Thursday, August 26, 2010

शहर से बाहर जाना एक ब्‍लागर का और ब्‍लागिंग से दूर होने के मायने – मैं ग्‍वालियर जा रही हूँ –अजित गुप्‍ता

मैं देखती हूँ कि अक्‍सर लोग शहर से बाहर जाने पर या काम की व्‍यस्‍तता के कारण ब्‍लाग पर सूचना देते हैं कि हम इतने दिनों के लिए बाहर हैं या फिर व्‍यस्‍त हैं। ब्‍लागिंग के प्रारम्भिक दिनों में मुझे समझ नहीं आता था कि लोग ऐसा क्‍यों लिखते हैं? किसी को क्‍या फर्क पड़ेगा कि आप घर में हैं या बाहर? लेकिन अब ब्‍लागिंग के दस्‍तूर समझ आने  लगे हैं। जैसे किसी बगिया में फूल महक रहे हों या फिर किसी खेत में फसल लहलहा रही हो तब फूलों से मकरंद पीने को मधुमक्खियां और फसल के कीड़े खाने के लिए चिड़ियाएं खेत में आती हैं और उनके चहकने और गुनगुन करने से जीवन्‍तता आती है। फसल चिड़ियों के गुनगुनाने से ही बढ़ती है। यदि दो-तीन दिन भी चिडिया खेत में या बगीचे में नहीं आए तो मायूसी सी छा जाती है। बागवान और किसान भी ध्‍यान रखता है कि कौन सी चिडिया खेत में रोज आ रही है और कौन सी नहीं। ऐसे ही ब्‍लागिंग का हाल है। हमने पोस्‍ट लिखी, यानी की आपकी पोस्‍ट आपके ब्‍लाग पर फसल की तरह लहलहाने लगी है और अब आपको इंतजार है कि चिड़ियाएं आंएं और आपकी पोस्‍ट पर अपनी गुनगुन करके जाए।
इतनी लम्‍बी अपनी बात कहने का अर्थ केवल इतना भर है कि आपको ध्‍यान रहता है कि किस व्‍यक्ति ने मेरी पोस्‍ट पर टिप्‍पणी की है या नहीं। आपको बुरा लगने लगता है कि क्‍या बात है फला व्‍यक्ति मेरी पोस्‍ट पर क्‍यों नहीं आया? लेकिन वह बेचारा तो आपकी नाराजी से अनजान कहीं अपने काम में व्‍यस्‍त है। इसलिए आपकी नाराजी नहीं बने कि हमारे ब्‍लाग पर मेरी टिप्‍पणी क्‍यों नहीं है? इसलिए मैं आपको बता दूं कि मैं आज ग्‍वालियर जा रही हूँ और वहाँ से तीन दिन बाद वापस आऊँगी। इन दिनों की पोस्‍ट को मैं मिस करूँगी और मेरी टिप्‍पणियों का आप। आने के बाद मिलते हैं। 

Monday, August 16, 2010

मन गाँव ही ले गया और महिला और पुरुष सरपंच का अन्‍तर भी समझ आ गया

कल आजादी का पर्व था और सुबह-सुबह ही धर्म-संकट उपस्थित हो गया। 15 अगस्‍त होने के साथ कल रविवार भी था तो पिकनिक का दिन भी था। सुबह से ही लोग अपने घरों से निकल पड़े थे। हमारे घर के सामने भी बस आकर खड़ी थी और हमें चलने के लिए ललचा रही थी। मेडीकोज की सपरिवार पिकनिक थी और हम जाए या ना जाएं इसी धर्मसंकट में थे। अभी पिछली पोस्‍ट में लिख ही चुके थे कि कैसे मन अपना ही बंदी बन जाता है। एक तरफ हमें गाँव में जा कर स्‍वतंत्रता दिवस मनाना था और दूसरी तरफ यह पिकनिक थी। एक तरफ हमारी संस्‍था के लोग थे और हमारे पास उसका उत्तरदायित्‍व सबसे अधिक था तो दूसरी तरफ पतिदेव के साथ जाना था।

मैंने पतिदेव से पूछा कि क्‍या करना चाहिए? हमारे यहाँ यह अच्‍छी बात है कि वे मुझे पूर्ण रूप से स्‍वतंत्र छोड़ देते हैं और मैं उन्‍हें। मैंने कहा कि मेरा मन इन सब में लगता नहीं फिर कोई विशेष संगी साथी भी नहीं है तो नहीं जाऊँ तो चलेगा क्‍या? उन्‍होंने एक बार सारी पड़ताल की और कहा कि तुम्‍हारे परिचित कई लोग नहीं जा रहे हैं तो तुम भी मत जाओ, उसी में तुम सुखी रहोगी और हम वाकयी सुखी हो गए। लेकिन जब बस घर के बाहर आकर खड़ी हुई तो मन फिर विचलित हो गया। मौज मनाने जाएं या कर्तव्‍य निभाने? लेकिन फिर मन ने कहा कि वही करो जो मन कहता है और इस बार हमारा मन जीत गया। हमने फोन किया अपने साथियों को कि हम गाँव चल रहे हैं।

गाँव पहुंचकर एक शान्ति सी मिलती है, ढेर सारे बच्‍चे आजादी की खुशियां मना रहे होते हैं और सारा गाँव ही एकत्र हो जाता है तो ऐसा लगता है कि अपने लोगों के मध्‍य आ गये हो। बस कल एक बाधा हो गयी, सुबह ही किसी युवक का गाँव में निधन हो गया तो हम लाउडस्‍पीकर नहीं बजा सकते थे। बच्‍चे नृत्‍य और गायन के लिए तैयार होकर आए थे, हमने उन्‍हें मायूस किया। कहा कि यदि हम ही गाँव के शोक में शामिल नहीं होंगे तो कौन होगा? गाँव में नयी महिला सरपंच बनी थी, वो आयी। हम वहाँ पहले एक स्‍कूल चलाते थे लेकिन सरकारी स्‍कूल चलने से अब बंद कर दिया है और वहाँ एक सिलाई केन्‍द्र चला रहे हैं। सरपंच ने आते ही बताया कि हमने यहाँ बरामदे को पक्‍का कराने के लिए पाँच लाख रूपये स्‍वीकृत करा लिए हैं।

मैंने गणतंत्र दिवस पर एक पोस्‍ट लिखी थी और लिखा था कि अब पति के स्‍थान पर पत्‍नी को सरपंच का टिकट मिला हैं, तो अब पूर्व सरपंच पति की ही पत्‍नी सरपंच बनी है। मेरा कई वर्षों से आग्रह था कि स्‍कूल के बाहर का बरामदा पक्‍का बने लेकिन पूर्व सरपंच हमेशा हाँ कहते थे, काम होता नहीं था। लेकिन इस बार महिला सरपंच ने आते ही मुझे बताया कि अब शीघ्र ही काम शुरू होने वाला है। पूर्व सरपंच कहने लगे कि अब तो आप खुश हैं? मैंने कहा कि यह काम आपका नहीं है यह तो हमारी भाभी का कमाल है। हमने भी बच्‍चों से कहा कि आज आपका नृत्‍य हम नहीं देख सके और ना ही आपको पुरस्‍कार दे सके तो कोई बात नहीं अब जैसे ही यह बरामदा पक्‍का बनेगा हम यही एक बड़ा कार्यक्रम करेंगे और आप सभी को पुरस्‍कार देंगे।

मेरी यह पोस्‍ट लिखने के दो मकसद थे, एक तो यह कि जहाँ हमारा मन करे वहाँ पर ही जाना चाहिए। दूसरा यह कि महिला सरपंच के आते ही काम की गति किस तरह से बढ़ जाती है। एक बात और, कि हम कहते हैं कि यह तो नाम की ही सरपंच है, असली तो उसका पति है। जब पहले हमारे कार्यक्रम में पति सरपंच आता था तब उससे हम कुछ बोलने को कहते थे तो वो बोल नहीं पाता था और अब पत्‍नी नहीं बोल पाती। तब पति दो लाइन बोलने खड़ा हुआ और य‍ह सिद्धान्‍त बन गया कि पति के सहारे ही पत्‍नी चलती है। ऐसा नहीं है, हम यही चर्चा कर रहे थे कि इसकी पत्‍नी दबंग लगती है देखना कुछ ही दिनों में सारा कामकाज अपने हाथ में ले लेगी। एक बात और, हमने पूर्व सरपंच को कभी जीप में आते नहीं देखा इस बार हमारी सरपंच जीप में आयी थी। इसलिए यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्‍हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।

Thursday, August 12, 2010

मन तो बंदी है आपके व्‍यक्तित्‍व का, उसे कैसे स्‍वतंत्र करोगे? – अजित गुप्‍ता

अभी उदयपुर में रिमझिम का दौर जारी है। मन करता है कि बचपन की तरह ही किसी बरसाती नदी के किनारे जाकर बालू रेत पर पैरों से कूदूं और जब पैर अन्‍दर धसने लगे तो चारों तरफ बिखरी खिलखिलाहट को जीवन भर के लिए समेट लूं। कभी मन करता है कि फतहसागर ( उदयपुर की झील ) की पाल पर जाकर भुट्टे खाये जाए। बस फक्‍कडों की तरह घूमा जाए और मन करा तो जोर-जोर से गाना भी गा लिया जाए। लेकिन क्‍या यह सब करना अब इतना सरल रह गया है? कल नदी में पानी का बहाव देखने गाँव की पुलिया तक चले गए, घर पर जैसे बैठे थे बस वैसे ही उठकर चले गए। फटाफट पानी देखा और वापस गाड़ी में बैठ गए। डर था कि कहीं कोई परिचित ना मिल जाए जो यह कह दे अरे आप?

हम अक्‍सर स्‍वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन हमारा मन ही हमारे व्‍यक्तित्‍व के सामने परतंत्र सा बना रहता है। आपकी हैसियत के अनुसार एक सलीका मन में ओढ़ लेना पड़ता है, बस ऐसे ही सलीके के साथ रहो। न जाने कितनी बार मन को मारते हैं? जब कॉलेज में पढ़ाते थे तब हमेशा छात्रों का डर बना रहता था कि कहीं मिल ना जाएं और फिर मेडम को हमने वहाँ देखा या ऐसे देखा था का शोर व्‍याप्‍त हो जाएगा। मेडम खास से अचानक ही आम हो जाएंगी। अभी तक उनका रौब कायम था छात्रों के बीच लेकिन अब तो वे साधारण है हम सबकी तरह। कई बार छुट्टियां लेकर निकल पड़ते थे दूसरे शहर में, घूमने के लिए। वहाँ कोई नहीं था परिचित लेकिन मन तो था। वो कमबख्‍त आजाद ही नहीं होने देता। वहाँ भी शालीनता को ओढ़े रखने की दुहाई देने लगता। परिधान भी इसी मन ने चुन लिये हैं कि ऐसा पहनो और ऐसा नहीं। रात 11 बजे भी आप लिपटे है साड़ी में, कहीं कोई घण्‍टी बजा दे तो? मन के इन बंधनों को कभी दिल तो कभी दिमाग तोड़ डालना चाहता है लेकिन तोड़ नहीं पाता। बहुत ही सुदृढ़ बंधन है।

एक बार मन को आजाद करने की हमने ठान ही ली और नौकरी से त्‍याग-पत्र दे डाला। लगा कि अब कोई बंधन नहीं, हम भी आजाद पंछी की तरह ही रहेंगे। लेकिन यह क्‍या आपका व्‍यक्तित्‍व तो पहले से भी अधिक हावी हो गया मन पर। अब तो आप समाज के लिए उपयोगी हैं तो समाज के बंधनों को तो मानना ही पडेगा। व्‍यक्तित्‍व में और नजाकत आ गयी और मन बेचारा उस नजाकत और नफासत की भेंट चढ़ गया। कभी मन करता है कि हमारा व्‍यक्तित्‍व हम से कहे कि जा जी ले अपनी जिन्‍दगी। पहले ही स्‍त्री होने के कारण क्‍या बंदिशे कम थी कि अपनी हैसियत की और ओढ़ ली। कभी मीटिंग में बाहर जाते हैं तो शाम पड़े पुरुषों को कुर्ता-पाजामा पहने गर्मी से राहत पाते देखते हैं लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि हमें तो सलीके से साडी को ही लपेटे रखना है। लेकिन अब मन विद्रोह करने लगा है, वो कहता है कि मुझे स्‍वतंत्र करो अपने व्‍यक्तित्‍व से। बना लो ऐसा ही व्‍यक्तित्‍व की अरे ये तो ऐसे ही हैं। कह लेने दो लोगों को ही यह भी आम इंसान हैं हम जैसे ही। दफा हो जाने दो इस रौब को। बस एक आम इंसान की तरह जीने दो मेरे मन को भी। मैं भी बरसात में नाच सकूं, खुल कर गा सकूं और सड़क चलते भुट्टे खा सकूं। शायद इतना कठिन भी नहीं है, ऐसा करना? बस मन से इस झूठे दम्‍भ के आवरण को उतार फेंकना है। इस स्‍वतंत्रता दिवस पर शायद मन ऐसे आवरणों को उतारने पर आमादा हो जाए और मैं वास्‍तव में स्‍वतंत्र हो सकूं? अपने आप से, अपने व्‍यक्तित्‍व के बोझ से और खास बने रहने की चाहत से। क्‍या आपको भी ऐसा ही लगता है? आपका मन भी मेरी तरह ही परतंत्रता की बेडियों में जकड़ा है?

Tuesday, August 10, 2010

उदयपुर का आमंत्रण देती कुछ तस्‍वीरें, आएंगे ना?

बहुत दिनों से ना कुछ लिखा गया और ना ही कुछ विशेष पढ़ा गया। परिवार में जब बच्‍चे साथ हों तो किताबें और नेट चुपचाप से दूर किनारे पर बैठ जाते हैं, वे कहते हैं कि हम तो तुम्‍हारा साथ साल भर ही देते हैं लेकिन बच्‍चे जो कुछ दिन के ही साथी बनते हैं तो इनके साथ अपने मन की उमंग को पूरा कर लो। अभी दिसम्‍बर में भी दोनों ही बच्‍चे अपने परिवार के साथ एकत्र हुए थे तब कुछ फोटो ली गयी थी। अभी उन्‍हें दोबारा देखा गया तो सोचा कि उदयपुर को दर्शाती कुछ फोटों आपको भी दिखा दूँ जिससे कभी उदयपुर आने का मन बन जाए। वैसे भी उदयपुर के लिए सितम्‍बर के बाद का समय बहुत ही सुहावना रहता है। झीलों में पानी आ ही जाता है और चारों तरफ हरियाली पसर जाती है।

उदयपुर का सबसे पुराना बाग है यह गुलाब-बाग। यहाँ जो बिल्डिंग दिखायी दे रही है वह सरस्‍वती पुस्‍तकालय की है। यहाँ एक जू भी है और बच्‍चों के लिए एक रेलगाड़ी भी चलती है।

यह एक अन्‍य पार्क है जिसे माणिक्‍य लाल वर्मा गार्डन कहते हैं। पास में ही दूध-तलाई है और इसी के एक पहाड़ी पर है दीनदयाल पार्क। यहाँ पर म्‍यूजिकल फाउण्‍टेन है और रोप-वे भी है जो दूसरी पहाड़ी पर स्थित करणीमाता मन्दिर तक जाता हैं। यहाँ से पूरे उदयपुर को देखा जा सकता है।

उदयपुर का दृश्‍य इसी मन्दिर से लिया गया है।












उदयपुर में एक सांस्‍कृतिक केन्‍द्र भी है जहाँ दिसम्‍बर में शिल्‍प ग्राम मेले के नाम से दस दिवसीय मेला भरता है। उसी मेले में कठपुतलियों का प्रदर्शन।







उदयपुर से 100 किमी की दूरी पर एक ऐतिहासिक जैन मन्दिर है – राणकपुर। इसकी भव्‍यता यहाँ आकर ही देखी जा सकती है क्‍योंकि अन्‍दर के चित्र लेना मना है।





हमारे घर से होकर जा रहा है रास्‍ता सज्‍जन गढ़ का। आप पैदल भी जा सकते हैं और गाड़ी से भी। मेरे पतिदेव सुबह-सुबह पैदल ही चढ़ गए इस चढ़ाई पर।







और अन्‍त में फुर्सत के क्षण, अपने परिवार और रिश्‍तेदारों के संग। कुर्सी पर मैं हूँ।

अब बताइए कैसा लगा उदयपुर का छोटा सा भ्रमण। अभी केवल यह समुद्र की एक बूंद है। आप लोग आएं तब जानेंगे कि उदयपुर क्‍या है? यहाँ का इतिहास और शौर्य की गाथाओं से यह क्षेत्र पटा पड़ा है। उसे एक पोस्‍ट में नहीं लिखा जा सकता, बस एक झांकी है।