ईसा से 350 साल पहले
एलेक्जेन्डर पूछ रहा था कि हिन्दुस्थान क्या है? यहाँ
के लोग क्या हैं? लेकिन नहीं समझ पाया! बाबर से लेकर औरंगजेब तक कोई
भी हिन्दुस्थान को समझ नहीं पाए और अंग्रेज भी समझने में नाकामयाब रहे। शायद हम
खुद भी नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे अन्दर क्या-क्या है! आप विदेश में चन्द दिन
रहकर आइए, आपको वहाँ की मानसिकता समझ आ जाएगी – सीधी सी
सोच है, वे खुद
के लिये जीते हैं। प्रकृति जिस धारा में बह रही है, वे भी उसी
धारा में बह रहे हैं। खुद को सुखी करने के प्रयास दिन-रात करते हैं। दूसरों को
उतना ही अधिकार देते हैं, जितना जरूरी है, जब
उनके खुद के अस्तित्व पर बात आती है तो सारे अधिकार उनके खुद के हो जाते हैं। माँ
और ममता दोनों ही सीमित दायरे में रहते हैं, बस स्त्री और पुरुष
को युगल का महत्व है। इसके विपरीत हिन्दुस्थान में हजारों सालों का चिन्तन, हजार प्रकार से आया है, हमारे अन्दर
संस्काररूप में थोड़ा-थोड़ा सभी कुछ है। हम धारा के साथ नहीं धारा के विपरीत बहने
का प्रयास करते हैं और इसी को संस्कृति भी कहते हैं। धारा के विपरीत बहने से हर पल
संघर्ष करना पड़ता है, अपने मन से, अपने परिवेश से। जब
मन में ज्ञान की बाढ़ आ रही हो तब स्वाभाविकता दब जाती है लेकिन जैसे ही बाढ़ थमती
है और स्वाभाविक परिस्थिति उत्पन्न होती है, हमारे अन्दर का
ज्वालामुखी फट पड़ता है और ज्ञान की बाढ़, विषाक्त लावे में
बदल जाती है। इसलिये दुनिया हमें समझ नहीं पाती कि ये ज्ञान का मीठा झरना हैं या
विष का ज्वालामुखी!
हम कहते हैं कि
हमारी संस्कृति का आधार है, बड़ों का सम्मान और खासकर के महिला व माँ का
सम्मान। माँ कभी गलत नहीं होती, यदि आपको लगता भी
है कि गलती हुई है तो धैर्य रखिये, यह केवल आपका भ्रम
ही सिद्ध होगा। विदेश में कोई दुर्गा नहीं हुई लेकिन हमारे यहाँ दुर्गा का रूप हर
युग में उत्पन्न हुआ। जिस संस्कृति में माँ को पूजनीय कहा उसी संस्कृति में हर युग
में दुर्गा ने जन्म लिया। यही उलझन हर व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देती है कि
आखिर हिन्दुस्थान है क्या! हमारे यहाँ माँ घर के किसी कोने में पड़ी मिलती है या
फिर वृन्दावन की गलियों में, लेकिन जब दुर्गा बन
जाती है तब इतिहास के पन्नों में प्रमुखता मिलती है। सारे अत्याचार महिला पर
आधारित हैं, सारी गाली महिला पर आधारित हैं, युद्ध
में हारने पर लुटती महिला ही है। पुरुष से गलती होने पर खामोशी छा जाती है और लोग
बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं लेकिन महिला का कदम भी सहन नहीं होता और चारों ओर
से बवाल मचा दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे हमारे अन्दर महिला के प्रति तीव्र
आकर्षण विद्यमान है, हम महिला को अपनी दासी के रूप में ही देखना
चाहते हैं, जिससे उसके आकर्षण को नकार सकें। विदेशी और
हिन्दुस्थानी पुरुष में यही अन्तर है कि विदेशी पुरुष, महिला को मित्र मानता है और हार-जीत से परे रहता है, अनेक प्रयोग भी कर लेता है लेकिन कुण्ठाओं को मन में ठहरने नहीं
देता। जबकि हिन्दुस्थानी, महिला को मित्र के स्थान पर दासी की कल्पना करते
हैं और माँ के नाम पर पत्नी को मुठ्ठी में रखने की चाह रखते हैं। सारी जिन्दगी
उनकी इसी कुण्ठा में निकलती है और जब भी किसी महिला पर प्रश्न खड़े होते हैं, सारे ही एक साथ कूदकर, विष-वमन करते हुए
अपनी कुण्ठा को निकालते हैं। भूल जाते हैं कि ये हमारी माँ समान आयु की है, कल तक हमने इसके पैर पूजे थे, हमारी संस्कृति में
माँ को पूजनीय कहा है, सब कुछ भूल जाते हैं, बस अपनी कुण्ठा याद रखते हैं और ज्वालामुखी को लावा फूट निकलता है।
इसी मानसिकता को दुनिया समझ नहीं पाती है और जो समझ लेते हैं, वे खुलकर हिन्दुस्थान को लूटते हैं। वे समझ जाते हैं कि वार कहाँ
करना है, कैसे इन्हें खुद के विरोध में ही खड़ा किया जा
सकता है, वे सब समझ जाते हैं और हिन्दुस्थान फिर गुलाम
होने लगता है।
www.sahityakar.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-06-2018) को "तालाबों की पंक" (चर्चा अंक-3011) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सारगर्भित लेखन..
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