श्रीमती अजित गुप्ता प्रकाशित पुस्तकें - शब्द जो मकरंद बने, सांझ की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्ध संग्रह) सैलाबी तटबन्ध (उपन्यास), अरण्य में सूरज (उपन्यास) हम गुलेलची (व्यंग्य संग्रह), बौर तो आए (निबन्ध संग्रह), सोने का पिंजर---अमेरिका और मैं (संस्मरणात्मक यात्रा वृतान्त), प्रेम का पाठ (लघु कथा संग्रह) आदि।
Wednesday, September 23, 2009
जनजातीय गाँव - 2
मौसम कुछ-कुछ खुशगवार था, सोचा कि किसी गाँव में घूम आया जाए। अभी भुटटो का भी मौसम था तो सोचा गया कि किसी के खेत पर जाकर ताजे भुट्टो का मजा लिया जाए। उदयपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर बसा था एक गाँव अलसीगढ़। वहाँ एक पानी का बंधा भी था तो पानी का लुत्फ और साथ में भुट्टे। लेकिन हमारी गाडी अलसीगढ गाँव में चले गयी, वहाँ से एक कच्चा रास्ता जाता था बांध की ओर। हमने उस कच्चे रास्ते पर जाने का विचार त्याग दिया और वहीं गाँव को निहारने लगे। हम एक पेड की छाँव तले खडे थे और किसी के खेत पर जाकर भुट्टे खाने की सोच रहे थे। देखा कि झुण्ड के झुण्ड जनजातीय लोग चले आ रहे हैं। हमें देखकर वे रुके, राम-राम हुई। मेरे पति चिकित्सक हैं और इस क्षेत्र के सारे ही लोग उनके पास चिकित्सा कराने आते हैं तो पहचान का संकट नहीं था। हमने पूछा कि कहाँ जा रहे हो तो वे बोले कि गवरी में।
आज गवरी का समापन था। तब हमें ध्यान आया कि आज भुट्टे खाना कठिन काम है। रक्षाबंधन के बाद से ही पूरे सवा महिने चलने वाला यह पर्व है। इस पर्व में वनवासी अपनी फसल को तोडता नहीं है और न ही हरी सब्जियों का सेवन करता है। हमने फिर भी एक-दो लोगों से कहा कि भुट्टे खिला दो लेकिन उन्होंने कहा आज तो नहीं। तभी हमें लगा कि हम भी गवरी देख ही आएं। सारे ही क्षेत्र वाले वहाँ एकत्र थे, गवरी उनके जीवन का अभिन्न पर्व है तो उसे देखने से ज्यादा वहाँ आना ज्यादा आनन्द दायक होता है तो लोग जहाँ जगह मिली वहाँ ही पहाडियों पर बैठ गए थे। गवरी जहाँ खेली जा रही थी वहाँ लोग झुण्ड बनाकर डटे थे।
यहाँ का जनजातीय समाज के पास कहीं आधा बीघा तो कहीं एक और ज्यादा हुई तो पाँच बीघा जमीन खेती के लिए होती है। अधिकतर वहीं उनका झोपड़ा होता है। खाने को मक्की हो जाती है और दूसरी आवश्यक वस्तुएं मजदूरी की आमद से मिलती हैं। गवरी के समापन के बाद ही वे फसल को तोडते हैं और सौगात के रूप में पाँच भुट्टे डाक्टर आदि को देते हैं। यह गाँव अलसीगढ़ उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा है। पतली सी सडक पर वाहन को चलाना पडता है, पूरा ही क्षेत्र पहाडों से घिरा है और बहुत ही मनोरम है। आज के पचास वर्ष पूर्व यहाँ घना जंगल था, लेकिन अब पेड दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते। कभी यहाँ के वनवासी जंगल के राजा थे लेकिन अंग्रेजों ने जब से जंगल को सरकारी सम्पत्ति बनाया तब से ही ये जंगल की उपज से दूर हो गए। बस अब तो जंगल में महुवा और पलाश के कुछ ही पेड दिखायी देते हैं। ये दोनों ही पेड इनकी आमदनी का मुख्य जरिया हैं। इस जगह अभाव है लेकिन फिर भी एक संतुष्टि का भाव सब के चेहरों पर दिखायी देता है।
मैंने अपनी बात भुटटो से की थी, आप सोच रहे होंगे कि आखिर हमें भुट्टे खाने को मिले या नहीं। हमें मिले, एक चाय की टापरी थी, हमने उसी को कहा और उसने डॉक्टर साहब का लिहाज करते हुए हमें भुट्टे खिलाए। खेत से ही भुट्टे तोडे गए और वहीं से कांटे लाकर उनके बीच में ही सेके गए। कितना मीठा स्वाद था उन भुट्टो का? जितना सुंदर यह स्थान है उतने ही मीठे यहाँ के भुट्टे भी हैं और लोग भी एकदम सीधे। पोस्ट लम्बी न हो जाए इसके लिए यहीं समाप्त करती हूँ, अगली बार आगे की बात करेंगे। चित्रों को बडा करके देखेंगे तो अधिक आनन्द आएगा।
अजित गुप्ता
Monday, September 21, 2009
एक जनजातीय गाँव
उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा एक गाँव – अलसीगढ़। आज यहाँ गवरी का समापन है। रक्षाबंधन के बाद से पूरे सवा महिने तक चलने वाला पर्व है गवरी। इसमें महाभारत की पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर जानजातीय लोग स्वांग भरकर नाटिका प्रस्तुत करते हैं। इस अवधि में गवरी में भाग लेने वाले व्यक्ति घर से बाहर रहते हैं और किसी भी व्यसन को हाथ नहीं लगाते हैं।
सौभाग्य से हम गवरी के समापन वाले दिन 13 सितम्बर को इनके बीच जा पहुँचे। गवरी के पात्रों की तस्वीर तो नहीं ले पायी लेकिन गाँव की खूबसूरती आपको दिखाने का अवसर मैंने केमरे में कैद कर लिया था। यहाँ का जीवन बहुत ही सादगी और सीधा है। इसपर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे, अभी चित्रों को देखिए और प्रकृति के मध्य बसे इस जनजातीय गाँव का आनन्द लीजिए।
अजित गुप्ता
Monday, September 14, 2009
नवगीत - बिखर पड़ा मन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।
बरगद है गमले में
कुण्डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्ली है आँगन
छाँव गंध नायरे
पसर गया डर
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
चूल्हा ना चौका है
जीमण ना झूठा
ऑवन में बर्गर है
फ्रीजर है मोटा
माँ न रही साथ रे
बिसर गया अन्न
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
बूढ़ी सी आँखे हैं
आँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
बिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।
बरगद है गमले में
कुण्डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्ली है आँगन
छाँव गंध नायरे
पसर गया डर
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
चूल्हा ना चौका है
जीमण ना झूठा
ऑवन में बर्गर है
फ्रीजर है मोटा
माँ न रही साथ रे
बिसर गया अन्न
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
बूढ़ी सी आँखे हैं
आँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।
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