Tuesday, August 30, 2011

आखिर चमत्‍कार हो ही गया - अजित गुप्‍ता



अभी पूर्व पोस्‍ट में अन्‍ना हजारे के अनशन से जुड़ी कई आशंकाएं थी और किसी चमत्‍कार की उम्‍मीद भर थी। लेकिन चमत्‍कार हुआ और यह चमत्‍कार जनता का जागृत-स्‍वरूप का चमत्‍कार था। इन दिनों काफी प्रवास रहे और जैसा कि सभी का अनुभव रहता है कि रेल यात्राएं बहुत कुछ कहती हैं। अभी 26 अगस्‍त को दिल्‍ली से रामपुर जा रही थी। यात्रा सूनी-सूनी सी ही थी। लेकिन अमरोहा स्‍टेशन पर एक सज्‍जन का पदार्पण हुआ और अभी वे अपनी बर्थ पर टिकते इससे पूर्व ही उनका बोलना प्रारम्‍भ हो गया। वे ऊपर की बर्थ पर आराम कर रहे सज्‍जन से संवाद स्‍थापित करने लगे और विषय तो वही चार्चित था अन्‍ना हजारे। वे बोले कि देखिए अब सरकार को समझना चाहिए और बताइए कि राहुल गाँधी क्‍यों नहीं बोल रहे हैं? वे बिल्‍कुल ही नजदीकी बनाकर बोल रहे थे तो उन्‍हें उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन मैंने इस बार चर्चा में भागीदारी करने से अच्‍छा सुनने को प्राथमिकता दी। वे लगातार बोले जा रहे थे कि ये सारे जनता के सेवक हैं इन्‍हें काम करना चाहिए।
ऊपर की बर्थ पर जो सज्‍जन लेटे थे वे रामपुर में ही कोई अधिकारी थे। उनके आने और जाने वाले फोन से पता लग रहा था। अब जब उन्‍होंने सेवक कह दिया तो अधिकारी महोदय को जवाब देना ही था। वे बोले कि नहीं नहीं सब बेकार की बात है। संसद सर्वोपरी है। अब वे भी नीचे की बर्थ पर आ चुके थे। कुछ देर तक ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा। अब जैसा कि कांग्रेस की आदत है कि सर्वप्रथम दूसरे का चरित्रहनन करो वैसे ही स्‍वर में वे अधिकारी बोले कि आप वोट कास्‍ट करते हैं? वे शायद उनका प्रश्‍न समझ नहीं पाए या सुन नहीं पाए। बस अधिकारीजी का बोलना शुरू हो गया कि वोट देते नहीं और रईसों की तरह चाय की टेबल पर चर्चा करते हैं। लेकिन तभी उन सज्‍जन ने उनका भ्रम तोड़ दिया कि वोट तो सभी देते हैं।
अब दूसरा प्रश्‍न जो इस आंदोलन में अक्‍सर उठा कि जनता भ्रष्‍ट है, अन्‍ना के आंदोलन में जो आ रहे हैं पहले वे अपना चरित्र देखें। उन्‍होंने दूसरा प्रश्‍न दाग दिया कि आप क्‍या करते हैं? उन सज्‍जन ने बताया कि व्‍यापारी हूँ, कपड़े का धंधा है। बस फिर क्‍या था? आप इनकम-टेक्‍स देते हैं? देते हैं तो पूरा देते हैं? आदि आदि। उन्‍होंने कहा कि मेरा 80 लाख का कारोबार है और पूरे हिसाब से टेक्‍स देता हूँ। वे सज्‍जन जितने विश्‍वास के साथ बोल रहे थे उससे कहीं भी नहीं लग रहा था कि वे झूठ बोल रहे हैं। आखिर अधिकारीजी का वार खाली चले गया और वे निरूत्तर हो गए। एक मौन छा गया। तभी उन व्‍यापारी सज्‍जन ने बताया कि मेरा एक बेटा इनकम टेक्‍स कमीश्‍नर है। हमारे यहाँ दादाजी के समय से कई बार छापे पड़ चुके हैं लेकिन आजतक भी एक पैसे की भी गड़बड़ नहीं निकली। अब तो अधिकारीजी के पास बोलने को कुछ नहीं था। 
जनलोकपाल के कारण अधिकारी और राजनेता बौखलाए हुए से हैं। वे स्‍वयं को सेवक सुनने के आदि नहीं हैं। वे तो स्‍वयं को मालिक मान बैठे हैं। इसलिए व्‍यापारी को तो वे बेईमान ही मानकर चलते हैं। इन व्‍यापारियों को ही सर्वाधिक वे निशाना भी बनाते हैं। बेचारे मरता क्‍या न करता की तर्ज पर इन्‍हें हफ्‍ता भी देता है। लेकिन रेल यात्रा में एक आम आदमी का दर्द उभरकर सामने आ जाता है। मुझे उन व्‍यापारी सज्‍जन पर हँसी भी आ रही थी कि वे अपनी बात कहने के लिए कितने उतावले हो रहे थे। शायद व्‍यापारी वर्ग को तो पहली बार बोलने का अवसर मिला होगा कि वे भी अपना दर्द सांझा करे। व़े जिस अंदाज में बोले थे कि राहुल गांधी को बोलना चाहिए था वह अनोखा था। शायद उनकी बात सुन ली गयी थी और राहुल गांधी उवाच भी हुआ और यदि ना बोले होते तो कुछ छवि बची रह जाती। खैर जो हुआ अच्‍छा ही हुआ। मुझे तो इस बात की खुशी है कि आज के पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने इस विषय पर लिखना प्रारम्‍भ किया था कि कानून सभी के लिए बराबर हो और इस कारण लोकपाल बिल शीघ्र ही पारित हो। ऐसा लोकपाल बिल जिसमें प्रत्‍येक सरकारी कर्मचारी और प्रत्‍येक राजनेता कानून के सीधे दायरे में आएं और देश से राजा और प्रजा की बू आना बन्‍द हो। इसलिए अन्‍ना हजारे और उनकी टीम को बधाई कि उन्‍होंने एक सफल आंदोलन को अंजाम दिया। लेकिन अभी केवल लोकतंत्र की ओर एक कदम बढ़ाया है मंजिल अभी दूर है। न जाने कितने कठिन दौर आएंगे बस जनता को जागृत रहना है। विवेकानन्‍द को स्‍मरण करते हुए उत्तिष्‍ठत जागृत प्राप्‍य वरान्निबोधत। 

Sunday, August 14, 2011

दरवाजे अकड़े हैं जनता की तरह, सरकार की अर्गलाएं लातों के सहारे से लगायी जा रही हैं – अजित गुप्‍ता



बरसात का मौसम है, चहुतरफा हरियाली ने मन मोह रखा है। बारिश टूटकर तो नहीं बरसी लेकिन कभी फुहारें तो कभी कुछ मध्‍यम दर्जे की बारिश ने सरोबार अवश्‍य किया है। नमी वातावरण में घुली है। कभी दीवारों में दिखायी दे जाती है तो कभी दरवाजों से अनुभूत होती है। दरवाजे आम जन की तरह अकड़ने लगे हैं और सरकार जैसी अर्गलाओं के सारे प्रयासों को धता बताते हुए चौखट के अन्‍दर जाने से मना कर बैठे हैं। हम भी पुलिसिया लातों के साथ उसे धकियाते रहते हैं और कभी हमारी जीत हो जाती है और कभी जनतानुमा दरवाजे की। दिन की रौशनी में तो चिन्‍ता नहीं रहती इन दरवाजों की अकड़ की, लेकिन रात को लगता है कि इनकी अकड़ को ठीली छोड़ दिया गया तो ये अन्‍य लोगों को भी आमन्त्रित कर देंगे। इसलिए रात को चाक-चौबन्‍द रहना पड़ता है और सारे ही सरकारी हथकण्‍डों की तरह हम भी इन्‍हें चौखट में सीमित कर ही देते हैं। लेकिन फिर प्रश्‍न उगता है कि आखिर कब तक चौखट में बन्‍द रखे जाएंगे? कब तक लातों के सहारे इनकी अकड़ को काबू में रखा जाएगा? ये तो अपनी स्‍वतंत्रता चाहेंगे ही ना। अब देखो ना ये कहते हैं कि हमें स्‍वतंत्रता दो और अर्गलाएं कहती हैं कि तुम स्‍वतंत्रता नहीं स्‍वच्‍छन्‍दता मांग रहे हो।
हमारी वर्तमान सरकार की भी यही स्थिति है। आम जनता और सरकार के बीच यही कसमकस मची है। अन्‍ना हजारे रूपी बौछारे आ रही हैं और आम आदमी को लग रहा है कि आजादी के बाद पहली बार किसी ने आम आदमी के लिए प्रेम की बरसात की है। उसे बताया है कि तुम इस देश के मालिक हो। अभी तक तो हम यही समझे थे कि जनता तो बेचारी गुलाम ही रहती है, कभी परायों की और कभी अपनों से। हम भी मालिक हैं, यह सुनकर तो शरीर में झुरझुरी सी होने लगी। वैसे जब भी देश में चुनाव होते हैं, नेता लोग कहते हैं कि हमें सेवा का अवसर दीजिए। लेकिन यह नहीं सुना था कि आप मालिक हैं और हमें आपकी सेवा का अवसर दीजिए। वे तो इतना कहते थे कि देश की सेवा का अवसर दीजिए। अब देश का तो मूर्त स्‍वरूप दिखायी देता नहीं तो बेचारे किस की सेवा करते, स्‍वयं की सेवा को ही उन्‍होंने कर्तव्‍य समझ लिया। लेकिन अब तो समझ आ रहा है कि देश की मूर्त स्‍वरूप जनता रूपी हम है और हमारी सेवा के लिए ही ये नियु‍क्‍त हैं। घर के बाहर झांककर भी देखा कि देखें तो सही कि आखिर कौन नियुक्‍त है हमारी सेवा को? एक बार हमारे शहर में देश के सबसे बड़े सेवक पधारे। लगा कि आज तो जनता दरबार लगेगा। जनता के दरवाजे जाकर पूछा जाएगा कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? लेकिन उस दिन तो सारा शहर ही मानो कर्फ्‍यूग्रस्‍त हो गया। लाट साहब नहीं वर्तमान में लाट साहिबा है कि सवारी निकलेगी इसलिए सभी रास्‍ते, चौराहे बन्‍द कर दिये गए। जनता को मुनादी करा दी गयी कि कोई सड़क पर नहीं निकले। दिन भर शहर में गस्‍त चलती रही, और बेचारी जनता को समझाया जाता रहा कि आज तुम्‍हारी मालकिन आयी है। अब आप ही बताइए कि अन्‍ना जी की बात पर विश्‍वास करें तो कैसे करें? दिन में कई बार चिकौटी काटकर देख लेते हैं कि सपना तो नहीं है? लेकिन अभी तक तो सच ही लग रहा है। अभी कुछ दिन पहले भी बहुत खुश हुए थे कि देश का खजाना जो बाहर जमा है, आने वाला है लेकिन रातों-रात सपनों को तोड़ दिया गया। देश में ऐसा गदर मचाया गया और ठोक-ठोक के बता दिया गया कि तुम जनता ही हो, मालिक नहीं अत: अपनी औकात में रहो। इसलिए अब देखों कि आम जनता कब ठुकती है बस इसी बात का इन्‍तजार है।
मैं तो मेरे नमी से सरोबार दरवाजे को देख रही हूँ, उसकी अकड़ को समझा भी रही हूँ कि अपनी औकात में आ जाओ नहीं तो अभी लातों के सहारे तुम्‍हें चौखट में बन्‍द किया जाता है नहीं मानोंगे तो आरी से छील दिए जाओगे। थोड़ी सी छिलाई हुई और सारी अकड़ समाप्‍त। मालिक बनने का भ्रम पालने का नतीजा जल्‍दी ही समझ आ जाएगा, मुझे तो समझ आ गया है। अभी जनता जनार्दन को भी आ ही जाएगा। फिर भी आशा तो लगी ही है शायद कुछ चमत्‍कार हो जाए? आप लोग क्‍या कहते हैं?  

Wednesday, August 10, 2011

रेल यात्राओं के अनोखे अनुभव - अजित गुप्‍ता



यात्रा करना हमारे जीवन का अभिन्‍न अंग है। यात्राओं के कितने संस्‍मरण हमारे मस्तिष्‍क पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। न जाने कितने प्रश्‍न भी खड़े हो जाते हैं। अभी 30 जुलाई को दिल्‍ली से वाराणसी जाना था। उसी दिन खुशदीपजी की एक पोस्‍ट आयी थी और मैंने अधिकारपूर्वक उन्‍हें लिख दिया था कि मैं आज दिल्‍ली में हूँ। तत्‍काल ही उनका फोन आ गया और यह निश्चित रहा कि शाम को ट्रेन पर ही मिलते हैं। मुझे संकोच भी हो रहा था कि केवल ब्‍लाग की पहचान के कारण उन्‍हें नई दिल्‍ली स्‍टेशन तक बुलाना, कितना जायज है और उन्‍हें आने में कठिनाई तो नहीं होगी। लेकिन वे और शहनवाज दोनो ही आए। मेरी ट्रेन में लगभग एक घण्‍टे का समय था तो हमने पास ही एक रेस्‍ट्रा में बैठकर बातचीत की। बातचीत तो ज्‍यादा नहीं हो पायी क्‍योंकि खुशदीपजी तो खातिरदारी में ही लगे रहे। खैर हम आधा घण्‍टे पूर्व गाड़ी में आकर बैठ गए। अभी अपनी बर्थ पर बैठने की कोशिश ही कर रहे थे कि धमाक से एक आवाज हुई। हम तीनों ही चौंके, कि क्‍या हुआ? हमने आवाज की तरफ पलटकर देखा। साइड लोअर बर्थ के पास एक विदेशी महिला खड़ी थी, जिसने लगभग चार इंच की हील वाली चप्‍पल पहन रखी थी। मानो वह युधिष्ठिर की तरह धरती से ऊपर चलना चाह रही हो। उसने अपने पैर को जो हील वाली चप्‍पल से घिरा था, जोर से धम से पटका। हम समझ गए कि यह धमक देशी नहीं विदेशी ही है। अब उसके हाथ में मोबाइल था और वह पूरी मेघ गर्जना के साथ फोन पर किसी पर बिजली गिरा रही थी। उसके साथ एक वृद्ध व्‍यक्ति भी थे और बाद में आता जाता एक किशोर वय का बालक भी दिखायी दिया। उसे पूरे हिन्‍दुस्‍थानी तर्ज पर चिल्‍लाते देख शहनवाज ने कहा कि आपका सफर कैसा रहेंगा?
वह शायद अपने एजेण्‍ट पर चिल्‍ला रही थी, कि उसने ढंग की बर्थ नहीं दिलायी और इस कारण उसके बेटे को भी साथ-साथ बर्थ नहीं मिली। लेकिन उसका प्रकोप शान्‍त नहीं हुआ। एक बार तो मन किया कि उसकी फोटो ले जी जाए, लेकिन फिर डर भी लगा कि कहीं मेरे ही ना चिपट जाए? हमारे साथ ही दो चाइनीज लड़किया भी थी, वे भी अपनी भाषा में बोलकर आनन्‍द ले रही थी। मेरे आसपास और कोई नहीं था, एक महिला कुछ देर से आयी लेकिन वह भी बातों में रुचि प्रदर्शित नहीं कर रही थी। सुबह जाकर पता लगा कि वह अपनी छोटी सी नातिन को छोड़कर आयी है इसलिए अनमनी सी थी। इसलिए मैं प्रतिक्रिया के आनन्‍द से वंचित थी।
अक्‍सर बात होती रहती है अमेरिका की, दूसरे दिन ही वाराणसी में एक मित्र के यहाँ जाना था। वहाँ उनकी एक रिश्‍तेदार जो दुबई में रहती हैं, से मुलाकात हो गयी। बातों ही बातों में पता चला कि दुबई में भी अमेरिका की तरह ही ना बच्‍चे रोते हैं और ना ही कुत्ते भौंकते हैं। यदि बच्‍चे रोते हैं तो समझो हिन्‍दुस्‍थानी है। हिन्‍दुस्‍थान में भी देखा है कि हिन्‍दी भाषी बेल्‍ट ही ज्‍यादा मुखर और  प्रखर दिखायी देती है। मैं उस समय ट्रेन में सोच रही थी कि अमूमन विदेशी यात्री शान्‍त होते हैं। वे अक्‍सर अपनी नींद पूरी करने में ही यकीन रखते हैं। लेकिन वह महिला अपने गुस्‍से पर काबू ही नहीं पा रही थी। दो-एक घण्‍टे बाद रात्रि-भोज का आदेश लेने वेटर आया तो उसके सहयात्री बुजुर्ग व्‍यक्ति ने जो शायद उसका पति ही था ने वेटर से हिन्‍दी में बात की। तब उस महिला ने भी कुछ शब्‍द हिन्‍दी में बोले। मैंने अपनी चुप्‍पी पर राहत की साँस ली। यदि अन्‍य कोई सहयात्री होता तो मैं अवश्‍य ही हिन्‍दी में कुछ न कुछ टिप्‍पणी अवश्‍य करती। और फिर? रात्रि को जब सोने का अवसर आया तब भी उस महिला ने अपनी ऊपर वाली बर्थ का उपयोग नहीं किया और दुख-सुख के साथ बड़बड़ाती हुई एक छोटी सी साइड लोअर बर्थ पर ही दोनों ने अपना आसरा बनाया। मैने लाइट बन्‍द करनी चा‍ही तो उसकी गुर्राहट फिर उभरी- नो नो। मैंने अपना पर्दा खींचा और सोने में ही भलाई समझी।
लेकिन मुझे इस तथ्‍य से ज्ञान प्राप्ति अवश्‍य हो गयी थी कि आम तौर पर शान्‍त रहने वाले ये विदेशी हिन्‍दी भाषी होने के कारण ही शायद चमक-धमक रहे हैं। इतना तेवर नहीं तो आया कहाँ से? वाराणसी पहुंचने तक उसके तेवर वैसे ही बने रहे। शाहनवाज भाई बस ऐसा ही कटा मेरा सफर। खुशदीपजी ने भी मेरी पिछली पोस्‍ट में पूछा था कि उस विदेशी महिला का क्‍या हाल रहा तो मैंने सोचा यह यात्रा वृतान्‍त भी लिख ही दो।     

Thursday, August 4, 2011

रेल यात्रा में अपने सामान को छोड़कर जाने से मचा कोहराम - अजित गुप्‍ता



रेल अपनी पूर्ण गति के साथ धड़धड़ाती चले जा रही थी। सभी यात्री एकदूसरे से अनजान स्‍वयं में ही व्‍यस्‍त थे। किसी ने भी किसी का परिचय नहीं लिया था। वाराणसी स्‍टेशन से शिवगंगा ट्रेन को रवाना हुए अभी डेढ़ घण्‍टा गुजरा होगा। स्‍टेशन पर मुझसे मिलने आयी मेरी साहित्‍यकार मित्र ने एक पुस्‍तक भेंट दी थी तो मुझे उसे पढ़ने की उत्‍सुकता थी। मैं उसी पुस्‍तक में डूबी थी। मेरे पास एक सहयात्री थे, जो फोन पर कब से बतिया रहे थे। सामने ही एक माँ और बेटा बैठा था लेकिन बेटा अपनी ऊपर की बर्थ पर सोने चला गया था। सभी अपने-अपने में व्‍यस्‍त थे, तभी किसी महिला यात्री की आवाजे कान में पड़ना शुरू हुई। वह जोर-जोर से फोन पर किसी को बता रही थी कि कई बार टीसी को बुलाया लेकिन वह अभी तक भी नहीं आया है। न जाने कौन एक महिला अपना बेग रखकर घण्‍टेभर से गायब है। पता लगा कि वह अपने पति को फोन पर बता रही थी, पति रेलवे के ही अधिकारी थे। उस महिला की बातों से सभी के कान खड़े हुए। पास वाला सहयात्री भी टीसी के पास गया हुआ था। मुझे लगा कि शायद वह टीसी को बुलाने ही गया है। लेकिन कुछ ही देर में वह लौट आया। उस महिला की बातों से सनसनी फैल चुकी थी। एक सावले रंग की 30 वर्ष के लगभग एक महिला अपनी टिकट चेक कराने के बाद एक बेग छोड़कर चले गयी थी। बेग को ऊपर वाले स्‍टेण्‍ड पर रख दिया था, जिस पर अक्‍सर अटेण्‍डेड चद्दरे रखता है। सारे ही यात्री अकस्‍मात ही एक हो गए थे, जो अभी तक चुपचाप थे, सभी आपस में बतियाने लगे थे। मैंने तब तक अपने खाने का डिब्‍बा खोल लिया था। मुझे कोई सीरियस मेटर नहीं लग रहा था तो मैंने सभी से कहा कि पहले खाना खा लो, फिर साथ ही मरेंगे। कम से कम भूखे पेट तो नहीं मरेंगे।
खैर हमारे द्वितीय श्रेणी एसी के कोच में टीसी साहब अव‍तरित हो ही गए और लोग उन पर पिल पड़े कि इतनी देर से डिब्‍बे में कोहराम मचा है और आप कही महफिल सजाए बैठे हैं? कुछ देर वे चुपचाप सुनते रहे, फिर मुझे लगा कि बेकार की बहस में समय जाया हो रहा है और बेग महाशय चुपचाप अपनी जगह विराजमान ही हैं। मैंने उनसे कहा कि पहले बेग उठाओ और इसे और कहीं रख दो। टीसी बेमन से उसे उठाकर ले गया। कुछ देर बाद ही खबर आयी कि उसमें कुछ नहीं है। दो-तीन पुलिस वाले भी अपनी बंदूक लिए परिक्रमा करने चले आए थे। हम सभी ने पूछा कि आप लोग तो कभी दिखायी देते नहीं फिर अब कैसे? वे बोले कि हमारा एसी कोच में आना मना है। यह भी मजेदार बात है, जेसे पुलिस वालों को कह रखा हो कि आप लोग एसी डिब्‍बे में चौथ-वसूली नहीं कर सकते इसलिए आपका वहाँ जाना वर्जित है? खैर वे भी परिक्रमा पूरी करके जा चुके थे और बातों का सिलसिला फिर शुरू हो चुका था। क्‍योंकि भला बाते जब शुरू हो जाएं तो कहीं जल्‍दी से थमती हैं क्‍या? फिर चाहे डिब्‍बा एसी हो या नान एसी। एक शंका यह भी जतायी जा रही थी कि कहीं उस पेसेन्‍जर के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी? इसीलिए वह दो घण्‍टे से गायब है। बातों का बतरस बहते हुए आखिर इलाहाबाद आने लगा। तभी वह महिला यात्री प्रगट हो गयी। अब तो तमाशा हो गया। वह महिला 14 नम्‍बर बर्थ वाली बोली कि क्‍या मैं आपको आतंककारी दिखती हूँ? अरे भाई क्‍या आतंककारी के दो सींग लगे होते हैं? फिर उसकी अकड़ बढ़ने लगी और बोली कि मैं कहीं भी जाकर बैठूं क्‍या जरूरी है कि बताकर जाऊँ? अभी उसकी आवाज का सुर तेजी पकड़ने ही लगा था कि इलाहाबाद आ गया और गाड़ी रूकते ही धड़ाधड़ पुलिस वाले अपनी लकदक वर्दी में आने लगे। हमारी बर्थ 9 नम्‍बर थी तो पहलं वहीं से गुजरे। हमने बता दिया कि खतरे की कोई बात नहीं हैं, लड़की आ गयी है। उन्‍होंने चैन की सांस ली। अब पुलिस को देखकर लड़की की सिट्टी-पिट्टी गुम। आखिर उसके साक्षात्‍कार के साथ उसका पता-ठिकाना नोट कर लिया गया। शिकायत दर्ज कराने वाली का भी नोट कर लिया गया।
इस सारी घटना से प्रश्‍न यह उगा कि ऐसी परिस्थिति में सहयात्री क्‍या करें? अपना सामान और वह भी केवल एक बेग को छोड़कर दो घण्‍टे तक दूसरे कोच में जाकर बैठना क्‍या शक पैदा नहीं करता? उस सहयात्री की शिकायत को गम्‍भीरता से लेना चाहिए या फिर वैसे ही बात का बतंगड बनाना कह देना चाहिए। आतंक की बढ़ती घटनाओं के कारण क्‍या हम सभी यात्रियों को सावधानी नहीं रखनी चाहिए?
कई दिनों से कोई पोस्‍ट नहीं लिखी थी, कल भी पुन: दिल्‍ली जाना है तो सोचा आज इसी पोस्‍ट से काम चला लिया जाए। वैसे दो घण्‍टे तक कोच में बड़ा ही सौहार्द का वातावरण रहा। लगा कि मुसीबत में ह‍म सभी को एक होने की आदत है नहीं तो स्‍वयं के खोल से बाहर नहीं आते हैं हम। देश पर हमला होता है तो हम सब एक हो जाते हैं नहीं तो वापस से अपने-अपने कुनबे का राग गाने लगते हैं। बस एक सीख मिली है कि अपने सामान की स्‍वयं ही सुरक्षा करें और दूसरे कोच में जाने से पूर्व यह अवश्‍य सोचें कि इससे अन्‍य यात्रियों में शक उत्‍पन्‍न हो सकता है। मैं तो कम से कम अवश्‍य ध्‍यान रखूंगी, क्‍या आप भी इस बात का ध्‍यान रख पाएंगे?