Tuesday, April 12, 2011

नयी पीढ़ी उवाच – आप नहीं समझोगे, वास्‍तव में हम नहीं समझ सकते – अजित गुप्‍ता



भारतीय रेल मानो संवाद का खजाना। कितनी कहानियां, कितने यथार्थों से यहाँ  आमना सामना होता है। कितने मुखर स्‍वर सुनाई देते हैं? बस आप एक मुद्दा छोड़ दीजिए, कानों में ईयर-फोन लगाया व्‍यक्ति भी बोल उठेंगा। कोई डर नहीं, कोई चिन्‍ता नहीं कि मेरी बात से कोई नाराज होगा या बहस किस दिशा में जाएगी? क्‍योंकि सभी को कुछ घण्‍टों में ही बिछड़ जाना है। कभी बहस के ऊँचे स्‍वर भी सुनायी दे जाते हैं लेकिन छोटे से सफर में भला बहस को कितनी लम्‍बाई मिल सकेगी? खैर मैं अपनी बात कह रही थी अभी 9 अप्रेल को दिल्‍ली जाने के लिए रेल सेवा का उपयोग कर रही थी, साथ में दो साथी भी थे। एक जगह रहने के बाद भी बातचीत का सिलसिला रेल यात्रा में ही पूरा होता है। साथी के बेटे के बारे में बात निकली और पूछा कि कब शादी कर रहे हो? बात आगे बढ़ी और इस बात पर आकर ठहर गयी कि बच्‍चे कहते हैं कि आप कुछ नहीं समझते हो। पहले माता-पिता कहते थे कि तुम कुछ नहीं समझते हो और अब बच्‍चे कहते हैं कि आप लोग कुछ नहीं समझते हैं और आपको हम समझा भी नहीं सकते हैं।
इस युग की पीड़ा वास्‍तव में समझ भी नहीं आती है। वे एक दूसरे को जानने के लिए लिविंग रिलेशनशिप को आवश्‍यक मानते हैं और हम इसे पाप की संज्ञा देते हैं। बात कई मोड़ों से होकर गुजर रही थी, तभी मैंने कहा कि वास्‍तव में बड़ी अजीब सी स्थिति बन गयी है। क्‍योंकि मैंने अभी कुछ दिन पहले ही टीवी पर आ रही एक फिल्‍म को देखा था। उसके पहले उस फिल्‍म के चर्चे सुने थे तो सोचा कि जब टीवी पर आ ही रही है तो देख लिया जाए। नाम था बैण्‍ड बाजा बारात। खैर फिल्‍म शुरू हुई और  एक दृश्‍य ने हमारे दिमाग की घण्‍टी को बजा दिया। सब कुछ इतना स्‍वाभाविक? लड़की कितनी सहजता से साथ लड़के के साथ शारीरिक सम्‍बंध स्‍थापित कर लेती है और सुबह होते के साथ ही भूल जाती है। लड़का तो उहापोह में है लेकिन लड़की ने जैसे रात में किसी के साथ डिनर किया हो बस। अरे डिनर करते हैं तब भी कोई चर्चा होती है लेकिन उतनी चर्चा भी नहीं। हम तो सकते में आ गए कि क्‍या वास्‍तव में इतना परिवर्तन आ गया है?
खैर जब हम इस फिल्‍म की चर्चा कर रहे थे तब हमारे साथी ने भी कहा कि मैंने भी देखी थी यह फिल्‍म। तभी पास में बैठा सहयात्री मुखर हो उठा, इतनी देर से तो वह अपने कम्‍प्‍यूटर पर मग्‍न था। एकदम से बोल उठा तो हमें भी लगा कि अरे हम अपनी बातों में कितना मशगूल थे और यह भी नहीं जान पाए कि दूसरा भी कोई इसे सुन रहा है। लेकिन वह जो बोला उसे सुनकर एक अविश्‍वसनीय सत्‍य हमारे सामने पसर गया और आज की पोस्‍ट लिखने को मजबूर कर गया। मैं कल याने 11 अप्रेल को ही दिल्‍ली से लौट आयी थी और कल से ही मेरे दिमाग में उस सहयात्री की बात घुमड़ रही है। कभी लगता है कि पोस्‍ट पर नहीं लिखू, फिर लगने लगा कि लिख ही दूं। बेकार में मन में पड़ें रखने से तो अच्‍छा है कि शेयर कर लिया जाए।
उन सज्‍जन ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले मैं रेल में यात्रा कर रहा था। मुझे एसी का टिकट नहीं मिला तो मैं स्‍लीपर में था। वहाँ दो युगल भी यात्रा कर रहे थे। वे दोनों अपर बर्थ पर आराम से प्रोपर सेक्‍स कर रहे थे। मैंने यह शब्‍द उसी का लिखा है। शब्‍दों को छिपाया नहीं है, क्‍योंकि हम सब परिपक्‍व हैं और जिस बात को मैं इंगित कर रही हूँ उसमें छिपाव होना भी नहीं चाहिए। उसने कहा कि सारे अन्‍य यात्री मुँह फाड़े उन्‍हें देख रहे थे और बोल रहे थे कि पिक्‍चर चल रही है। मैं यह नहीं कहना चाह रही कि कितना पतन हो गया है, क्‍योंकि हो सकता है कुछ लोग इसे उत्‍थान माने। लेकिन हमारी पीढी के लिए आश्‍चर्यजनक और आपत्तिजनक भी है। क्‍या अन्‍य यात्रियों को उन्‍हें रोकना नहीं चाहिए था? या यह घटना ही झूठ का पुलिंदा है? कुछ समझ नहीं आ रहा है, तो आप लोगों से शेयर कर ली। बस इस बात को समझने का प्रयास कर रही हूँ कि वास्‍तव में हम कुछ नहीं समझ सकते। आखिर हम अपनी सोच से कितना आगे बढ़े? कितनी कल्‍पना करें, कि कितना परिवर्तन और होगा? क्‍या मनुष्‍य सामाजिक प्राणी से केवल प्राणी-मात्र रह जाएगा? क्‍या हमारे बच्‍चों की पीड़ा जायज नहीं है कि उन्‍हें भी ऐसे वातावरण को जीना पड़ता है और उसे आत्‍मसात भी करना पड़ता है। एक तरफ उनके पारिवारिक संस्‍कार हैं और दूसरी तरफ उनकी पीढी है जो सारी ही वर्जनाएं तोड़ देना चाहती है, अ‍ाखिर वे किस का साथ दें? तभी वे बात बात में कहते हैं कि आप नहीं समझोगे। आखिर हम समझ भी कैसे सकते हैं?   

59 comments:

  1. @ "मैं यह नहीं कहना चाह रही कि कितना पतन हो गया है, क्‍योंकि हो सकता है कुछ लोग इसे उत्‍थान माने।"

    मातोश्री और इन "कुछ" की मैं नहीं जानता पर मेरी उम्र के कई हैं जो सोच रहें है की हम किधर जाएँ !!!!!!!!!!!!!!!!

    ReplyDelete
  2. शत प्रतिशत सत्य लेकिन हम है जान कर भी अनजान बने है यह कह पाना थोडा मुश्किल है की उत्थान है या पतन क्योंकि यह तथकथित सभ्य समाज की नयी सोंच है सारगर्भित पोस्ट , आभार .

    ReplyDelete
  3. hamarey yahaan samsyaa haen ki ham sab kuchh shaadi sae jod daetey haen aur shadi shudaa jodo kae liyae sab permissible haen even PDA yaani public display of emotion wahin agar gaer shadi shuda kartaa haen to kanuni apraadh haen

    waese bhartiyae rail mae bahut lambi lambi yaatra ki haen par aesa kabhie kuchh nahin dikha

    videsho mae PDA aam baat haen kyoii aankh utha kar daekhata bhi nahin haen lekin koi bhartiyae hoga to wahiin thethak jaayegaa
    aur muh kholae daekhtaa rahegaa

    ReplyDelete
  4. सही बात है हम नही समझ सकते अभी और कितना पतन बाकी है………………वहाँ तक तो हमारी सोच भी नही पहुँच सकती।

    ReplyDelete
  5. sahi kaha aapne, abhi patan ki shuruaat hai,

    रामनवमी पर्व की ढेरों बधाइयाँ एवं शुभ-कामनाएं

    ReplyDelete
  6. हमारे धर्मग्रन्थो मे तो पहले ही सब कुछ बता दिया गया है. कि कलियुग मे क्या क्या होगा.
    और वही सब हो रहा है.
    और अभी तो और भी बहुत कुछ होना बाकि है.

    ReplyDelete
  7. नहीं समझ आता है कि ये पीढ़ी किस सोच की हो रही है, हाँ पतन हो रहा है लेकिन ये पतन पूरी पीढ़ी को भी स्वीकार्य नहीं है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ये कुछ स्वच्छंद विचरण को स्वीकार करने वाले लोग पूरी पीढ़ी के चरित्र और जीवन शैली पर प्रश्न चिह्न लगा दे रहे हैं.

    ReplyDelete
  8. "क्‍या अन्‍य यात्रियों को उन्‍हें रोकना नहीं चाहिए था? या यह घटना ही झूठ का पुलिंदा है? कुछ समझ नहीं आ रहा है, तो आप लोगों से शेयर कर ली।"
    मुझे तो यही लगता है की यह घटना ही झूठ का पुलिंदा है |
    शायद हमारा मन स्वीकार ही नहीं कर पाता ?ऐसा भी होता है ?
    रही सिनेमा की बात तो तो पूर्व की फिल्मो में शादी के पहले माँ बनने वाली को जिन्दगी भर ग्लानी से गुजरना होता था और अब की सोच ?
    आप" तनु वेड्स मनु "देखेगी तो लगेगा सर पकड़ लेगी की क्या अगर घर में बहू आयेगी तो क्या ऐसी होगी ?

    ReplyDelete
  9. जब तक समझेंगे कि कहाँ जा रहे हैं तब तक देर हो जायेगी। जीवन केवल चिरयुवा रहना नहीं है, संस्कार उसी शिक्षा को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं।

    ReplyDelete
  10. मुझे तो लग रहा है कि उन महाशय ने राइ का पहाड़ बना कर पेश किया. माना की बहुत कुछ बदल गया है पर इतना भी नहीं.ये हालात तो पश्चिम के देशों में भी नहीं जहाँ ओपन सेक्स है.

    ReplyDelete
  11. वाकई उन सज्जन के श्रीमुख से उच्चारित यह घटना झूठ का पुलिंदा ही हो सकती है क्योंकि प्रापर सेक्स प्रापर एकांत या वैसा आवरण तो मांगता ही है ।

    ReplyDelete
  12. कलयुग का समापन ही तब होगा जब पतन निम्नस्तर पर आ जायेगा ...शायद उसके बाद ही फिर उत्थान हो सके ...

    जहाँ तक घटना की बात है मुझे नहीं लगता कि यात्री कि बात शत प्रतिशत सही होगी ...या ये भी कह सकते हैं कि हमारा मन यह मानाने को तैयार नहीं है ...वैसे यह बात सही है कि आज कल के बच्चे यही कहते हैं कि आप नहीं समझोगे ...और वाकई हम ऐसे ही प्रतिक्रिया देते हैं कि नहीं समझे ...विचार बिंदु छोडती अच्छी पोस्ट

    ReplyDelete
  13. यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात :)

    ReplyDelete
  14. Hmmm...kuchh baaten waqayee samajh ke pare ho jatee hain....

    ReplyDelete
  15. .

    ये तथ्य झूठ ही प्रतीत होता है , क्यूंकि भारत में अभी भी बस एक ही संस्कार बचा है की - " गुनाह भी छुपकर करते हैं , खुलेआम नहीं "

    यदि यह घटना सच है तो ये 'पतन' की तरफ नहीं इंगित करती , बल्कि ये उस युगल जोड़े की अज्ञानता , जड़ता और जहालत है।

    जैसे लाखों में किसी एक व्यक्ति का दिल बायीं की जगह दायीं और होता है वैसे करोड़ों में कोई विरला ही इतना जाहिल होता है।

    .

    ReplyDelete
  16. यह घटना उन महाशय की अति-कल्पना हो सकती है, किन्तु कुल मिलाकर सोच पतनोभिमुख ही है।

    आज पतन के दौर में स्वच्छंदता एक आवश्यक गुण ही बन गई है। और पुरानी पीढी इसी गुण(?) को नहीं समझती।

    संयम की सोच लुप्त प्राय है। यह अधोगति ही है इस लिये कि यह सहज स्वच्छंदता हमें पुनः आदिम जंगलीपन की और ले जा रही है।

    ReplyDelete
  17. आप सभी इसे झूठ का पुलिंदा ही समझ रहे हैं। लेकिन जब उस व्‍यक्ति ने यह सुनाया था तब हम सब शून्‍य से रह गए थे, उससे आगे बहस ही नहीं कर पाए। लेकिन वह जिस आक्रोश और विश्‍वास के साथ कह रहा था उस समय कुछ पूछने का मन ही नहीं हुआ। अब लग रहा है कि उससे बहस करनी चाहिए थी। लेकिन आपके समक्ष जब ऐसे झन्‍नाटेदार प्रश्‍न आ जाएं तब एकदम से उत्तर कहाँ मिलते हैं?

    ReplyDelete
  18. एक टिप्‍पणी फेसबुक पर आयी है उसे यहाँ दे रही हूँ -
    Raunak Bapna
    rightly said the instance occured in front of my eyes also even tt has also seen while travelling frm udr jpr.but .. who cares aunty aaj kal ..its common thesedays. but i would say the promotion ,advertisement (protection) etc of these things are increased so much that one doesnt care both male and female. all has lost there self respect,morale ethics ... u can say its just a family upbringing.... new generation nothing much to comment

    ReplyDelete
  19. अजित जी , यदि यह घटना सच है तो यह किसी भी तरह नई सोच को प्रदर्शित नहीं कर रही । अभी ऐसा समय नहीं आया है कि इन्सान जानवरों की तरह व्यवहार करने लगे । युवा पीढ़ी भी इतना तो जानती है कि क्या सही हा क्या गलत । हाँ सही गलत के मायने सब के लिए भिन्न हो सकते हैं ।

    किसी भी देश का कानून इस घटना की इज़ाज़त नहीं देता । उन्हें फ़ौरन पकड़कर पुलिस के हवाले कर देना चाहिए था ।

    ReplyDelete
  20. दराल साहब
    रौनक बापना ने जो टिप्‍पणी की है, उसे पढे और देखे कि आदमी वास्‍तव में जानवर बन गया है।

    ReplyDelete
  21. just to add on jo bhi ya kaha raha ha ki ya jhoot ko pulinda ha....to ya sach ha ... in fact there were two pairs in one blanket on either side ie on two lower births... yes the time was 4 o'clock every body was sleeping when the ajmer station came and they quietly took the sleeper and rest we all no....tt has seen or not hardly matters. but here the point is as earlier mentioned is the advertisement of the protection have not increased at his levels.. it is required agreed but how can we stop watching the advt on TV sets with parents on prime time and that time the wrong things come in your mind...
    somebody said one should call police ... police just for 100 bugs small world kaun panga la. every body is not anna hazare.....
    BASICS are not going right in this generation just to conclude .

    ReplyDelete
  22. मै zeal जी और दराल साहब की बात से इत्तेफाक रखता हूँ | उनके द्वारा की गयी टिप्पणी ही मेरी भी मान ली जाए |

    ReplyDelete
  23. बात हो रही थी चेतन भगत और किसी फिल्‍म की, कि खास क्‍या है, किसीने कहा है ही क्‍या उसमें, किसीने कहा कुछ समझ में ही नहीं आता, किसी ने बात आगे बढ़ाई, फिल्‍म की छोडि़ए, कितने विज्ञापन आपको समझ में आते हैं कि उससे क्‍या प्रचारित किया जा रहा है, क्‍या बेचने की कोशिश है, और इस तरह क्‍यों. लेकिन समझना तो हमें ही पड़ेगा.

    ReplyDelete
  24. now the question arises

    why have the old generation which implies our generation has not given any principles to new generation ?????

    ReplyDelete
  25. दोनो बेटो पर पूरा विश्वास करती हूँ क्यो कि शायद मुझे अपने दिए संस्कारों पर भरोसा है...हाँ आसपास के माहौल का असर होता है...जिसे बातचीत करके कम असर कर लेते हैं...कुछ बदलाव स्वीकार भी करती हूँ क्योंकि वे मेरे दिए मूल्यों का मान रखते हैं...

    ReplyDelete
  26. अजित जी, मुझे तो लगता है कि वे महाशय बिलकुल सच ही कह रहे होंगे। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं खुद ऐसी दो घटनाओं का चश्‍मदीद गवाह हूं। और मुझे नहीं लगता कि यह पीढ़ी का मामला है। यह मामला संस्‍कार का है।
    पहली घटना 1978 के आसपास की है जब मैं खंडवा से इटारसी के बीच आया जाया करता था। ऐसे ही एक स्‍लीपर क्‍लास में अपरबर्थ पर एक फौजी दम्‍पति थे। जिन्‍हें बस इतनी शर्म थी कि उन्‍होंने अपने ऊपर चादर डाल रखा थी।
    दूसरी घटना दिल्‍ली रूट की है और 2002 के आसपास की।

    ReplyDelete
  27. हाँ यह तो है .....कुछ अजीब सा कन्फ्यूजन है इस पीढ़ी को.... पर हाँ इसी उहापोह में कई बार बहुत देर हो जाती है और वे खुद नहीं समझ पाते की कहाँ आ गये....?

    ReplyDelete
  28. विचारणीय पोस्ट!
    रामनवमी के साथ बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की भी शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  29. अजित जी , टिपण्णी से यह पता नहीं चला कि वह जोड़ा विवाहित था या अविवाहित ।
    दिल्ली में मेट्रो स्टेशन पर एक नव विवाहित जोड़े को किसिंग के आरोप में पुलिस ने पकड़ लिया था । हालाँकि बाद में उन्हें छोड़ना पड़ा । लेकिन सार्वजानिक रूप से प्रेम प्रदर्शन अभी इस रूप में यहाँ तो क्या शायद कहीं भी नहीं है ।
    यह अलग बात है कि कुछ अय्याश लोग काल गर्ल्स के साथ कहीं भी पकडे जा सकते हैं ।

    ReplyDelete
  30. सब कुछ बड़ा अजीब है .पर संस्कार-हीन मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं होता .

    ReplyDelete
  31. दिन की रेल यात्राओं की यही बात मुझे रास नहीं आती. एक से एक बकलोल सहने पड़ते हैं. इसलिए मैं आमतौर से या तो कुछ न कुछ पढ़ता रहता हूं या सोता रहता हूं, चाहे दिन हो या रात. दूसरे यात्रियों से दुआ—सलाम मेरे मीनू में नहीं होता, दूसरा जो सोचता हो तो सोचा करे, मेरी बला से ... 120 करोड़ की आबादी में मेरी ग़िनती यूं भी है ही कहां...

    ReplyDelete
  32. इन बातों को कोरी कल्पना कह देना असलियत से मुंह छिपाना है। आधुनिक होने की होड़ में सब जायज है।
    लगभग तीन साल पहले तक मैं सुबह सात बजे वाली मेट्रो पकड़ता था। सामने वाली सीट पर एक लड़का बैठा, जिसने टी शर्ट पहन रखी थी। चैस्ट पर लिखा था ALL I NEED FOR A F**K IS YOU. * एक ही था,ये याद नहीं कि दूसरे स्थान पर था या तीसरे स्थान पर, बाकि सब एग्ज़ैक्टली यही। कुछ कहता तो मुझे ही उल्टा सीधा सुनना पड़ना था। उससे बातचीत करके इतना कन्फ़र्म कर लिया था कि भरे पूरे परिवार का चश्मे-चिराग था। स्लोगन के बोल्ड होने की कही तो उसका जवाब था, Its cool, इसीलिये तो पहनते हैं। यंगमैन की मां-बाप और भाई बहनों की सहनशीलता की तारीफ़ करके मन मसोसकर बैठ गये थे।
    अजित मैडम, मैं ये घटना अपने ब्लाग पर लिखना चाहता था लेकिन आपकी पोस्ट विषय संबंधित लगी इसलिये यहीं लिख दिया है। आप माडरेशन को जरूरी नहीं समझती, फ़िर भी अनुचित लगे तो ये कमेंट डिलीट कर दीजियेगा।

    ReplyDelete
  33. मुझे भरोसा न होता
    पर पंद्रह बरस पहले भोपाल यात्रा के दौरान यह
    स्थित देखी थी फ़र्स्ट क्लास में मुझे जगह बदलनी पड़ी थी. कुछ भी हो सकता है...
    पर इसी वज़ह से पीढ़ी को दोष देना ठीक नहीं

    ReplyDelete
  34. संस्कार और मानसिकता हर एक की अलग है , जो ना पता चले वही अच्छा ...

    ReplyDelete
  35. बस, कहीं समझते समझते देर न हो जाये...

    ReplyDelete
  36. आपका अंदाजे बयां पसंद आया। सचमुच नयी पीढियों को समझना दूभर होता जा रहाहै।

    ............
    ब्‍लॉगिंग को प्रोत्‍साहन चाहिए?
    लिंग से पत्‍थर उठाने का हठयोग।

    ReplyDelete
  37. एक क्षण को तो मुझे धोबी घाट के एक दृश्य की याद हो आयी!जिसमें एक सैब्बाटीकल पर आयी भारतीय मूल की किन्तु अमेरिकी संस्कृति में पली बड़ी लडकी नायक से बिना पूर्व परिचय के सहवास करती है और सुबह उसे भूल जाती है ....जैसे यह कोई साध्य नहीं अनेक गतिविधियों की ही एक साधन ही है -वहां बात बहुत कलात्मक तरीके से एक जीवन दर्शन की झलक लिए थी -
    मगर यहाँ तो केवल एक सतही सेक्स सनसनी के रूप में प्रस्तुत हुयी लगती है -

    ReplyDelete
  38. अजित जी, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि माता पिता अपनी सन्तान को और सन्तान अपने माता पिता को ही न समझ पाए!

    ऐसी स्थिति बन जाने का कारण क्या है? क्या कुशिक्षा और कुसंस्कार ही इसके मूल में नहीं हैं?

    ReplyDelete
  39. .
    .
    .
    अजित जी,

    मुझे लग रहा है कि वह सच ही बोल रहा होगा क्योंकि पंद्रह साल पहले ट्रेन में मेरे ही केबिन में बैठे मसूरी से हनीमून मना कर लौट रहे व परंपरागत परिवार के एक जोड़े को कुछ ऐसा ही करते मैं स्वयं देख चुका हूँ... यह अलग बात है कि मुस्कुराते हुऐ मैंने व एक अन्य यात्री ने उन्हें उलाहना जरूर दिया कि " कुछ ही घंटे में आपका घर आ जाता, थोड़ा इंतजार कर लेते "... बहुत लज्जित लगे वे दोनों... अच्छे परिवारों से थे... पर कभी-कभी देह/दैहिक सुख दिमाग पर पर्दा सा डाल देता है... यह सत्य है, और हम सभी ने कभी न कभी इस प्रभाव में आ वर्जनाओं का उल्लंघन किया/ करने की सोची होगी...


    ...


    ...

    ReplyDelete
  40. पहली बात तो मेरा विरोध दर्ज किया जाए कि आप दिल्ली आईं और नोएडा-दिल्ली वालों को ख़बर तक नहीं हुईं...आइंदा ये रुखाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी...

    जहां तक ट्रेन वाला किस्सा है तो हम लगता है फिर आदिम युग की ओर बढ़ रहे हैं...वैसे भी एक परिवर्तन तो देखिए कि पहले फटे कपड़े गरीब की मजबूरी होते थे, आज कपड़ों को खुद ही फाड़ कर पहनना रईसज़ादों का चोंचला है...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  41. खुशदीप भाई, आपका उलाहना मन को छू गया, नहीं तो आजकल लोग हम से दूरियां बनाकर ही चलते हैं। लेकिन सच यह है कि मैं एक दिन के लिए ही दिल्‍ली में थी, इसलिए किसी से भी मिलना सम्‍भव नहीं था। लेकिन अब आपकी शिकायत दूर किए देती हूँ, मैं 19 और 20 अप्रेल को दिल्‍ली में हूँ। शायद 19 अप्रेल को शाम 5 बजे के बाद मिलने के लिए समय मिल जाएगा। मैं अपना पूरा कार्यक्रम आपको मेल कर दूंगी।

    ReplyDelete
  42. पुनश्च : मैं प्रवीण शाह जी की बात से इत्तिफाक रखता हूँ -हमें लगता है जैवीय आवेगों के चलते बहुत लोगों को जीवन में कभी कभार विवेक नहीं रह जाता मगर इन्हें इतना प्रमोट करने की जरुरत भी नहीं है !

    ReplyDelete
  43. जिस तरह से उस सहयात्री ने कहा है उस तरह से तो विदेश मे भी नही देखा। मुझे उसकी बात तो झूठ लगती है लेकिन जैसा कि आपने कहा है हालात हमारे हाथ से फिसलते जा रहे हैं।शायद जब तक नई पीढी भी इसका हश्र समझेगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। विचारणीय पोस्ट। शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  44. कुछ व्यस्तता के कारण इस पोस्ट पर देर से आने का फायदा ये हुआ कि पोस्ट के साथ-साथ मनन करके लिखी गयी टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिलीं.
    अगर वो सच था तो अति शर्मनाक था

    ReplyDelete
  45. its very difficult
    nice post

    ReplyDelete
  46. @इस युग की पीड़ा वास्‍तव में समझ भी नहीं आती है।

    बौधिक लेख के लिए शुभकामनाये.

    ReplyDelete
  47. आपका आलेख सटीक है, साधुवाद

    ReplyDelete
  48. "नई पीढ़ीं उवाच -आप नहीं समझोगे ,
    वास्तव में हम नहीं समझ सकते "
    समझने की कहीं न कहीं तो शुरुआत होगी ही एक दिन.
    आपके ब्लॉग पर कई दफा आया,आपसे कई दफा अनुरोध किया मेरे ब्लॉग पर आने के लिए.आपही ने मेरी पोस्ट 'ब्लॉग जगत में मेरा पदार्पण' पर मेरा स्वागत कर उत्साह वर्धन भी किया.परन्तु ,
    फिर शायद समझने में ही कहीं कोई भूल हुई.
    यदि,आप मेरे ब्लॉग पर आएँगी तो खुशी मिलेगी और आपसी समझ में भी इजाफा हो शायद.
    राम-जन्म पर आप सादर आमंत्रित हैं.

    ReplyDelete
  49. मेरी प्रार्थना स्वीकारी आपने,इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका.

    ReplyDelete
  50. देर से पढ़ पायी ये पोस्ट ...
    ऐसी स्थिति कभी ना देखनी पड़े , बस यही दुआ कर सकते हैं !

    ReplyDelete
  51. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

    ReplyDelete
  52. अजित जी,
    मैंने आपको ajit.09@gmail.com पर अपना ईमेल पता और फोन नंबर भेजा था, शायद आपको नहीं मिला...

    इसलिए यहां उसे दोहरा रहा हूं...

    ईमेल पता...sehgalkd@gmail.com

    मोबाइल नं...09873819075

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  53. कल दिल्ली मेट्रो में इसी तरह की एक घटना देख कर मुझे अपनी आँखें नीची करनी पड़ीं..आजकल के हालात देख कर तो लगता है कि चाहे हम कितनी भी कोशिश करें, हम इन्हें नहीं समझ सकते...बहुत सार्थक पोस्ट ..आभार

    ReplyDelete

  54. यह पीढ़ी बस इतना जतलाना चाहती है कि, उनकी रगों में बगावत दौड़ रहा है...वर्जनाओं को तोड़ना ही बहादुरी है । किसके खिलाफ़, क्यों.. यह वह स्वयँ भी नहीं जानते ।
    हमारा पारिवारिक ढाँचा ऎसा है कि, यह गैप अचानक एक दिन दिखता है । और.. तब तक सबकुछ हाथ से निकल चुका होता है ।
    हमें अपनी त्रिशँकु सँस्कृति से उबरना ही चाहिये !

    ReplyDelete
  55. कभी - कभी लगता है कि जानते तो वो सब कुछ हैं पर उनके ऊपर विदेशी संस्कृति का जो भुत सवार हो गया है ये उसी का असर है , जबकि उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि वो लोग तो हमारी संस्कृति को जानने और समझने कि कोशिश कर रहें हैं और हमारे अपने देश के बच्चे उस फूहड़ संस्कृति को अपनाना चाह रहें हैं जिसका कोई आस्तित्व ही नहीं है जो क्षण भंगुर है काश वो ये बात जल्द ही समझ जाते |
    विचारणीय प्रस्तुति

    ReplyDelete
  56. कौन किसको समझा है आज तक। बेहतर है खुद को ही समझा लिया जाए।

    ---------
    भगवान के अवतारों से बचिए...
    जीवन के निचोड़ से बनते हैं फ़लसफे़।

    ReplyDelete
  57. बेस्ट ऑफ़ 2011
    चर्चा-मंच 790
    पर आपकी एक उत्कृष्ट रचना है |
    charchamanch.blogspot.com

    ReplyDelete