युवा होते – होते और साहित्य को पढ़ते-पढ़ते कब
कलकत्ता मन में बस गया और विमल मित्र, आशापूर्णा देवी, शरतचन्द्र, बंकिमचन्द्र,
रवीन्द्रनाथ आदि के काल्पनिक पात्रों ने कलकत्ता के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दिया इस
बात का पता ही नहीं चला। मन करता था कि वहाँ की गली-कूंचे में घूम रहे उन पात्रों
को अनुभूत किया जाए। समय कुछ और आगे बढ़ा, अब काल्पनिक पात्रों का स्थान वास्तविक
पात्र लेने लगे। विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के कण-कण में रचे-बसे दिखायी
देने लगे और कलकत्ता के प्रति प्रेम, श्रद्धा और आस्था में बदल गया। अण्डमान की
सेलुलर जेल में बंगाल के सैकड़ों शहीदों के चित्र जब दिखायी दिये, तब लगा कि यह
स्थान देश के लिये तीर्थ से कम नहीं है। यहाँ क्रांतिकारी हुए, यहाँ चिंतक और
विचारक हुए. यहाँ साहित्य को खाया-पीया और ओढ़ा गया, यहाँ संगीत कण्ठ का आभूषण
बना, यहाँ भारत की संस्कृति के दर्शन जन-जन में हुए, ऐसे कलकत्ता को देखने के लिये
मन सपने देखता था।
यहीं गंगा, सागर में समा जाती है, यहीं सर्वाधिक
टाइगरों का निवास है, यहीं नदियों के मुहानों पर डेल्टाज हैं, यहाँ घर-घर में पोखर
है, यहाँ सकड़ी-सकड़ी गलियां हैं, भीड़ है, गरीबी है, मारवाड़ी सेठ हैं, आदि आदि
सुनते आये थे। किसी भी शहर को देखने के लिये 3-4 दिन पर्याप्त होते हैं, लेकिन
मैंने पूरे 8 दिन का समय लिया लेकिन जब कलकत्ता देखने निकले तो लगा कि ये दिन तो
कम हैं। इतना कुछ है यहाँ की समय कम ही पड़ जाता है और बहुत कुछ छूट जाता है। जब
आप विवेकानन्द के बचपन को अनुभूत करने लगते हो तब हर गली और मौहल्ला पवित्र लगने
लगते हैं और मन करता है कि वहाँ मनभर कर घूमा जाए लेकिन समय आड़े आ जाता है।
रवीन्द्रनाथ को यहाँ कण-कण में अनुभूत किया जाता है, लेकिन दो दिन में तो उनके एक
कण को भी नहीं छूआ जा सकता है, हम से भी बहुत कुछ छूट गया। ऐसा लगा कि नदी किनारे
से प्यासे ही लौट आए।
कल का कलकत्ता और आज का कोलकाता राजनीति का
कुरूक्षेत्र भी रहा है। कभी मुगलों के काल में यहाँ नवाबी और जमींदारी के किस्से
मशहूर हुए तो कभी अंग्रेजों ने यहाँ देश की राजधानी बनाकर शहर को वैभव प्रदान किया
तो गाँवों को कंगाल कर दिया, मारवाड़ी सेठों ने यहाँ पटसन-जूट आदि का साम्राज्य
स्थापित किया। यहाँ दो धारायें एक साथ बही, एक तरफ पूर्ण विलासिता तो दूसरी तरफ पूर्ण
कंगाली। कंगाली के कारण नक्सलवाद भी परवान चढ़ा तो कम्युनिस्ट सरकारें भी खूब चली। यहाँ की भौगोलिक स्थिति और
वास्तविक स्थिति में ज्यादा अंतर नहीं है। चारों तरफ से नदियाँ आ रही है, कहीं
गंगा है तो कही हुगली बन गयी है, सभी सागर में विलीन हो रही हैं। नदी और सागर का
मध्य डेल्टा बन गये हैं। कहीं नदी मीठी है तो कहीं खारी हो गयी है, दिन में कभी
ज्वार आता है तो कभी भाटा आता है। कभी पानी गाँव तक चले आता है तो कभी तटों को
छोड़ देता है। ऐसी ही यहाँ की वास्तविक जिन्दगी है। भारत की सम्पूर्ण संस्कृति - गंगा
सदृश्य यहाँ दिखायी देती है, उतनी ही पवित्र और उतनी ही सादगी पूर्ण। नदी के
मुहानों पर बने डेल्टा गाँवों के जीवन जैसे हैं, जहाँ सूरज उगने पर ज्वार आता है
और शाम पड़ते-पड़ते भाटा आ जाता है, फिर चाँद के साथ ही ज्वार। कभी दलदल हो जाता
है तो कभी खारा पानी सभी कुछ खारा कर देता है। चारों तरफ पानी ही पानी लेकिन
कुछ-कुछ मीठा शेष खारा। शहर सरसब्ज है तो पानी भी मीठा है लेकिन गाँव गरीबी की
चादर ओढ़े है तो खारे पानी की मार भी झेल रहे हैं।
नगर की सड़के चौड़ी-चौड़ी हैं, साफ-सुथरी हैं,
दो सड़कों को जोड़ने को इन्टर सेक्शन भी हैं। गलियाँ भी इतनी सकरी नहीं है। बड़ा
बाजार के लिये सुनते थे कि सकरी गलियां हैं लेकिन जैसे जयपुर में कटला है वैसे ही
बड़ा बाजार है, मुख्य सड़क पूरी चौड़ी है। अमेरिका की तरह ही सड़क के साथ-साथ
ट्राम की पटरी है जो आपकी गाड़ी के साथ
चलती दिखायी दे जाती है। बिजली से
चलने वाली दो-तीन डिब्बों की ट्राम अब
पुरानी हो चली है, सवारी भी बहुत कम देखने में आती है, शायद कुछ दिनों बाद बन्द
ही हो जाये। हाथ से खेचनें वाले रिक्शे भी
हैं लेकिन ई-रिक्शों की भीड़ ने उन्हें एकाकी कर दिया है। शहर के चारों तरफ गंगा का वास है जो यहाँ हुगली नदी के नाम से विख्यात है।
लम्बी-चौड़ी हुगली शान्त भाव से बहती है और उस पर छोटी नाव, स्टीमर आदि चलते हुए
हर तरफ दिखायी देते हैं। रात को यह दृश्य अद्भुत होता है। कभी हावड़ा ब्रिज यहाँ
की शान हुआ करता था लेकिन आज विद्यासागर ब्रिज ने उसका स्थान ले लिया है। शहर की
मुख्य सड़कें एकदम साफ-सुथरी हैं, सुबह 6 बजे भी साफ थी तो शाम को भी साफ थी,
अन्दर गलियों में कहीं-कहीं गन्दगी देखी जा सकी।
गाँव भी लगभग साफ ही थे। गरीबी के पैबन्द मखमल पर दिखायी देते हैं, जैसे ही
चौड़े रास्तों से गलियों में जाते हैं, गरीबी झांकने लगती है। बाजार इतने चौड़े
हैं कि पगडण्डी पर भी हाट-बाजार लग गये
हैं फिर भी जाम की स्थिति नहीं रहती। पीले रंग की टेक्सियां दूर से ही दिखायी
देती हैं और उन सभी पर लिखा है नो-रिफ्यूजल,
कोई भी टेक्सी कहीं जाने से मना नहीं कर सकती है। पुलिस बहुत कम दिखायी देती है,
लेकिन जब दिखायी देती है तो पूरी
चाक-चौबन्द। लगा की अनुशासन वहाँ के जीवन में है।
अब खान-पीन और पहनावे की बात कर लें। खाना सादा
है, तीखापन कम है। यहाँ के रसगुल्ले, संदेश और मिष्टी दही बहुत प्रसिद्ध है।
खासियत क्या है? रसगुल्ले गुड़ से बने हैं और गुड़ खजूर से। दही में भी खजूर का
गुड़ है। गोलगप्पे याने की पुचके हर 100 कदम पर मिल जाएंगे और झाल-मूरी वाले भी।
खीरा ककड़ी खूब बिक रही थी, छिली हुई और नमक के साथ। लूंची और आलू की सब्जी भी
प्रसिद्ध है और हींग की कचौरी भी। बाकि तो दाल-चावल ही है। मछली को भूली नहीं हूँ,
वो तो यहाँ का जीवन है। हम जैसे शाकाहारी लोगों को बार-बार याद दिलाना पड़ता था कि
मछली नहीं चलती। सड़क पर गाड़ी चल रही है और आप गली में या गाँव में आ गये हैं तो शीशे
से दाएं या बाएं देखने पर मछली ही मछली
कटती-पिटती दिखायी देगी। खेतों में धान और आलू की फसल बहुतायत से दिखायी देती है
तो भोजन में भी चावल और आलू का बोलबाला
है। बैंगन और परवल को पकाने का तरीका पसन्द आया। इन्हें काटकर नमक और हल्दी
लगाकर सरसों के तैल में तवे पर भूना जाता है और ऐसे ही खाया जाता है। बहुत
स्वादिष्ट था। पहनावे ने तो मन ही मोह लिया। पहले पुरुषों की ही बात करें क्योंकि
अक्सर पुरुष महिला के वस्त्रों को लेकर चिंतित दिखायी देते हैं लेकिन स्वयं के कपड़ों
का जिक्र नहीं करते। यहाँ धोती पहने पुरुष खूब दिखायी दिये, यहाँ आकर लगा कि अभी
भी कहीं ना कहीं हमारी धोती इज्जत पा रही है, नहीं तो सारे ही पुरुषों ने विलायती
पेंट धारण कर ली है। महिलाएं साड़ी में ही नजर आयीं, सूती तांत की साड़ी, माथे पर
बड़ी सी बिन्दी और गहरी भरी हुई मांग। आज भी स्कूल का परिधान साड़ी है या
सलवार-सूट। बच्चियों को स्कूल से निकलते देखा और सभी साड़ी में या सलवार सूट में
थी तो प्राचीन भारत दिखायी देने लगा। रास्ते चलते आदमी माँ कहकर सम्बोधित करते
मिले तो लगा कि विवेकानन्द का कलकत्ता आज भी वैसा ही है। खूब भालो – खूब भालो –
खूब भालो।
आभार।
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