#हिन्दी_ब्लागिंग
आओ आज खेल की ही बात करें। हम भी अजीब रहे हैं, अपने आप में।
कुछ हमारा डिफेक्ट और कुछ हमारी परिस्थितियों का या भाग्य का। हम बस वही करते रहे
जो दुनिया में अमूमन नहीं होता था। हमारा भाग्य भी हमें उसी ओर धकेलता रहा है। हमारी
लड़की बने रहने की चाहत लम्बे समय तक चल ही नहीं पाती थी, आज पूरी कोशिश में लगी
हूँ कि महिला होने के सारे सुख अपनी झोली में डाल लूँ। बचपन में सभी खेलते हैं, तो
हम भी खूब खेलते थे, उसमें नया कुछ नहीं
था, बस नया इतना ही था कि गुड़िया की शादी कभी नहीं करायी, रसोई-रसोई का खेल कभी
नहीं खेला। इसके उलट कंचे खेले, गिल्ली-डण्डा खेला। पहलदूज, रस्सीकूद, गुट्टे यह
सब तो रोज का और बारहमासी खेल था। लेकिन जैसे ही क्रिकेट का खेल रेडियो पर सुनायी
देने लगा, हम रेडियो से चिपक जाते और जब बेट और बॉल से खेलने लायक हुए तो अपना
मैदान तैयार कर लिया। एक टीम भी बना डाली जिसमें लड़के और लड़कियाँ सभी थे।
बाकायदा पिच भी बनायी गयी और लोगों के घरों की खिड़की तक गेंद भी पहुंचायी गयी। हमारे
घर के परिसर में ही मैदान था तो हमने बना डाला खेल का मैदान। वहाँ क्रिकेट भी
होता, बेडमिंटन भी और रिंग भी। खाली जमीन धीरे-धीरे मुनाफे की ओर मुड़ गयी और वहाँ
बसावट होने लगी। शुरू में एक ही घर बसा,
लेकिन ना वे खुश और ना हम खुश। राजी-नाराजी के
बाद भी खेल चलता रहा। तो क्रिकेट खूब खेला, स्कूल में नहीं था, नहीं तो
वहाँ भी हम ही होते। वहाँ खो-खो था तो हम
थे। खेल के मैदान पर बालीबॉल खिलाड़ी की कमी पड़ी तो हम थे। दो-दो टूर्नामेंट में
भी भाग लिया, स्कूल में भी और कॉलेज में भी।
हमने घर पर कोई भी खेल खेला हो, उसमें लड़के और लड़कियां साथ ही रही। मुझे
याद नहीं पड़ता कि कभी ऐसा हुआ हो कि हम हारते हों और लड़के जीतते हों। पता नहीं
हमारे साथ कैसे फिसड्डी लड़के खेल खेलते थे! लेकिन कल महिला क्रिकेट देखते हुए लगा
कि खेल में महिला और पुरुष कुछ नहीं होता। युद्ध भूमि पर भी नहीं होता, बस हौंसले चाहिये। हमारे घर के पास ही
जयपुर का प्रसिद्ध तीर्थ गलता जी है, हम बचपन से ही रोज वहाँ जाते रहे हैं। गलताजी
के दरवाजे पर ही एक अखाड़ा बना हुआ था, पहलवान कुश्ती लड़ते थे और हमारे पिताजी
हमें भी उतार देते थे। कबड्डी तो हमारा प्रिय खेल था, रेत के टीलों पर कबड्डी
खेलने का आनन्द ही कुछ और था। पतंग तो सभी उड़ा लेते हैं लेकिन लड़कों की तरह पतंग
लूटना भी खूब किया। खेल के लिये कभी पिताजी ने मना नहीं किया, ना कभी कहा कि यह
लड़कों के लिये है और तुम्हारे लिये नहीं हैं। हमने यह अन्तर जाना ही नहीं। पहली
बार टूर्नामेंट में जाने का अवसर मिला जब हम सातवीं में पढ़ते थे, दूसरे शहर जाना
था, पता नहीं पिताजी का क्या उत्तर हो? लेकिन उन्होंने मना नहीं किया। कॉलेज
में भी
गये और वहाँ भी राजी-राजी आज्ञा मिली। क्रिकेट का बेट खरीदना हो या
बेडमिंटन का रेकेट, पिताजी से पैसे मिल ही जाते थे, लेकिन कभी चूड़ी-बिन्दी के
लिये पैसे नहीं मिले। हम हाथों में मेहंदी लगे हाथ, चूड़ी और बिन्दी से सजी लड़की
को देखकर मुग्ध हो जाते थे, सोचते थे कि
काश हमें भी अवसर मिलता। लड़कों की तरह जीवन जीने के हिमायती रहे हमारे
पिताजी तो हमें भी वहीं जीवन जीने का अवसर मिला। वे कहते थे कि स्वेटर
बुनने में क्या रखा है? बाजार में खूब मिलेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य बाजार
में नहीं मिलेगा। इसलिये कहते थे कि खेलो और पढ़ो। हमने खूब खेला, आज भी बेट देखते
ही मन मचल उठता है कि एकाध हाथ तो जमा ही दें। फिर अपनी उम्र का तकाजा देखकर महिला
बनने की ओर मुड़ने लगती हूँ। खेल नहीं सकते तो क्या, क्रिकेट और दूसरे खेल देख तो
सकते ही हैं, खूब देखते हैं। हमने तो उस पल को भी बहुत गर्व के साथ जीया था जब
एशियन गेम्स में भारत प्रथम स्थान पर रहा था। खेलो खूब खेलो, कभी मत सोचो की यह
लड़कियों का खेल है या लड़कों का, सारे ही खेल सभी के हैं, बस पहल करो तो खेल
तुम्हारा होगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-07-2017) को वहीं विद्वान शंका में, हमेशा मार खाते हैं; चर्चामंच 2677 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सही सलाह दी आपने, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
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