Sunday, March 12, 2017

गंगासागर एक बार – सारे तीर्थ बार-बार

कोलकाता की यदि जन-जन में पहचान है तो वह गंगासागर के कारण है। गंगोत्री से निकलकर गंगा यहाँ आकर सागर में समा जाती है। गंगासागर की यात्रा कठिन यात्राओं में से एक है। लेकिन जैसै-जैसे आवागमन के साधनों में वृद्धि हुई है, वैसे-वैसे यात्रा सुगम होने लगी है। लेकिन फिर भी मानवीय अनुशासनहीनता के कारण यात्रा सुरक्षित नहीं रह पाती। गंगासागर कलकत्ता से 150 किमी की दूरी पर स्थित  है, यहाँ गंगा, सागर में आत्मसात हो जाती है। कोलकाता से कार, बस या रेल द्वारा डायमण्ड हार्बर तक लगभग 2 घण्टे का समय लगता है। हमने कार द्वारा यात्रा की और प्रात: 6 बजे गंगासागर के लिये निकल पड़े। 27 फरवरी 17 का दिन था तो मौसम सुहावना था लेकिन जैसे ही कोलकाता के बाहर पहुँचे फोग ने हमारा रास्ता रोक लिया। फोग इतना गहरा था कि एक जगह गाडी रोकनी ही पड़ी। इस कारण मार्ग में दो की जगह तीन घण्टे का समय लगा। फेरी लेने के लिये 8 रू. का टिकट था लेकिन भीड़ बहुत थी और भीड़ को नियंत्रित करने के लिये कोई भी साधन या सेवा नहीं थी। एक घण्टे तक लाइन में लगे रहने के बाद कहीं फेरी की सूचना मिली की वह तट पर लग गयी है लेकिन जैसे ही प्रवेश प्रारम्भ हुआ भगदड़ मच गयी। जो देर से आये थे उन्होंने इतनी धक्कामुक्की की कि जरा सी चूक दुर्घटना का कारण बन सकती थी। यह भगदड़ केवल इसलिये थी कि उन्हें फेरी में बैठने को स्थान मिल जाये। खैर हम भी बचते बचाते प्रवेश द्वार से पार हो  ही गये। हमें भी फेरी में खड़े होने का स्थान मिल ही गया।
फेरी गंगा नदी में चलती है और 45 मिनट में गंगासागर-द्वीप पर पँहुचती  है। लाइन में लगे थे तब चिड़ियों और मछलियों के लिये मूंगफली बेचने वाले पीछे पड़े थे साथ  ही गंगा में समर्पित करने के लिये 50 रू में साड़ी भी मिल रही थी। फेरी पर आने पर पता लगा कि यहाँ बड़ी संख्या में पक्षी है, यात्री मूंगफली का दाना पानी में डालते हैं और मछली दाने को लपक लेती है साथ ही पक्षी, दाने और मछली दोनों को लपक लेते हैं। अनोखा दृश्य बन जाता है, झुण्ड के झुण्ड विशाल पक्षी फेरी के साथ चलते रहते हैं, मध्य में जाने पर कम हो जाते हैं और फिर किनारे पर आते ही इनकी संख्या बढ़ जाती है। उन पक्षियों को देखते हुए ही 45 मिनट की यात्रा कट जाती है और शोर मच जाता है कि तट आ गया। द्वीप पर हमारे लिये दूसरी कार तैयार थी लेकिन पास ही गन्ने का ताजा रस निकल रहा था तो हमने भी कण्ठ गीला करना उचित समझा।  अब कार द्वारा पुन: 30 मिनट की यात्रा थी, बसें भी लगी थी और कुछ लोग बस में भी यात्रा कर रहे थे। 30 मिनट बाद हम गंगासागर के किनारे से एक किमी. दूर थे। यहाँ गंगासागर पर यात्रियों के लिये छोटी दूरी पार करने के लिये ठेले लगे हैं, इनपर बैठना ही असुविधाजनक है। मुझे बैठना पसन्द नहीं आया और पैदल चलने का अवसर हाथ से जाने नहीं दिया, बस चल दिये पैदल। सामान और साथी ठेले पर लद गये। कुछ ही देर में हम गंगा सागर के किनारे थे। गंगा और सागर आत्मसात हो गये थे यहाँ तो पानी भी खारा हो गया था। गंगा का मुहाना होने के कारण रेत भी पानी में अधिक थी। डुबकी लगाने जितनी आस्था तो मुझमें नहीं थी बस पानी में अठखेलियां कर ली और बाहर निकल आये। नदी तट पर पण्डों की लाइन लगी थी और लोग पूजा-अर्चन करा रहे थे, हम से तो वे निराश ही  हो गये। ज्यादा समय हमारे पास नहीं था तो हम शीघ्र ही वहाँ से रवाना हुए और सुलभ स्नानघर में नहाकर तरोताजा हो गये। टेक्सी वाला शीघ्रता कर रहा था, उसका कहना था कि यदि देरी की तो फेरी छूट जाएगी और यदि नदी में पानी का उतार हो गया तो फिर फेरी 6 बजे बाद मिलेगी। सामने ही मारवाड़ी ढाबा था लेकिन हमें भोजन का मोह छोड़ना पड़ा। जैसे हीं किनारे पहुंचे गार्ड के कहा कि दौड़ो फेरी छूटने वाली  है। हमने दौड़कर आखिर फेरी पकड़ ही ली। हम 2 बजे ही वापस किनारे लग चुके थे लेकिन हमने देखा कि नदी में पानी उतरना शुरू हो गया था तो दूसरी फेरी पता नहीं कब चलेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता था!
यहाँ गंगा के मुहाने पर पानी का स्तर ज्वार-भाटे के कारण घटता बढ़ता रहता है। जब पानी घटता है तब फेरी चलना कठिन हो जाता है और पानी में ज्वार का इंतजार किया जाता  है। दिन में दो-तीन बजे तक ज्वार रहता  है और फिर भाटा होने लगता है। शाम के 6 बजे बाद फिर ज्वार होता है, इसलिये फेरी के संचालन में कठिनाई  होती है। पानी किनारे से काफी दूर चले जाता है और दलदल दिखायी देने लगता है। इस दलदल में फेरी फंस जाती  है और दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाती  है। गंगा सागर द्वीप काफी बड़ा है  और यहाँ की जनसंख्या 2 लाख  है। द्वीप पर कपिल मुनी का आश्रम हैं। इतिहास में दर्ज है कि मकर संक्रान्ति पर ही कपिल मुनी का आश्रम जल से बाहर दिखायी देता था इसलिये ही यहाँ मकर संक्रान्ति पर सर्वाधिक तीर्थ यात्री पहुंचते हैं लेकिन वर्तमान में एक नवीन आश्रम का निर्माण कर दिया गया है जिससे दर्शन सुलभ हो गये हैं। द्वीप पर भी अब धर्मशालाएं आदि बनने लगी  हैं, जिससे  रात्रि विश्राम की सुविधा हो गयी है। लेकिन सभी यात्रियों के लिये एक ही प्रकार की सरकारी फेरी  है, यदि कुछ सुविधाजनक फेरी और लगा दी जाएं तो वृद्ध लोगों को आसानी हो जाए। ठेले के स्थान पर ई-रिक्शे सुविधाजनक रहते हैं लेकिन प्रशासन शायद चिंतित नहीं दिखायी देता। सारे  ही साधनों की सीमा निश्चित है इसलिये ठेलों ने भी अपना वजूद स्थापित कर रखा है।

सागर तट पर चहल-कदमी करते  हुए एक मोती और हीरे बेचने वाला भी मिल गया। 600 रू. में दो बड़े हीरे दे रहा था, साथ ही कांच के टुकड़े को भी दिखा रहा था कि देखो कितना अन्तर है दोनों में। शायद कुछ लोग तो भ्रम में खरीद  ही लेते होंगे। ज्वार-भाटे के कारण हम अधिक देर वहाँ टिक नहीं पाये, बस भागते-दौड़ते गये और भागते-दैड़ते ही वापस आ गये। 50 रू. की साड़ी का भी हश्र देखा, गंगासागर को गन्दा करने के काम आ रही थी और तट पर बेतरतीब बिखरी थी। मुझे समझ नहीं आती पुण्य की परिभाषा! गंगासागर देश के करोड़ों लोगों के लिये तीर्थ है और आस्था का केन्द्र है तो हिन्दू समाज को उनकी सुविधा के लिये आगे आना चाहिये। कुछ संस्थाएं काम कर रही हैं लेकिन ये काम ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। आस्था के स्थानों को सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिये, यह समाज का उत्तरदायित्व है और समाज को ही वहन करना चाहिये। यदि सरकार से सुविधा भी लेनी है तो इसके लिये भी समाज को ही आगे आना होगा। 

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