जय कन्फ्यूज्ड देवा
हम भारतीयों की एक
आदत है और अमूमन सब की ही है। आप पूछेंगे क्या! अजी बताते हैं। किसी भी बात में अपना थूथन घुसाना और कैसी भी गैर
जिम्मेदाराना अपनी राय देना। राय देते-देते दूसरे पर हावी हो जाना और हाथापाई तक
पर उतर जाना। मीडिया पर यह खेल रोज ही खेला जाता है और बरसों से खेला जा रहा है।
अब तो यह सब देखकर उबकाई सी आने लगी है। लेकिन यह बे-फालतू सा राय-मशविरा कल एक
चैनल पर और दिखायी दे गया। नया सीरियल था, कुछ देखने को नहीं
था तो सोचा इस दोराहे पर खड़े व्यक्ति ने जो अनावश्यक बहस और समाधान देने की पहल की है, उसे ही देख लिया जाए। देखकर हैरान हूँ कि लोगों
की समझ की खिड़की बहुत झीनी सी ही खुली है, कोई भी जिम्मेदारी
से बोलता नहीं दिखायी दिया, बस थोथी सी बातें और थोथे से तर्क। कुछ लोग
अपनी बात कहने के स्थान पर दूसरों की बात
ही काटते नजर आए जैसे मिडिया की बहस में होता है। बहुत प्रभाव पड़ रहा है देश के
लोगों पर, इन फिजूल सी बहसों का। शान्ति से अपनी बात कहना और सारे ही दृष्टिकोण पर निगाहे डालना
लोग भूल गये हैं। शायद यही कारण है कि देश भी ऐसी ही सोच के साथ आगे बढ़ रहा है।
समग्र चिंतन का तो नितान्त अभाव दिखायी देता है।
देश के बारे में भी
कोई समग्रता से बात करता दिखायी नहीं देता, बस सभी अपनी ढपली
और अपना राग गा-बजा रहा है। कन्फ्यूज्ड सोच के साथ देश आगे चल रहा है। देश को क्लब
की तरह चलाने की सोच हावी होती जा रही है, एक बार तू चला और
एक बार तू। लोग समझ नहीं रहे हैं कि यह देश है क्लब नहीं। सभी को खुद को भी बनाए
रखना है और अपनी जिद भी पूरी करनी है। देश में परिस्थितां क्या है, यह सत्य समझने को कोई तैयार नहीं है। हर व्यक्ति जितना मूर्ख है उतना
ही मुखर है और प्रबुद्ध लोगों को भी हड़काने में देर नहीं करता। जिस प्रकार की सलाह
देश के बारे में दी जाती है, शायद किसी भी घर में कोई छोटा सा बच्चा भी ऐसी सलाह नहीं देता होगा, लेकिन यहाँ के ये मुखर लोग हर पल सलाह देते हैं। कोई कह रहा है कि
सेकुलरवाद ही देश की जरूरत है तो कोई कह रहा है कि हिन्दुत्व ही विकल्प है! किसी
को धारा 370 नहीं चाहिये और किसी को राम-मन्दिर चाहिये। किसी को नोट, बैंक की जगह जेब में चाहिये और 15 लाख रूपया भी। कांग्रेस के
स्लीपर-सेल से सबको नफरत है लेकिन खुद के लिये ऐसी ही भूमिका चाहते भी हैं। कभी
परिवार की तरफ हो जाते हैं तो कभी केरियरवाद की ओर। कभी विवाह संस्था को मानने
लगते हैं तो कभी लिविंग टूगेदर को। कभी शिक्षा जरूरी तो कभी केवल ज्ञान की वकालात।
लाखों मुद्दे और लाखों ही तर्क। लेकिन समग्र चिंतन की आवश्यकता किसी को भी नहीं। इतिहास
के आधे-अधूरे से भाग को खोद-खोदकर वर्तमान बनाने की जिद है, कबूतर को बिल्ली ताक रही है और कबूतर आँख बन्द कर खुश है कि जब मैं
बिल्ली को नहीं देख रहा तो बिल्ली भी मुझे नहीं देख पाएगी। मुझे लगता है कि जब
हमारे पास पौराणिक कथाएं थी तब हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट था, हम राम को नायक ही कहते थे और रावण को खलनायक। लेकिन अब तो हर आदमी
को उलझाने की प्रक्रिया प्रारम्भ है, राम और रावण में
मूल अंतर क्या है, बेचारा आदमी शिक्षा के इस माहौल में समझ ही नहीं
पा रहा है। अब अच्छा और बुरा दोनों ही गड़मड़ हो गये हैं। नयी पीढ़ी की सोच भी
गड़मड़ हो गयी है इसलिये ऐसी बहसों के समय उसे समझ ही नहीं आता कि मुझे बोलना क्या
है! लेकिन फिर भी अंत में वह अच्छाई के साथ खड़ा हो जाता है लेकिन यदि ऐसा ही चलता
रहा तो अंत में लोग बुराई के साथ खड़े हो जांएगे। वैसे इसकी शुरुआत हो चुकी है
क्योंकि अच्छाई और बुराई दोनों का गड़मड़ कर दिया गया है। लोग गर्म गुलाब-जामुन के
साथ ठण्डी आइसक्रीम खा रहे हैं, कॉकटेल पसन्द कर
रहे हैं, हिंगलिश हावी होती जा रही है। अमेरिका में बसे
देसियों को एबीसीडी कहा जाता है तो अब भारतीय को भी कन्फ्यूज्ड भारतीय कहा जाएगा।
ऐसे ही कन्फ्यूजन में हम पहले भी गुलाम बन गये थे और शायद दोबारा भी इसी ओर जाने
की तैयारी चल रही है। लोग कह रहे हैं कि हम रजाई ओढ़कर सोते हैं, जब गुलामी की सूचना आ जाए तो बता देना। हम तो हर हाल में तैयार हैं
बस अपने लोगों का शासन कुछ अखरता है, तो इनके स्थान पर
गुलामी ही अच्छी है। अपने व्यक्ति को रसगुल्ला खाते देखा जाता नहीं, दूसरे के जूते हम खुशी-खुशी खाने को तैयार हैं। जय कन्फ्यूज्ड देवा!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-06-2018) को "मौमिन के घर ईद" (चर्चा अंक-3003) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्री जी
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