बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं लिखी गयी और इस साल ने भी अपने बोरिये-बिस्तर बाँध लिए। सोचा कि जाते-जाते साल में उसकी पेटी में एक कागज अपना भी और रख दिया जाए। टाइप करते हुए हाथ ठण्डे पड़ रहे हैं, उन्हें बार-बार सहलाना पड़ता है। इन दिनों बाहर बहुत रहना हुआ इस कारण कुछ नहीं लिखा गया और फिर अब ठण्ड ने अपना असर दिखा दिया है। आप सभी लोग भी श्री राज भाटिया जी के बुलावे पर साँपला जा आए। गन्ने खूब खाए गये, पिकनिक का सा अहसास हो रहा था, फोटो देखकर। गन्नों की मिठास हम तक भी पहुंच गयी है। जब आप लोग साँपला में मिलन कर रहे थे तब मैं भी चण्डीगढ़ में ही थी। बर्फ जमा देने वाली ठण्ड का मुकाबला कर के आ रही हूँ।
2011 अपनी अन्तिम घड़िया गिन रहा है। 2012 ने अपने नए कपड़े सिलवा लिए हैं। सारी दुनिया इस नए साल का स्वागत करने के लिए होटलों में जुट गयी है। परिवार से दूर, होटल की छाँव में। नए साल का स्वागत करने के लिए स्वयं को खुमारी में डुबोने का भी पूरा प्रबंध कर लिया गया है। ऐसा लग रहा है जैसे हमने अपने घर के दरवाजे खोल दिए हों और खुद सुध-बुध खोकर कहीं लुढ़क गए हों। कह रहे हों, कि भाई आना है तो आ जाओ, हम तुम्हारे स्वागत में होश खो बैठे हैं। बेचारा नया साल आपके घर पर दस्तक दे रहा है और उसे पता लगा कि अरे सारे ही परिवारजन तो होटल में हैं। तो यह परिवार का नया साल नहीं है क्या? नहीं जी यह तो बाजार का नया साल है, इसलिए बाजार में ही मनेगा। अभी एक संत का प्रवचन सुना, वे कह रहे थे कि रात को 12 बजे हम कहते है कि बधाई हो, नये साल की। फिर सो जाते हैं, तभी रात को एक बजे किसी का फोन आ जाता है तो उससे गुस्से में कहते हैं कि आधी रात को क्यों फोन कर रहा है? बर्फ गिर रही है, सर्दी की मार पड़ रही है, सारी दुनिया अपने खोल में सिमटी है और हम कह रहे हैं कि नया साल आ गया!
बचपन में एक दिन आता था, जब चारों तरफ फूल खिले होते थे, मन चहक रहा होता था। प्रकृति ने मानो नए वस्त्र धारण किये हो। सुबह-सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही मिश्री और नीम की कोपल प्रसाद रूप में मिल जाती थी और कहा जाता था कि नया साल आ गया है। परिवार में ही मिठाई बनती थी और सारे ही परिवारजन एकत्र होकर नये साल की खुशियां मनाते थे। होटल नहीं थे, बाजार नहीं थे बस था तो परिवार था, अपना समाज था। मदहोशी नहीं थी, थी तो जागरूकता थी। प्रकृति को परिवर्तन का जरिया मानते थे। प्रकृति के अनुरूप ही तिथियों का निर्धारण करते थे। तब शायद हम शिक्षित नहीं थे, आज है। मुझे लगता है कि तब हम ज्ञानवान थे लेकिन आज नहीं हैं। क्या शिक्षित होने से केवल एक ही सोच पर चला जाता है? क्या अपना विवेक प्रयोग में नहीं लिया जाता? क्या अब परिवारों का स्थान होटल ले लेंगे? हम ऐसा कार्य क्यों नहीं कर पाते जिसमें अपना विवेक जागृत रहे। क्यों हम प्रत्येक कार्य में मदहोशी ही चाहते हैं। क्यों हम अपने होश खो देना चाहते हैं? क्या जीवन में इतनी निराशा है? क्या जीवन में इतनी कटुता है? जो सबकुछ भुला देना चाहते हैं। खुशियां जागृत अवस्था में मनायी जाती हैं या मदहोशी में? ऐसे कई प्रश्न हैं जो मुझे परेशान करते हैं, आप के पास इनके उत्तर होंगे? तारीख के अनुसार यह मेरी इस वर्ष की अन्तिम पोस्ट हैं लेकिन नव-वर्ष के अनुसार अभी मार्च तक और पोस्ट आएंगी। जब प्रकृति गुनगुनाएगी तब हम भी गुनगुनाएंगे कि नव वर्ष आप सभी के लिए नव-प्रेरणा लेकर आए। अभी तो प्रकृति सिकुड़ी हुई है तो हम कैसे कहें कि नव-वर्ष मुबारक। खैर आप धुंध में लिपटे, बिस्तरों में दुबके होकर, होटल में नाच-गान के साथ ही जबरन नयेपन को आमंत्रण देंगे तो हम भी कह देंगे कि आपका जीवन ऐसे ही संघर्षों में बीते जैसे आज प्रकृति संघर्ष कर रही है। तो विदा 2011, क्या करें तुझे सर्दी में ही विदा करना पड़ रहा है। भारत का ज्ञान आज साथ होता तो तुझे हम बसन्त में विदा करते और 2012 को भी बसन्त में ही अपने घर भोर की बेला में घर ले आते। लेकिन अब तो क्या करें?