अभी पूर्व पोस्ट में अन्ना हजारे के अनशन से जुड़ी कई आशंकाएं थी और किसी चमत्कार की उम्मीद भर थी। लेकिन चमत्कार हुआ और यह चमत्कार जनता का जागृत-स्वरूप का चमत्कार था। इन दिनों काफी प्रवास रहे और जैसा कि सभी का अनुभव रहता है कि रेल यात्राएं बहुत कुछ कहती हैं। अभी 26 अगस्त को दिल्ली से रामपुर जा रही थी। यात्रा सूनी-सूनी सी ही थी। लेकिन अमरोहा स्टेशन पर एक सज्जन का पदार्पण हुआ और अभी वे अपनी बर्थ पर टिकते इससे पूर्व ही उनका बोलना प्रारम्भ हो गया। वे ऊपर की बर्थ पर आराम कर रहे सज्जन से संवाद स्थापित करने लगे और विषय तो वही चार्चित था अन्ना हजारे। वे बोले कि देखिए अब सरकार को समझना चाहिए और बताइए कि राहुल गाँधी क्यों नहीं बोल रहे हैं? वे बिल्कुल ही नजदीकी बनाकर बोल रहे थे तो उन्हें उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन मैंने इस बार चर्चा में भागीदारी करने से अच्छा सुनने को प्राथमिकता दी। वे लगातार बोले जा रहे थे कि ये सारे जनता के सेवक हैं इन्हें काम करना चाहिए।
ऊपर की बर्थ पर जो सज्जन लेटे थे वे रामपुर में ही कोई अधिकारी थे। उनके आने और जाने वाले फोन से पता लग रहा था। अब जब उन्होंने सेवक कह दिया तो अधिकारी महोदय को जवाब देना ही था। वे बोले कि नहीं नहीं सब बेकार की बात है। संसद सर्वोपरी है। अब वे भी नीचे की बर्थ पर आ चुके थे। कुछ देर तक ऐसे ही बातों का सिलसिला चलता रहा। अब जैसा कि कांग्रेस की आदत है कि सर्वप्रथम दूसरे का चरित्रहनन करो वैसे ही स्वर में वे अधिकारी बोले कि आप वोट कास्ट करते हैं? वे शायद उनका प्रश्न समझ नहीं पाए या सुन नहीं पाए। बस अधिकारीजी का बोलना शुरू हो गया कि वोट देते नहीं और रईसों की तरह चाय की टेबल पर चर्चा करते हैं। लेकिन तभी उन सज्जन ने उनका भ्रम तोड़ दिया कि वोट तो सभी देते हैं।
अब दूसरा प्रश्न जो इस आंदोलन में अक्सर उठा कि जनता भ्रष्ट है, अन्ना के आंदोलन में जो आ रहे हैं पहले वे अपना चरित्र देखें। उन्होंने दूसरा प्रश्न दाग दिया कि आप क्या करते हैं? उन सज्जन ने बताया कि व्यापारी हूँ, कपड़े का धंधा है। बस फिर क्या था? आप इनकम-टेक्स देते हैं? देते हैं तो पूरा देते हैं? आदि आदि। उन्होंने कहा कि मेरा 80 लाख का कारोबार है और पूरे हिसाब से टेक्स देता हूँ। वे सज्जन जितने विश्वास के साथ बोल रहे थे उससे कहीं भी नहीं लग रहा था कि वे झूठ बोल रहे हैं। आखिर अधिकारीजी का वार खाली चले गया और वे निरूत्तर हो गए। एक मौन छा गया। तभी उन व्यापारी सज्जन ने बताया कि मेरा एक बेटा इनकम टेक्स कमीश्नर है। हमारे यहाँ दादाजी के समय से कई बार छापे पड़ चुके हैं लेकिन आजतक भी एक पैसे की भी गड़बड़ नहीं निकली। अब तो अधिकारीजी के पास बोलने को कुछ नहीं था।
जनलोकपाल के कारण अधिकारी और राजनेता बौखलाए हुए से हैं। वे स्वयं को सेवक सुनने के आदि नहीं हैं। वे तो स्वयं को मालिक मान बैठे हैं। इसलिए व्यापारी को तो वे बेईमान ही मानकर चलते हैं। इन व्यापारियों को ही सर्वाधिक वे निशाना भी बनाते हैं। बेचारे मरता क्या न करता की तर्ज पर इन्हें हफ्ता भी देता है। लेकिन रेल यात्रा में एक आम आदमी का दर्द उभरकर सामने आ जाता है। मुझे उन व्यापारी सज्जन पर हँसी भी आ रही थी कि वे अपनी बात कहने के लिए कितने उतावले हो रहे थे। शायद व्यापारी वर्ग को तो पहली बार बोलने का अवसर मिला होगा कि वे भी अपना दर्द सांझा करे। व़े जिस अंदाज में बोले थे कि राहुल गांधी को बोलना चाहिए था वह अनोखा था। शायद उनकी बात सुन ली गयी थी और राहुल गांधी उवाच भी हुआ और यदि ना बोले होते तो कुछ छवि बची रह जाती। खैर जो हुआ अच्छा ही हुआ। मुझे तो इस बात की खुशी है कि आज के पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने इस विषय पर लिखना प्रारम्भ किया था कि कानून सभी के लिए बराबर हो और इस कारण लोकपाल बिल शीघ्र ही पारित हो। ऐसा लोकपाल बिल जिसमें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी और प्रत्येक राजनेता कानून के सीधे दायरे में आएं और देश से राजा और प्रजा की बू आना बन्द हो। इसलिए अन्ना हजारे और उनकी टीम को बधाई कि उन्होंने एक सफल आंदोलन को अंजाम दिया। लेकिन अभी केवल लोकतंत्र की ओर एक कदम बढ़ाया है मंजिल अभी दूर है। न जाने कितने कठिन दौर आएंगे बस जनता को जागृत रहना है। विवेकानन्द को स्मरण करते हुए – उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान्निबोधत।