मातृ दिवस पर माँ का स्मरण। जब माँ पास थी तब उसका देय स्वाभाविक लगता था लेकिन आज जब वह नहीं है तब लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में देना कितना अस्वाभाविक होता है। उसने हमें जो भी दिया उसको नमन। काश हममें भी उसकी जितनी हिम्मत हो। उसी को समर्पित एक कविता -
तूफानी काली रातों में
जैसे जलता एक दिया
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।
दुर्वासा के रौद्र रूप से
काली पीली आँधी आती
तिनके-तिनके घर को करती
आनन-फानन बिखरा जाती
उसकी आँखे हम से कहती
थमने दो, मत धीरज खोओ
वो टुकड़ों को बीन-बीन के
फिर वापस एक बना देती
शिव के नर्तन, रौद्ररूप में
जैसे स्थिर रहती हिमजा
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।
घर में तूफान सुनामी सा
कुछ भी शान्त नहीं रहता
गर्जन-तर्जन कितना होता
आँखों से नीर नहीं बहता
लहरों के वापस जाने तक
आँचल उसका सिमटा रहता
मंथन से निकले गरलों को
फिर वह झट से बिसरा देती
सागर के ज्वारों में जैसे
स्थिर रहती पाषाण शिला
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।
न माथे पर मोटी बिंदिया
न पाँवों में पायल, बिछियां
बस चूड़ी वाले से कहती
एक सुहाग की दे भइया
रही सुहागन मेरी अम्मा
सुन तो लो उसकी बतियां
मेरे श्रीराम गए कहकर
उसने बंद करी अँखियां
सतयुग जैसे कलिकाल में
कस्तूर बनी बापू की बा
हाँ वैसी थी मेरी अम्मा।