#हिन्दी_ब्लागिंग
#संजयसिन्हा की एक कहानी पर बात करते हैं। वे
लिखते हैं कि मैंने एक बगीचा लगाया, पत्नी बांस के पौधों को पास-पास रखने के लिये कहती है और बताती है कि
पास रखने से पौधा सूखता नहीं। वे लिखते हैं कि मुझे आश्चर्य होता है कि क्या ऐसा
भी होता है? उनकी कहानियों में माँ प्रधान
हैं, हमारे देश में माँ ही प्रधान है और संस्कृति के संरक्षण की जब बात आती है तो
आज भी स्त्री की तरफ ही देश देखता है।
पौधों की नजदीकियों से लेकर इंसानों की नजदीकियों की सम्भाल हमारे देश में अधिक
है। इसलिये जब लेखक अपने दायरे में सत्य को देखता है और सत्य को ही लिखता है तब
उसकी कहानी अंधेरे में भी अपने देश और समाज का परिदृश्य खड़ा करती है। आजतक हम इन
कहानियों के माध्यम से ही अपने समाज को समझ सके हैं। लेकिन जब कोई इस कहानी को
चुराता है और समझदारी का श्रेय लेने के चक्कर में या पुरुषत्व के हावी होने पर
स्त्री के स्थान पर पुरुष को बिठा देता है तब कहानी की आत्मा मर जाती है, देश और
समाज की बात से परे कहानी नकली लगती है। पत्नी
जब कहती है कि पौधों को पास रखने से वे बढ़ते हैं तो यह समाज का सच उजागर करते हैं
लेकिन जब पत्नी के स्थान पर लेखक स्वयं विराजमान हो जाता है तब कहानी, कहानी नहीं
रहती। कहानी चोरी भी करते हो और देश के साथ खिलवाड़ भी, ऐसा नहीं चलेगा।
हम बौद्धिक सम्पदा की चोरी करते हैं, कीजिये
आपका हक है। क्योंकि यह विचार भी हम समाज
से ही लेते हैं तो इन पर आपका भी हक बन ही
जाता है लेकिन कम से कम तारीफ का हक तो उसे दे दो जिसने इन विचारों को एक लड़ी में
पिरोया है। अभी #संजयसिन्हा ने दर्द उकेरा था कि मेरी कहानियाँ चोरी होती हैं, सभी
की हो रही हैं, खुलेआम हो रही हैं। आज भी उनकी एक कहानी को तोड़-मरोड़कर यहाँ
परोसा गया, अपना बनाने के चक्कर में मूल भाव में
भी परिवर्तन कर दिया गया, मन बहुत
दुखी हुआ। आप किसी की कहानी उठा लें लेकिन उसके मूल भाव में तो परिवर्तन ना करें और जब लोग आपकी सोच की तारीफ
कर रहे हों तब शर्म खाकर सच लिख ही दें कि यह मेरी कहानी नहीं है।
हम फेसबुक और सोशल मिडिया पर बने रहने के लिए
रोज चोरी कर रहे हैं, रचनाओं के मूल भाव को कचरा कर रहे हैं। आप सोच रहे हैं कि
मैं बहुत अच्छा कर रहा हूँ लेकिन आप समाज
और देश के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। आप कहानी के मर्म को बदल रहे हैं, स्त्री पात्र
के स्थान पर पुरुष पात्र को और पुरुष के स्थान पर स्त्री को रखकर समाज और देश की
संस्कृति से खिलवाड़ कर रहे हैं। आप विदेश की कहानी को भारत के संदर्भ में बना
देते हैं, आप देश से खिलवाड़ करते हैं। यह साहित्य ही तो हैं, जिसे पढ़कर हम अपने
समाज और देश की मनस्थिति का पता लगाते हैं, लेकिन
हमने चोरी करने के चक्कर में सब गुड़-गोबर कर दिया है। हम एक सांसद को गाली
देते हैं कि वह हमारे धर्म का अपमान करता है, उसे सजा मिलनी चाहिये लेकिन हम अपने
आप में झांककर नहीं देखते कि हम क्या कर
रहे हैं? हमारा कसूर भी उससे कम नहीं है। आप चोरी करें मुझे आपत्ति नहीं है,
क्योंकि यदि आप चोरी को जायज मानते हैं तो करें लेकिन रचना के मूल स्वरूप में
बदलाव अक्षम्य अपराध है। क्योंकि इससे
लेखक आहत होता है, ऐसा नहीं है, लेकिन देश
और समाज आहत होता है, मैं इस बात से आहत हूँ।
आपकी बात तो सही है पर इन चोरों का आजके युग में कोई इलाज भी तो नहीं दिखाई देता. होना यह चाहिये कि अपने स्वयं के भाव जस के तस लिख दिये जायें तो वो चोरी की अपेक्षा ज्यादा श्रेष्ठ लेखन कहलायेगा, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
अजित जी, मेरी रचनाओं के साथ तो ऐसा कई बार हुआ हैं। मेरी ब्लॉग पोस्ट के किचन टिप्स फेसबुक पर कई लोगों ने जैसे के तैसे अपने नाम से प्रकाशित कर दिए। इतना ही नही तो दो-तीन बार तो प्रमुख राष्ट्रीय अखबार ने भी ऐसा किया। लेकिन हम क्या कर सकते है?
ReplyDeleteसब कुछ एक दिन सामने आ ही जाता है
ReplyDeleteजागरूक प्रस्तुति
jyoti Dehliwal - इस बारे में कई बार सोचा कि व्यंजन तो हमेशा ही नकल होते रहे हैं, लेकिन लेखन चोरी होना शायद समझ आ जाए लेकिन उसका मूल भाव बदलना घातक परम्परा है।
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