कल आजादी का पर्व था और सुबह-सुबह ही धर्म-संकट उपस्थित हो गया। 15 अगस्त होने के साथ कल रविवार भी था तो पिकनिक का दिन भी था। सुबह से ही लोग अपने घरों से निकल पड़े थे। हमारे घर के सामने भी बस आकर खड़ी थी और हमें चलने के लिए ललचा रही थी। मेडीकोज की सपरिवार पिकनिक थी और हम जाए या ना जाएं इसी धर्मसंकट में थे। अभी पिछली पोस्ट में लिख ही चुके थे कि कैसे मन अपना ही बंदी बन जाता है। एक तरफ हमें गाँव में जा कर स्वतंत्रता दिवस मनाना था और दूसरी तरफ यह पिकनिक थी। एक तरफ हमारी संस्था के लोग थे और हमारे पास उसका उत्तरदायित्व सबसे अधिक था तो दूसरी तरफ पतिदेव के साथ जाना था।
मैंने पतिदेव से पूछा कि क्या करना चाहिए? हमारे यहाँ यह अच्छी बात है कि वे मुझे पूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ देते हैं और मैं उन्हें। मैंने कहा कि मेरा मन इन सब में लगता नहीं फिर कोई विशेष संगी साथी भी नहीं है तो नहीं जाऊँ तो चलेगा क्या? उन्होंने एक बार सारी पड़ताल की और कहा कि तुम्हारे परिचित कई लोग नहीं जा रहे हैं तो तुम भी मत जाओ, उसी में तुम सुखी रहोगी और हम वाकयी सुखी हो गए। लेकिन जब बस घर के बाहर आकर खड़ी हुई तो मन फिर विचलित हो गया। मौज मनाने जाएं या कर्तव्य निभाने? लेकिन फिर मन ने कहा कि वही करो जो मन कहता है और इस बार हमारा मन जीत गया। हमने फोन किया अपने साथियों को कि हम गाँव चल रहे हैं।
गाँव पहुंचकर एक शान्ति सी मिलती है, ढेर सारे बच्चे आजादी की खुशियां मना रहे होते हैं और सारा गाँव ही एकत्र हो जाता है तो ऐसा लगता है कि अपने लोगों के मध्य आ गये हो। बस कल एक बाधा हो गयी, सुबह ही किसी युवक का गाँव में निधन हो गया तो हम लाउडस्पीकर नहीं बजा सकते थे। बच्चे नृत्य और गायन के लिए तैयार होकर आए थे, हमने उन्हें मायूस किया। कहा कि यदि हम ही गाँव के शोक में शामिल नहीं होंगे तो कौन होगा? गाँव में नयी महिला सरपंच बनी थी, वो आयी। हम वहाँ पहले एक स्कूल चलाते थे लेकिन सरकारी स्कूल चलने से अब बंद कर दिया है और वहाँ एक सिलाई केन्द्र चला रहे हैं। सरपंच ने आते ही बताया कि हमने यहाँ बरामदे को पक्का कराने के लिए पाँच लाख रूपये स्वीकृत करा लिए हैं।
मैंने गणतंत्र दिवस पर एक पोस्ट लिखी थी और लिखा था कि अब पति के स्थान पर पत्नी को सरपंच का टिकट मिला हैं, तो अब पूर्व सरपंच पति की ही पत्नी सरपंच बनी है। मेरा कई वर्षों से आग्रह था कि स्कूल के बाहर का बरामदा पक्का बने लेकिन पूर्व सरपंच हमेशा हाँ कहते थे, काम होता नहीं था। लेकिन इस बार महिला सरपंच ने आते ही मुझे बताया कि अब शीघ्र ही काम शुरू होने वाला है। पूर्व सरपंच कहने लगे कि अब तो आप खुश हैं? मैंने कहा कि यह काम आपका नहीं है यह तो हमारी भाभी का कमाल है। हमने भी बच्चों से कहा कि आज आपका नृत्य हम नहीं देख सके और ना ही आपको पुरस्कार दे सके तो कोई बात नहीं अब जैसे ही यह बरामदा पक्का बनेगा हम यही एक बड़ा कार्यक्रम करेंगे और आप सभी को पुरस्कार देंगे।
मेरी यह पोस्ट लिखने के दो मकसद थे, एक तो यह कि जहाँ हमारा मन करे वहाँ पर ही जाना चाहिए। दूसरा यह कि महिला सरपंच के आते ही काम की गति किस तरह से बढ़ जाती है। एक बात और, कि हम कहते हैं कि यह तो नाम की ही सरपंच है, असली तो उसका पति है। जब पहले हमारे कार्यक्रम में पति सरपंच आता था तब उससे हम कुछ बोलने को कहते थे तो वो बोल नहीं पाता था और अब पत्नी नहीं बोल पाती। तब पति दो लाइन बोलने खड़ा हुआ और यह सिद्धान्त बन गया कि पति के सहारे ही पत्नी चलती है। ऐसा नहीं है, हम यही चर्चा कर रहे थे कि इसकी पत्नी दबंग लगती है देखना कुछ ही दिनों में सारा कामकाज अपने हाथ में ले लेगी। एक बात और, हमने पूर्व सरपंच को कभी जीप में आते नहीं देखा इस बार हमारी सरपंच जीप में आयी थी। इसलिए यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।