जब हम बचपन में तारों के नीचे अपनी चारपाई लेकर
सोते थे तो तारों को समझने में बहुत समय लगाते थे। तब कोई शिक्षक नहीं होता था
लेकिन हम प्रकृति से ही खगोल शास्त्र को समझने लगे थे। प्रकृति हमें बहुत कुछ
सिखाती है, बस हमें प्रकृति से तादात्म्य बिठाना पड़ता है। कलकत्ता के देवेन्द्र
नाथ ठाकुर ने भी प्रकृति के वातावरण में ज्ञान प्राप्ति की कल्पना को साकार रूप
देने का प्रयास किया और उसे उनके ही यशस्वी पुत्र रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने मूर्त रूप
दिया। खुला विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार किया। वृक्षों के कुंज में बैठकर
ज्ञान प्राप्त करना कितना सहज और सरल हो जाता है, इस बात को शान्तिनिकेतन में आकर
ही समझा जा सकता है। देवेन्द्रनाथ जी ने एक गाँव को खरीदा और वहाँ ज्ञान प्राप्ति
की नींव रखी, धीरे-धीरे वह स्थान शिक्षा का केन्द्र बन गया। आज वहाँ विश्व
प्रसिद्ध विश्वभारती विश्वविद्यालय है। कई एकड़ में फैला है शान्तिनिकेतन लेकिन
पर्यटकों के लिये कुछ स्थानों को देखने की
ही ईजाजत है। पर्यटक जाते हैं और जाते ही गाइड चिपक जाते हैं, हमने भी सोचा
कि ले ही लिया जाये, समझने में आसानी रहेगी, लेकिन गाईड 10 प्रतिशत भी उपयोगी सिद्ध
नहीं हुआ। जहाँ वृक्षों के नीचे कक्षाएं लगती हैं ऐसे कुंज को उसने दिखा दिया और
बताया कि यहाँ रवीन्द्रनाथ बैठते थे। इससे अधिक कुछ नहीं। खैर उसने 10-15 मिनट में
हमें चलता किया और छोड़ दिया म्यूजियम के पास। म्यूजियम में रवीन्द्रनाथ से
सम्बन्धित संकलन था, उनके द्वारा उपयोग में लायी वस्तुएं थी, उनका घर था।
हम शिक्षा के इस मंदिर को समझना चाहते थे लेकिन
असफल रहे। शायद पर्यटकों से हटकर हमने
व्यवस्था की होती तो विश्वभारती को भी देख
पाते। लेकिन एक विलक्षण कल्पना के साकार रूप का आंशिक भाग तो हम देख ही सके। छोटा
सा गाँव है, विश्वभारती के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पर्यटकों की सुविधा के लिये
कुछ होटल भी हैं और सरकारी गेस्ट-हाउस भी।
लेकिन हम होटल में ही रुके थे। कलकत्ता से शान्तिनिकेतन का मार्ग बेहद खूबसूरत है।
लगभग 150 किमी क्षेत्र में धान और आलू की खेती प्रमुख रूप से हो रही थी। हर खेत
में पोखर था, जहाँ मछली पालन हो रहा था। कोलकाता के होटल से निकलते समय वहाँ के एक
वेटर ने बताया था कि वहाँ का लांचा बड़ा अच्छा होता है और लूची-आलू की सब्जी भी।
रास्ते में दो चार ढाबे आये सभी पर लिखा था लांचा मिलता है। एक साधारण से ढाबे पर अभिजात्य
वर्ग की बड़ी भीड़ थी, हमारे ड्राइवर ने भी गाड़ी वहीं रोकी। हमें कोलकाता में
लूची-आलू की सब्जी और झाल-मूरी खाने के लिये मेरे दामाद ने बताया था और लांचा की
सलाह वेटर ने दे दी थी। उस होटल पर तीनों ही चीज थी। हमारे यहाँ भेल बनाते हैं
लेकिन कोलकाता में झाल-मूरी बनाते हैं, इसमें सरसों के तैल का प्रयोग होता है।
लूची मैदा की पूड़ी थी और लांचा गुलाब-जामुन का लम्बा स्वरूप।
रस्ते में एक शिव-मंदिर था, भव्य था और
शिवरात्रि के कारण भीड़ भी अधिक थी। हमने सोचा की मंदिर का आते समय दर्शन करेंगे।
वापसी में हम मंदिर में रूके लेकिन निराशा हाथ लगी। भव्य मंदिर था, दक्षिणेश्वर की
तर्ज पर शिव के छोटे-छोटे मंदिर बनाये गये थे जो 108 की संख्या में थे। लेकिन
शिवरात्रि पर भक्तों ने ऐसी पूजा की कि मन्दिर का हर कक्ष माला और पूजा सामग्री से
अटा पड़ा था। सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। तालाब का पानी भी बेहद गन्दा था लेकिन
भक्तगण उस गन्दे पानी से ही शिव का अर्चन कर रहे थे। हम स्वर्ग की कल्पना करके उसे पाने के लिये पूजा
करते हैं और जिस धरती पर साक्षात रहते हैं उसे गन्दा करते हैं, यह कौन सी मानसिकता
है, मेरे समझ से परे हैं!
हमने शान्तिनिकेतन को दो दिन दिये लेकिन लोग एक
दिन में ही घूमकर चले जाते हैं, शायद ठीक ही है, दो दिन जैसा कुछ है नहीं। हम भी
दूसरे दिन 10 बजे ही वापस लौट गये और शिव-मन्दिर देखते हुए दो बजे तक कोलकाता
पहुंच गये।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’आओगे तो मारे जाओगे - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-03-2017) को
ReplyDelete"आओजम कर खेलें होली" (चर्चा अंक-2604)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक