Sunday, October 30, 2011

इक वो भी दीवाली थी, इक यह भी दीवाली है



एक छोटा सा घर, चार जोड़ी कपड़े, दो जोड़ी जूते-चप्‍पल। रात को सोने के लिए केवल गद्दे जो सुबह होते ही तह कर के उठाकर रख दिए जाते थे। ना सोफा, ना डायनिंग टेबल, ना ड्रेसिंग टेबल और ना पलंग। रसोई भी नहीं थी मोडलर और ना ही आयी थी गैस। बस थी तो एक मात्र सिगड़ी, जिसके आसपास आसन बिछाकर माँ के हाथ की गर्मागर्म रोटियो का आनन्‍द शायद दुनिया में दूसरा नहीं होगा। दीवाली आ रही है, इसका शोर अन्‍दर से उठता था जैसे फूल से परागकण फूट पड़ते हैं बस वैसे ही आनन्‍द और उल्‍लास वातावरण को सरोबार कर देता था। सफाई बस एक-दो दिन में पूरी हो जाती। क्‍योंकि घर में ताम-झाम कुछ नहीं थे। सफाई के बाद कचरे में पुराने डिब्‍बे, किताब-कॉपियां, तार, सूतली आदि निकलते। इन बेचारों को हम बड़े शौक से घर निकाला दे देते। लेकिन तभी पिताजी की कड़कडाती आवाज सुनायी दे जाती, यह डिब्‍बा क्‍यों फेंक दिया गया है? वे सारे सामान का ऑडिट की तरह मुआयना करते। डिब्‍बे घर के अन्‍दर वापस जगह पा जाते, मुड़ा-तुड़ा तार भी किसी खूंटी पर लटक जाता और चिठ्ठी-पत्री के लिए हेंगर बन जाता। पुरानी कॉपियों के खाली पन्‍ने फाड़ लिए जाते और किताबे पुस्‍तकालय की आस में वापस अल्‍मारी में चले जातीं। फिर उनका ध्‍यान आकर्षित होता थैलियों और सू‍तलियों पर, वे भी धूल झाड़कर इठलाती हुई सी वापस घर के अन्‍दर चले जातीं। बस कूड़े के नाम पर रह जाती पाव-आधा किलो धूल। तब ना तो कबाड़ी आता और ना ही डस्‍टबीन भरता।
नए कपड़ों के नाम पर कभी-कभी एक जोड़ी कपड़े मिल जाते और वे हमारे लिए अमूल्‍य भेंट होती। दीवाली पर सबसे ज्‍यादा आबाद रहती रसोई। दो दिन तक मिठाइयां बनाने का दौर चलता। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस दीपावली पर ही होता तो मन्दिर में चढ़ाने के लिए लड्डू घर पर ही बनते। देसी घी में बूंदी निकाली जाती और हम सब लड्डू बांधते। बाजार की मिठाई लाना तो अपराध की श्रेणी में था। साथ में जलेबी भी बनती और गजक भी कुटती। माँ मीठे नमकीन शक्‍करपारे भी बनाती। गुड़ और आटे के खजूर भी बनते, जो आज तक भी भुलाए नहीं भूलते, लेकिन वे सब माँ के साथ ही विदा हो गए। दीवाली पर पटाखे खरीदना और चलाना मानो रूपयों में सीधे ही माचिस दिखाना था। लेकिन बाल मन पटाखों का मोह कैसे त्‍याग सकता था? भाइयों से कहकर कुछ पटाखों का इंतजाम हो ही जाता और छोटी लड़ी वाले बम्‍ब एक-एककर चलाए जाते।
दीवाली की सांझ भी नवीन उत्‍साह लेकर आती। थाली में दीपक सजते और हम नए कपड़े पहनकर निकल पड़ते सारे ही पड़ोसियों के घर। पड़ोसी के घर की चौखट पर दीपक रखते और दीवाली की ढोक देते। ना उस समय मिठाइयां होती और ना ही कोई तड़क-भड़क। बस मिलने-मिलाने का जो आनन्‍द आता वो अनोखा था। हमारे एक पड़ोसी थे, थोड़े पैसे वाले थे लेकिन पैसे को सोच समझकर खर्च करते थे। इसलिए दीवाली के दूसरे दिन अनार खरीदकर लाते। उन दिनों में अनार मिट्टी की कोठियों में मिलते थे और काफी बड़े होते थे। खूब देर तक भी चलते थे। पटाखे दीवाली के दिन ही चलते थे तो दूसरे दिन पटाखे सस्‍ते मिल जाते थे। वे तभी अनार खरीदते थे और हम सब उनके अनार का आनन्‍द लेते थे। दीवाली के दूसरे दिन मिठाइयों का आदान-प्रदान भी होता था। लेकिन हमारे पिताजी डालडा के प्रति बहुत सख्‍त थे तो किसी के यहाँ की भी मिठाई घर में आने नहीं देते थे। बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट पूछ लिया जाता था कि डालडा कि है तो हमारे घर पर नहीं चलेगी। उन दिनों डालडा घी नया-नया चला ही था तो लोगों को उससे परहेज नहीं था। लेकिन हमारे यहाँ तो कर्फ्‍यू जैसा था। इतनी बंदिशों के बावजूद भी दीवाली का उल्‍लास मन में बसा रहता था, हम किशोर तो न जाने कितने दिन तक दीवाली मनाते थे। क्‍योंकि उन दिनो दिवाली की छुट्टियां भी कई दिनों की आती थी। होमवर्क भी मिलता था लेकिन सभी अध्‍यापकों को पता था कि कोई होमवर्क नहीं करता है तो पूछताछ भी नहीं होती थी।
और आज की दीवाली? घर की सफाई, समस्‍या लेकर आती है। कम से कम पंद्रह दिन चाहिए सफाई को। थोड़ा सा भी पुराना सामान हुआ नहीं कि फेंको इसे, बस यही मानसिकता रहती है। यदि समय पर कबाड़ी नहीं आए तो छत भर जाती है। अब कोई नहीं आता जो यह कह दे कि यह सामान वापस काम आएगा। हम जैसे कचरा उत्‍पन्‍न करने की मशीने बन गए हैं। मिठाइयों से बाजार भरे रहते हैं ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ खरीदने में आता ही है। घर पर मिठाई शगुन की ही बनती है। बन जाती है तो समाप्‍त नहीं होती। अपने-अपने घरों में दीपक जला लेते हैं और दीपक से ज्‍यादा लगती है लाइट। पटाखों का ढेर लगा रहता है लेकिन चलाने का उल्‍लास तो खरीदा नहीं जा सकता? मेहमान भी गिनती के ही रहते हैं क्‍योंकि सभी तो दीवाली मिलन पर मिलेंगे। सामूहिक भोज हो गया और रामा-श्‍यामा हो गयी बस। बड़े-बड़े समूह बन गए और छोटे-छोटे समूहों की उष्‍णता समाप्‍त हो गयी। दीवाली की ढोक या प्रणाम ना जाने कहाँ दुबक गए, अब आशीर्वाद नहीं मिलते बस एक-दूसरे को हैपी दीवाली कहकर इतिश्री कर ली जाती है। न जाने क्‍या छूट गया? पहले थोड़ा ही था  लेकिन उस थोड़े में ही अकूत आनन्‍द समाया था लेकिन अब अकूत है तो आनन्‍द थोड़ा हो गया है। हो सकता हो कि यह उम्र का तकाजा हो, कि अब रस नहीं आता। जिनकी अभी रस ग्रहण करने की उम्र है वे कर ही रहे होंगे लेकिन हमारे जैसे तो यही कहेंगे कि पहले जैसा आनन्‍द अब नहीं। यही गीत याद आता रहा कि इक वो भी दीवाली थी और इक यह भी दीवाली है। आप लोग क्‍या कहते हैं?   

Thursday, October 20, 2011

सुन सुन सुन अरे बाबा सुन, इन बातों में बड़े बड़े गुण



बाते करना किसे नहीं भाता? कैसा भी चुप्‍पा टाइप का इंसान हो, उसे भी एक दिन बातों के लिए तड़पना ही पड़ता है। बचपन तो खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में बीत जाता है, उस समय घर-परिवार में, स्‍कूल में, मौहल्‍ले में बाते करने वाले ढेर सारे लोग होते हैं। लेकिन युवावस्‍था आपकी परीक्षा लेकर आती है। अभी प्रेम के कीड़े ने दंश मारा ही था कि चहचहाते पक्षी की बोलती बन्‍द हो जाती है। अपने अन्‍दर ही बातों के गुंताले बुनता दिखायी दे जाएगा। लेकिन कभी प्रेम का मार्ग दिखायी दे जाता है तब जैसे गूंगे को जबान आ गयी हो वही हाल होता है। चाहे कोई सुनने वाला मिले या नहीं, आकाश तो है, बस बोलते रहिए और बोलते रहिए। प्रेम की धारा जैसे बोलने से ही अपने गंतव्‍य तक पहुंचेगी। लेकिन युवावस्‍था के बाद गृहस्‍थाश्रम तो सर्वाधिक कठिन आश्रम है। पत्‍नी बोलने वाली और पति महाशय वैज्ञानिकों की तरह मौनी बाबा! तो आप क्‍या करेंगे? या फिर पति बोलने वाला और पत्‍नी गूंगी गुडिया! हमारे यहाँ तुर्रा यह भी कि पति और पत्‍नी का साथ सात जन्‍मों का। अब आप बताइए कि कैसे निर्वाह हो? बचपन में जब हम बोलते थे तो पिताजी अक्‍सर टोकते थे कि तुम लोग इतना क्‍यों बोलते हो? मेरा एक ही उत्तर होता था कि यदि इस जन्‍म में नहीं बोले तो भगवान अगले जन्‍म में गूंगा बना देगा, कहेगा कि मैंने तुम्‍हें जुबान भी और तुमने काम ही नहीं ली।
जो पति और पत्‍नी युवावस्‍था में गुटर-गूं नहीं करते, उनका बुढ़ापा भी कठिनाई में पड़ जाता है। मौनी बाबा के साथ रहते रहते आप भी मूक प्राणी बन जाते हैं। जुबान पर स्‍वत: ही ताले पड़ जाते हैं। लेकिन जो खूब चहकते हैं उन्‍हें विपरीत परिस्थिति भी डगा नहीं पाती है। दुनिया जहान की बाते वे कर लेते हैं और मन को सदैव प्रसन्‍न रखते हैं। जो बाते नहीं करता हमारे यहाँ उसे घुन्‍ना कहा जाता है। कहते हैं कि इसके पेट में दाढ़ी है, अपनी बात बताता ही नहीं। लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो छल-कपट रहित होते हैं और उन्‍हें बात करना आता ही नहीं है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्‍या कम ही होती है। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्‍हें बातें करने से डर लगता है, कि कहीं उल्‍टा-सीधा कुछ ना निकल जाए, मुँह से। इस समस्‍या के शिकार अक्‍सर पति होते हैं, वे न जाने क्‍यों पत्नियों के सामने लड़खड़ा से जाते हैं। कहते हैं कि बचपन और युवावस्‍था तो पंख लगाकर उड़ जाते हैं लेकिन वृद्धावस्‍था काटे नहीं कटती है। तब सहारा होता है केवल जीवन-साथी। और इन दोनों का सहारा होता है कभी समाप्‍त न होने वाली बातें। यदि दम्‍पत्ती गाँव से आकर शहर में बसे हैं तो देखो चार आने सेर के घी से लेकर तीस हजार रूपए तोले के सोने की बात हो जाएगी। आज से पचास साल पहले स्‍वर्गवासी हुए दीनूकाका की बाते याद कर कभी पत्‍नी हँस देगी तो कभी पति दुखी हो जाएगा। कैसे नदी पर नहाने जाते थे, कैसे चक्‍की से आटा पीसते थे, कैसे शाम पड़े चबुतरे पर बैठकर हरे चने छीलते हुए सारे जहान की बाते कर लिया करते थे। बचपन में गिल्‍ली डंडा कब तक खेला था और हमारी गिल्‍ली से किस का सर फूटा था, सारी ही बाते हो जाती हैं।
कुछ लोगों की बातों में अपना परिवार, अपना बचपन शामिल होता है। बस ऐसे दम्‍पत्ती सबसे सुखी होते हैं और इनकी बातों का कभी अन्‍त नहीं होता। कथा अनन्‍ता की तरह चलता ही रहता है पुराण। अच्‍छे से अच्‍छे मनोविश्‍लेषक भी मन को इतना नहीं जान पाते जितना इनकी बातों से प्रत्‍येक मन की तह पता लग जाती है। लेकिन कुछ लोग बचपन को अछूत सा बना देते हैं, कभी भूले भटके भी याद नहीं करते और बस पिले रहते हैं अमेरिका, यूरोप आदि अन्‍तरराष्‍ट्रीय समस्‍याओं पर। उन्‍हें चिन्‍ता सता रही होती है कि ओबामा अब अफगानिस्‍तान में क्‍या करेंगे लेकिन उनकी चिन्‍ता का विषय नहीं है कि मेरा पोता मुझे प्‍यार से बात करेगा या नहीं! कुछ लोगों की एक और समस्‍या है, वे अन्‍तरराष्‍ट्रीय समस्‍याओं को सुलझाने में इतने तल्‍लीन रहते हैं कि उन्‍हें अपने सुझाव बताने के लिए किसी शिकार की खोज रहती है। अक्‍सर ऐसे विचारकों से उनकी पत्नियां दूर ही रहती हैं और वे निकल पड़ते हैं शिकार की खोज में। हमारे भी ऐसे कई परिचित हैं। उन्‍हें विद्वान श्रोता चाहिए जो उनकी हाँ में हाँ मिला सके और अपने ज्ञान की जुगाली कर सकें। एक ऐसे ही हमारे परिचित हैं, गाहे-बगाहे चले आते हैं। अभी अपनी तशरीफ का टोकरा सोफे पर रखते भी नहीं हैं कि उनका रेडियो ऑन हो जाता है। इसके पहले वे सावधानी भी बरत लेते हैं और जल्‍दी ही कह देते हैं कि चाय भी पीनी है। अब चाय पीनी है तो आधा घण्‍टा तो आपको उन्‍हें सुनना ही होगा। हम तो अतिथि देवो भव: वाले देश के तो मना भी नहीं कर सकते है। वे जानते भी हैं कि मुझे ऐसा कौन सा तीर छोड़ना है जिससे ये मजबूर हो जाएं कुछ टिप्‍पणी करने के लिए। बस आपने उनका प्रतिवाद किया नहीं की बहस अपने परवान चढ़ने लगती है। उनकी मन की इच्‍छा पूर्ण और आप चाय पिलाकर भी मायूस। वे चाय पीकर भी रिक्‍त और हम उनकी सुनकर पस्‍त। लेकिन उनकी दिनभर की चित हो गयी।
अभी दो-तीन वर्ष पुरानी बात है। मैं अमेरिका गयी हुई थी। मुझसे मिलने मेरी पुत्री की सहेली आ गयी। अभी उसने कमरे में पैर रखा ही था कि उसका टेप चालू हो गया। वह बिना कोमा, फुलस्‍टाप लगाए बोले जा रही थी, हम सब उसे केवल निहार रहे थे। कुछ देर बाद उसे समझ आ गया कि बोलना शायद ज्‍यादा हो गया है। तो वह बड़ी मासूमियत के साथ बोली कि आण्‍टी प्‍लीज मुझे रोको मत। यहाँ अमेरिका में तीन महिने से कोई बोलने वाला मिला नहीं है तो जुबान पर दही जम गया है। उसका पति एक कोने में चुपचाप बैठा था, मैं उसकी हालत समझ सकती थी। इसलिए बाते करने का सुख मौनी लोग नहीं समझ सकते। यह दुनिया का सबसे बड़ा सुख है, जिसके पास यह कला नहीं है समझो उसके पास जीवन में कुछ नहीं है। अब इसके फायदे भी कितने हैं! बच्‍चों से गप्‍प लगाओ और उनके अन्‍दर की बाते जान लो, आपको अपना मित्र समझकर सब कुछ बताएंगे और आप उन्‍हें सही मार्ग पर चलना आसान करा देंगे। पति और पत्‍नी बातों के द्वारा एक-दूसरे के कितने करीब आ जाते हैं! मित्रता तो होती ही बातों के लिए है। आजकल तो लोग सुबह और शाम बाग-बगीचों में घूमते हुए मिल जाएंगे। अपना-अपना झुण्‍ड बना लेंगे और फिर घर-परिवार से लेकर दुनिया जहान की बातें बहने लगती हैं। घर जाते हैं तब तृप्‍त होकर जैसे छककर अमृत पी लिया हो। बस अब मृत्‍यु आ जाए कोई गम नहीं, हमने अपने मन की बात कह ली है। लेकिन जो अपने मन की बात कभी नहीं कह पाते? वे क्‍या करते होंगे? कैसे जीते होंगे? क्‍या उनके मन में कुछ है ही नहीं या जो अन्‍दर है उसे बाहर निकालने का साहस ही नहीं है? शायद यह भी लेखन की तरह ही है कि कुछ लोग लिखने से ऐसा डरते हैं मानों कलम की जगह हाथ ने साँप पकड़ लिया हो। मन की अभिव्‍यक्ति होती ही नहीं और मन प्‍यास का प्‍यासा रह जाता है। या फिर कुछ लोगों को प्‍यास लगती ही नहीं?  

Thursday, October 13, 2011

पूर्ण चन्‍द्र की रात में जंगल का राग सुनो



पूर्ण चन्‍द्र की रात, किसी ने ताजमहल के अनुपम सौंदर्य को निहारते बितायी होगी तो किसी ने जैसलमेर के रेतीले धोरों पर स्‍वर्ण रेत कणों को खिलखिलाते सुना होगा। लेकिन इन सबसे परे शारदीय पूर्णिमा पर मैंने जंगल का राग सुना। चारों ओर पहाड़ों से घिरा जंगल, बीच में एक छोटा सा बाँध, ऊपर से चाँद की मद्धि‍म रोशनी, कहीं जुगनू चमक उठता तो ऐसा लगता कि तारा लहरा कर चल रहा है। कान शान्ति की तरफ लगे हुए और मधुर साज के साथ प्रकृति के सारे ही साजिंदे अपने साज बजा उठते। लय के साथ प्रकृति के प्राणियों का आर्केस्‍टा बज रहा था।  शहर की भागमदौड़ से निकलकर हम उदयपुर से 15 किमी दूर बाघदड़ा के प्राकृतिक अभयारण्‍य को देखने आए थे। सोचा था कि पहाड़ों के पीछे से जब सूर्य अस्‍त होगा तब उसे मन में उतार लेंगे लेकिन रास्‍ता पूछने में ही देर हो गयी और सूर्य अपने गंतव्‍य की ओर प्रस्‍थान कर गया। अब तो चाँद निकल आया था। शरद पूर्णिमा का चाँद।
वन विभाग के संरक्षण में यह अभयारण्‍य है। वन विभाग के अधिकारी के निमंत्रण पर हमने भी इस आनन्‍द को जीने का मन बना लिया। दरवाजे पर खड़े चौकीदार ने बताया कि तीन किलोमीटर दूर है हमारा गंतव्‍य। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी, एक पतली से मार्ग पर। सड़क नहीं थी, बस कच्‍चा मार्ग था। हमारी गाड़ी अकेली ही रास्‍ता भटकने से कुछ डरी हुई भी थीं लेकिन हम उसे आश्‍वस्‍त करते जा रहे थे कि रास्‍ता तो एकमात्र यही है, इसलिए हम भटके नहीं हैं। लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद रेत कुछ दलदली से लगने लगी, तब तो मन की शंका साँप के फण की तरह बाहर निकल ही आयी, नहीं रास्‍ता भटक गए हैं, हम शायद! एक अन्‍य गाड़ी में हमारे साथी कुछ देर पहले वहाँ पहुँच चुके थे। हमने फोन लगाया, अच्‍छा था कि नेटवर्क आ रहा था। अब उन्‍हें कैसे बताएं कि हम कहाँ हैं, क्‍योंकि वहाँ कोई लेण्‍डमार्क तो था ही नहीं। लेकिन राहत की साँस मिली, उन्‍होंने कहा कि नहीं बस यही इकलौता मार्ग है, चले आओ। तभी वे सब हाथ हिलाते हुए दिखायी दे गए।
गाड़ी को पार्क कर दिया गया। रात घिर आयी थी। अभी चन्‍द्रमा ने अपना पूरा प्रकाश नहीं फैलाया था, बिना टार्च की रोशनी के आगे बढ़ने में असुविधा हो रही थी। लेकिन वनकर्मी हमारे साथ था। वह एक छोटी सी पगडण्‍डी के सहारे हमे जंगल की ओर बढ़ा रहा था। हमें एकदम सीधे चले जाना था, एक दूसरे के कदमों के पीछे ही रहना था। जरा से चूके तो नीचे 80 फीट गहरी खाई थी और दूसरी तरफ तालाब। जिसमें मगरमच्‍छ भी थे। कहीं-कहीं घास भी काफी थी, लग रहा था कि कहीं से सर्पदेवता ना निकल आएं। लेकिन उस उबड़-खाबड़ पगडण्‍डी से होकर हम जा पहुंचे अपने गंतव्‍य स्‍थान पर। वहाँ चार चबूतरे बनाए हुए थे, वहाँ से तालाब की सुन्‍दरता को निहारा जा सकता था। एक चबूतरे पर टेन्‍ट लगा था, उसमें करीने से बिस्‍तर लगे थे। वाह, यहाँ तो रात बिताने का भी साधन है, लेकिन हम तो रात 10 बजे की योजना ही बनाकर आए थे। लेकिन हमने दूसरे चबूतरे पर अपना आधिपत्‍य जमा लिया। धीरे-धीरे और लोग भी आने लगे। इस भ्रमण में हमारे साथियों के अतिरिक्‍त सारी ही युवा-पीढ़ी थी। मन एकदम से युवा हो गया। जाते ही निर्देश मिल गए कि जितना शान्‍त रहेंगे उतना ही हम यहाँ के प्राणियों को राहत देंगे। यह उनका स्‍थान है, पशु-पक्षियों का घर है। आपको कोई अधिकार नहीं कि आप बिना पूछे उनके घर में चले आएं और शोर-शराबा करके उन्‍हें परेशान करें। हम सब की आवाजें एकदम धीरी हो गयी। बताया गया कि यहाँ पेन्‍थर है, आज ही उसने एक बकरी का शिकार किया है। मतलब उसका पेट भरा हुआ है, हम निश्चिंत हो गए। कभी यह स्‍थान बाघों का बाड़ा था इसलिए इसका नाम बाघदड़ा हो गया। लेकिन अब बाघ नहीं हैं बस पेंथर हैं और अन्‍य जीव।
मुख्‍य वन-संरक्षक श्री निहाल चन्‍द जैन हमारे साथ थे। उन्‍होंने बताया कि आप यहाँ आर्केस्‍टा सुन सकते हैं। मुझे लगा कि शायद कोई अन्‍य दल तालाब किनारे से आर्कस्‍टा बजाएंगा। लेकिन कुछ ही देर में समझ आ गया कि अरे इस आर्केस्‍टा का इंतजाम तो स्‍वयं प्रकृति ने किया है। कितने सुरताल में जीव अपना गान प्रस्‍तुत कर रहे थे, लग रहा था सारे ही शब्‍द मौन हो जाएं और यह तान हमारे कानों में अमृत घोलती रहे बस। तभी प्रकृति प्रेमी मिहिर ने पूछ लिया कि यहाँ आकर यदि एक शब्‍द में पूछा जाए कि कैसा लगा तो आप क्‍या कहेंगे? मैं तो अमृत पीने का प्रयास कर रही थी, मुँह से अचानक ही निकला की अमृत। लेकिन किसी ने कहा कि शान्ति है तो किसी ने कहा कि आनन्‍द है। तभी एक जुगनू अपनी चमक बिखेरता हुआ दिखायी दे गया। जैन साहब ने बताया कि कभी ये जुगनू उदयपुर शहर में भी खूब दिखायी देते थे लेकिन आज इस जंगल में ही सिमटकर रह गए हैं। कारण है प्रदूषण। कुछ प्रकृति के जीव प्रदूषण से असंवेदनशील होते हैं इस कारण प्रकृति प्रेमी इनकी अनुपस्थिति से जान लेते हैं कि यहाँ प्रदूषण बढ़ गया है। अर्थात प्रकृति ने कितने पैमाने छोड़े हैं हम सबके लिए, लेकिन हम कहाँ देखते हैं इन पैमानों को? बस हमारे पैमाने तो बड़ी-बड़ी गगनचुम्‍बी ईमारते हैं और धुँआ उगलते उद्योग-धंधे हैं।
फ्रकृति को बचाने के लिए आप क्‍या संकल्‍प लेंगे, यह प्रश्‍न था। उसका उत्तर तो सभी ने अपने तरीके से दिया लेकिन मन ने कहा कि हम वास्‍तव में कितने कसूरवार हैं। क्‍या दे जाएंगे हम विरासत में? एक आश्‍चर्यजनक सत्‍य मिहिर ने बताया कि चींटियां कितनी अनुशासनप्रिय हैं यह तो सभी जानते हैं लेकिन इनकी संख्‍या और इनका कुल भार मनुष्‍यों के कहीं ज्‍यादा है। इतनी शक्तिशाली होने पर भी चीटियों ने कभी इस सृष्टि को हानि नहीं पहुँचाई लेकिन हमने हानि के अतिरिक्‍त कुछ किया ही नहीं। व़ास्‍तव में मनुष्‍य कितना छोटा है? तभी घड़ी देखी, रात के साढे नौ बज चुके थे और अभी भोजन करना भी शेष था। हमने सोचा था कि यह स्‍थान हम दस बजे छोड़ देंगे। चाँद हमारे सिरों पर आ चुका था, हाथ की रेखाएं भी साफ दिखायी देने लगी थी। बस चाँद के कारण तारे ही कहीं दुबक गए थे। कुछ दो-चार ही दबंग थे जो टिमटिमा रहे थे। अब हमने भोजन की सुध ली। युवापीढ़ी में से किसी ने बांसुरी पर तान छेड़ दी। एक तरफ हम भोजन का आनन्‍द ले रहे थे तो दूसरी तरफ बांसुरी का रसास्‍वादन भी कर रहे थे।
आखिर हम अनमने मन से साढे दस बजे वहाँ से जाने को तैयार हुए। दूसरे चबुतरे पर युवाओं ने टेण्‍ट तान दिया था। अरे ये सब तो रात यहीं व्‍यतीत करेंगे! और ह‍म? बस मन मसोस कर रह गए। हम केवल दस प्रतिशत ही आनन्‍द ले पाए थे शेष तो अगली यात्रा का ख्‍वाब बुनकर ही पूरा कर आए थे। वापस हमे उसी पगडण्‍डी पर जाना था। टार्च लिए वनकर्मी साथ था लेकिन इस बार चन्‍द्रमा चाँदनी बिखेर रहा था। सब कुछ साफ दिखायी दे रहा था। एक तरफ खाई और एक तरफ तालाब सभी कुछ। इसबार जल्‍दी ही मार्ग तय हो गया और हम अपनी गाड़ी उठाकर उस प्रकृति प्रदत्त सुन्‍दरता को पीछे छोड़ आए। बस अपनी साँसों में ढेर सारी महक लेकर आ गए। इस उम्‍मीद के साथ कि कभी हम भी रात वहीं बिताएंगे। 

Sunday, October 9, 2011

पुरुष की बेचारगी क्‍या और बढे़गी?



आदमी की लाचारी, उसकी बेबसी क्‍या प्रकृति प्रदत्त है? महिलाओं के प्रति उसका तीव्र आकर्षण यहाँ तक की महिला को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने का पागलपन! शायद कभी समाज ने इसी प्रवृत्ति को देखकर विवाह संस्‍था की नींव डाली होगी। पुरुष के चित्त में सदा महिला वास करती है। उसका सोचना महिला के इर्द-गिर्द ही होता है। पुरुषोचित साहस, दबंगता, शक्तिपुंज आदि सारे ही गुण एक इस विकार के समक्ष बौने बन जाते हैं। वह महिला को पूर्ण रूप से पाना चाहता है, उसे खोने देना नहीं चाहता। पति के रूप में वह पत्‍नी को अपनी सम्‍पत्ति मानने लगता है और इसी भ्रम में कभी वह लाचार और बेबस भी हो जाता है। महिला भी यदि दबंग हुई तो उसकी बेचारगी और बढ़ जाती है। इसलिए आदिकाल से ही पुरुष का सूत्र रहा है कि अपने से कमजोर महिला को पत्‍नी रूप में वरण करो।
पति के रूप में वह अक्‍सर कमजोर ही सिद्ध हुआ है। कुछ लोग मेरी इस बात पर आपत्ति भी कर सकते हैं। लोग कहते हैं कि पति पत्‍नी पर अत्‍याचार करता है। शराब पीकर उत्‍पात मचाता है। लेकिन व्‍यसन करना किस बात का प्रतीक है? कमजोर मन वाले लोग ही व्‍यसन का सहारा लेते हैं। कमजोर पुरुष ही हिंसा का सहारा लेते हैं। जब आपके अन्‍दर स्‍त्री के समक्ष प्रस्‍तुत होने का सामर्थ्‍य नहीं होता तब आप व्‍यसन का या हिंसा का सहारा लेते हैं। कई बार यह देखने में आता है कि इसी कमजोरी का महिलाएं फायदा भी उठाती हैं। कई बार पति बेचारा-प्राणी बनकर रह जाता है। हम स्‍त्री पर होने वाले अत्‍याचार या उसकी बेबसी की बाते तो हमेशा करते हैं, स्‍त्री को हमेशा ही कमजोर और बेबस सिद्ध करने पर तुले होते हैं लेकिन पुरुष कितना बेबस है इस बात को कोई उद्घाटित नहीं करता। इसलिए मैं कहती हूँ कि पुरुष की बेबसी, पुरुष रूप में जन्‍म लेकर ही समझी जा सकती है।
आप सोच रहे होंगे कि आज अचानक ही पुरुष पुराण मैंने क्‍यों खोल दिया है। लेकिन जब भी मैं महिलाओं को बेबस और लाचार सिद्ध करने वाला लेखन पढ़ती हूँ तब लगता है कि आखिर हम चाहते क्‍या हैं? बेबस पुरुष है और सिद्ध किया जा रहा है कि बेबस महिला है। वैसे आज मुझ पर बहुत आक्रमण होने वाले हैं। लेकिन एक घटना जो मुझे एक महिने से पीड़ित कर रही है, उसे उदाहरण के रूप में प्रस्‍तुत करना चाह रही हूँ। इस घटना का अभी अन्‍त नहीं हुआ है, ऊँट किस करवट बैठे यह भी मैं नहीं जानती। किसी सत्‍य घटनाक्रम को सार्वजनिक करना चाहिए या नहीं, बस इसी उहापोह में हूँ। नाम बदल दिये हैं, स्‍थान बदल दिया है। अब आप बताइए कि इस घटना को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
विनोद और शालिनी का प्रेम विवाह सात वर्ष पूर्व हुआ। अभी एक साल का पुत्र उनके जीवन में है। दोनों ही शिक्षित और उच्‍च पदों पर कार्यरत हैं। जीवन खूबसूरती के साथ निकल रहा था लेकिन एक माह पूर्व भूचाल आ गया। विनोद भुवनेश्‍वर का है और वहाँ एक अन्‍य महिला से परिचित है। वह महिला कुछ दिलफेंक अंदाज की है। बाते रूमानी सी करती है और आगे होकर सम्‍बन्‍ध बनाती है। विनोद जब भी भुवनेश्‍वर जाता, उससे मुलाकात हो जाती। कई बार मुम्‍बई में भी उसके फोन आ जाते। एक बार भुवनेश्‍वर में मुलाकात के दौरान एक चुम्‍बन भी हो गया। बस विनोद में अपराध-बोध ने जन्‍म ले लिया। उसे लगा कि मुझसे कुछ गलत हो रहा है और यही अपराध-बोध उसके लिए प्रायश्चित का कारण बना। उसने लगभग एक महिने पूर्व अपनी पत्‍नी शालिनी को सब कुछ सच बता दिया। उसने प्रायश्चित करना चाहा था लेकिन हो गया एकदम उल्‍टा। शालिनी के‍ लिए यह बहुत बड़ा अपराध था। तभी समझ आया कि विनोद का आत्‍मबल कितना कमजोर था और शालिनी का अहंकार कितना बड़ा। शालिनी को यह घटना स्‍वयं की हार लगी। उसका मानना था कि मैं इतनी परफेक्‍ट हूँ कि मेरा पति तो मेरे सपनों में ही खोया रहना चाहिए। किसी से बात करना भी बहुत बड़ा अपराध है। उसने प्रतिक्रिया स्‍वरूप विनोद को बहुत मारा। उसके जो भी हाथ में आया उसी से उसने मारा। विनोद बुरी तरह से घायल हो गया लेकिन बदले में उसने हाथ नहीं उठाया। मकान शालिनी के नाम था तो उसने विनोद को घर से निकल जाने को कहा। तीन दिन तक भूखा-प्‍यासा विनोद, रात को नींद भी नहीं ले पाया। आखिर मन और शरीर कब तक साथ देते, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। विनोद के मित्र ने उसे सम्‍भाला, डॉक्‍टर के पास लेकर गए लेकिन शालिनी को समझाना कठिन हो गया। विनोद के माता-पिता को भी बुलाया गया। लेकिन परिस्थितियों में कुछ भी सुधार नहीं हुआ। शालिनी की उग्रता कम होने का नाम ही नहीं लग रही थी। आखिर शालिनी ने तलाक का फरमान जारी कर दिया। शालिनी के पिता को भी बुलाया गया लेकिन उन्‍होंने भी अपनी बेटी को समझाने के स्‍थान पर अपने साथ भुवनेश्‍वर ले जाना ज्‍यादा उपयुक्‍त समझा। भुवनेश्‍वर जाते समय भी शालिनी चेतावनी देकर गयी कि उसका यथाशीघ्र मकान खाली कर दिया जाए।  विनोद और उसके माता-पिता ने किराये का मकान भी देख लिया और उसे एडवान्‍स भी दे दिया। लेकिन फिर शालिनी के स्‍वर बदल गए और उसने कहा कि मेरे मकान में विनोद किराएदार की हैसियत से रह सकता है।
विनोद इतना होने पर भी शालिनी को छोड़ना नहीं चाहता। उसका मानसिक संतुलन कुछ ठीक हुआ है लेकिन पूरी तरह से नहीं। उसके माता-पिता भी बेबस से अपने बेटे के भविष्‍य को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि बस उनका बेटा स्‍वस्‍थ हो जाए और आपसी विवाद भी समाप्‍त हो जाए। वे भी शालिनी की अभद्रता को सहन कर रहे हैं लेकिन बेटे के भविष्‍य के कारण बेबस से बने हुए हैं। कोई रास्‍ता किसी को भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन विनोद का एक वाक्‍य सभी को व्‍यथित कर रहा है, उसने अन्‍त में कहा कि मैं क्‍या करूं, यदि मुझे शालिनी अपने घर में नहीं रखती है तो मैं जिन्‍दगी को ही छोड़ दूंगा।
सारे घटनाक्रम से मन प्रतिपल दुखित है। पुरुष की बेचारगी की यह सत्‍य घटना है। परिणाम तो पता नहीं क्‍या निकलेगा, लेकिन वर्तमान इतना अजीब है कि समझ से बाहर है। जब पुरुष छोटी-छोटी बातों का बतगंड बनाता है तो हम उसे कोसते हैं, कहते हैं कि पुरुष होने का नाजायज फायदा उठा रहा है। लेकिन जब यही कृत्‍य महिला करे तो इसे क्‍या कहा जाएगा? क्‍या पुरुष वास्‍तव में इतना कमजोर है कि ऐसी दबंग महिला का सामना नहीं कर सकता?  इससे तो यही सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे महिलाएं आत्‍मनिर्भर होती जाएंगी वैसे-वैसे पुरुष कमजोर होता जाएगा। उनकी बेचारगी समाज के सामने परिलक्षित होने लगेंगी।  मैं ना तो नारीवादी हूँ और ना ही पुरातनवादी। मैं तो परिवारवादी हूँ। परिवार में संतुलन बना रहे, बच्‍चों का विकास माता-पिता दोनों के साये में ही हो, बस यही चाह रहती है। ना पुरुष अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे और ना ही महिला। पुरुषों की कमजोरी को घर-घर में देखा है, लेकिन इतनी विकृत रूप शायद पहली बार देखने को मिला। आप सभी लोगों के विचार होंगे, मैं जानना चाहती हूँ कि क्‍या एक दूसरे को थोड़ी भी स्‍वतंत्रता नहीं देनी चाहिए। क्‍या हम विवाह अपनी स्‍वतंत्रता खोने के लिए करते हैं? वर्तमान में अधिकतर युवक विवाह नहीं करना चाहते, वे डरे हुए हैं। तो क्‍या उनके डर को कम करना चाहिए या और बढाना चाहिए? मैं जानती हूँ कि यदि महिला से अपराध हुआ होता तो पुरुष भी ऐसा ही करता लेकिन अब महिला भी यही तरीका अपनाए? एक तरफ ह‍म आधुनिकता में जी रहे हैं और एक तरफ इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने परिवार तोड़ रहे हैं, क्‍या ऐसा आचरण उचित है? बहुत सारे द्वन्‍द्व हैं मन में लेकिन यहीं विराम देती हूँ बस आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है। 

Tuesday, October 4, 2011

वनांचल कितने सुन्‍दर और कितने दर्द भरे?



हम अक्‍सर अपनी छुट्टिया बिताने पर्वतीय क्षेत्रों पर जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, घने जंगलों की श्रृंखला, कलकल बहती नदी और झरने, मौसम में ठण्‍डक। लगता है समय यही ठहर जाए और इस प्रकृति का हम भरपूर आनन्‍द लें। ऐसे मनोरम स्‍थान पर ही रहने का मन करने लगता है। गहरे जंगल के अन्‍दर प्रवेश करोंगे तो कभी हिरण, कभी खरगोश तो कभी सर्पराज आपको मिल ही जाएंगे। राजस्‍थान को रेगिस्‍तान भी कहा जाता रहा है। लेकिन इसके विपरीत एक क्षेत्र है मेवाड़, यहाँ भरपूर जंगल, पहाड़, नदियां हैं। विश्‍व की प्राचीन अरावली पर्वत श्रृंखला भी यहीं है।  उदयपुर के समीप वनांचल है, बस कुछ किलोमीटर ही चले और जंगल प्रारम्‍भ होने लगते हैं। वही पर्वत, संकरी और घुमावदार सड़के, कलकल करती नदी(अधिकतर वर्षाकाल में), अनेक वृक्षों की भरमार। कहीं पीपल हैं, कहीं बरगद है तो कहीं पलाश और कहीं सागवान। हर ॠतु में कोई न कोई वृक्ष फल-फूल रहा होता है। कभी महुवा महकता है तो कभी नीम बौराता है। कभी पलाश खिलता है तो कभी सागवान फूलों से भरा रहता है। एक मदभरी गंध वातावरण को बौराती रहती है। महुवा जब फूलता है तब उसके नीचे चादर तान कर लेट जाइए, खुमारी सी छा जाएगी। पलाश जब फूलता है तब लगता है कि जंगल के सीने में किसी ने अपने सौंदर्य से आग लगा दी है। सुबह और शाम को चहचहाते पक्षी, आपको संगीत का रसपान करा देते हैं।
लेकिन इससे परे एक और दृश्‍य है, गरीबी का, अज्ञानता का। वहाँ के वासी अज्ञानता के साथ रह रहे हैं और स्‍वयं के विकास के प्रति विचारशून्‍य। अंग्रेजों के आने के पूर्व तक इनके कबीले थे, ये जंगल के राजा थे। इनकी वेशभूषा आकर्षक थी। गहनों के रूप में पत्‍थरों और विभिन्‍न धातुओं का भरपूर प्रयोग करते थे। पशुपालन और खेती आजीविका के मुख्‍य साधन थे। शिक्षा का महत्‍व ना ये जानते थे और ना ही इन्‍हें इसकी आवश्‍यकता थी। पूर्ण स्‍वतन्‍त्रता के साथ जीवन यापन करते थे यहाँ के वासी। लेकिन अंग्रेजों ने जंगल पर सरकार का अधिकार घोषित कर दिया और ये राजा से रंक बन गए। बस तभी से इनकी दुर्दशा के दिन प्रारम्‍भ हो गए। सोचा था कि आजादी के बाद भारत का विकास गाँव से शहर की ओर होगा लेकिन हमने विकास का आधार शहर को बनाया। परिणाम स्‍वरूप गाँव उजड़ते चले गए। जहाँ के पहाड़ों से झरने फूटते थे और नदियों से होकर पानी कलकल करता बारहों मास बहता था, अब वही पानी शहरों की ओर जाने लगा। वनांचलवासी पानी को तरसने लगे। उनके कुएं सूख गए, नदियां नालों में तब्‍दील हो गयी। शहर की आवश्‍यकताओं को पूर्ण करने के लिए जंगलों का अंधा-धुंध दोहन किया गया, परिणामत: घने जंगलों का स्‍थान वीरानों ने ले लिया।
अब सरकार और समाज को समझ आने लगा है कि हमें इन क्षेत्रों के विकास के लिए कुछ करना चाहिए। करोड़ों रूपए पानी की तरह बहाए गए लेकिन जैसे वनांचल का पानी शहर की ओर आ रहा है वैसे ही यहाँ से बहकर आता हुआ रूपया भी शहर के अधिकारियों और राजनेताओं रूपी समुद्र में आ मिला। विकास के रूप में सड़के, स्‍कूल, अस्‍पताल दिखने लगे हैं लेकिन वनांचलवासी की मनोदशा नहीं बदली। वह आज भी गरीबी में दिन गुजार रहा है।
इतने मनोरम स्‍थलों पर गरीबी देखकर लगता है कि स्‍वर्ग में गरीबी छा गयी है। क्‍या हम इन स्‍थलों को पर्यटकीय दृष्टिकोण से विकसित नहीं कर सकते? अमेरिका के जंगलों को देखने का अवसर मिला। उन्‍हें मैंने अच्‍छी प्रकार से समझा कि वहाँ और हमारे जंगलों में क्‍या अन्‍तर है। हमारे जंगल कुछ किलोमीटर जाकर ही समाप्‍त हो जाते हैं लेकिन वहाँ कभी न समाप्‍त होने वाले जंगल दिखायी देते हैं। मैं उन जंगलों की सघनता से मुग्‍ध होकर शाम की वेला में पक्षियों का इन्‍तजार कर रही थी लेकिन पक्षी नहीं आए! आश्‍चर्य का विषय था। हमारे यहाँ तो एक वृक्ष पर ही इतने पक्षी होते हैं कि उनके कलरव की गूंज से चारो दिशायें गूंज जाती है। निगाहें कुछ और खोजने लगी, कहीं फल नहीं थे और कहीं फूल नहीं खिला था। जब फल-फूल ही नहीं थे तो सुगन्‍ध तो कहाँ से होगी? केवल एक ही वृक्ष की उपस्थिति सर्वत्र देखी। ना पलाश था, ना बरगद था, ना पीपल था, ना गूलर था, ना नीम था। कुछ भी नहीं था। लेकिन पर्यटकीय आकर्षण कितना अधिक था कि विश्‍व के सारे ही पर्यटक खिंचे चले आते हैं। क्‍या हम हमारे जंगलों को जो विविधता से भरे हैं, जो महक रहे हैं, जो फल और फूल रहे हैं उनकी सुगंध से दुनिया को अवगत नहीं करा सकते? जंगलों का पर्यटन बढे़गा और हमारे वनांचलवासी का हौसला भी लौट आएगा। उसकी वेशभूषा जो कभी सतरंगी थी, जिसमें गहनों की भरमार थी, क्‍या पुन: लौटायी नहीं जा सकती? इतनी सुन्‍दरता भरी हुई हैं हमारे जंगलों में कि कोई भी यहाँ आकर बौरा जाए फिर हमने क्‍यों इन्‍हें उपेक्षित छोड़ रखा है? एक ऐसा संसार यहाँ बसा है, जिसकी कल्‍पना शायद युवापीढ़ी को नहीं है। वह शहरों में जीवन का उल्‍लास तलाश रहा है, उसने कभी प्रकृति का आनन्‍द देखा ही नहीं।
एक छोटा सा गाँव जहाँ आज एक उत्‍सव है

वनांचल की एक बालिका 
मैंने इसी शनिवार को अर्थात् 1 अक्‍टूबर को ही ऐसे क्षेत्र की यात्रा की थी। पूर्व में भी कई बार जाती रही हूँ। लेकिन वर्षा के बाद जाने का आनन्‍द तो अनूठा होता है। धरती ने हरियाली ओढ़ी होती है और पहाड़ नर्तन कर रहे होते हैं। झरने खुशी से झूम रहे होते हैं। एक अन्तिम बात और, पहाड़ी स्‍थलों पर और उदयपुर के समीप सीताफल प्रचुरता से होता है। इन दिनों सीताफल ही सीताफल दिखायी देता है। हम जिस गाँव में गए थे, वहाँ के मन्दिर में भी सीताफल का पेड़ लगा था। हमारे साथ एक नवयुवती भी थी जिसने शायद पहले कभी सीताफल नहीं देखा था। उसका कौतुक इस फल के प्रति बहुत था। मैंने कहा अभी पंद्रह दिन में पक जाएंगे, लेकिन उसने कच्‍चे ही तोड़े और कहा कि इन्‍हें ही अपने साथ लेकर जाऊँगी। आप लोग भी कभी वनाचंलों का आनन्‍द ले और भारत कितना प्रकृति से सम्‍पन्‍न है इसकी जानकारी यहाँ आकर लें। तब आप विदेश यात्राओं को भूल जाएंगे। आप भी खुश हो जाएंगे और आपके कारण यहाँ का वनांचलवासी भी सम्‍पन्‍न हो सकेगा।