#हिन्दी_ब्लागिंग
मसूरी में देखे थे देवदार के वृक्ष, लम्बे इतने
की मानो आकाश को छूने की होड़ लगी हो और गहरे इतने की जमीन तलाशनी पड़े। पेड़ जहाँ
उगते हैं, वे वहाँ तक सीमित नहीं रहते, आकाश-पाताल की तलाश करते ही रहते हैं। हम
मनुष्य भी सारा जहाँ देखना चाहते हैं, सात समुद्र के पार तक सब कुछ देखना चाहते
हैं। पहाड़ों के ऊपर जहाँ और भी है, उसे भी तलाशना चाहते हैं। मैं एक नन्हीं चिड़िया
कैसे उड़ती है, उसे देखना चाहती हूँ, एक छोटी सी मछली विशाल समुद्र में कहाँ से
कहाँ पहुँच जाती है, उसे देखना चाहती हूँ। रेत के टीलों पर कैसे एक केक्टस में फूल
खिलता है. उसे महसूस करना चाहती हूँ। मैं वो सब देखना और छूना चाहती हूँ जो इस धरती पर प्रकृति की देन है।
मनुष्य ने क्या बनाया है, यह देखना मेरी चाहत नहीं है। बस प्रकृति कैसी है, यही
देखने की चाहना है। लेकिन क्या मन की चाह पूरी होती है? कभी समुद्र की एक बूंद से
ही सातों समुद्र नापने का संतोष करना पड़ता है तो कभी एक बीज से ही सारे देवदार और
सारे ही अरण्य देखने का सुख तलाश लेती हूँ।
कभी महसूस होता है कि हम जंजीरों से जकड़े हैं,
बेड़ियां पड़ी हैं हमारे पैरों में। यायावर की तरह जीवन गुजारना चाहते हैं लेकिन
जीवन ऐसा नहीं करने देता। हम एक गृहस्थी बसा
लेते हैं और उस बसावट में ऐसी भूलभुलैय्या में फंस जाते हैं कि निकलने का
मार्ग ही नहीं सूझता। प्रकृति हँसना सिखाती है लेकिन गृहस्थी रोने का पाठ बखूबी
पढ़ा देती है। रोते-रोते जीवन कब प्रकृति से दूर चले गया पता ही नहीं चलता। बरसात
में सारी गर्द झड़ जाती है, लेकिन समय मन पर ऐसी गर्द चढ़ा देता है कि कितना ही
खुरचो, मन की उजास दिखायी ही नहीं देती। कैसी उजली सी है प्रकृति, लेकिन मन न जाने
कहाँ खो गया है! उसे छूने का, उसे महसूस करने का मन ही नहीं होता। हिरण अपनी जिन्दगी जी लेता है, वह कूदता
है, फलांग लगाता है, मौर नाच लेता है, कोयल कुहूं-कुहूं बोल लेती है, चिड़िया भी
मुंडेर पर आकर चींची कर लेती है, लेकिन मन न जाने किसे खोजता रहता है!
सारी प्रकृति जोड़ों से बंधी है, मोर तभी नाचता
है जब उसे मोरनी के साथ होती है, चिड़िया की चींची भी साथी के बिना अधूरी है।
प्रकृति कुछ भी नहीं है, बस जोड़ों की कहानी है। हँसना, फुदकना, चहचहाना सभी कुछ
एक-दूसरे के लिये है। लेकिन मनुष्य की बात
जुदा है, वह हमेशा दिखाना चाहता है कि मैं अकेला ही पर्याप्त हूँ, मेरी खुशी अकेले
में भी सम्भव है। मैं अकेले में भी चहचहा सकता हूँ। लेकिन यह उसका भ्रम है।
जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में भी जो एक-दूजे में खुशी ढूंढते हैं, वे ही खुश रहते
हैं। जो खुद की ही खुशी ढूंढते हैं, वे खुश नहीं रह सकते। मनुष्य अकेला चल पड़ता
है, उसे लगता है कि वह यायावर बनकर अकेला ही चल सकेगा लेकिन यदि वह भी कबूतर के
जोड़े की तरह रहे या उन पक्षियों की तरह रहे जो अपने जोड़ो के साथ सात समुद्र पार
करके भी भारत चले आते हैं और यहाँ नया जीवन बसाते हैं, फिर उड़ जाते हैं। उदयपुर का फतेहसागर सफेद और
काले पक्षियों का डेरा है, बड़े-बड़े पंख फैलाते ये पक्षी जीवन को अपने पास बुलाते
हैं। हम मनुष्यों को जीवन क्या है, पाठ पढ़ाते रहते हैं। मैं रोज शाम को इनको
देखने फतेहसागर चले जाती हूँ, लगता है कि यही जीवन है। यही यायावरी है, ये जब चाहे
आकाश में उड़कर उसे नाप लेते हैं और जब चाहें पानी में तैरकर उसकी थाह ले लेते
हैं। हम तो बस किनारे से देखने वाले लोग हैं, प्रकृति को आत्मसात नहीं कर पाते, बस
दूर से ही देखते हैं और दूर से भी कहाँ देख पाते हैं? यहाँ कितने हैं जिनके जोड़े
एक दूसरे के पूरक है? शायद कोई नहीं या शायद मुठ्ठीभर। कभी लगता है कि मनुष्य ने कितने किले खड़े कर लिये लेकिन
अपने साथी का हाथ नहीं पकड़ पाया। मनुष्य
ने पानी में भी दुनिया बसा ली लेकिन साथी का साथ नहीं रख पाया। बिना साथी सबकुछ
बेकार है, यह प्रकृति है ही नहीं, यह तो विकृति है और इस विकृति को जीने के लिये
मनुष्य कितना अहंकारी बन बैठा है? काश हम भी कबूतर के जोड़े के समान ही होते! गुटर
गूं के अतिरिक्त कुछ नहीं है जीवन।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-07-2017) को पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है; चर्चामंच 2678 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कैदी इंसान आज़ाद परिंदे
ReplyDeleteइसी ऊहापोह में जींदगी कब गुजर जाती है पता ही नहीं चलता, बेहतरीन लिखा आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
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