पाँच बजे चला जाता था। हम लोग दिन में दो बजे भोजन करते थे तब उससे मैं कहती थी कि तू भी खाना खा ले। लेकिन उसने कभी खाना नहीं खाया। वह कहता था कि मैं घर से खाना खाकर आता हूँ और शाम को घर जाकर ही खाऊँगा। यदि आपके यहाँ दिन में खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी। एक किस्‍सा और सुनाती हूँ, हमने जनजातीय क्षेत्र में अकाल के समय कुएँ गहरे कराने का काम किया। वनवासी से भी 25 प्रतिशत हिस्‍सा लिया गया। कुछ लोगों ने अग्रिम पैसा जमा करा दिया। लेकिन तभी वर्षा आ गयी और कुओं में पानी आ गया। हमने एक वनवासी को पैसे लौटाए तो उसने लेने से मना कर दिया। कहा कि मेरे कुए में तो पानी आ गया है अब मैं पैसे का क्‍या करूंगा आप लोग इससे परसादी कर लो।
यह सारे उदाहरण नामचीन व्‍यक्तियों के नहीं है। उन लोगों के हैं जिनका समाज में कोई स्‍थान नहीं है। लेकिन वे मेरे मानस में हमेशा बने रहते हैं। मैं इनका बार-बार उल्‍लेख भी इसीलिए करती हूँ कि इनके विचारों से मैं प्रेरित हो सकूं। इन जैसे ढेर सारे उदाहरण है जिनने मेरे मस्तिष्‍क पर दस्‍तक दी। मैंने अपनी लघुकथा संग्रह में इनपर लिखा भी है। इसके विपरीत कई ऐसे बड़े नाम भी हैं जिनका कृतित्‍व निश्चित ही प्रभावित करता है लेकिन वे प्रभावित नहीं कर पाते और ना ही दिल में अंकित हो पाते हैं। क्‍योंकि आज जितने भी बड़े नाम हैं उनके विचारों और कृतित्‍व में कहीं अन्‍तर दिखायी देता है जबकि इन गरीब लोगों के विचार और आचरण में कोई अन्‍तर नहीं है। ये विचार ही उनकी जीवन शैली है। इसलिए जब भी यह प्रश्‍न मेरे समक्ष यक्ष प्रश्‍न सा उपस्थित होता है, मेरे समक्ष न जाने कितने चेहरे जो समाज में कहीं नहीं हैं, वे ही दिखायी दे जाते हैं। सारे ही बड़े नाम मेरे सामने गौण हो जाते हैं। प्रतिदिन ही कोई न कोई विचार हमें प्रभावित कर जाता है और हम उसे अपने मन और मस्तिष्‍क दोनों में अंकित कर लेते हैं। जब ये विचार मन में अंकित हो जाते हैं तब वे हमारी पूंजी बन जाते हैं। जैसे पूंजी को हम प्रतिदिन उपयोग में नहीं लाते हैं लेकिन वे हमारे साथ रहती है। इसलिए मेरे पास इस प्रश्‍न का उत्तर नहीं है कि मेरा आयडल कौन है? या मेरा गुरू कौन है? क्‍योंकि गुरू भी ऐसा ही व्‍यक्तित्‍व है जो कभी एक नहीं हो सकता। न जाने हम  कितने लोगों से सीखते हैं। इसलिए इन लोगों को जिनसे मुझे प्रेरणा मिलती है उन्‍हें गुरु मानूं या आयडल समझ नहीं आता है। हो सकता है कि मेरे इन विचारों से आप सहमत नहीं हों और इससे इतर आपके अन्‍य विचार हों। इसलिए इस विषय की व्‍यापक चर्चा हो सके, मैंने इसे यहाँ लिखना उपयोगी लगा। आपकी क्‍या राय है? आपका आयडल कौन है? 

Sunday, November 6, 2011

साठ वर्ष का सफर कितना सुन्‍दर कितना मधुर



जीवन का फलसफा भी कुछ अजीब ही है। कभी लगता है कि जीवन हमारी मुठ्ठी में उन रेत-कणों की तरह है जो प्रतिपल फिसल रहे हैं। साल दर साल हमारी मुठ्ठी रीतती जा रही है। लेकिन आज लग रहा है कि जीवन कदम दर कदम हर एक पड़ाव को पार करते रहने का नाम हैं। हम अपनी चाही हुई मंजिल तक जा पहुंचते हैं। एक-एक सीढ़ी चढ़कर हम पर्वत को लांघ लेते हैं। आज मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। साठ वर्ष जीवन में बहुत मायने रखते हैं। कोई कहता है कि हम बस अब थक गए हैं, दुनिया भी कहती है कि तुम अब चुक गए हो, बस आराम करो। लेकिन कैसा आराम? मुझे लग रहा है कि सफर तो अब प्रारम्‍भ हुआ है। अभी तक तो सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुए एक मंजिल तक पहुंचे हैं। जैसे एक पर्वतारोही पर्वत पर जाकर चैन की सांस लेता है और वहाँ से दुनिया को देखने की कोशिश करता है बस वैसे ही आज लग रहा है कि साठ वर्ष पूर्ण हो गए, मैं पर्वतनुमा अपनी मंजिल तक प‍हुंच गयी और यहाँ से अब दुनिया को निहारना है। सारी दुनिया अब स्‍पष्‍ट दिखायी दे रही है। तलहटी में बचपन बसा है, कुछ धुंधला सा ही दिखायी दे रहा है लेकिन सबसे मनोरम शायद वही लग रहा है।
ऊँचे पर्वत पर आकर या उम्र के इस पड़ाव पर आकर सब कुछ तो साफ दिखने लगता है। सारे ही नाते-रिश्‍ते, मित्र-साथी, वफा-बेवफा सभी कुछ। तलहटी पर बसा बचपन, दूब की तरह होता है। जरा सा ही स्‍नेह का पानी मिल जाए, लहलहा जाता है। दूब की तरह ही कभी समाप्‍त नहीं होता। हमेशा यादों में बसा रहता है। बचपन में दूब की तरह ही जब हर कोई अपने पैरों से हमें रौंदता है तो लगता है कि हम कब इस पेड़ की तरह बड़े होंगे? कब हम पर भी फल लगेंगे? कब हम भी उपयोगी बनेंगे? लेकिन आज वही दूब सा बचपन प्‍यारा लगने लगता है, उसकी यादों में खो जाने का मन करता है। बचपन खेलते-कूदते, डाँट-फटकार खाते, सपने देखते चुटकी बजाते ही बीत गया। हर कोई कहने लगा कि अब तुम बच्‍चे नहीं रहे, बड़े हो गए हो। हम भी सपने देखते बड़े होने के, घण्‍टों-घण्‍टों नींद नहीं आती, बस जीवन के सपने ही आँखों में तैरते रहते थे। हम क्‍या बनेंगे, यह सपने हमारे पास नहीं थे। क्‍योंकि शायद हमारी पीढ़ी में ऐसे सपने हमारे माता-पिता देखा करते थे। इसलिए कुरेदते भी नहीं थे अपने मन को, कि तुझे किधर जाना है? कभी कुरेद भी लिया तो दुख ही हाथ आता था। क्‍योंकि पिता का हुक्‍म सुनायी पड़ जाता था कि तुम्‍हें यह करना है। बस मुझे तो यही संतोष है कि मेरे पिता ने हमें शिक्षा दिलाने का सपना देखा, हमें बुद्धिमान बनाने का सपना देखा। यदि वे यह सपना नहीं देखते तो हम भी आज न जाने किस मुकाम पर जा पहुंचते? कौन से पर्वत पर मैं खड़ी होती? पति के सहारे? या बच्‍चों के सहारे? आज शिक्षा के सहारे ना केवल मजबूती से उम्र के इस पड़ाव पर पैर सीधे खड़े हैं अपितु सारे परिवार को भी थामने का साहस इन पैरों में आ बसा है।
पर्वत से झांकते हुए युवावस्‍था के फलदार वृक्ष दिखायी दे रहे हैं। कभी इसी वृक्ष को कोई निर्ममता से काट देता था तो कोई ममता से पानी पिला देता था। जीवन पेड़ की तरह बड़ा होता है, कटता भी है, छंटता भी है, तो कोई पानी भी डालता है और कोई खाद भी बनता है। फल और फूल भी आते है तो पतझड़ और बसन्‍त भी खिलते हैं। लेकिन पेड़ के फल कैसे हैं बस इसी से पेड़ की ख्‍याति होती है। मीठे फल लगे हैं तो दूर-दूर तक लोग कहते हैं कि फलां पेड़ के फल बहुत मीठे हैं। यदि फल मीठे नहीं हैं तो लोग उस तरफ झांकते भी नहीं। लेकिन माँ के रूप में विकसित इस छायादार पेड़ में जब फल लगते हैं तब उस माँ को अपने फल बहुत ही मीठे और सुगन्धित प्रतीत होते हैं। लेकिन फलों से विरल कभी पेड़ की भी अपनी खुशबू होती है, जैसे चन्‍दन की। देवदार से पेड़, पर्वतों को जब छूते हैं तब भला किसे नहीं लुभाते? कभी झांककर देखा है इन देवदार के पेड़ों की जड़ों को? कहाँ उनकी जड़ होती है और कहाँ उनका अन्तिम छोर होता है? बस जीवन देवदार जैसा ही बन जाए!
पर्वतों के ऊपर भी समतल होता है। बहुत सारा स्‍थान। वातावरण एकदम शुद्ध। गहरी सांस लेकर उस प्राण वायु को अपने अन्‍दर समेट लेने की प्रतिपल इच्‍छा होती है। दूर दूर से आकर पक्षी भी यहाँ गुटरगूं करते हैं। पैरों की धरती के नीचे दबा होता है बेशकीमती खजाना, बस थोड़ा सा खोदों तो न जाने जीवन के कितने रत्‍न यहाँ दबे मिल जाते हैं। जीवन का सबसे मधुर पल, जहाँ अब और ऊपर जाने की चाहत नहीं रहती। अब और परिश्रम करने की आवश्‍यकता नहीं रहती। अब और फल और फूल बिखरने की जरूरत नहीं होती। बस संघर्ष के दिन समाप्‍त, अब तो केवल प्रकृति को निहारना है। देखनी है अठखेलियां वृक्षों पर बैठे नन्‍हें पक्षियों की। देखने हैं बस रहे घौंसलों को और ममताभरी आँखों से उस रस को पीना है जो चिड़िया अपनी चोंच से अपने नवजात को चुग्‍गे के रूप में देती है। सब दूर से देखना है, आनन्दित होना है। आगे बढ़कर, दोनों बाहों को फैलाकर इस प्रकृति को अपने पाश में भर लेना है। कितने मधुर क्षण हैं, कितने अपने से पल हैं? साठ वर्ष पार कर लेने पर ठहराव की प्रतीति हो रही है। मन के आनन्‍द को बाहर निकालकर उससे साक्षात्‍कार करने की चाहत जन्‍म ले रही है। अनुभवों के निचोड़ से जीवन को सींचने का मन हो रहा है। खुले आसमान के नीचे, अपने ही बनाए पर्वत पर बैठकर जीवन की पुस्तिका के पृष्‍ठ उलट-पुलटकर पढ़ने का मन हो रहा है। कभी-कभी इन पर्वतों पर कंदराएं भी दिख जाती हैं, ये कंदराएं एकान्‍त में ले जाती हैं। तब हाथों में कूंची लेकर जीवन के रंगों से इन कंदराओं को रंगने का अपना शौक शायद पूरा हो सके। अब तो जीवन स्‍पष्‍ट है, सभी कुछ स्‍पष्‍ट दिख भी रहा है। बस इसके आनन्‍द में उतर जाना है। बहुत कुछ पाया है इस जीवन से। खोया क्‍या है? अक्‍सर लोग प्रश्‍न करते हैं। लेकिन खोने को कुछ था ही नहीं, इसलिए पाया ही पाया है। ना तो बचपन में चाँदी की चम्‍मच मुँह में थी और ना ही जहाँ इस पौधे को रोपा गया था वहाँ कोई बड़ा बगीचा था, तो खोने को क्‍या था? समुद्र मन्‍थन में विष भी था तो अमृत भी, इसी प्रकार जीवन मन्‍थन में विष भी था और अमृत भी। विष को औषधि मान लिया और अमृत को जीवन। बस कदम दर कदम बढ़ाते हुए पहुंच गए इस साठ वर्ष के पहाड़ पर। मन में संतोष है कि यह पहाड़ हमारा अपना बनाया हुआ है, यहाँ अब शान्‍तचित्त होकर दुनिया को अपनी दृष्टि से देखेंगे। पहाड़ के समतल पर एक बगीचा लगाएंगे, उस बगीचे में दुनिया जहान के पक्षियों को बुलाएंगे और उनकी चहचहाट से अपने मन को तृप्‍त करेंगे।  
( अपने ही जन्‍मदिन 9 नवम्‍बर के अवसर पर, जो मुझे साठ वर्ष पूर्ण करने पर खुशी दे रहा है। इसे आज देव उठनी एकादशी पर लिखा गया है क्‍योंकि तिथि के अनुसार आज ही पूर्ण हो रहे हैं जीवन के अनमोल साठ वर्ष)