एक छोटा सा घर, चार जोड़ी कपड़े, दो जोड़ी जूते-चप्पल। रात को सोने के लिए केवल गद्दे जो सुबह होते ही तह कर के उठाकर रख दिए जाते थे। ना सोफा, ना डायनिंग टेबल, ना ड्रेसिंग टेबल और ना पलंग। रसोई भी नहीं थी मोडलर और ना ही आयी थी गैस। बस थी तो एक मात्र सिगड़ी, जिसके आसपास आसन बिछाकर माँ के हाथ की गर्मागर्म रोटियो का आनन्द शायद दुनिया में दूसरा नहीं होगा। दीवाली आ रही है, इसका शोर अन्दर से उठता था जैसे फूल से परागकण फूट पड़ते हैं बस वैसे ही आनन्द और उल्लास वातावरण को सरोबार कर देता था। सफाई बस एक-दो दिन में पूरी हो जाती। क्योंकि घर में ताम-झाम कुछ नहीं थे। सफाई के बाद कचरे में पुराने डिब्बे, किताब-कॉपियां, तार, सूतली आदि निकलते। इन बेचारों को हम बड़े शौक से घर निकाला दे देते। लेकिन तभी पिताजी की कड़कडाती आवाज सुनायी दे जाती, यह डिब्बा क्यों फेंक दिया गया है? वे सारे सामान का ऑडिट की तरह मुआयना करते। डिब्बे घर के अन्दर वापस जगह पा जाते, मुड़ा-तुड़ा तार भी किसी खूंटी पर लटक जाता और चिठ्ठी-पत्री के लिए हेंगर बन जाता। पुरानी कॉपियों के खाली पन्ने फाड़ लिए जाते और किताबे पुस्तकालय की आस में वापस अल्मारी में चले जातीं। फिर उनका ध्यान आकर्षित होता थैलियों और सूतलियों पर, वे भी धूल झाड़कर इठलाती हुई सी वापस घर के अन्दर चले जातीं। बस कूड़े के नाम पर रह जाती पाव-आधा किलो धूल। तब ना तो कबाड़ी आता और ना ही डस्टबीन भरता।
नए कपड़ों के नाम पर कभी-कभी एक जोड़ी कपड़े मिल जाते और वे हमारे लिए अमूल्य भेंट होती। दीवाली पर सबसे ज्यादा आबाद रहती रसोई। दो दिन तक मिठाइयां बनाने का दौर चलता। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस दीपावली पर ही होता तो मन्दिर में चढ़ाने के लिए लड्डू घर पर ही बनते। देसी घी में बूंदी निकाली जाती और हम सब लड्डू बांधते। बाजार की मिठाई लाना तो अपराध की श्रेणी में था। साथ में जलेबी भी बनती और गजक भी कुटती। माँ मीठे नमकीन शक्करपारे भी बनाती। गुड़ और आटे के खजूर भी बनते, जो आज तक भी भुलाए नहीं भूलते, लेकिन वे सब माँ के साथ ही विदा हो गए। दीवाली पर पटाखे खरीदना और चलाना मानो रूपयों में सीधे ही माचिस दिखाना था। लेकिन बाल मन पटाखों का मोह कैसे त्याग सकता था? भाइयों से कहकर कुछ पटाखों का इंतजाम हो ही जाता और छोटी लड़ी वाले बम्ब एक-एककर चलाए जाते।
दीवाली की सांझ भी नवीन उत्साह लेकर आती। थाली में दीपक सजते और हम नए कपड़े पहनकर निकल पड़ते सारे ही पड़ोसियों के घर। पड़ोसी के घर की चौखट पर दीपक रखते और दीवाली की ढोक देते। ना उस समय मिठाइयां होती और ना ही कोई तड़क-भड़क। बस मिलने-मिलाने का जो आनन्द आता वो अनोखा था। हमारे एक पड़ोसी थे, थोड़े पैसे वाले थे लेकिन पैसे को सोच समझकर खर्च करते थे। इसलिए दीवाली के दूसरे दिन अनार खरीदकर लाते। उन दिनों में अनार मिट्टी की कोठियों में मिलते थे और काफी बड़े होते थे। खूब देर तक भी चलते थे। पटाखे दीवाली के दिन ही चलते थे तो दूसरे दिन पटाखे सस्ते मिल जाते थे। वे तभी अनार खरीदते थे और हम सब उनके अनार का आनन्द लेते थे। दीवाली के दूसरे दिन मिठाइयों का आदान-प्रदान भी होता था। लेकिन हमारे पिताजी डालडा के प्रति बहुत सख्त थे तो किसी के यहाँ की भी मिठाई घर में आने नहीं देते थे। बिल्कुल स्पष्ट पूछ लिया जाता था कि डालडा कि है तो हमारे घर पर नहीं चलेगी। उन दिनों डालडा घी नया-नया चला ही था तो लोगों को उससे परहेज नहीं था। लेकिन हमारे यहाँ तो कर्फ्यू जैसा था। इतनी बंदिशों के बावजूद भी दीवाली का उल्लास मन में बसा रहता था, हम किशोर तो न जाने कितने दिन तक दीवाली मनाते थे। क्योंकि उन दिनो दिवाली की छुट्टियां भी कई दिनों की आती थी। होमवर्क भी मिलता था लेकिन सभी अध्यापकों को पता था कि कोई होमवर्क नहीं करता है तो पूछताछ भी नहीं होती थी।
और आज की दीवाली? घर की सफाई, समस्या लेकर आती है। कम से कम पंद्रह दिन चाहिए सफाई को। थोड़ा सा भी पुराना सामान हुआ नहीं कि फेंको इसे, बस यही मानसिकता रहती है। यदि समय पर कबाड़ी नहीं आए तो छत भर जाती है। अब कोई नहीं आता जो यह कह दे कि यह सामान वापस काम आएगा। हम जैसे कचरा उत्पन्न करने की मशीने बन गए हैं। मिठाइयों से बाजार भरे रहते हैं ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ खरीदने में आता ही है। घर पर मिठाई शगुन की ही बनती है। बन जाती है तो समाप्त नहीं होती। अपने-अपने घरों में दीपक जला लेते हैं और दीपक से ज्यादा लगती है लाइट। पटाखों का ढेर लगा रहता है लेकिन चलाने का उल्लास तो खरीदा नहीं जा सकता? मेहमान भी गिनती के ही रहते हैं क्योंकि सभी तो दीवाली मिलन पर मिलेंगे। सामूहिक भोज हो गया और रामा-श्यामा हो गयी बस। बड़े-बड़े समूह बन गए और छोटे-छोटे समूहों की उष्णता समाप्त हो गयी। दीवाली की ढोक या प्रणाम ना जाने कहाँ दुबक गए, अब आशीर्वाद नहीं मिलते बस एक-दूसरे को हैपी दीवाली कहकर इतिश्री कर ली जाती है। न जाने क्या छूट गया? पहले थोड़ा ही था लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्द थोड़ा हो गया है। हो सकता हो कि यह उम्र का तकाजा हो, कि अब रस नहीं आता। जिनकी अभी रस ग्रहण करने की उम्र है वे कर ही रहे होंगे लेकिन हमारे जैसे तो यही कहेंगे कि पहले जैसा आनन्द अब नहीं। यही गीत याद आता रहा कि इक वो भी दीवाली थी और इक यह भी दीवाली है। आप लोग क्या कहते हैं?